असम में नागरिकता की संकट के बीच CJP हक़ के रास्ते पर अडिग NRC के क़हर के बीच संघर्ष की कहानियां

19, Jun 2023 | CJP Team

असम में 2019 की NRC लिस्ट से क़रीब 19 लाख लोगों के बेदख़ल होने के पहले से CJP की असम टीम ज़मीन पर सक्रिय अडिग कार्यकर्ताओं के ज़रिए नागरिकता संकट से प्रभावित व्यक्तियों की मदद कर रही है. इस सहायता में ट्रिब्यूनल में पेशी के लिए क़ाग़ज़ दुरुस्त करने और क़ानूनी सहायता  से लेकर मनोवैज्ञानिक मदद तक असम की जनता के जीवन का हर वो हिस्सा शामिल है जो नागरिकता पर उठते सवालों के ख़तरे की चपेट में है. एक मोटे अनुमान के हिसाब से CJP हर महीने फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स से जुड़े क़रीब 25 मामलों के हल में मदद करती है. इसके साथ ही CJP हर महीने क़रीब 100 परिवारों को अर्धन्यायिक तौर पर सहयोग भी प्रदान करती है. 

नागरिकता का गहराता ख़तरा असम के लोगों के लिए उन्हें राजनीतिक, आर्थिक और समाजिक रूप से पीछे धकेलने का प्रशासनिक हथकंडा साबित हुआ है. 1964 में भारत सरकार ने एक्ट पारित कर फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल को नागरिकता पर मुहर लगाने के हक़ से लैस कर दिया था जिसके काम करने की प्रक्रिया भी पारदर्शी नहीं है. इस प्रक्रिया में पहचान पर सवाल खड़ा होने के साथ सामाजिक गरिमा का भी हनन होता है. भारत जैसे देश में जहां अधिकतर लगभग 58 फ़ीसद जन्म दर्ज नहीं किए जाते और साक्षरता दर बेहद कम है, क़ाग़ज़ के साथ उपनी नागरिकता का सबूत देना टेढ़ी खीर है.  CJP की सचिव तीस्ता सीतलवाड़ नें FT पर विचार साझा करते हुए कहा कि ‘किसी को विदेशी घोषित करने का आधार एक्ट में स्पष्ट नहीं है, ये फ़ैसला आख़िर में सदस्यों के हाथ में होता है.’ इस दौरान उन्होंने यह भी कहा कि सरकार की NRC की प्रक्रिया को आसान बनाने की कोशिशों में भारी ग़लतियां हैं. व्यवस्था और लागू करने के स्तर पर यह प्रक्रिया गहरी ख़ामियों से भरी है. 

हफ्ते दर हफ्ते, हर एक दिन, हमारी संस्था सिटिज़न्स फॉर पीस एण्ड जस्टिस (CJP) की असम टीम जिसमें सामुदायिक वॉलेन्टियर, जिला स्तर के वॉलेन्टियर संगठनकर्ता एवं वकील शामिल हैं, राज्य में नागरिकता से उपजे मानवीय संकट से त्रस्त सैंकड़ों व्यक्तियों व परिवारों को कानूनी सलाह, काउंसिलिंग एवं मुकदमे लड़ने को वकील मुहैया करा रही है। हमारे जमीनी स्तर पर किए काम ने यह सुनिश्चित किया है कि 12,00,000 लोगों ने NRC (2017-2019) की सूची में शामिल होने के लिए फॉर्म भरे व पिछले एक साल में ही हमने 52 लोगों को असम के कुख्यात बंदी शिविरों से छुड़वाया है। हमारी साहसी टीम हर महीने 72-96 परिवारों को कानूनी सलाह की मदद पहुंचा रही है। हमारी जिला स्तर की लीगल टीम महीने दर महीने 25 विदेशी ट्राइब्यूनल मुकदमों पर काम कर रही है। जमीन से जुटाए गए ये आँकड़े ही CJP को गुवाहाटी हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट जैसी संवैधानिक अदालतों में इन लोगों की ओर से हस्तक्षेप करने में सहायता करते हैं। यह कार्य हमारे उद्देश्य में विश्वास रखने वाले आप जैसे नागरिकों की सहायता से ही संभव है। हमारा नारा है- सबके लिए बराबर अधिकार। #HelpCJPHelpAssam. हमें अपना सहियोग दें।

आफ़त का आंकड़ा 

असम को अपने शिकंजे में समेटे इस आंकड़े ने महिलाओं को सबसे ज़्यादा अपना निशाना बनाया है, फ़िलहाल 2019 की सूची से बेदख़ल नामों में 69% आंकड़ा महिलाओं का है जबकि महिलाओं में न सिर्फ़ शिक्षा की पहुंच कम है बल्कि विवाह के बाद जगह बदल जाने से ज़रूरी क़ाग़ज़ जुटा पाना उनके लिए सबसे ज्यादा चुनौती भरा काम  है. 

फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ही नोटिस जारी कर नागरिकता के मामलों का संज्ञान लेता है,  जिसके एकतरफ़ा फ़ैसलों और प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा आम अवाम को भुगतना पड़ता  है. इन ट्रिब्यूनल्स ने  महिलाओं के अलावा मूल रूप से अल्पसंख्यकों और हाशिये पर जीवन बसर कर रहे कमज़ोर तबक़े को अपना निशाना बनाया है. कई बार नाम में छोटी सी ग़लती के कारण भी किसी इंसान पर संदिग्ध की मुहर लग जाती है. गोलपाड़ा के रहने वाले मल्लाह साकेन अली को कुछ काग़ज़ात में नाम में सिर्फ़ एक ‘H’ न होने के कारण विदेशी घोषित कर दिया गया.  जिसके नतीजे में उन्हें ब्रम्हपुत्र का किनारा और अपना बसेरा छोड़कर क़रीब 5 साल तक डिटेंशन कैंप में गुज़ारना पड़ा. 

 FT में क़रीब 1,19,164 नागरिकता के मामले ठंडे बस्ते में हैं जबकि कुल दर्ज मामलों का आंकड़ा 134365 है जिसमें से 15,201 केस सालाना की धीमी रफ़्तार से ट्रिब्यूनल्स में इन मामलों की सुनवाई जारी है.  इसके साथ ही CJP ने अपने प्रयासों के एवज़ अब तक क़रीब 50 से ज़्यादा लोगों को डिटेंशन कैंप के भयावह माहौल से रिहा किया है. ग़ौरतलब है कि इन कैंप्स में क़रीब 100 लोगों की मौत हो चुकी है, हालांकि सरकारी रिकार्ड में ये आंकड़ा सिर्फ़ 29 दर्ज हुआ है.  सूचना के अनुसार इन कैंप्स में लोग न सिर्फ़ बुनियादी अभावों से गुज़रते हैं बल्कि कैंप्स की इन दीवारों के भीतर गाली-गलौज और शारिरिक, मानसिक प्रताड़ना के हथियारों से मानवाधिकारों का दमन भी किया जाता है.

असम में नागरिकता से बेदख़ल होने के बाद रजिस्टर मे दोबारा दर्ज होने की प्रक्रिया में लोगों ने अब तक करोड़ो रूपये ख़र्च किए हैं. असम जैसा राज्य जिसे शिक्षा, पोषण, बेहतर स्वास्थ्य और रोज़गार मुहैय्या कराने के मुद्दों पर काम करना चाहिए अब नागिरकता के संकट से पनपती मुश्किलों में उलझा है.  CJP इस मुश्किल घड़ी में बीते सालों से लगातार प्रभावित व्यक्तियों के साथ है. सीजेपी के प्रयासों के एवज़ लगभग 12 लाख  NRC फ़ॉर्म्स भरे जा चुके हैं. सीजेपी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में बाल अधिकारों का सशक्त पैरवी के बाद अब शीर्ष अदालत ने ये फ़ैसला सुनाया है कि NRC से दरकिनार किया गया कोई भी बच्चा अब क़ानूनी तौर पर न तो डिटेंशन कैंप भेजा जा सकता है न ही उसे उसके माता-पिता से अलग किया जा सकता है. यह फ़ैसला भी CJP की कोशिश की कड़ी में एक बड़ी जीत के तौर पर दर्ज किया जा सकता है.  तीन नाबालिग़ बच्चों के पिता हस्मत अली के बच्चों का नाम भी इस लिस्ट से बाहर था जिसके बाद काफ़ी मशक्कत से गुज़रते हुए उन्हें दोबारा नाम रजिस्टर करने की मुश्किलों से दो-चार होना पड़ा. नागरिकता का ये विकराल संकट बच्चों और बड़ों सभी के लिए वक़्त की मार की तरह है जिसने उन्हें पहचान के अंधेरे कटघरे में धकेलकर आर्थिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर तोड़ कर रख दिया है. 

असम के ज़िलों में नागरिकों को क़ानूनी संबल देले के लिए किसी व्यवस्था का अभाव है लेकिन सीजेपी के साथी इनके साथ लगातार खड़े रहे हैं.  CJP के आंकड़ों के मुताबिक़ एक केस लड़ने पर क़रीब 10,000 के औसत अनुमानित ख़र्च आता है.  

CJP की मुहिम

असम में संकट की इस कड़ी को तीन हिस्सों में परखा जा सकता है- घोषित विदेशी, संदिग्ध विदेशी तथा डी वोटर यानि डाउटफ़ुल वोटर.  डी-वोटर प्रमाणित करने का हक़ चुनाव आयोग के तालूका स्तर के अधिकारियों के पास है. इसका अर्थ ये भी है कि एक जगह नागरिकता साबित करने के बाद दोबारा उन्हें कटघरे मे खड़ा किया जा सकता है. जैसे कि उस्मान अली जिन्हें 1999 में पेशी के दौरान तो भारतीय होने का तमग़ा मिल गया था लेकिन फिर 2017 में उन्हें FT के सामने अपनी नागरिकता का सबूत देना पड़ा और 2022 में तीसरी बार उन्होंने इसी सवाल का सामना किया.  पेशे से मज़दूर और आर्थिक तौर पर पिछड़े तबक़े से नाता रखने वाले मज़दूर उस्मान अली के लिए ये किसी क़हर से कम नहीं था. हालांकि उनका मामला यह भी बताता है कि कमज़ोर वर्ग ही इन ट्रिब्यूनल्स का पहला निशाना है.  

CJP की असम टीम ऐसे मामलों की शिनाख़्त करने और उनकी गंभीरता की जांच करने के मक़सद से लगभग हर सप्ताह 10 ज़िलों के बूथ आफ़िसर्स और प्रभावित व्यक्तियों से मिलती है.  इस दरमियान अनेक ऐसे लोग रौश्नी में आए हैं जिन्होंनें किसी एक गांव में पूरा जीवन बसर कर दिया और आज उनकी नागरिकता भी सवालों के शिकंजे में है. ये हालात हताश करने वाले हैं इसलिए CJP की टीम ने निजी संबल प्रदान करने में भी सक्रियता दिखाई है. CJP की DVM [District wise Volunteer Motivators] टीम इनके लिए लगातार काम रही है.  राशन, भोजन, इंसानियात और प्यार सबकी बुनियादी ज़रूरत है. मानवाधिकारों के लिए आवाज़ उठाने के इतिहास में CJP  की ये पहल ताज़ादम और ऐतिहासिक है. 

संघर्ष की कड़ी 

CJP की असम टीम नागरिकता के संकट को टटोलकर हल पेश करने की क़वायद में आय दिन संघर्ष की अनगिनत कहानियों से दो-चार होती है. ग़रीब, भिखारी, अपाहिज, बेसहारा नागरिकता के इस संकट ने किसी को नहीं बख़्शा है. FT के निशाने की साध पर सबसे पहला दर्जा महिलाओं का है, इसलिए CJP ने इन्हें मदद करने में औसत से कहीं ज़्यादा हौसले का परिचय दिया है.  

हाजिमा ख़ातून –  आर्थिक रूप से हाशिये पर बसर कर रहे तबक़े से नाता रखने वाली हाजिमा ख़ातून को 2020 में FT ने संदिग्ध विदेशी का नोटिस जारी किया था. 1977 में गारूगांव में जन्मी हाजिमा का विवाह बांगेगांव के एक दिहाड़ी मज़दूर ज़ुल्फ़ेक़ार अली से हुआ था. उनपर सबसे पहली बार मामला 2007 में दर्ज किया गया था. दस्तावेज़ पुष्ट करने की लड़ाई में CJP की अगुवाई के बाद बहरहाल अब उन्होंने अपनी नागरिकता साबित कर ली है. 

समीरन बीबी  संकट के शिकंजे ने 67 साल की बुज़ुर्ग महिला समीरन बीबी को डी-वोटर घोषित कर दिया था. वोटर लिस्ट में भी लंबे अरसे से उनकी मौजूदगी डी-वोटर के तौर पर ही दर्ज है. वो असम के बारपेटा ज़िले की रहने वाली एक बेवा महिला हैं.  जनवरी 2023 में टीम के सप्ताहिक कार्यक्रम के दौरान CJP के जाबाज़ कार्यकर्ताओं ज़फ़र अली और महिबुल हक़ से संपर्क के बाद उनका मामला का संज्ञान में आया. फ़िलहाल CJP के दख़ल के बाद समीरन के पास अब एक सहारा है. न्याय की कड़ी में उनके काग़ज़ात दुरूस्त करने की दिशा में काम लगातार जारी है. 

हसन अली- हसन अली का मामला इस कड़ी में सबसे अलग है. जुलाई 2018 में नागरिकता रजिस्टर से बेदख़ल होने के बाद आर्थिक रूप  से पिछड़े तबक़े से नाता रखने वाले हसन अली गहरी हताशा का सामना कर रहे थे.  नागरिकता सिद्ध करने के पेचीदा मामले का कोई फ़ौरी हल न पाकर उन्होंने मार्च 2019 में आत्महत्या की तरफ़ क़दम बढ़ा लिया था. सीजेपी ने उनकी नाज़ुक मानसिक हालत में साथ दिया और अगस्त 2019 में जारी लिस्ट में उनका नाम सुनिश्चित हो सका. 

पार्बती दास –  FT द्वारा  73 साल की पार्बती दास को भी बांग्लादेशी घुसपैठिया क़रार देकर कोकराझार डिटेंशन कैंप में भेज दिया गया था.  काग़ज़ पर अपने माता- पिता की संतान होना साबित कर पाना उनके लिए बड़ी चुनौती थी लेकिन केस में सीजेपी के दख़ल के बाद उन्होंने ट्रिब्यूनल के सामने सफलतापूर्वक अपना पक्ष साबित कर लिया.  

पूर्णिमा विश्वास – इसी तर्ज़ पर असम में भूटान की सीमा से लगे चिरांग ज़िले की पूर्णिमा विश्वास को  FT ने संदिग्ध आतंकी का नोटिस जारी कर डिटेंशन कैंप में भेज दिया था. कोविड के ख़तरनाक दौर के बीच CJP नें उनकी लड़ाई का बीड़ा उठाया जिसके एवज़ उन्हें 13 मई 2020 के क़रीब कंडीशनल बेल मिल गई. इन दिनों वो कैंप में गुज़रे दिनों के दौरान अपने पति को अंतिम विदाई न दे पाने के आघात से उबर रही हैं. 

अनवरा ख़ातून– सीजेपी ने क़रीब 8 महीने की क़ानूनी लड़ाई के बाद अनवरा ख़ातून के केस में भी सफलता हासिल कर ली है. वो असम का दारंग ज़िले के खारूपेटिया पुलिस चौकी में आने वाले  नागाजन गांव की रहने वाली हैं. FT ने उन्हें विदेशी का नोटिस जारी किया था लेकिन 1997 की वोटर लिस्ट में नाम, ज़मीन व आधार के काग़ज़ात के साथ CJP की अगुवाई में उन्होंने जीत हासिल कर ली है. 

शांति बसफोर– शांति बसफोर का मामला काफ़ी पेचीदा है. विदेशी घोषित होने के बाद उन्होंने 3 बेशक़ीमती साल कोकराझर के डिटेशन कैंप में गुज़ारे हैं. सभी ज़रूरी काग़ज़त मुहैय्या होने के बावजूद उन्हें 2017 में नोटिस जारी किया गया था. 2021 में कोरोना के कठिन दौर में एक नए संकट का पहाड़ सिर पर टूटने के बाद भी CJP टीम लगातार इनके साथ बनी रही और आख़िर में 2021 में उन्हें डिटेंशन कैंप की यातना से मुक्ति मिल गई. 

सुकुर अली   माता-पिता की अकेली संतान सुकुर अली को FT ने बांग्लादेशी शरणार्थी बताते हुए नोटिस जारी किया था जबकि उनका नाम 2019 की NRC लिस्ट में शामिल है और उनकी माता का नाम भी वोटर लिस्ट में दर्ज है.  ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में CJP की असम टीम नें उन्हें संबल दिया और उन्होंने ट्रिब्यूनल के सामने अपनी नागरिकता साबित कर ली. 

सीजेपी की कोशिश है कि नागरिकों को मूल संवैधानिक अधिकारों के भेद न किया जाए.  जीवन और पहचान पर सवाल उठाकर उन्हें त्रासदी के अनंत अंधेरे में क़ैद न किया जाए. CJP ने असम में हताशाओं के बीच में भी उम्मीद की लौ क़ायम रखी है. असम में नागरिकता के सवाल पर हर मुमकिन तरीक़े से CJP ने इंसाफ़ का रास्ता साफ़ करने की कोशिश की है.

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