“तौबा तौबा” से लेकर “घुसपैठिया को निकालो” तक: बिहार चुनावी माहौल में अलगाव की भाषा” CJP की शिकायतें दर्शाती हैं कि कैसे बीजेपी नेताओं के भाषणों ने चुनावी चर्चा को केवल सरकार चलाने के मुद्दे से बहिष्कार और अलगाव के मुद्दे तक बदल दिया और नागरिकता को ही चुनावी सवाल बना दिया।

05, Nov 2025 | CJP Team

बिहार में बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं ने 16 से 24 अक्टूबर 2025 के बीच चार भाषण दिए, जिनका नैरेटिव लगभग एक जैसा था। हर भाषण की शुरुआत धर्म या जनकल्याण की बातें करके हुई, फिर बात पार्टी के प्रति आभार या कर्ज चुकाने की भावना पर आई और आखिर में एक “भीतरी दुश्मन” की ओर इशारा किया गया – कभी उन्हें “घुसपैठिया”, कभी “नमकहराम” या फिर मुस्लिम पहचान वाले लोगों के रूप में बताया गया।

सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) ने आचार संहिता (Model Code of Conduct) के दौरान चुनाव आयोग (ECI) में तीन अलग-अलग शिकायतें दर्ज कीं। इन शिकायतों में चुनावी कानूनों और आपराधिक धाराओं के उल्लंघन का हवाला दिया गया था। दो दिन बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सीवान में चौथा भाषण दिया – जिसने उस क्रम को पूरा किया, जिसकी झलक दर्ज की गई शिकायतों में दिखाई देने लगी थी।

इन चारों भाषणों को मिलाकर देखने पर एक लगातार बढ़ती हुई धमकी की कहानी सामने आती है। शुरुआत होती है धार्मिक भावनाओं का मजाक उड़ाने से, फिर होती है लोगों पर दबाव डालकर वफादारी या समर्थन की कसौटी लगाना और आखिर में पूरे समुदाय को निशाना बनाकर धमकी देना या डराना।

सीजेपी हेट स्पीच के उदाहरणों को खोजने और प्रकाश में लाने के लिए प्रतिबद्ध है, ताकि इन विषैले विचारों का प्रचार करने वाले कट्टरपंथियों को बेनकाब किया जा सके और उन्हें न्याय के कटघरे में लाया जा सके। हेट स्पीच के खिलाफ हमारे अभियान के बारे में अधिक जानने के लिए, कृपया सदस्य बनें। हमारी पहल का समर्थन करने के लिए, कृपया अभी दान करें!

गिरीराज सिंह के खिलाफ शिकायत

तारीख और स्थान: 18 अक्टूबर (अरवल) और 19 अक्टूबर (बेगूसराय), 2025

केंद्र सरकार के मंत्री गिरीराज सिंह के ये दो भाषण इस कड़ी की शुरुआत हैं। अरवल में उन्होंने एक कहानी सुनाई जिसमें “मौलवी” और आयुष्मान कार्ड का जिक्र था और पूछा कि क्या वह व्यक्ति मोदी सरकार से मिले लाभ के लिए “खुदा की कसम” खाएगा। सिंह ने कहा, “मुझे नमकहराम लोगों के वोटों की जरूरत नहीं” जिससे जन-कल्याण के प्रति आभार को राजनीतिक वफादारी की धार्मिक कसौटी में बदल दिया गया।

एक दिन बाद बेगूसराय में, गिरीराज सिंह ने शब्द “हराम” का जिक्र अपमानजनक तरीके से किया,
और उन मुसलमानों की धर्म और नैतिकता पर सवाल उठाया, जो सरकारी योजनाओं का लाभ तो ले रहे थे लेकिन बीजेपी को वोट नहीं दे रहे थे। शिकायत में इन बयानों को “दबाव डालने वाले और सांप्रदायिक” बताया गया है। ये बयान आचार संहिता (MCC) में धार्मिक अपील पर लगे प्रतिबंध का उल्लंघन करते हैं, और Representation of the People Act, 1951 की धारा 123(2) के तहत “अनुचित प्रभाव (undue influence)” का मामला बनाते हैं।

CJP की शिकायत में चुनाव आयोग से तत्काल कार्रवाई की मांग की गई, जिसमें गिरीराज सिंह को शो-कॉज़ नोटिस जारी करना, BNS की उन धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज करना, जो द्वेष और वैमनस्य फैलाने से संबंधित हैं और संबंधित वीडियोज़ को सार्वजनिक रूप से हटाना शामिल थे। शिकायत में सिंह की भाषा को “अपमान के जरिए जनता की वफादारी की परीक्षा” के रूप में जिक्र किया गया।

पूरा शिकायत पत्र नीचे पढ़ा जा सकता है।

 

अशोक कुमार यादव के खिलाफ शिकायत

तारीख: 16 अक्टूबर, 2025
स्थान: दरभंगा (केओटी विधानसभा क्षेत्र)

तीन दिन पहले, मधुबनी सांसद अशोक कुमार यादव ने एक सार्वजनिक रैली में “मुस्लिम भाइयों” से कहा, “कह दो ‘तौबा तौबा’, मैं मुफ्त अनाज नहीं लूंगा; गैस सिलेंडर नहीं लूंगा; मोदी जी द्वारा बनी सड़क पर नहीं चलूंगा; मोदी जी द्वारा बने पुल को पार नहीं करूंगा।”

सभागार में लोग हंसे, लेकिन शिकायत ने नहीं। CJP की शिकायत में इसे “धार्मिक प्रथा का मजाक उड़ाना और लोगों से उनके अधिकारों का सार्वजनिक त्याग करवाना” बताया गया है, जो कि विशेष समूह पर मानसिक दबाव डालने के बराबर है। शिकायत में RPA की धारा 123(2), 123(3), 123(3A) और BNS की धारा 196 और 297 का हवाला दिया गया है, जो नफरत फैलाने और सार्वजनिक शांति के लिए हानिकारक कृत्यों को अपराध मानती हैं।

कल्याणकारी योजनाओं के इस्तेमाल को राजनीतिक निष्ठा और आस्था को विश्वासघात के बराबर बताकर, यादव के भाषण ने नागरिकता को सशर्त के रूप में परिभाषित किया। उन्होंने धार्मिक शब्द “तौबा तौबा” का इस्तेमाल राजनीतिक समर्थन जुटाने के लिए किया, जिससे पश्चाताप का शब्द एक तरह की सार्वजनिक सज़ा बन गया।

पूरा शिकायत पत्र नीचे पढ़ा जा सकता है।


नित्यनंद राय के खिलाफ शिकायत

तारीख: 22 अक्टूबर, 2025
स्थान: हायाघाट, दरभंगा

जब केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय हायाघाट में मंच पर गए तो माहौल गरमा गया। उनका भाषण मजाक से आगे बढ़कर राष्ट्रवाद, धर्म और विदेशी-द्वेष पर केंद्रित हो गया। उन्होंने अपनी बात शुरू करते हुए कहा, “मैं सिर्फ एक हिंदू के रूप में, सिर्फ इसी भारत में जन्म लेना चाहता हूं। हम कृष्ण की शिक्षाओं पर चलते हैं।” फिर उन्होंने अपनी बात को मोड़ते हुए कहा, “रेशमी सलवार और टोपी पहनने वाले लोग गीता के संदेश के खिलाफ हैं। कुछ लोग बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों को लाकर बिहार के युवाओं की रोजी-रोटी छीनना चाहते हैं। आप इन घुसपैठियों को मतदाता सूची में शामिल नहीं कर सकते।”

शिकायत में इस बात की गंभीरता पर ध्यान दिलाया गया कि गृह मंत्रालय का एक अधिकारी आचार संहिता (MCC) लागू होने के दौरान विदेशी-विरोधी (xenophobic) बातें बोल रहा था। शिकायत में तर्क दिया गया कि जब आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार मंत्री इस तरह के भाषण देते हैं, तो इसका प्रभाव “राज्य नीति” के बराबर होता है। शिकायत में मंत्री को शो-कॉज़ नोटिस जारी करने, एफआईआर दर्ज करने और मंत्री के कोड उल्लंघन के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) को मामला भेजने की मांग की गई।

कानूनी भाषा में, राय के भाषण में तीन अलग-अलग अपराधों के मामले हैं: वोट के लिए धर्म की अपील, एक धार्मिक समूह की निंदा और प्रशासनिक बहिष्कार की धमकी देने के लिए मंत्री पद का इस्तेमाल। राजनीतिक दृष्टि से, यह भाषण पूर्वाग्रह को पवित्रता का दर्जा देता है और इसे राज्य की सत्ता में समाहित कर देता है।

पूरी शिकायत नीचे पढ़ी जा सकती है।

 

सीवान में अमित शाह: क्रम पूरा हुआ

तारीख: 24 अक्टूबर, 2025

स्थान: सीवान, बिहार

वक्ता: केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह

दो दिन बाद, सीवान में अमित शाह के चुनावी भाषण ने इस नैरेटिव को सबसे स्पष्ट रूप से सामने ला दिया। उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर को आस्था और राजनीतिक इच्छाशक्ति की जीत बताया, मतदाताओं से पूछा कि क्या वे इसका समर्थन करते हैं और तुरंत “घुसपैठियों” के सवाल पर आ गए।

“राहुल बाबा कहते हैं कि हमें बिहार में ‘घुसपैठिया’ को इजाज़त देनी चाहिए। सीवान वालों, मुझे बताओ – इन घुसपैठियों को हटाया जाना चाहिए या नहीं? इनका नाम वोटर लिस्ट में होना चाहिए या नहीं? मैं वादा करता हूं, एनडीए के दोबारा जीतने पर भाजपा एक-एक घुसपैठिए की पहचान करके उन्हें देश से बाहर निकाल देगी।”

उन्होंने आखिर में कहा: “वे हमारे युवाओं की नौकरियां और हमारे गरीबों का राशन छीन रहे हैं। ये घुसपैठिए राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं। भाजपा उन्हें एक-एक करके चुन-चुनकर बाहर निकालने पर तुली है।”

गिरिराज सिंह के जबरदस्ती के मजाक से शुरू होकर राय के पवित्र राष्ट्रवाद तक पहुंचने वाले इस सिलसिले में, शाह के शब्द इस क्रम में शीर्ष पर थे: उनकी बातों में साफ-साफ पहचान करने और निकालने की धमकी थी और उन्होंने भविष्य की सरकार को एक ‘भीतरी दुश्मन’ को हटाने से जोड़ दिया।

एमसीसी लागू होने के बाद दिया गया यह भाषण महज़ एक राय नहीं था बल्कि यह राज्य द्वारा कार्रवाई का एक चुनावी वादा था। एक साझा राजनीतिक तर्क चारों भाषणों में, तीन परस्पर जुड़ी रणनीतियां उभर कर सामने आती हैं:

  1. कल्याणकारी योजनाओं को राजनीतिक कर्ज के रूप में: कल्याणकारी योजनाओं – राशन, गैस सिलेंडर, आयुष्मान कार्ड – को अधिकार के रूप में नहीं, बल्कि राजनीतिक निष्ठा के जरिए चुकाए जाने वाले उपकार के रूप में पेश किया जाता है। जो लोग ऐसा करने से इनकार करते हैं, उन्हें “आभारी न होना” या “नमकहराम” करार दिया जाता है।
  1. धर्म एक लामबंदी का जरिया: चुनावी अपीलों में पवित्र संदर्भों को अनायास ही शामिल कर लिया जाता है। “खुदा की कसम,” “तौबा-तौबा,” “मैं सिर्फ हिंदू के रूप में पैदा होना चाहता हूं,” “राम मंदिर” – हर आह्वान धर्म से नैतिक वैधता हासिल करता है और उसे पार्टी की पहचान से जोड़ देता है।
  1. ‘“घुसपैठिया” की धारणा नैरेटिव को आस्था से जुड़े विषय से “सामूहिक पहचान और अधिकार” के मुद्दे तक ले जाती है। यह एक समुदाय की पहचान करती है – संकेत रूप में मुस्लिम, स्पष्ट रूप से बंगाली बोलने वाले या रोहिंग्या – जिन्हें बाहरी और सुविधाओं, नौकरियों और राशन पर हक हड़पने वाला बताया जाता है। इससे चुनावी अभियान केवल आभार जताने और अपमानित करने तक सीमित नहीं रह जाता, बल्कि बहिष्कार और धमकी देने तक पहुंच जाता है।

प्रत्येक रणनीति अगली रणनीति को मजबूत करती है। आभारी का हायरआर्की स्थापित करती है, धर्म निष्ठा को पवित्र बनाता है और “घुसपैठिया” का नामाकरण राजनीतिक विरोधियों को अस्तित्व के लिए खतरा बना देता है। ये सब मिलकर कल्याणकारी नीति, धार्मिक पहचान और नागरिकता की स्थिति के बीच के फर्क को कम कर देते हैं।

कानूनी उल्लंघन और लोकतांत्रिक नुकसान

ये तीनों शिकायतें सामूहिक रूप से आदर्श आचार संहिता, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और भारतीय न्याय संहिता के अंतर्गत आती हैं। आदर्श आचार संहिता के तहत, पार्टियों को चुनावी लाभ के लिए धर्म, जाति या सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने और मंदिरों, मस्जिदों या धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करने से प्रतिबंधित किया गया है। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद अक्टूबर 2025 की शुरुआत में बिहार में आदर्श आचार संहिता लागू हो गई।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत, ये भाषण “भ्रष्ट आचरण” की कई परिभाषाओं के अंतर्गत आते हैं:

  • धारा 123(2) – जबरदस्ती या धमकी के जरिए अनुचित प्रभाव डालना।
  • धारा 123(3) – वोट के लिए धर्म का सहारा लेना।
  • धारा 123(3ए) – चुनावी लाभ के लिए दुश्मनी या नफरत को बढ़ावा देना।
  • धारा 125 – चुनावों के संबंध में विभिन्न वर्गों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने का अपराध।

भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस), जिसने 2023 में आईपीसी का स्थान ले लिया, धारा 196, 297 और 356 के माध्यम से इस ढांचे को और मजबूत करती है, जिसमें दुश्मनी को बढ़ावा देना, धर्म का अपमान करना और सार्वजनिक उत्पात मचाना अपराध माना गया है।

प्रत्येक शिकायत में इन प्रावधानों को लागू करने की मांग की गई है: चुनाव आयोग द्वारा कारण बताओ नोटिस, पुलिस द्वारा एफआईआर और वक्ताओं को आगे प्रचार करने से रोकना।

कानूनी सार स्पष्ट है: ये केवल शिष्टाचार में चूक नहीं हैं बल्कि प्रथम दृष्टया ऐसे अपराध हैं जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के संवैधानिक वादे को कमजोर करते हैं।

बढ़ते तनाव का चक्र

क्रमशः पढ़ने पर, चारों भाषणों में शैली और सत्ता के प्रति संस्थागत निकटता, दोनों में स्पष्ट वृद्धि दिखाई देती है:

  • अशोक यादव का भाषण मजाक से शुरू होता है।
  • गिरिराज सिंह शपथ और सार्वजनिक रूप से शर्मसार करने के जरिए अपमान को और बढ़ा देते हैं।
  • नित्यानंद राय, गृह मंत्रालय के एक मौजूदा अधिकारी के रूप में, धर्म और राष्ट्रीय सुरक्षा को एक साथ लाते हैं।
  • अमित शाह बयानबाजी को निकाले जाने के स्पष्ट वादे में बदलकर चक्र पूरा करते हैं।

यह क्रम अनायास नहीं है। यह एक परखे हुए चुनावी व्याकरण को उजागर करता है जहां हर कदम अगले को सामान्य बना देता है: जो मजाक के रूप में शुरू होता है, वह नीति के रूप में समाप्त होता है।

बड़ा दांव

ये घटनाएं सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं हैं। ये भारतीय चुनावी भाषणों में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा करती हैं जहां सांप्रदायिक बयानबाजी और प्रशासनिक नीति के बीच की दूरी खत्म हो गई है। जब वरिष्ठ मंत्री बहिष्कार की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, तो खतरा काल्पनिक नहीं रह जाता-इसमें नौकरशाही की विश्वसनीयता भी छिपी होती है।

धर्म, भाषा या मूल से पहचाने जाने वाले मतदाताओं के लिए, ऐसे भाषण नागरिकता और संदेह के बीच की रेखा को धुंधला कर देते हैं। जब कल्याण सशर्त हो जाता है, धर्म चुनावी मुद्रा बन जाता है और “घुसपैठिया” शासन की एक श्रेणी बन जाता है, तो एक समान नागरिक के रूप में भागीदारी के अधिकार की जगह चुपचाप वफादारी की परीक्षा ले लेती है।

निष्कर्ष

कोड ऑफ कंडक्ट के दौरान सीजेपी द्वारा दर्ज की गई शिकायतें छिटपुट अपराधों से कहीं ज्यादा हैं; वे चुनावी संवाद की एक सोची-समझी रणनीति को उजागर करती हैं। अशोक यादव के “तौबा-तौबा” से लेकर अमित शाह के “हर घुसपैठिये को निकालो” तक का क्रम दर्शाता है कि लोकलुभावन राजनीति कितनी आसानी से कल्याण को दासता में, आस्था को निष्ठा में और नागरिकता को पहचान पर निर्भर विशेषाधिकार में बदल देती है।

अगर चुनाव आयोग और पुलिस कार्रवाई करने में विफल रहे, तो एक मिसाल कायम हो जाएगी: समुदायों को बाहर करने का वादा करने वाले भाषण उन्हीं कानूनों के संरक्षण में दिए जा सकते हैं जो उन्हें रोकने के लिए बनाए गए हैं।

आखिर में, बिहार की इन रैलियों में जो सवाल गूंज रहा है, वही सवाल खुद अमित शाह ने सीवान में पूछा था: “क्या उनके नाम मतदाता सूची में होने चाहिए या नहीं?” अगर लोकतंत्र का असली मतलब बचाना है, तो इसका निर्णय केवल चुनावी सभा या भाषण सुनने वाली भीड़ से नहीं होना चाहिए।
यह हर नागरिक का अटूट अधिकार होना चाहिए, जो धर्म, डर या राजनीतिक लाभ से प्रभावित न हो।

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