हेटबस्टर – कश्मीरी पंडितों ने ही किया ‘द कश्मीर फाइल्स’ के सांप्रदायिक दुष्प्रचार का भंडाफोड़ वास्तविक उत्तरजीवी बताते हैं कि कैसे फिल्म अर्धसत्य से भरी हुई है

28, Mar 2022 | CJP Team

हफ्ते भर से ज्यादा से दक्षिणपंथी मीडिया, कश्मीरी हिंदुओं (पंडितों) की विस्थापन की पीड़ा को आवाज़ देने के नाम पर ‘द कश्मीर फाइल्स‘ फ़िल्म को लेकर खासा उत्साह दिखा रहा है जिन्हें 90 के दशक के शुरु में उग्रवाद के चलते घर (कश्मीर) छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा था। इस दौरान, जिस समुदाय को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं वह फ़िल्म से उपजे संभावित नतीजों और प्रतिक्रियाओं (सांप्रदायिक नफरत, प्रतिशोध/प्रतिहिंसा) को लेकर बुरी तरह आशांकित है और इस दौरान अनेक मर्तबा अपना डर जाहिर कर चुके हैं।

‘कश्मीर फाइल्स’ 1989 के आसपास कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा को दर्शाती एक विचारोत्तेजक फ़िल्म है। हालांकि, संतुलित समीक्षा करें तो साफ दिखता है कि किसी प्रोपेगैंडा की तरह, फ़िल्म सच को आधे-अधूरे रूप में ही सामने लाती है। सिखों और मुस्लिमों के नरसंहार की अनदेखी करते हुए केवल हिंदुओं (कश्मीरी पंडितों) की स्थिति पर ध्यान केंद्रित करने को बारीकी से तथ्य बुने गए हैं। खास है कि उस समय मुस्लिम और सिख समुदाय को भी पलायन झेलना पड़ा था और जान-माल का भी खासा नुकसान उठाना पड़ा था। इससे भी खतरनाक बात यह है कि कश्मीर में उग्रवादी हिंसा पाकिस्तान प्रायोजित थी, लेकिन फ़िल्म (द कश्मीर फाइल्स) इसके लिए पूरी तरह से भारतीय मुसलमानों को दोषी ठहराती है!
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हाल ही में, फ़िल्म निदेशक विवेक अग्निहोत्री ने दावा किया कि घाटी से पलायन के दौरान 4,000 कश्मीरी पंडित मारे गए थे लेकिन दावे के संदर्भ में कोई तथ्यात्मक सबूत उन्होंने नहीं दिया। समय के साथ प्राप्त अधिकारिक सरकारी डेटा, आरटीआई इन्क्वाइरी व यहां तक कि कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति (केपीएसएस) व अन्य समूहों द्वारा जुटाए अनौपचारिक तथ्यों की माने तो उस वक्त, अलग अलग आंकड़ों में मौतों की संख्या 219 (अधिकारिक डेटा) से लेकर 650 (केपीएसएस का अनौपचारिक डेटा) तक थीं। यही नहीं, किसी भी स्रोत ने कभी भी हजारों की संख्या में मौतों का हवाला नहीं दिया है। यहां तक कि ‘कश्मीरनामा’ के लेखक अशोक कुमार पांडे भी इस संख्या को खारिज करते है, जिन्होंने फिल्म में इतिहास के चित्रण की आलोचना करते हुए यू-ट्यूब पर आधे घंटे का वीडियो पोस्ट किया है।
पांडे बताते है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ में कैसे ‘अल सफा’ अखबार को आतंकवाद के समर्थक के रूप में दिखाया गया है जबकि उसके संपादक शाबान वकील की हत्या ही 23 मार्च, 1991 को आतंकवादियों द्वारा की गई थी। इससे पहले, 22 सितंबर 1990 को, 23 कश्मीरी पंडितों ने संयुक्त रूप से ‘अल सफा’ अखबार (संपादक) को पत्र लिखकर आरोप लगाया था कि पलायन एक सुनियोजित साजिश थी। यही नहीं, उन्होंने राज्यपाल जगमोहन पर राज्य प्रशासन की मिलीभगत से “भाजपा व आरएसएस जैसे हिंदू सांप्रदायिक संगठनों” को लाभ पहुंचाने के लिए समुदाय (कश्मीरी पंडितों) को बलि का बकरा बनाने के भी आरोप लगाएं। पत्र में कहा गया कि मुस्लिम और हिंदू समुदाय अरसे से एक दूसरे के पड़ोसी के तौर पर सौहार्दपूर्ण और खुशी से रहते आ रहे थे जब तक कि समुदाय के ही कुछ स्वयंभू नेताओं ने परेशानी पैदा नहीं की। पूरा पत्र नीचे पढ़ा जा सकता है।
खास है कि यह पत्र उस समुदाय द्वारा लिखा गया जिस पर फिल्म आधारित है। आश्चर्यजनक है लेकिन संगठन ने कश्मीरी पंडितों के हितों को दृष्टिगत रखते हुए कहा है कि फिल्म के चलते स्थानीय कश्मीरी हिंदू उल्टे, खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
‘द कश्मीर फाइल्स’ ने घाटी में रह रहे कश्मीरी पंडितों में असुरक्षा बोध पैदा कर दिया है। -केपीएसएस (@KPSSamiti) 16 मार्च, 2022
केपीएसएस अध्यक्ष व मानवाधिकार कार्यकर्ता संजय टिक्कू ने गैर-कश्मीरी पंडितों द्वारा नफरत फैलाए जाने के लिए, सरकार को दोषी ठहराया है, जो कहते हैं, “कश्मीर में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं है”। यही नहीं, ढेरों आलोचनाओं के बीच उन्होंने बताया कि फिल्म ने कैसे हमलों को अनुच्छेद 370 के हनन से जोड़ दिया और मुसलमानों को एक जिहादी के रूप में चित्रित करने का काम किया। टिक्कू एक बड़ी विडंबना का खुलासा करते  कि कश्मीरी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाली फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ अभी घाटी में नहीं दिखाई गई है।
इसके अलावा, बीबीसी की एक रिपोर्ट जिसमें विभिन्न कश्मीरी पंडितों के साक्षात्कार शामिल है, बताती है कि घाटी का हिंदू समुदाय वास्तव में फिल्म से प्रभावित नहीं है। कई लोगों ने इसे तथ्यों से छेड़छाड़ और अनदेखी करना बताया है तो कइयों ने पूछा है कि फिल्म में मुस्लिम और सिख समुदायों को दी गई यातनाओं को क्यों दरकिनार किया गया?। दरअसल फ़िल्म में यह दिखाने की कोशिश की है कि कश्मीर में नरसंहार सिर्फ कश्मीरी पंडितों का हुआ है। लेकिन हकीकत इससे एकदम अलग है। यह केवल कश्मीरी पंडित ही नहीं थे जो घाटी से भागने को मजबूर हुए बल्कि मुस्लिम और सिखों को भी पलायन करना पड़ा था।
यही नहीं, कई लोगों ने नेताओं पर फिल्म को 2024 के चुनावों के लिए “स्टंट” के तौर में इस्तेमाल करने के आरोप लगाए। तो कुछ लोगों ने अन्य निर्देशकों से पलायन और उग्रवाद की वास्तविक भयावहता को दर्शाने वाली फिल्म बनाने के लिए कहा। इनमें अधिकतर ऐसे लोग थे जो खुद पीड़ित हैं या कश्मीरी पंडितों पर हुए हमलों के गवाह रहे है।
उस वक्त की हिंसा में ज़िंदा बचे लोग बताते हैं कि कैसे एक फ़िल्म के जरिये भारतीय मुसलमानों को पाकिस्तान प्रायोजित उग्रवादी समूहों के कार्यों के लिए दोषी ठहराया जा रहा है और बदनाम किया जा रहा है”।
कई फ़िल्म समीक्षकों ने सांप्रदायिक भावनाओं को लेकर फ़िल्म की निंदा की है। इसके बावजूद, ‘द कश्मीर फाइल्स’ को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित केंद्रीय और राज्य मंत्रियों द्वारा समर्थन दिया गया। कोई अन्य विकल्प नहीं होने से, दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने और फिल्म द्वारा फैलाई जा रही नफरत को हतोत्साहित करने का जिम्मा, कश्मीरी पंडितों को खुद, अपने कंधों पर लेना पड़ा। कुछ वीडियो में कश्मीरी पंडितों को थिएटर में फिल्म के सामाजिक आघात पहुंचाने वाले (घातक) प्रभावों को लेकर मुखर निंदा करते देखा जा सकता है।
कुल मिलाकर देंखे तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक ऐसी फिल्म है जो मुस्लिम विरोधी नफरत को आम करने के लिए ‘संघ परिवार’ के प्रचार के हथियार के रूप में काम करती है! जहां अनुच्छेद 370 को निरस्त करना भाजपा और संघ परिवार के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण था, वहीं ‘द कश्मीर फाइल्स’ राजनैतिक लाभ के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन प्रदान करती है!
जहां तक कश्मीरी पंडितों की बात है तो निस्संदेह, उन्हें काफी भुगतना पड़ा है। 32 साल से वे अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं। जब कश्मीर में उग्रवाद का दौर शुरू हुआ, तो कश्मीरी पंडित गोलियों और बमों से बचने के लिए रात के अंधेरे में जम्मू की ओर भाग गए। नए सिरे से जीवन शुरू करने से पहले वे जम्मू और दिल्ली के शिविरों में रहे, इस दौरान कश्मीर पंडितों के पलायन और विस्थापन को अलग अलग निर्देशकों द्वारा फिल्माया जाता रहा। उदाहरण के लिए, ‘शीन’, ‘शिकारा’, ‘आईएम’ जैसी फिल्में कश्मीरी पंडितों की त्रासदी पर ही केंद्रित थी। दूसरी ओर, दक्षिणपंथी लंबे समय से कश्मीर के मुसलमानों के खिलाफ नफरत और दुष्प्रचार कर रहे हैं। लेकिन ‘द कश्मीर फाइल्स’ कश्मीरी पंडितों पर पहले से बनी सभी फिल्मों से अलग है। यह नफरत और झूठे प्रोपेगेंडा को कई कदम आगे ले जाती है। केंद्र व राज्य सरकारों का समर्थन पा जाने से फिल्म अरबों रुपये कमाने के क्लब में भी शामिल हो गई है। लेकिन ‘कश्मीर फाइल्स’ देखने के बाद उत्तेजित दक्षिणपंथियों द्वारा मुस्लिम नरसंहार के लिए किए जा रहे आह्वान के वीडियो बेहद परेशान करने वाले हैं। याद रहे ‘दर्द का कोई धर्म नहीं होता’।

छवि सौजन्य: गैर-प्रवासी कश्मीरी हिंदुओं के लिए नौकरी की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर KPSS सदस्यों की प्रातिनिधिक छवि


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