मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार! क्या हम एक जेनोसाइड की तरफ बढ़ रहे हैं? उन्हें अलगाव में डालना दरअसल उनके खिलाफ हिंसा भड़का सकता है
19, Apr 2022 | CJP Team
हिजाब-विवाद के बाद से कर्नाटक के मंदिरों के आस-पास मुसलमानों के व्यापार-धंधों पर पाबंदी लगा दी गई। इसकी शुरुआत शिवमोगा के मरिकम्बा मंदिर से हुई। फिर दक्षिणी कर्नाटक के हसन, तम्कूर, चिकमगलूर सहित अन्य जिलों के मंदिरों में भी ऐसा ही किया गया।
ऐसी भी रिपोर्ट है किइनमें से कुछ मंदिरों के बाहर ऐसे बैनर लगाए गए जिनपर मुसलमानों को लीज पर स्टाल देने की मनाही की गई थी।द प्रिंट के अनुसार विश्व हिंदू परिषद, हिंदू जागरण वेदिका और बजरंग दल जैसे हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा मंदिरों और म्युनिसिपल अधिकारियों तथा नगरपरिषदों को मेमोरेंडम देकर यह मांग की गई कि मुसलमानों को स्टाल देने पर रोक लगाई जाए।
यह बात तब सामने आई जब 23, मार्च 2022 को कांग्रेस के विधायक यूटी खादर ने विधानसभा में जीरो ऑवर के दौरान इस मामले को उठाया। कर्नाटक सरकार ने हिंदू रिलीजियस इंस्टिट्यूशंस एंड चैरिटीबल एंडोमेंट रूल्स, 2002 के रूल 31, सब-रूल 12 का हवाला देते हुए अपना बचाव किया। वस्तुतः यह रूल गैर-हिंदूओं को मंदिर और उसके इर्द-गिर्द के क्षेत्रों में जमीन और इमारतों को लीज पर देने पर प्रतिबंध लगाता है।इस नियम का रूल 31(12)कहता है कि“ऐसे धार्मिक संस्थानोंके आस-पास की जमीन, बिल्डिंग या जगह समेत कोई भी प्रॉपर्टी गैर हिंदूओं को लीज पर नहीं दी जाएगी।”
विधानसभा में राज्य के कानून मंत्री जेसी मधुस्वामीने इस कानून के हवाले से बताया, “यदि हाल के दिनों में धार्मिक संस्थानों के परिसरों के बाहर मुस्लिम व्यापारियों पर प्रतिबंध लगाने की घटनाएं हुई हैं तो हम उन्हें सुधारेंगे,पर मानदंडों के अनुसार इन परिसरों में किसी गैर-हिंदू समुदाय को दुकान लगाने की इज़ाजत तो नहीं है।”
जेसी मधुस्वामी का बचाव करते हुए कर्नाटक के मुख्यमंत्री बासव राज बोम्मई ने कहा “ऐसी जात्राओं (धार्मिक मेलों) में बहुत सारी दुकानेंलीज पर दी जाती हैं। मंदिर के प्रबंधन बोर्ड से जो लोग उन्हें लीज पर लेते हैं, उनका उद्देश्य सिर्फ कमाई करना होता है। अतः सरकार इसमेंहस्तक्षेप नहीं कर सकती। भविष्य में जब ऐसे मामले सामने आते हैं,तो हम उन्हें कानून के मुताबिक और तथ्यों के आधार पर देखेंगे।”
दूसरी ओर,भाजपा नेता एएचविश्वनाथ ने इस सवाल पर कर्नाटक की अपनी पार्टी और अन्य जगहों पर अपनी सरकारों के रूख के बिलकुल विपरीत बात रखी। उन्होंनेमुसलमानों को उनकी आजीविका से वंचित करने और उनमें सामाजिक विभाजन तथा फूट पैदा करने जैसे राजनीतिक कदमों की निंदा की और ऐसे शर्मनाक प्रयासों का कड़ा विरोध जताया।इस पूर्व कांग्रेस नेता और वर्तमान विधानसभा सदस्य ने साफ-साफ कहा, “कोई भी ईश्वर या धर्म ऐसा नहीं कहता। धर्म समावेशी होते हैं, बहिष्कृत करने वाले नहीं।” उन्होंने आगे कहा “यह अत्यंत खेदपूर्ण स्थिति है। इस मामले में सरकार को अवश्य कार्रवाई करनी चाहिए, नहीं तो लोगों में नकारत्मक प्रतिक्रिया होगी।लोगों को अपनी रोटी-कपड़े के लिए आजीविका की जरूरत है।ऐसे में उस लोकतंत्र, धर्म और जाति का क्या मतलब जो उन्हें आजीविका का कोई साधन उपलब्ध नहीं करा सकते, भाड़ में जाएं वे। जब हम दो जून का भोजन नहीं जुटा सकते तो फिर हम इस दुनिया में खोज क्या रहे हैं?”
2009 में मंगलूर के पब हमले के दौरान, जिसमें महिलाओं के खिलाफ जबरदस्त हिंसा हुई थी,कुख्यात हुए श्री राम सेना के प्रमुख प्रमोद मुतालिक ने इस सवाल पर बेशर्मी के साथ अपनी प्रतिक्रिया दी।द टेलीग्राफ के अनुसार अपने महिला विरोधी बयानों के लिए लगातार चर्चित रहे इस हेट ऑफेंडर ने कहा कि जब तक मुसलमान बीफ खाना बंद नहीं करते तब तक उनपर यह प्रतिबंध जारी रहेगा।
भाजपा ने विपक्ष पर सारा दोष मढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भाजपा की राज्य सरकार ने विधानसभा में कहा कि मंदिरों के आस-पास के क्षेत्रों में जमीन और इमारतों को गैर-हिंदूओं को लीज पर नहीं देने का कानून 2002 में बनाया गया था और तब कांग्रेस की सरकार थी।
2002 में ऐसे कानून बनाने का कारण बताते हुए पूर्व मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा, जो तब कांग्रेस में हुआ करते थे, ने कहा, “उस समय जब गैर-हिंदूओं को मंदिर के निकट व्यापर-धंधों की इज़ाजत नहीं दी गई थी तब हिंदूओं को भी मस्जिद और चर्च के निकट व्यापर-धंधों की इज़ाजत नहीं थी। ये निर्णय धार्मिक आधार पर नहीं बल्कि संबंधित धर्मों के विक्रेताओं को सहूलियत देने की दृष्टि से लिए गए थे।”
इस सिलसिले में सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार करने की अपीलों के पीछे मौजूद पैटर्न ज़्यादा चिंताजनक है। ये अपीलें,कर्नाटक में, जहाँअगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, एक खास शक्ल अख्तियार करती जा रही हैं। कर्नाटक के साथ-साथ भारत के अन्य हिस्सों में भी ऐसी घटनाओं का सिलसिला सामने आ रहा है। मंदिरों के आयोजनों में मुसलमान विक्रेताओं और व्यापारियों पर सिर्फ प्रतिबंध ही नहीं लगाए जा रहे, बल्कि उन्हें मंदिरों की ओर जाने वाली सड़कों पर भी कारोबार के लिए जगह नहीं दी जा रही। यह उनकी आजीविका पर एक गंभीर और सुनियोजित हमला है और संविधान के अनुच्छेद 14, 15(1) और 15(2) का सीधा उल्लंघन है।
रिलीजियस इंस्टिट्यूशंस एंड चैरिटीबल एंडोमेंट एक्ट, 1997 क्या है, इसे कैसे गलत तरीके से लागू किया गया।
इस विधेयक के स्टेटमेंट में इसके उद्देश्यों और उसे लाने के कारणों के बारे में बताया गया है।1997 में कर्नाटक सरकार ने इस विषय पर पहले के कई स्थानीय कानूनों को हटाकर पूरे राज्य में ‘एकरूपता’ लाने के लिए एक नया कानून लाने का निर्णय किया ताकि राज्य के सभी धर्मार्थ किए गए दानों और हिंदू धार्मिक संस्थानों का नियमन किया जा सके।
दशकों पहले कई राज्यों में इसी तरह के कानून बनाए गए थे। 1959 में तमिलनाडु, 1951 में मद्रास और 1987 में आंध्रप्रदेश में ऐसे ही कानून बने थे। इनका उद्देश्य मंदिरों और उनसे जुड़ी धर्मार्थ संपत्तियों की देख-रेख करना और उनका नियंत्रण करना था।
कर्नाटक के कानून का अगर गहराई से अध्ययन करें तो इसके इरादों का पता चलता है। लगता है कि ये कानून मंदिरों और उन्हें धर्मार्थ दी गई या उनसे जुड़ी संपत्तियों की सही-सही देख-रेख, उनके संरक्षण और सुरक्षा के लिए बनाए गए हैं, ताकिउनमें आस्था रखने वाले लोगों द्वारा दान के रूप में दी गई महत्त्वपूर्ण संपत्तियों का गलत इस्तेमाल नहीं किया जा सके और उनके विश्वास को बनाए रखा जा सके।
गौरतलब है कि कर्नाटक हिंदू रिलीजियस इंस्टिट्यूशंस एंड चैरिटीबल एंडोमेंट रूल्स, 2002 का रूल 31 केवल इस कानून के तहत आनेवाले अधिसूचित संस्थानों की अचल संपत्तियों की लीज और नवीनीकरण की शर्तों की बात करता है। रूल 31 का सब रूल 12 किसी अचल संपत्तिमसलन हिंदू संस्थानों और मंदिरों के इर्द-गिर्द की जमीन, मकानों और जगहों को गैर-हिंदूओंको लंबी अवधि की लीज पर उठाने पर प्रतिबंध लगाता है।
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की कर्नाटक इकाई ने राज्य के मुख्यमंत्री बोम्मई और राज्यपाल तंवर चंद गहलोत को संबोधित करते हुए लिखा है, “यह प्रावधान की जानबूझकर की गई गलत व्याख्या है। दरअसल रूल 31 केवल मंदिर की अचल संपत्तियों को लंबी अवधि की लीज पर उठाने से संबंधित है। (यह अवधि जमीन के लिए तीस साल तथा दुकान और मकानों के लिए पांच साल है)।यह प्रावधान कम अवधि के लिए दिए जाने वाले लाइसेंसों से इत्तेफाक नहीं रखता, जिनके जरिए विभिन्न त्योहारों में विक्रेताओं को स्टाल और जगह आवंटित की जाती है।यहाँ सवाल अचल संपत्तियों को लीज पर देने का नहीं, बल्कि अस्थायी रूप से स्टाल लगाने के लिए कम अवधि के लाइसेंस देने का है (जिन्हें आसानी से हटाया भी जा सकता है)।”
कर्नाटक पीयूसीएलके दोनों अध्यक्षों, बैंगलोर निवासी अरविंद नारायण एवं शुजायतुल्लाह और इसके महासचिव रॉबिन क्रिस्टोफर नेइस प्रतिवेदन में लीज और लाइसेंस के फर्क को चिन्हितकिया है। इसके अलावा पीयूसीएलप्रतिनधि मंडल ने इस प्रावधान की असंवैधानिकता को देखते हुए इसके बहिष्कार की अपील की है।
“यह बहिष्कारकी अपील कर्नाटक हिंदू रिलीजियस इंस्टिट्यूशंस एंड चैरिटीबल एंडोमेंट कानून, 1997 के तहत 2002 में बने रूल के 31(12) का हवाला देती है जो बताता है कि संस्थानों के आस-पास की कोई भी जमीन, भवन या जगह गैर-हिंदूओं को लीज पर नहीं दी जा सकती।इस तरह यह अपील इस कानूनकी आड़ में बहिष्कार कोवैध ठहराती है।एक वरिष्ठ अधिवक्ता चंदर उदय सिंह ने बताया कि यह प्रावधान की जानबूझकर की गई गलत व्याख्या है। क्योंकि रूल 31 सिर्फ मंदिर की अचल संपत्ति को लंबे समय के लिए लीज पर उठाने से संबंधित है। यह शार्ट टर्म लाइसेंस के बारे में कुछ नहीं कहता, जिसके जरिए विभिन्न त्योहारों में विक्रेताओं को स्टाल और जगह आवंटित की जाती है।यहाँ तक कि इसका रूल 7 भी खासतौर पर सब-लीज पर रोक लगाता है। इसका मतलब यह कि मंदिर के संचालक, व्यापारियों के साथ सिर्फ लाइसेंस संबंधित एग्रिमेंट ही कर सकते हैं।हालांकि माननीय कानून मंत्री ने रूल के 31(2) का हवाला देते हुए मंदिर की कार्रवाईयों को उचित ठहराया है,पर सवाल तो इस कानून की संवैधानिकता का है। आर्थिक बहिष्कार करना या ऐसी अपील करना,दोनों ही संविधान के अनुच्छेद 15 का और इसके तहत किसी भी तरह के भेदभाव नहीं करने के संवैधानिक वादे का उल्लंघन है। यह धारा 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव पर स्पष्ट रूप से रोक लगाती है।साथ ही धारा 15(2) घोषित करती है कि ‘राज्य कोष से पूर्णतया या आंशिक रूप से पोषित या आम जनता के उपयोग के लिए समर्पित’ किसी भी ‘दुकान आदि हासिल करने’ के मामले में किसी नागरिक पर ‘पाबंदी’ नहीं लगाई जा सकती।
प्रतिवेदन में आगे कहा गया है, “जहाँ तक संपत्तिका सवाल है, उसे लीज पर लगाना अधिकारों का स्थायी हस्तांतरण है। इसीलिए सब-लीजिंग भी की जाती है।उधर लाइसेंस देना संपत्ति का अस्थायी हस्तांतरण है। इस लाइसेंस के तहत आप किसी तरह के स्वामित्व का अधिकार हासिल नहीं कर सकते।” लिहाजा मुस्लिम विक्रेताओं का बहिष्कार करना कानूनसम्मत नहीं है।
ऐसे में आंबेडकर की याद आती है। वे सामाजिक और आर्थिक बहिष्कारों के प्रबल विरोधी थे। उनका मानना था कि यह ‘बहुसंख्यकों द्वारा किए जा रहा जुल्म’ है। आंबेडकर के शब्दों में, “इसके सामने प्रत्यक्ष हिंसा भी कमज़ोर पड़ जाती है, क्योंकि इन बहिष्कारों का प्रभाव सर्वाधिक दूरगामी और घातक होता है।” यह ज़्यादा खतरनाक है, क्योंकि यह अनुबंध की स्वतंत्रता के सिद्धांत के मुताबिक विधिसम्मत तौर-तरीके की परवाह नहीं करता।पीयूसीएल ने चेतावनी देते हुए कहा कि कर्नाटक और भारत के अन्य हिस्सों में यह जो प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है, यह व्यापक रूप से बहिष्कृत करने की तरफ, यहाँ तक कि मानवता के खिलाफ अपराधों तक ले जा सकती है। रवांडा और हिटलर की जर्मनी में हमने यह देखा भी है। इसके मद्देनजर पीयूसीएल कर्नाटक सरकार से मांग करती है कि :
- ऐसे सारे निर्णयों को फौरन वापस लें! यह सुनिश्चित करें कि मुसलमानों सहित दूसरे धार्मिक समुदाय के लोगों को विभिन्न त्योहारों के दौरान व्यापार-धंधों के लिए समान अवसर और स्थान उपलब्ध कराए जाएं!
- मुसलमानों के व्यापार-धंधों के आर्थिक बहिष्कार के लिए दबाव बनाने और ऐसा प्रयास करने वाले संगठनों के खिलाफ फौरन अपराधिक कार्रवाई की जाए!
- यह सुनिश्चित करें कि गृह-मंत्रालय द्वारा 2008 में जारी सांप्रदायिक सद्भाव से संबंधित दिशा-निर्देशों के मुताबिक समूचे कर्नाटक में सांप्रदायिक सद्भाव बहाल करने और उसे बनाए रखने के लिए कदम उठाए जाएं! इसके लिए सांप्रदायिक सद्भाव को नुकसान पहुंचाने वाले संगठनों को जाँच के दायरे में लिया जाए और उनके खिलाफ यथोचित कार्रवाई की जाए!
- धर्म के आधार पर भेदभाव करने जैसी असंवैधानिक कृत्य को विधिसम्मत ठहराने के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा कर्नाटक हिंदू रिलीजियस इंस्टिट्यूशंस एंड चैरिटीबल एंडोमेंट कानून, 1997 की गलत व्याख्या पेश करने वाले बयानों के बारे में स्पष्टीकरण दिया जाए!
पीयूसीएल का पूरा प्रतीवेदन आप यहाँ पढ़ सकते हैं-
भारत के वे दूसरे राज्य जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ इसी तरह का भेदभाव किया जा रहा है
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी संगठनों को अक्सर मुस्लिम अल्पसंख्यकों की जीविका को छीनते और उन्हें हैरान-परेशान करते देखा जाता है। विधानसभा चुनाव के दौरान ऐसे समूहों द्वारा मुस्लिम विक्रेताओं के रोजमर्रे के काम-धंधोंको जबरन बंद करवाते और उन्हें मारते-पीटते और परेशान करते भी देखा गया। उनमें से जहाँ कुछ को अपने दुकान के नाम बदलने के लिए मजबूर किया गया, वहीँ कुछ लोगों को धमकियां दी गईं और उनके खिलाफ हिंसा भी की गई। 2021 की जनवरी में मेरठ में स्वामी आंनद स्वरुप द्वारा खुले आम जन सभा बुलाई गई।इस हिंदूसभा में“लोगों से मुलमानों का सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक आधार पर तब तक बहिष्कार करने की अपील की गई जबतक कि वे हिंदू नहीं बन जाते।”एक अन्य घटना से मालूम हुआ कि उत्तर प्रदेश केउत्तरी शहर देवरिया के विधायक सुरेश तिवारी ने महामारी के दौरान खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के दिनो में भी साफ-साफ कहा, “मैं सभी लोगों से खुले तौर पर कहता हूं। आपलोग एकबात दिमाग में रखो! मियाओं (मुसलमानों) से सब्जियां खरीदने की कोई जरूरत नहीं है।”
दिल्ली
दिसंबर, 2021 में उत्तराखंड के हरिद्वार में आयोजित कुख्यात धर्म संसद के पूर्व प्रतिभागी, स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती और विनोद शर्मा 23 मार्च, 2022 को ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म देखने के लिए जुटी भीड़ को संबोधित करते देखे गए। उन्होंने न सिर्फ सरेआम मुस्लिम विरोधी भावनाओं के भड़काने की कोशिश की, बल्कि देश के विभाजन के लिए भी मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया। इन दक्षिणपंथ के पैरोकारों ने छोटे बच्चों तक में नफरत फैलाई और उन्हें खुद की रक्षा करने के लिए हथियार उठाने को प्रेरित किया। 22 मार्च, 2022 को विनोद शर्मा के सहयोगियों का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें लोगों से मुस्लिम विक्रेताओं का बहिष्कार करने और उनके आर्थिक रीढ़ को तोड़ देने की अपील की गई थी। लगभग इसी समय देश की राजधानी दिल्ली के एक होटल ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्मके ‘कश्मीरीहोना ही अपराधहै’जैसे परिकल्पित कांसेप्ट के आधार पर एक कश्मीरी को कमरा देने से इंकार कर दिया।
हरियाणा
हरियाणा में 23 उच्च जाति के लोगों को 150 से भी ज़्यादा दलित परिवारों के पूर्ण बहिष्कार की अपील करने के मामले में अभियुक्त ठहराया गया।यहाँ के छत्तर गाँव में उच्च जातियों की एक पंचायत बुलाई गई। पंचायत में वहाँ रह रहे दलित परिवारों के राशन-पानी की आपूर्ति और स्वतंत्र आवागमन पर रोक लगाने का फैसला लिया गया। दरअसल उच्च जातियों के अत्याचारों और दुर्व्यवहारों के खिलाफ दलितों ने केस दर्ज किया थाऔर सवर्ण उनपर दर्ज मामलों को वापस लेने के लिए जबरन दबाव बनाना चाहते थे। दलितों पर उच्च जातियों के इन अत्याचारों की यह रिपोर्ट सबरंग इंडिया द्वारा की गई थी।
छत्तीसगढ़
यहाँ भी सरगुजा में हिंदुत्ववादी समूहों द्वारा आम सभाएं की गईं, जिनमें सांप्रदायिक भेदभाव बरतने की शपथ ली गई।
मध्य प्रदेश
ऐसी रिपोर्ट है कि मध्य प्रदेश के पेलमपुर गाँव में ऐसे बैनर लगाए गए हैं जिनपर ‘मुस्लिम व्यापरियों कागाँव में प्रवेश निषेध है’ लिखा था।
संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन
इस सिलसिले में महत्त्वपूर्ण और दिलचस्प बात यह है कि चाहे कर्नाटक हो या दूसरी कोई जगह, मुस्लिम व्यवसायियों को शॉर्ट टर्म लाइसेंस देने का सवाल अभी तक कोई मुद्दा ही नहीं था। 2002 के बाद से मुस्लिम व्यवसायियों को हिंदू तीर्थ स्थलों के इर्द-गिर्द या फिर त्योहारों के दौरान स्टाल लगाने परपाबंदी नहीं लगाई गई है।बेशर्मी के साथ बहिष्कार करने की और हिंसा की यह प्रवृत्ति साफ-साफ दक्षिणपंथी राजनीति के उदय से जुड़ी हुई है।यह प्रवृत्ति तब और भी खतरनाक हो जाती है जब हम देखते हैं कि चुनावी फायदे के लिए इस बहुसंख्यकवाद के उभार का इस्तेमाल किया जाता है।उधर चुनाव आयोग ने भी चुप्पी साध रखी है और चुनाव अभियानों में निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए अपनी वैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया हैऔर न ही मुखर न्यायपालिका नेइस सिलसिले में कोई कदम उठाया है।
संक्षेप में कहें तो यह बहिष्कार और बहिष्कार करने की अपील, दोनों ही भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 में प्रदत मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं।
हमारे संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 इस बात की गारंटी करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और समानता का अधिकार हासिल हो और उसके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं बरता जाए।साथ ही अनुच्छेद 19 कहीं भी आने-जाने और आर्थिक गतिविधि करने के अधिकार को सुनिश्चित करता है। जबकि अनुच्छेद 14 बताता है कि राज्य किसी भी व्यक्ति की समानता या फिर भारत के किसी भी भूभाग के अंतर्गत कानून के समक्ष समान संरक्षण से इंकार नहीं करेगा। अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने पर रोक लगाता है। फिर अनुच्छेद 15(2) के तहत प्रावधान है कि किसी भी नागरिक को धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थानया फिर इनमें से किसी के आधार पर राज्य द्वारा पोषित या आम जनता के लिए समर्पित दुकानों, सड़कों, सार्वजनिक भोजनालयों के उपयोग से न वंचित किया जा सकताहै और न ही उसके उपयोग पर कोई पाबंदी नहीं लगाई जा सकती है।
अनुच्छेद 14 : विधि के समक्ष समानता-
राज्य, भारत के राज्य-क्षेत्र में विधि के समक्ष समानता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
अनुच्छेद 15: धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक-
- राज्य, किसी नागरिक के विरुद्धकेवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
- किसीभी नागरिक को केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर निम्नलिखित के संबंध में न अयोग्य ठहराया जा सकता है, न दायित्वों से वंचित किया जा सकता है, न किसी किस्म की पाबंदी लगाई जा सकती और न ही कोई शर्त लादी जा सकती है-
- दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश पर, या
- राज्य द्वारा पूर्णतः या अंशतः पोषित या आम जनता केलिए समर्पित कुओं, टैंकों, स्नान घाटों, सड़कों और पब्लिक रिजॉर्ट्स के उपयोग पर।
उक्त बहिष्कार संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रदान किए गए किसी भी पेशे, व्यापर या व्यवसाय करने की मुस्लिम नागरिकों के स्वतंत्रता का भी हनन करता है।
अनुच्छेद 19 : बोलने की स्वतंत्रता आदि से संबंधित अधिकारों का संरक्षण-
- सभी नागरिकों को-
(छ) किसी भी पेशे या वृत्ति को अपनाने या कोई भी व्यापार या व्यवसाय करने का अधिकार होगा।
यह बहिष्कार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए मुस्लिम नागरिकों के जीवन के अधिकार का भी हनन करता है।
अनुच्छेद 21 : जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण-
किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से अलग उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 1978 [एआईआर 597, 1978 एससीआर(2) 621] के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि जीवन का अधिकार महज शारीरिक अधिकार नहीं है बल्कि इसके दायरे में मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है। इसी न्यायालय ने फ्रांसिस कोराली बनाम केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली 1981 [एआईआर 746, 1981 एससीआर(2) 516]वाले मुकदमे में उपरोक्त कथन को विस्तार देते हुए बताया-
“जीने के अधिकार में मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है। मतलब इसके लिए जो कुछ भी चाहिए, जैसे जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं, मसलन पर्याप्त पोषण, पहनने-रहने तथा पढ़ने-लिखने और खुद को विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करने जैसी सुविधाएं, इसमें शामिल हैं। साथ ही इसमें स्वतंत्र रूप से घूमने-फिरने, लोगों से घुलने-मिलने, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने और लोगों द्वारा खुद की न्यूनतम अभिव्यक्ति वाले समारोहों और गतिविधियों में शामिल होने के अधिकारों को भी इसके तहत अवश्य लाया जाना चाहिए।”
राजनीतिक रूप से शक्तिशाली दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी ग्रुपों द्वारा समय-समय पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को सुव्यस्थित रूप से निशाना बनाने की परिघटना संविधान के अनुच्छेद 15 और 29 के तहत दिए गए अधिकारों को खतरे में डाल रही है।जहाँ अनुच्छेद 25 सभी नागरिकों कोविवेक की स्वतंत्रता के साथ-साथ किसी भी धर्म को मानने, उसके अनुसार आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार देता है, वहीं अनुच्छेद 29 अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति के संरक्षण का अधिकार देकर उनके हितों की रक्षा करता है।
अनुच्छेद 25 :अंतःकरण की स्वतंत्रता और किसी भी धर्म को मानने, उसके अनुसार आचरण करने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता-
- लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और स्वतंत्र रूप से किसी भी धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।
- इस अनुच्छेद की कोई बात ऐसे किसी विद्यमान कानून के कार्यान्वयन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसा कानून बनाने से नहीं रोकेगी जो-
- धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष क्रियाकलापों को नियंत्रितकरता हो या उनपर पाबंदी लगाता हो।
- सभी वर्गों और हिंदुओं के सभी तबकों लिए सामाजिक कल्याण और सुधार का प्रावधान करता हो या उनके लिए के हिंदुओं के सार्वजनिक धार्मिक स्थलों को खुला रखता हो।
अनुच्छेद 29 : अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण-
- भारत के राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग में निवास करने वाले नागरिकों के किसी तबके को, अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति के संरक्षण का अधिकार होगा।
इसके अलावा राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों के अनुसार संविधान का उद्देश्य भारत के नागरिकों को लिए एक अच्छा जीवन जीने लायक सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति का निर्माण करना है।अनुच्छेद 38 के तहत संविधान राज्य को लोगों के सामाजिक और आर्थिक कल्याण को बढ़ावा देने का निर्देश देता है।फिर अनुच्छेद 39 राज्य को ऐसी नीतियां बनाने का निर्देश देता है जो लोगों को आजीविका के पर्याप्त साधनों को प्राप्त करने के अधिकार कोसुरक्षित करतीहैं।
अनुच्छेद 38 : राज्य लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने लायक एक सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित करने के लिए-
- राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और उसके संरक्षण के जरिए लोक कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।
[2(2)] राज्य, विशेष रूप सेआय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी स्टेटस, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा।
अनुच्छेद 39 : राज्य द्वारा लागू की जा रही नीतियों से संबंधित कुछ सिद्धांत-
राज्य विशेषतः अपनी नीतियों को निम्न दिशा में निर्देशित करेगा-
- पुरुष और स्त्री, सभी नागरिकों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार है।
- समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस तरह वितरित हो जिससे सामूहिक हित को पूरा किया जा सके।
- आर्थिक व्यवस्था इस ढंग से संचालित की जाएजिससे कि धन औरउत्पादन के साधनों का ऐसा संकेंद्रण न हो जो सर्वसाधारण के हितों को नुकसान पहुंचाता हो।
कानूनी दृष्टांत
हाल ही में एक इसी तरह के मुकदमे (टीएम रब्बानी बनाम जी वाणी मोहन और अन्य) में सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर, 2021 में आंध्रप्रदेश में मौजूद एक ऐसे ही नियम पर रोक लगा दी थी।
कोर्ट ने कहा था, “हम निर्देश देते हैं कि किसी भी किराएदार या दुकानदार को उनके धर्म के आधार पर शॉपिंग कॉम्प्लेक्स सहित अन्य स्थानों में नीलामी में भाग लेने या वहाँ लीज पर लेने की प्रक्रिया से बाहर नहीं किया जाएगा।”कोर्ट ने स्वीकार किया,“राज्य को शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और अन्य जगहों में धर्म के आधार पर लाइसेंसधारकों को नीलामी में भाग लेने या लीज पर लेने की प्रक्रिया से बाहर करने की इज़ाजत नहीं दी जा सकती थी।”
आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष अनुमति याचिका दायर की गई थी।मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ फैसला सुनाते हुए आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने कहा था, “…गैर-हिंदूओं के कथित कृत्यों से हिंदूओं द्वारा अपने देवता की पूजा करने में गंभीर असुविधा होगी। ऐसे में हिंदू उपासकों के हितों की हिफाजत करने और उन्हें किसी तरह की असुविधा से बचाने और उनके हित में किसी भी पूर्वाग्रह से बचने के लिए राज्य ने ऐसे कानून के अनुरूप ही नियम जारी किए।हमें प्राथीके अधिवक्ता के तर्क में कोई दम नहीं दिखता।इसके मद्देनजर उनकी याचिका ख़ारिज की जाती है। हमारा यह सुस्पष्ट मत है कि इस किस्म के भेदभाव जो सिर्फ हिंदूओं को ही इज़ाजत देते हैं और गैर-हिंदूओं को नीलामी में भाग लेने या उन्हें लीज पर देने या लाइसेंस देने की मनाही करते हैं, जैसा कि प्रतिवादी संख्या-3 तीन के दुकानों और प्लाट्स के मामलों में किया गया, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत सुनिश्चित किए गए मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।”
सुप्रीम कोर्ट के आदेश और आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट के अन्य संबंधित आदेश सभी यहाँ पढ़ें जा सकते हैं।
भारत में, खासकर उन राज्यों में जहाँ भाजपा की सरकारें हैं, माहौल मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ बिलकुल शत्रुतापूर्ण बन गया है। उन्हें कहीं से भी बख्शा नहीं जा रहा और लगातार निशाना बनाया जा रहा है। हेट स्पीच, मॉब लिंचिंग, कई तरह से उन्हें बहिष्कृत करने और उनके प्रति हिंसा की घटनाएं बार-बार सामने आ रही हैं और वे बढ़ती जा रही हैं।मानवाधिकार का उल्लंघन करने वालों और नफरत फैलाने वालों के खिलाफ अधिकारियों द्वारा कोई सख्त कार्रवाई नहीं किए जाने की वजह से हालात और भी खराब हो गए हैं।
भाजपा के महासचिव सीटी रवि दशकों से भड़काऊ भाषण देने की वजह से चर्चा में बने रहते हैं। हाल ही में दक्षिणपंथी समूहों द्वारा ‘हलाल’ मांस (जो मुस्लिमों की खान-पान की आदतों में शामिल है) के बहिष्कार की हेट अपील जारी की गई, देखा गया वे भी इसके समर्थन में उतर गए। उन्होंने सभी हलाल खान-पान की चीजों को ‘आर्थिक जिहाद’ ठहरा दिया।कथित तौर पर मुसलमानों को जिहाद या जेहाद जैसे शब्दों से जोड़ने की दक्षिणपंथी टैक्टिस को अपनाते हुए उन्होंने कहा,“हलाल वस्तुतः एक आर्थिक जिहाद है। मतलब यह कि इसे जिहाद की तरह इस्तेमाल किया जाता है ताकि मुसलमान दूसरों के साथ व्यवसाय न कर सकें।सच कहें तो इसे जबरन लादा जाता है। जब वे सोचते हैं कि हलाल मांस खाया जाना चाहिए तो फिर यह कहने में क्या गलत है कि यह नहीं खाया जाना चाहिए?”
जबकि पिछले वर्षों में देखा गया है कि भारत के शीर्ष न्यायालय ने कुछ सकारत्मक फैसले दिए हैं।पर इन दिशा-निर्देशों को लागू नहीं किया गया है और वैसे भी ये किसी काम के नहीं रहे हैं।पिछले दिनों देश में गौ-रक्षा के नाम पर हिंसा की घटनाओं में बढ़त देखी गई। इसमें भीड़ खुद ही गौ-मांस खाने के संदेह के आधार पर संबंधित लोगों को हिंसक रूप से दंडित कर रही है। इन बढ़ती घटनाओं से परेशान होकर 2016 में एक्टिविस्ट वकील तहसीन पूनावाला और अन्य लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पेटीशन [तहसीन पूनावाला बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य (2018) 9 एससीसी 501] दायर की थी।
कोर्ट ने देश में मॉब लिंचिंग और हिंसा की बड़े पैमाने पर बढ़ रही घटनाओं की निंदा की। ऐसी गैर कानूनी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए कोर्ट ने कई दिशा-निर्देश जारी किए। उसने जारी निर्देशों में लिखा-
“लोगों के जीवन और मानवाधिकार की रक्षा करना हमारा संवैधानिक कर्त्तव्य है। सम्मान के साथ जीने और विधि द्वारा सम्मत मानवीय व्यवहार पाने के अधिकार से बड़ा कोई अधिकार नहीं हो सकता। हमें कानून जो कुछ भी प्रदान करता है उसे वैध तरीकों से लिया जा सकता है, यह कानून की मूलभूत अवधारणा है।किसी को भी इस नींव को हिलाने की इज़ाजत नहीं दी जा सकती। कोई भी नागरिक दूसरे की मानवीय गरिमा पर हमला नहीं कर सकता। इस तरह के कृत्य कानून की महिमा को धूमिल करते हैं। किसी भी सभ्य समाज में कानून से डर ही अपराधों को रोकता है। एथेंस के लोकतांत्रिक समाज में जो कानूनी स्पेस उपलब्ध था,तब से लेकर आज के आधुनिक समाज के कानूनी व्यवस्था तक कानून के निर्माताओं ने लोगों को जागरूक करने के जरिए अपराधों की रोकथाम करने की कोशिश की है। पर कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने सड़कों पर खुलेआम कानून का उल्लंघन करने में निपुणता हासिल की है। इनके उल्लंघन से खून-खराबों और उमड़ते आंसूओं का माहौल बनता है। जब इनके रोकथाम के उपाय विफल हो जाते हैं, तब अपराध घटित होते हैं। ऐसे में इनके लिए उपचारात्मक और दंडात्मक उपाय करने पड़ते हैं। कानूनों को लागू करने के लिए हर स्तर पर उठाए जाने वाले कदम अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए दिशा-निर्देश निर्धारित किया जाना आवश्यक है।”
भारत की वर्तमान दुर्दशा की एक संपूर्ण तस्वीर प्रस्तुत करते हुए एक्टिविस्ट और लेखक पीटर फ्रेडरिक ने ठीक ही कहा है, 1933 में नाजियों ने ऐलान किया था- यहूदियों से कुछ भी मत खरीदो!आज 2022 में नाजियों से प्रेरित ये हिंदू राष्ट्रवादी कह रहे हैं- मुसलमानों से कुछ भी मत खरीदो!
आर्थिक बहिष्कार जेनोसाइड की दिशा में ले जाता है।भारत में इस फासीवाद को हर हाल में रोका जाना चाहिए।
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