सूरमा ने दिखाई राह 15 थारू गांवों के सामुदायिक अधिकारों के मिलने का रास्ता हुआ साफ

13, Nov 2020 | Navnish Kumar

‘सतत संघर्ष के बल पर मुश्किल से मुश्किल और बड़ी से बड़ी लड़ाई को आसानी से जीता जा सकता है’। लखीमपुर खीरी पलिया कलां के दुधवा टाईगर रिजर्व से लगे गांवों के थारू आदिवासियों ने यह कहावत एक बार फिर सोलह आनै सच साबित कर दिखाई हैं। जी हां, करीब 9 साल पहले 2011 में दुधवा नेशनल पार्क (टाईगर रिजर्व) कोर जोन के अंदर स्थित आदिवासी गांव सूरमा को वन विभाग की गुलामी से आजाद कराकर इतिहास रच चुके थारू आदिवासी, एक बार फिर, अपने नाम सामूहिक संघर्ष की नई विजयगाथा लिखने जा रहे हैं। 

मामला वनाधिकार कानून-2006 के तहत वन भूमि और लघु वनोपज आदि पर सामुदायिक अधिकारों का हैं। पार्क से लगते करीब डेढ़ दर्जन गावों के वनाश्रित थारू आदिवासी समुदाय के हज़ारों परिवार 2013 से सामुदायिक अधिकारों को वनाधिकार के तहत मान्यता दिए जाने को लेकर संघर्ष कर रहे है। बीते दिनों 28 अक्तूबर को समुदाय के लोगों ने तहसील का घेराव कर 7 साल से लंबित दावे प्रपत्रों पर सुनवाई की मांग की थी। यही नहीं, थारू आदिवासियों ने 3 नवम्बर तक दावों पर सुनवाई न होने पर आंदोलन को भी चेताया था। नतीजा 9 नवंबर को एसडीएम पलिया कलां डॉ अमरेश कुमार की अगुवाई में उपखण्डीय समिति में थारू समुदाय की सकारात्मक वार्ता हुई। उपखण्डीय स्तरीय समिति की इस वार्ता में वन विभाग (पार्क प्रशासन) की आपत्तियों को थारू नेताओं ने एक-एक कर, न सिर्फ खारिज किया बल्कि वनाधिकार कानून 2006 व संशोधित अधिनियम 2012 के तहत, समुदाय के अधिकारों के पक्ष में पुख्ता दलीलें रखी और सामुहिक अधिकारों को मान्यता देने की मांग की। एसडीएम का रुख भी लोगो के संवैद्यानिक अधिकारों के प्रति सकारात्मक नजर आया।

सिटीज़न्स फ़ॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) ने हमेशा किसानों के अधिकारों और भारत के कृषि समुदायों के संघर्ष का समर्थन किया है. किसानों और आदिवासियों के लिए CJP द्वारा उठाए गए कदमों का समर्थन करने के लिए योगदान दीजिए.

दुधवा नेशनल पार्क (टाइगर रिजर्व) के  जंगल के बीच करीब चार दर्जन थारू गांव में 40 हजार से ऊपर आदिवासी समुदाय के लोग निवास करते है। परंपरागत रूप से वनों पर आश्रित समुदाय के लोगो को वनाधिकार अधिनियम के तहत विभिन्न अधिकार दिए गए हैं जिन्हें लेकर, थारू आदिवासी समुदाय के लोगों ने एसडीएम के नेतृत्व वाली उपखण्डीय समिति में अपने दावे प्रपत्र पेश किए थे लेकिन 7 साल से उन पर कोई निर्णय नहीं हो पा रहा था। 9 नवंबर को दावे प्रपत्रों और आपत्तियों के निस्तारण को एसडीएम की अध्यक्षता में थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की बैठक में लघु वन उपज आदि वन संसाधनों सहित सभी बिदुओं पर चर्चा की गई। एसडीएम डा. अमरेश कुमार ने वन समिति के सदस्यों की दलीलों को सुनते हुए जल्द ही सकारात्मक निर्णय लेने का आश्वासन दिया। अगली बैठक 21 नवंबर को निर्धारित की गई है। वार्ता बैठक में परियोजना अधिकारी यूके सिंह, दुधवा वार्डेन एसके अमरेश, रामचंद्र राणा, निवादा राणा, सहबनिया राणा, प्रताप राणा, जवाहर राणा, सदली राना, अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी सदस्य रजनीश आदि मौजूद रहे।

खास हैं कि थारू आदिवासी समुदाय द्वारा 7 साल पहले ‘‘अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी (वनाधिकारों की मान्यता) कानून-2006 नियमावली संशोधन 2012’’ के तहत सामुदायिक वन संसाधन दावे भरे गए थे जिन्हें प्रस्तुत करते वक्त बाकायदा उत्सव मनाया गया था। लेकिन प्रशासनिक अनदेखी कहे या लापरवाही, लोगो के आजीविका से जुड़े संवैद्यानिक व कानूनी अधिकारों जैसे सवालों तक पर समुदाय को 7 साल तक संघर्ष करना पड़ा हैं।

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के रजनीश याद करते हुए बताते हैं कि 31 जुलाई 2013 का दिन था जब खीरी-पलियाकलां स्थित दुधवा नेशनल पार्क व टाईगर रिज़र्व क्षेत्र में बसे थारू जनजाति के डेढ़ दर्जन गाॅवों के हज़ारों परिवारों की करीब 2000 महिलाओं ने वनाधिकार कानून नियमावली संशोधन-2012 के तहत वन संसाधनों के अधिकार का अपना सामूहिक दावा अनूठे अन्दाज़ में, उत्सव मनाते हुए, अपने पारम्परिक नाच होरी को गाते हुए पहुंचकर अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया था।

इस दौरान 2000 महिलाओं सहित करीब 2500 लोगों ने इकट्ठा होकर क्षेत्र के गाॅव गोबरौला से ‘‘थारू आदिवासी महिला मज़दूर किसान मंच‘‘ व ‘अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन’’ के बैनर तले वन संसाधन अधिकार जागरूकता यात्रा भी निकाली थी जिसकी अगुवाई संगठन की नेतृत्वकारी थारू महिलाओं निबादा राणा, फूलमति राणा, रूकमा राणा, हरदुल्ली राणा, बिब्बी देवी सहित सैकड़ों महिलाओं ने अपनी पारम्परिक पौशाक पहन कर पारम्परिक नृत्य होरी को नाचते व गाते हुए की थी।

रजनीश कहते हैं कि करीब ढाई हजार थारू महिला पुरूषों के अनुशासित कतारबद्ध जुलूस का दूसरा छोर, एक छोर से दिखाई नहीं पड़ रहा था। दुधवा के जंगल की हरियाली के बीच महिलाओं के रंग-बिरंगे कपड़ों का दूर तक रंग बिखरा दिखाई दे रहा था। करीब 2000 की संख्या में यह जूलूस गोबरौला गाॅव से शुरू हुआ था और इस जूलूस में रास्ते में पड़ने वाले और बाद में पीछे से आने वाले तमाम गांवों के महिला पुरूष इसमें जुड़ते चले गए। यह बढ़ता हुआ कारवां इतना लम्बा हो गया कि इस कारवां का दूसरा छोर एक छोर से दिखाई नहीं पड़ रहा था। महिलाएं अपने पारम्परिक अधिकार आंदोलन का गीत ‘‘हम राणा थारू मांगें अपना अधिकार, कहां के रे हम राणा थारू का है हमारी जात’’ व ‘‘लहर-लहर लहराए रे झण्डा अपने यूनियन का‘‘ गाते नाचते हुए करीब 3 किमी का सफर तय करके चन्दन चौकी स्थित एकीकृत जनजातीय परियोजना कार्यालय पहुंचे। यहां भी उन्होंने परियोजना कार्यालय प्रांगण में करीब एक घंटा तक होरी नाच किया।

तत्पश्चात परियोजना अधिकारी के समक्ष सूरमा, गोबरौला, भट्ठा, किशन नगर, सिकलपुरवा, बन्दरभरारी, जयनगर, देवराही, निझौटा, छिदिया पश्चिम, बिरियाखेड़ा, ढखिया, सूड़ा, भूड़ा, सरियापारा, कजरिया और बरबटा 17 गाॅवों के 2220 परिवारों के सामुदायिक वनसंसाधन के दावों की ग्रामवार अलग-अलग फाईलें प्रस्तुत कीं।

रामचन्द्र राणा व निवादा राणा बताती हैं कि संशोधित अधिनियम 2012 के तहत किए गए सामुदायिक वन संसाधन के अधिकार के इस दावे के तहत यहां के लोगों को किसी भी तरह के जंगल में वन संसाधनों को इकट्ठा करने के लिए पहुंच का अधिकार, अपने परिवहन साधनों को ले जाने का अधिकार, जंगल से प्राप्त होने वाली तमाम लघुवनोपज जैसे जंगली फल-फूल, जड़ी-बूटी, पत्ता, जड़, ठूंठ, बेंत, बांस, फूस, जलौनी लकड़ी, रोहिणी, धरती के फूल, कटरूआ, आवला, बेल, शहद, मोम, मछली मारन, थूना, थम्मर, बल्ली आदि को अपने इस्तेमाल व अपनी सहकारी समितियों का गठन करके आजीविका के लिए बाज़ार में बेचने के अधिकार को अधिकार पत्र देकर मान्यता दी जानी है। यही नहीं, वन विभाग द्वारा तैयार किए जाने वाले वर्किंग प्लान में भी ग्राम समितियों को हस्तक्षेप करने का अधिकार इन अधिकारों में शामिल होगा।

वन संसाधनों के सामुदायिक दावों को प्रस्तुत करने के पारम्परिक अनूठे अंदाज़ में अधिकारियों के समक्ष थारू महिलाओं-पुरूषों ने एक मिसाल क़ायम करने का काम किया था और वे जिस उत्साह से आए थे, उससे दोगुना उत्साह और उमंग के साथ, संगठन के प्रति निष्ठा ज़ाहिर करते हुए अपने-अपने घरों को वापिस लौटे थे। इससे पूरे क्षेत्र में एक सकारात्मक असर फैल गया था। लोग खुद सामूहिक वन संसाधन का दावा करने से छूटे परिवार व गांव-संगठन के कार्यकर्ताओं से संपर्क कर, दावे भरवाने की बात करने लगे थे। इस सबसे तभी साफ हो गया था कि अब दुधवा क्षेत्र में वन विभाग और यहां के वनक्षेत्र में निहित स्वार्थों के तहत मुनाफा कमाने वाली ताकतों का वर्चस्व समाप्त होना और उनका जाना तय है।

निवादा राणा कहती हैं कि नेशनल पार्क के कोर जोन में बसे सूरमा गाॅव और बफर जोन में बसे गाॅव गोलबोझी की जीत और वन विभाग द्वारा प्रतिवर्ष की जा रही करोडों रुपये की वसूली पर रोक से जहां लोगों का हौंसला बढ़ा हैं वहीं, आंदोलन को भी  बल मिला हैं। स्थानीय प्रशासन व पुलिस भी इससे बैकफुट पर आ गई हैं।

यहां खास हैं कि 1978 में जब इस वन क्षेत्र को दुधवा नेशनल पार्क के रूप में अधिसूचित किया गया, तब इसके कोर जोन में आने वाले गाॅव सूरमा और बफर जोन में आने वाले गाॅव गोलबोझी को विस्थापन के आदेश दे दिए गए थे। सूरमा गाॅव के लोगों ने 1980 में उच्च न्यायालय में याचिका दायर की लेकिन 23 वर्ष बाद 2003 में उच्च न्यायालय ने भी इस गाॅव के विस्थापन पर ही मुहर लगाई। इसके ऊपर 2003 में ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पार्क-सेंचुरी क्षेत्रों से लोगों को विस्थापित करने सम्बंधी आदेश ने वन विभाग और तथाकथित वन्य जन्तु प्रेमियों की लॉबी को भी ताकत देने का काम किया और सूरमा जैसे गाॅवों पर ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती का पहाड़ टूट पड़ा। लेकिन लोगों ने संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ा और वे अपनी जगहों पर लड़ते हुए डटे रहे। सूरमा गाॅव के विस्थापन के खिलाफ यहां दुधवा क्षेत्र के 46 गाॅवों में आंदोलन तभी से बढ़ने लगा और विस्थापन के मुद्दे पर 46 गाॅवों के थारू आदिवासी एकजुट होने लगे। दिसम्बर-2006 में वनाधिकार कानून के आने के बाद यहां के संघर्ष ने एक नया रूप ले लिया।

इससे बौखलाहट में वन विभाग द्वारा फूस आदि लेने पर भी रोक लगा दी गई वहीं, लोगों पर जबरन झूठे  मुकदमे थोपे जाने लगे। नतीजा, वनाधिकार हासिल करने को आंदोलन और तेज़ हो गया और वनविभाग की मनमानी के खिलाफ बड़े आन्दोलन के रूप में लोग सड़कों पर उतर आए व वन विभाग की करोडों की अवैध गल्ला वसूली पर रोक लगानी शुरू कर दी। बढ़ते आंदोलन के दबाव में जिलाधिकारी द्वारा पार्क प्रशासन के लिए आदेश जारी किए गए।

उधर, महिलाओं की अगुआई में पूरे दुधवा क्षेत्र में वन विभाग द्वारा की जा रही अवैध वसूली पर रोक लगानी शुरू की गई व उन्होंने समूह में जंगल जाकर फूस व जलौनी लकड़ी लाने की शुरूआत की। जनवरी 2010 में फिर रोक लगाई गई। तब यहां राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच (अब यूनियन) के स्थानीय घटक संगठन थारू आदिवासी महिला मज़दूर किसान मंच के बैनर तले यहां के 46 गाॅवों की 16 ग्राम पंचायतों में गठित ग्राम स्तरीय वनाधिकार समितियों की ओर से 13 जनवरी 2010 को पार्क प्रशासन के नाम वनाधिकार कानून की धारा 7 के तहत नोटिस जारी किया गया, जिसे लोगों ने हजारों की संख्या में जुलूस निकाल कर नारे बाज़ी करते हुए दुधवा पार्क उपनिदेशक को थमाया।

नोटिस की प्रति को प्रधानमंत्री भारत सरकार, केन्द्रीय जनजातीय मंत्रालय, केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, मुख्यमंत्री उप्र, मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव एवं पर्यावरण विभाग, प्रमुख सचिव गृह विभाग सहित जिलाधिकारी खीरी, पुलिस अधीक्षक खीरी, उपजिलाधिकारी पलिया व पुलिस क्षेत्राधिकारी पलिया सहित तमाम स्थानीय, राज्य स्तरीय व राष्ट्रीय मीडिया को प्रेषित किया गया।

नोटिस में पार्क प्रशासन को चेतावनी दी गई कि अगर एक सप्ताह के अन्दर अगर लोगों पर जंगल जाने व वनाधिकार कानून के तहत दिए गए अधिकार लघुवनोपज के अधिकार के तहत जलौनी व फूस लाने पर लगाई गई रोक को समाप्त नहीं किया गया तो 20 जनवरी 2010 को दुधवा नेशनल पार्क के अन्दर आने वाले 46 गाॅवों के लोग इकट्ठा होकर बनकटी, सोनारीपुर व दुधवा तीनों रेंज के जंगल में जाएंगे, अगर वन विभाग द्वारा रोक लगाने की कोशिश की गई तो होने वाले संघर्ष में किसी भी तरह की अप्रिय घटना घटने पर वनविभाग व पार्क प्रशासन के खिलाफ वनाधिकार कानून की धारा-7 के तहत कार्रवाई की जाएगी और इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार पुलिस व प्रशासन होंगे।

स्थानीय व लखनऊ मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता से लिया व राज्य सरकार में भी इस नोटिस को लेकर हलचल मची। स्थानीय पुलिस क्षेत्राधिकारी व उपजिलाधिकारी 19 जनवरी की रात करीब 11 बजे तक सूरमा गाॅव में बैठ कर संगठन के अग्रणी साथियों की मिन्नत-खुशामदें करने को मजबूर हुए और वहीं संगठन के साथी रामचन्द्र राणा के घर फोन करके जिलाधिकारी खीरी ने भी अनुनय-विनय की और एक सप्ताह की मोहलत मांगने लगे। लेकिन संगठन के साथी अपनी बात पर अडिग रहे। उनका तर्क था कि इस बीच अगर वन विभाग ने जंगल की फूस में आग लगा दी तो हमारे तो एक तरह से घर जल जाएंगे।

इस पर जिलाधिकारी 2 दिन का समय लेते हुए 22 जनवरी 2010 को जिला मुख्यालय पर वार्ता करने को मजबूर हुए, जिसमें पूरा जिला प्रशासन, वनविभाग व एसएसबी ने संयुक्त रूप से संगठन के प्रतिनिधि मंडल से वार्ता कर लोगों पर लगाई गई रोक को समाप्त करना स्वीकार किया। यह बैठक पूरी तरह से लोगों के दबाव में हुई। अभी तक जो प्रशासन हमेशा वनविभाग के दबाव में रहता था, अब पूरी तरह से लोगों के दबाव में था। लेकिन जनवरी 2011 में फिर वन विभाग द्वारा रोक लगाई गई और इस बार थारू जनजाति की मूल स्वभाव से शान्त प्रवृति की महिलाओं ने लड़ाकू रुख अपनाते हुए सीधा संघर्ष करते हुए सामूहिक रूप से जंगल जाकर अपना अधिकार लिया।

नतीजतन संगठन द्वारा तत्कालीन राज्य सरकार से कानून के क्रियान्वयन के विषय पर कई वार्ताएं की गई व सूरमा, गोलबोझी व एक अन्य गाॅव देवीपुर के मामले को राजनैतिक पटल पर लाने में सफलता हासिल की। ज़मीनी व राजनैतिक प्रयासों के फलस्वरूप अंतत: 8 अप्रैल 2011 को सूरमा, गोलबोझी व देवीपुर 3 गाॅवों को व्यक्तिगत अधिकारों के अधिकार पत्र देकर मान्यता दे दी गई। इसका विजय दिवस उत्सव यहां के लोगों ने 1 मई 2011 को ऐतिहासिक मज़दूर संघर्षों की जीत के प्रतीक मजदूर दिवस के रूप में मनाया, जिसमें देश भर से हजारों लोग शामिल हुए।

जनवरी 2012 में बनकटी रेंज के जंगल में जलौनी लकड़ी लेने गई महिलाओं पर दुधवा वार्डन ईश्वर दयाल व कोतवाल गौरीफंटा के नेतृत्व में पुलिस व वन विभाग ने हमला किया, स्थानीय सूडा गाव की महिला निबादा देवी के माथे पर कोतवाल गौरीफंटा द्वारा रूल से किए गए वार के कारण बुरी तरह से घायल हुई। वार इतना तेज़ था कि कोतवाल का रूल टूट गया और माथा बहुत बुरी तरह से फट गया। महिलाएं फिर आन्दोलनरत हुई और वार्डन व कोतवाल पर एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमा कायम हुआ। वनविभाग द्वारा भी लोगों के खिलाफ लूट व जंगल काटने की धाराएं लगाकर सैकड़ों मुकदमे कायम किए गये।

जनवरी 2013 में पार्क प्रशासन व वन विभाग ने अपने मूल जनविरोधी चरित्र को ना छोड़ते हुए फिर से लोगों पर रोक लगानी शुरू की, लेकिन महिलाओं के नेतृत्व में यहां के थारू आदिवासियों ने संघर्ष का रास्ता अपनाया। इस बीच फरवरी 2013 में संगठन की मौजूदा राज्य सरकार से मुख्यमंत्री उप्र के निर्देश पर प्रदेश के वन मंत्री की अध्यक्षता में वार्ता हुई।

महिलाओं के तेवर और उनके तीव्र आंदोलन के आगे आखिरकार उनको झुकना पड़ा। 9 जून 2013 को उनकी पहल पर थारू आदिवासी मंच के करीब 50 महिला-पुरूष प्रतिनिधियों व अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकर्ता के साथ, परियोजनाधिकारी, उपजिलाधिकारी पलिया व पुलिस क्षेत्राधिकारी पलिया ने बैठक की इस बैठक में वनविभाग की ओर से तीन डीएफओ और दुधवा वार्डन परियोजना अधिकारी के निमंत्रण पर आए, लेकिन बाहर से ही लोगों को बैठा और खुली बातचीत करता देखकर भाग गए।

बहरहाल तय हुआ कि जल्द से जल्द वनाधिकार कानून के नियमावली संशोधन-2012 के तहत वन संसाधन के हक के दावे जल्द से जल्द भरकर उपखण्ड स्तरीय समिति में जमा करवाए जाए और वन संसाधन का अधिकार देने की प्रक्रिया पूरा की जाए। इसी कड़ी में 31 जुलाई 2013 में दावे भरें गए जिन पर अब 7 साल बाद सुनवाई हुई है। इन सात सालों में भी संघर्ष निरंतर जारी रहा हैं। जिसमें उपखण्डीय स्तरीय समिति की सकारात्मक वार्ता के बाद अब आकर, सुखद परिणाम आने की आस जगी है।

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