सुप्रीम कोर्ट की तीन अलग-अलग बेंच करेंगी नफरती भाषणों की जांच सर्वोच्च अदालत द्वारा धार्मिक-राजनैतिक आयोजनों के दौरान दिए गए नफरती बयानों के खिलाफ दो अलग-अलग याचिकाओं की होगी सुनवाई

24, Nov 2022 | CJP Team

10 अकतूबर को नफरती भाषणों के खिलाफ सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देश का माहौल “नफरती बयानों से दूषित” हो रहा है। इसके साथ ही अदालत ने दिल्ली और उत्तराखंड सरकारों से दो अलग-अलग धार्मिक-राजनैतिक आयोजनों में दिए गए एक ही तरह के नफरती भाषणों के संदर्भ में उठाए गए कदम और कार्यवाहियों की रिपोर्ट तलब की है। इसी सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कोर्ट को आश्वस्त किया कि सांप्रदायिक द्वेष भड़काने वाले ऐसे आयोजनों के संदर्भ में सरकार की “ज़ीरो टालरेन्स” (नाकाबिल-ए-बर्दाश्त) की नीति है।

 इस प्रकार उच्चतम न्यायालय की तीन-तीन बेंच देश का माहौल खराब कर रहे इस जहर की जांच कर रही हैं। इनमें हाल ही की एक जनहित याचिका शामिल है जिसमें राजनैतिक साजिश के तहत ऐसे नफरती भाषण दिए जाने के संदर्भ में कुछ मानदंड सुनिश्चित करने की प्रार्थना की गई है। दूसरी याचिका में उत्तराखंड और दिल्ली के आला पुलिस अधिकारियों पर दिसम्बर 2021 में धार्मिक-राजनैतिक आयोजनों में दिए गए द्वेषपूर्ण वक्तव्यों के खिलाफ कार्यवाही न करने के लिए अवमानना लगाने की मांग की गई है। तीसरा मामला सितंबर माह से संबंधित है जिसकी एक अन्य बेंच सुवनाई कर रही है।

सीजेपी हेट स्पीच के उदाहरणों को खोजने और प्रकाश में लाने के लिए प्रतिबद्ध है, ताकि इन विषैले विचारों का प्रचार करने वाले कट्टरपंथियों को बेनकाब किया जा सके और उन्हें न्याय के कटघरे में लाया जा सके। हेट स्पीच के खिलाफ हमारे अभियान के बारे में अधिक जानने के लिए, कृपया सदस्य बनें। हमारी पहल का समर्थन करने के लिए, कृपया अभी दान करें!
  1. आपराधिक साजिश के तहत दिए गए नफरती बयानों पर याचिका

“हर बार जब नफरती भाषण दिया जाता है तो वह कमान से छूटे हुए तीर की तरह होता है जो लौट नहीं सकता।“

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नफरती भाषण निस्संदेह देश का वातावरण बिगाड़ रहे हैं और उन्हें रोका जाना चाहिए। हालांकि अदालत का यह स्पष्ट मानना था कि बिना किसी घटना के विस्तृत विवरण और स्पष्ट व्याख्या के डाली गई सर्वव्यापी याचिका का निबटारा करना मुश्किल है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश यू. यू. ललित एवं न्यायमूर्ती रवींद्र भट्ट की बेंच ने याचिकाकर्ता को नफरती बयानों और आपराधिक साजिश की समस्या को समान्यीकृत तरीके से समझाने की वजाय इन भाषणों के स्पष्ट उदाहरण पेश करने को कहा। जस्टिस ललित का मानना था कि अपील कर्ता के पास नफरती भाषणों द्वारा समाज के दूषित होने के वाजिब कारण हो सकते हैं लेकिन अदालत उनका संज्ञान ठोस तथ्यों के आलोक में ही ले सकती है।

कोर्ट का कहना था- “एक नागरिक के नाते आपका यह कहना शायद सही है कि इन नफरती बयानों के कारण पूरा माहौल खराब हो रहा है और आपके पास यह कहने का वाजिब तर्क है कि इन गतिविधियों पर रोक लगनी चाहिए।“

अपनी याचिका में ऐड्वकेट हरप्रीत मनुसखानी सैगल का कहना था कि एक साजिश के अंतर्गत भारत को एक पुलिस स्टेट में बदलने की कोशिश की जा रही है जहां आम नागरिक के साथ असंवैधानिक और मनमाने तरीके से उत्पीड़न हो रहा है। याचिका कर्ता के अनुसार इसका अर्थ नागरिकों के खिलाफ राज्य द्वारा प्रायोजित हिंसा है जहां ऐसे भाषण देने वाले “आतंकी संगठनों’ और यहाँ तक कि सुरक्षा एजेंसियों से मिले हुए हैं। उनके अनुसार इस स्थिति की गहराई और गंभीरता को समझने हेतु इन अपराधों को लिंग, संप्रदाय एवं अन्य श्रेणियों के आधार पर सबसे कमजोर तबकों के प्रति द्वेष और भेदभाव के रूप में देखना होगा।

“Live Law” जैसी कई मीडिया वेबसाईट्स द्वारा रिपोर्ट की गई इस सुनवाई के दौरान याचिका कर्ता ने कहा- “इस याचिका के सारांश (synopsis) में मैंने कहा है कि यहाँ एक सोची-समझी साजिश के तहत नफरती भाषणों को एक हथियार की तरह अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है ताकि सर्वसत्ता हासिल की जा सके और 2024 के चुनाव से पहले भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाया जा सके। मुझे भारी मन से कहना पड़ता है कि प्रतिवादियों द्वारा इसी नीयत से अल्पसंख्यकों का नरसंहार करने की बात की जा रही है…… इस याचिका में दर्ज 72 नफरती भाषणों, ‘धर्म संसद’ में दिए गए भाषणों और फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ में बोले गए नफरती बोल आदि पृथक घटनाओं की तरह नहीं बल्कि गंभीर षड्यन्त्र के रूप में देखे जाने चाहियें।“

इस जनहित याचिका में 42 पक्षों को प्रतिवादी बनाया गया है, जिसमें केंद्र सरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह आदि शामिल हैं। याचिका के अनुसार इन भाषणों का लक्ष्य इसे हथियार की तरह इस्तेमाल करके नरसंहार को अंजाम देना है ताकि 2024 चुनावों से पूर्व बहुसंख्यक तानाशाही स्थापित की जा सके।

याचिकाकर्ता का आगे आरोप था कि धर्म संसद में नफरती भाषण, अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की दुखद मृत्यु का इस्तेमाल और अल्पसंख्यकों पर हमले इसी साजिश का सबूत हैं।

उनका यह भी कहना था कि ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म को सरकार द्वारा टैक्स में छूट देना और सत्ताधारी पार्टी द्वारा उसकी फन्डिंग नफरत को “मुनाफे के सौदे” में बदलने की साजिश है। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा के पदाधिकारियों ने सार्वजनिक बयानों में “अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को मारने और उन्हें गिरफ्तार करवाने” की बात मानी है।

उन्होंने जोर देकर कहा कि यह सभी अलग-अलग घटनाएँ न होकर एक पैटर्न का हिस्सा हैं। नफरती बयानों के बारे में पहले भी कई वकीलों ने बात रखी है। 76 वकीलों ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री रमन्ना को मुसलमानों को नफरती बयानों से निशान बनाने के संदर्भ में स्वतः संज्ञान लेकर कार्यवाही करने की अपील की थी। फिर भी कोई कार्यवाही नहीं हुई है। सेना के पूर्व आला अधिकारियों व अन्य अफसरों, सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारियों एवं अन्य कई नागरिकों ने इस संदर्भ में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है लेकिन इस सब पर चुप्पी साध ली गई है और कोई एक्शन नहीं लिया गया। 1 सितंबर 2022 को मानिनीय जस्टिस चंद्रचूड़ एवं जस्टिस हिमा कोहली ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश व कई अन्य जगहों पर हुए हमलों के संदर्भ में स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने हेतु दो महीने का समय दिया। इस संदर्भ में उन्होंने तहसीन पूनवाला मामले के आदेश में दिए गए दिशानिर्देशों का भी हवाला दिया।“

याचिका कर्ता ने नफरती भाषणों के और भी कई उदाहरण गिनवाते हुए पूर्व में इसी मुद्दे पर डाली गई एक याचिका का संदर्भ दिया जिसमें पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने एक आदेश पारित किया था कि चुनावों में नफरती भाषणों की अनुमति नहीं होनी चाहिए। उन्होंने याद दिलाया कि योगी आदित्यनाथ एवं मायावती को चुनाव प्रचार करने से रोका गया था और चुनाव आयोग का कहना था कि नफरती बयानों पर एफआईआर भी करवाई जाएगी।

इस सब पर (अब पूर्व) मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि इस याचिका में यह इशारा किया गया है कि कुछ व्यक्तियों ने नफरती भाषण दिए हैं और कोर्ट का काम उन्हें इस अपराध के लिए सजा देना है। लेकिन अदालत को इस संदर्भ में कोई जानकारी नहीं दी गई है, मसलन, कि ये मामले कहाँ और कब दर्ज किए गए। मुख्य न्यायाधीश ने याचिका कर्ता को यह सलाह दी कि वे नफरती भाषणों के स्पष्ट उदाहरणों को लेकर आयें ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रशासन ने उनपर कार्यवाही की या नहीं।

“लाइव लॉ” की रिपोर्ट के अनुसार पूर्व मुख्य न्यायाधीश ललित ने नफरती भाषणों के उदाहरण लेकर आने की जरूरत बताते हुए मौखिक रूप से कहा “हमें इन अपराधों के विषय में पूरी बातें भी पता नहीं, कि अब क्या स्थिति है, आपका उनपर क्या कहना है, कौन लोग इसमे शामिल थे, अपराध का मामला दर्ज हुआ कि नहीं, इत्यादि। संभतः आपका यह कहना सही है कि नफरती भाषणों की वजह से वातावरण दूषित हुआ है। शायद आपके पास यह कहने का भी पर्याप्त आधार है कि इनपर रोक लगनी चाहिए। लेकिन धारा 32 के अंतर्गत ऐसी सांकेतिक याचिका नहीं चल सकती। यदि आपको इस संदर्भ में न्यायमित्र के रूप में एक वरिष्ठ अधिवक्ता की सहायता मिले तो इसपर आगे विचार किया जा सकता है।“

बेंच का कहना था कि इस याचिका में हेट स्पीच के 58 उदाहरण दिए गए हैं। याचिका कर्ता को चाहिए कि अदालत की सामान्य धारणा (general impression) बनाने की जगह हालिया घटनाओं पर अपना ध्यान केंद्रित करें और अपराध दर्ज हुआ कि नहीं, अपराध में कौन व्यक्ति शामिल हैं और जांच में क्या प्रगति हुई, जैसी जानकारी जुटाएँ।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले में कोई स्पष्ट आदेश देने की असहजता व्यक्त करते हुए कहा “न्यायालय द्वारा किसी घटना का संज्ञान लेने हेतु मामले की तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध होनी चाहिए। आप उदाहरण और नमूनों के तौर पर एक या दो मामले को उठा सकते हैं। लेकिन ऐसी याचिका जिसमें नफरती भाषणों के 58 मामलों का जिक्र कर दिया जाए बहुत बेतरतीब मालूम होती है। अतः हमें इशारों से समझाने की जगह आप हालिया घटित घटनों पर ध्यान केंद्रित करें”।

इस मौजूदा जनहित याचिका में यह तर्क दिया गया है कि सांप्रदायिक घृणा पर आधारित अपराध और हिंसा के जरिए अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना, बहुसंख्यकों का सहियोग जीतना, गैर-भाजपा शासित राज्यों की सरकारें गिराना और भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलने की कोशिश देश को तोड़ने वाले आपराधिक कृत्य हैं। उनका मानना है कि इन अपराधों की मंशा और पैटर्न से लोकतंत्र की बुनियाद हिली है और देश भर में अस्थिरता का माहौल बना है।

कोर्ट ने याचिका कर्ता को 31 अकतूबर तक पूरक हलफ़नामा (supplementary affidavit) दाखिल करने को कहा जिसमें कथित अपराधों का स्पष्ट लेखाजोखा और जांच के दौरान की गई कार्यवाही का ब्योरा शामिल है। अदालत ने सुनवाई की अगली तारीख 1 नवंबर मुकर्रर की।

  1. ‘धर्म संसद’ नफरती भाषण मामलों में दायर अवमानना याचिका

10 अकतूबर के दिन सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार एवं दिल्ली सरकार को उस अवमानना याचिका (contempt petition) के जवाब में सभी तथ्यों की जानकारी देते हुए हलफ़नामा दायर करने को कहा जिसमें उत्तराखंड पुलिस के डीजीपी और दिल्ली पुलिस के कमिशनर पर उत्तराखंड के हरिद्वार में आयोजित ‘धर्म संसद’ और राष्ट्रीय राजधानी में हिन्दू युवा वाहिनी के एक कार्यक्रम के दौरान कई व्यक्तियों द्वारा दिए गए नफरती भाषणों के खिलाफ कार्यवाही करने में असफलता और अदालत की अवज्ञा का आरोप लगाया गया है।

जस्टिस चंद्रचूड़ एवं जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने यह आदेश सामाजिक कार्यकर्ता तुषार गांधी द्वारा डाली गई अवमानना याचिका को सुनने के पश्चात जारी किया। अदालत ने कहा कि अभी इस समय अवमानना का नोटिस नहीं दिया जा रहा बल्कि उनकी दिल्ली एवं उत्तराखंड सरकारों से यह जानने की मंशा है कि इन ‘धर्म संसदों’ में दिए गए द्वेषपूर्ण और नफरत से भरे भाषणों पर क्या कार्यवाही की गई है। अदालत ने कहा-“अभी हम अवमानना का नोटिस नहीं दे रहे। इस बीच दिल्ली और उत्तराखंड पुलिस वास्तविक स्थिति और की गई कार्यवाही को बताते हुए एक हलफ़नामा दायर करे।“

क्योंकि देश के नए अटर्नी-जनरल आर. वेंकटरमणी ने हाल ही में पदभार संभाला है, अतः बेंच ने मामले को 4 हफ्ते बाद सुनने का फैसला किया ताकि वे इस मामले का अध्ययन कर सकें। नए अटर्नी जनरल वेंकटरमणी ने मीडिया से बात करते हुए कहा “इसपर आगे की कार्यवाही तय करने में कुछ समय लगेगा। अब तक तीन हलफनामे दायर हो चुके हैं।“ उन्होंने यह भी कहा कि “यह सब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।“

याचिकाकर्ता की ओर से अदालत में पेश हुए ऐड्वकेट श्री शादान फरासत ने यह भरोसा दिलाया कि वे अवमानना याचिका की एक प्रति अटर्नी जनरल के सहायक अधिवक्ता को उपलब्ध करा देंगे। इसके साथ-साथ, अदालत ने याचिका कर्ता के पक्ष को संबंधित राज्य सरकारों को भी अवमानना याचिका में शामिल करने की स्वतंत्रता दी।

सामाजिक कार्यकर्ता एवं महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी ने उत्तराखंड पुलिस के तत्कालीन डीजीपी अशोक कुमार एवं दिल्ली पुलिस के तत्कालीन कमिशनर राकेश अस्थाना पर इस साल के जनवरी में अवमानना याचिका दायर की थी जिसमें यह आरोप था कि हरिद्वार में 17-19 दिसम्बर 2021 को विवादित ‘धर्म संसद’ एवं दिल्ली में 19 दिसम्बर को हिन्दू युवा वाहिनी द्वारा आयोजित कार्यक्रम होने दिए गए। याचिकाकर्ता के अनुसार ये आयोजन 2017 के सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के खिलाफ जाकर होने दिए गए जिसमें नफरती भाषणों पर रोक लगाने की बात कही गई थी। वकील श्री फरासत ने कहा कि इन राज्यों की पुलिस ने तहसीन पूनावाला बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी उस आदेश पर कोई कार्यवाही नहीं की जिसके तहत नफरती भाषण और मॉब लिन्चिंग के संदर्भ में निरोधक (preventive), दंडात्मक (punitive) एवं उपचारात्मक (remedial) दिशानिर्देश जारी किए गए थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यह भाषण साफ तौर पर घृणा और द्वेष से संचालित थे जिनमें एक नरसंहार के जरिए अल्पसंख्यक समाज के लोगों के समूल विनाश का आवाहन किया गया था।

श्री तुषार गांधी तहसीन पूनावाला बनाम भारत सरकार (2018) वाले फैसले में भी याचिकाकर्ताओं में शामिल थे, जिसमें नफरती भाषण और मॉब लिन्चिंग की रोकधाम पर दिशानिर्देश जारी किए गए थे।

वादी के वकील का आगे कहना था कि उक्त आयोजनों में नफरती भाषण देने वाले नौ लोगों में से सिर्फ दो की गिरफ़्तारी हुई जबकि सात के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। एक रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा कि “यह सिर्फ नफरती भाषण नहीं, बल्कि हिंसा और एक समुदाय को मिटा देने का आवाहन है। उत्तराखंड धरम संसद मामले में नौ लोगों ने ऐसे भाषण दिए लेकिन सिर्फ दो को गिरफ्तार किया गया। बाकियों को कभी गिरफ्तार नहीं किया गया। जबकि ये भाषण एकदम स्पष्ट थे और कोई भी बात इशारों में नहीं की गई। स्थानीय प्रशासन के पास शिकायत कराने के बावजूद यह आयोजन होने दिया गया।“

याचिका में यह भी दावा किया गया कि दिए गए नफरती भाषणों के उसी समय से इंटरनेट पर मौजूद होने के बावजूद उत्तराखंड को पुलिस को एफआईआर दर्ज करने में चार दिन लगे। तिसपर भी सिर्फ एक व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही हुई जबकि हरिद्वार की उस धर्म संसद में सात लोग मौजूद थे जहां अल्पसंख्यक समुदाय के नरसंहार की बात की गई। अन्य आरोपियों अन्नपूर्णा माँ, धरमदास, सागर सिंधु महाराज एवं यति नरसिंहानंद गिरी के नाम एफआईआर में जनता के लगातार विरोध और सोशल मीडिया पर आलोचना के बाद जोड़े गए।

इस आयोजन के लगभग दो हफ्ते बाद 1 जनवरी 2022 को एक दूसरी एफआईआर दर्ज की गई जिसमें यति नरसिंहानंद गिरी, सिंधु सागर, साध्वी अन्नपूर्णा, धरमदास, परमानन्द, आनंद स्वरूप, अश्विनी उपाध्याय, सुरेश चव्हाणके, प्रबोधानंद गिरी एवं जितेंद्र नारायण त्यागी का नाम जोड़ा गया लेकिन सिर्फ धारा 153A और 295A के तहत जबकि नफरती भाषण इतने गंभीर थे कि धारा 121A, 124A, UAPA की धारा 15 व 16 के साथ जोड़कर भारतीय दंड संहिता की धारा 120B, एवं भारतीय दंड संहिता की ही धारा 153B, 295A, 298, 505 और 506 लगनी चाहिए थीं। 6 जनवरी 2022 को अवमानना याचिका दायर करने के समय तक दिल्ली पुलिस ने हिन्दू युवा वाहिनी के आयोजन में दिए गए नफरती भाषणों पर रिपोर्ट दर्ज नहीं की थी।

इस याचिका ने इस बात पर भी ध्यान दिलाया है कि हरिद्वार धर्म संसद मामले में एफआईआर दो हफ्ते से ज्यादा समय तक नहीं दर्ज की आई और कुछ मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इसमें स्थानीय प्रशासन और पुलिस की मिलीभगत थी। दिल्ली के आयोजन के संदर्भ में यह सूचित किया गया कि याचिका डालने के पूर्व कई हफ्तों तक नफरती भाषणों पर कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई।

‘इंडिया टूडे’ की एक रिपोर्ट के अनुसार याचिका में कहा गया “दिल्ली पुलिस प्रशासन द्वारा जानबूझकर ढिलाई इस बात से मालूम होती है कि हिन्दू युवा वहिनी द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में मौजूद सुदर्शन टीवी के संपादक सुरेश चव्हाणके समेत उस किसी भी व्यक्ति पर एफआईआर दर्ज नहीं हुई है जिन्होंने अन्य लोगों को जर्मनी के नाज़ी सलूट की मुद्रा में हाथ उठवाकर भारत को “हिन्दू राष्ट्र” बनाने की शपथ दिलवाई और इसके लिए हिंसक रास्ता अपनाने के लिए उकसाया। सुप्रीम कोर्ट में अब इस मुद्दे पर नवंबर के आखिरी सप्ताह में सुनवाई होनी है।

  1. 21 सितंबर को न्यायमूर्ति जोसफ के नेतृत्व वाली बेंच ने टीवी पर दिखाए जा रहे ऐसे बयानों की रोकधाम के लिए किसी विधिवत कानून के न होने पर नाखुशी जाहिर की और हेट स्पीच को उस “जहर” की संज्ञा दी जो देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रहा है। बेंच द्वारा केंद्र सरकार को यह तय करने के लिए दो महीने का समय दिया गया कि क्या वह “हेट स्पीच” को अपराध की श्रेणी में लाने के लिए कानून पारित करेगी। उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि विभिन्न टीवी चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए “नफरत और ऐसे अन्य सनसनीखेज” विषयों का इस्तेमाल कर रहे हैं। बेंच ने सवाल उठाया कि केंद्र यहाँ “मूक दर्शक” बनकर क्यों बैठा है और साथ ही यह कहा कि नफरती भाषण प्रसारित होने से रोकने की जिम्मेदारी टीवी ऐंकर की है।

ज्ञात रहे कि इस संदर्भ में हमारी संस्था सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एण्ड पीस (CJP) की कानूनी रिसर्च टीम ने इस लेख में नफरती भाषण के संदर्भ में भारतीय न्यायशास्त्र के गहन होते अवलोकन का जिक्र किया था।

नफरती भाषण के संदर्भ में भारतीय न्यायशास्त्र का विकास

इन सभी मुद्दों को एकसाथ रखते हुए 20 जुलाई 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने सचिव, गृह मंत्रालय, भारत सरकार को अपने पूर्व के आदेश के संदर्भ में राज्य सरकारों द्वारा लिए गए निरोधक, सुधारात्मक एवं उपचारात्मक कदमों की जानकारी जुटाकर प्रस्तुत करने को कहा। केंद्र सरकार ने अब तक ऐसी जानकारी नहीं दी है और अब उसे छह हफ्ते के भीतर इसे एक पुस्तिका के रूप में जमा करने को कहा गया है।

कोडंगल्लूर फिल्म सोसाइटी बनाम भारत सरकार, तहसीन पूनावाला बनाम भारत सरकार और शक्ति वाहिनी बनाम भारत सरकार मामलों में अदालत द्वारा पारित आदेशों के अनुपालन का उल्लेख करते हुए जस्टिस ए. एम. खनविलकर, जस्टिस अभय श्रीनिवास ओक एवं जस्टिस जे. बी. पारदीवाला की बेंच ने कहा था- “हम सचिव, गृह मंत्रालय, भारत सरकार से यह आग्रह कर रहे हैं कि वे संबंधित राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों से याचिकाकर्ता के वकीलों द्वारा एक सप्ताह के भीतर तैयार किए जाने वाले कॉमन चार्ट से संबंधित मामलों की जानकारी इकट्ठा कर यहाँ रखें। यह जानकारी मूल रूप से उक्त फैसलों में दिए गए वक्तव्यों और आदेशों के अनुपालन के संदर्भ में निरोधक, सुधारात्मक और उपचारात्मक कार्यवाहियों से संबंधित है जिसके तहत उन अप्रिय घटनाओं को रोका जा सेक जिनका याचिका में जिक्र किया गया है।“

और पढ़िए

हेट वॉच: शिक्षक द्वारा पिटाई के बाद दलित बच्चे की मौत; पुलिस ने “जाति एंगल” से इनकार किया

Hate Watch: ‘Swami’ Jitendranand Saraswati calls for lynching of pregnant women

ज्ञानवापी मामले पर नागरिक एकजुट, कहा: हमें मंदिर-मस्जिद नहीं, शांति और रोजगार चाहिए

 

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Go to Top
Nafrat Ka Naqsha 2023