सूफ़ी एकता की इबारत! सामाजिक सौहार्द की अनोखी मिसाल है हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह! हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह अक़ीदत, एकता और सांप्रदायिक सद्भावना के विविध ख़ूबसूरत पहलुओं को सहेजती है. सूफ़ी आस्था की नींव पर ये पवित्र दरगाह लंबे अरसे से हिंदुस्तान में आपसी भाईचारे की गवाह है.

04, Nov 2023 | Mariyam Usmani

अनेक श्रद्धालु दिल्ली के ऐतिहासिक शहर को सूफ़ी परंपरा के केंद्र के तौर पर भी देखते हैं. अनेक ख़ूबसूरत कलाओं, तहज़ीब, स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास और अलग-अलग विश्वास वाले लोगों से जगमग शहर दिल्ली को हज़रत निज़ामुद्दीन की चौखट पर रूहानियत का नया आसमान मिलता है.

इमारत की कलात्मक दीवारों पर चमकते आस्था के महीन सुर्ख़ धागों के साथ इस दरगाह ने लोगों को जोड़ने और उनमें एकता का जज़्बा मज़बूत करने की बेमिसाल परिपाटी को वर्षों से क़ायम रखा है.

नफ़रत, हिंसा और निराशा के समय में आपसी मेलजोल की सदियों पुरानी विरासत को संजोना बेहद ज़रूरी है. मज़हबी एकता और सद्भाव भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्षता की नींव हैं. भाईचारे की इन नायाब कहानियों के ज़रिए हम नफ़रत के दौर में संघर्ष के हौसले और उम्मीद को ज़िन्दा रखना चाहते है. हमारी #EverydayHarmony मुहिम देश के हर हिस्से से एकता की ख़ूबसूरत कहानियों को सहेजने की कोशिश है. ये कहानियां बताती हैं कि कैसे बिना भेदभाव मेलजोल के साथ रहना, मिलबांटकर खाना, घर और कारोबार हर जगह एकदूसरे की परवाह करना हिंदुस्तानी तहज़ीब की सीख है. ये उदाहरण साबित करते हैं कि सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनल्स के भड़काऊ सियासी हथकंड़ों के बावजूद भारतीयों ने प्रेम और एकता को चुना है. आईए! हम साथ मिलकर भारत के रोज़मर्रा के जीवन की इन कहानियों के गवाह बनें और हिंदुस्तान की साझी तहज़ीब और धर्म निरपेक्ष मूल्यों की हिफ़ाज़त करें! नफ़रत और पूर्वाग्रह से लड़ने के सफ़र में हमारे साथी बनें! डोनेट करें

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ये दरगाह मुसलमान तबके, ग़ैरमुसलमान समुदायों से गुलज़ार और आपसी जुड़ाव के रंगों के साथ आबाद रहती है. धार्मिक एकता की श्रृंखला में यहां वसंत पंचमी का त्योहार बेदह ख़ूबसूरत होता है जिसमें हिंदू और मुसलमान भारी तादाद में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं और सभी मिलकर सद्भावना का ख़ूबसूरत जश्न मनाते हैं. आज, आगे बढ़ने की होड़ के बीच रूहानियत के सामने सिर झुकाने का ज़ज़्बा इस दरगाह का सबसे दिलकश मंज़र है. यहां लोग अमनपरस्त माहौल में सकून हासिल करते हैं और अपने क़दमों को पल भर रोककर इबादत, ज़िक्र और दुआ के मौजज़ों की दुनिया में क़दम रखते हैं. मज़हबी उरूज के साथ ही ये दरगाह समानता, आज़ादी और रूहानी यारियों की नायाब दास्तान भी कहती है. 

हज़रत निज़ामुद्दीन का मुग़ल चित्र – स्त्रोत – विकिपीडिया 

हज़रत निज़ामुद्दीन की सूफ़ी परिपाटी के रंग

उर्दू भाषा के महान शायर राकिम देहलवी ने एक शेर के ज़रिए इस अज़ीम हस्ती की याद में क्या ख़ूब लिखा है- 

ख़ुदाया बाद महशर के अगर आलम हो फिर पैदा,

तमाशागाह-ए-आलम में निज़ामुद्दीं को शाही हो.  

ये सिर्फ़ ज्ञान की सूफ़ी परिपाटी की एक हल्की सी झलक भर है. हज़रत निज़ामुद्दीन एक मुस्लिम सूफ़ी फ़कीर थे जिन्होंने ज़िंदगी का असल मक़सद तलाशने के लिए इबादत का रास्ता चुना था. क़रीब चौदहवीं सदी में उन्होंने फ़रीदुदीन गजशंकर और मोइनुद्दीन चिश्ती के नक़्शे क़दम पर मज़हब और इस्लामी क़ायदों का गहरा इल्म हासिल किया था. इसके अलावा बाबा फ़रीद और तूती-ए-हिंद के नाम के मशहूर महान कवि अमीर ख़ुसरो भी ताउम्र उनके अज़ीज़ रहे और बाद के शागिर्दों ने ये जगमग सूफ़ी परंपरा कायम रखी. 

उनकी ये मज़ार हुमायूं के मकबरे से काफ़ी नज़दीक है और विभिन्न धर्म, वर्ग और समुदायों के लोग यहां सकून की खोज में और मुरादें लेकर आते हैं और फिर इबादत के लिए एक ही रौ में सिर झुकाते हैं. हज़रत अमीर ख़ुसरो की क़्रब और उससे जुड़ी अन्य क़ब्रें एक ही छत के नीचे होने के कारण यहां बड़ी तदाद में भीड़ उमड़ती है. 

हज़रत निज़ामुद्दीन और अमीर ख़ुसरो के दीवाने यहां बिल्कुल पड़ोस में उर्दू ज़बान के अज़ीम शायर मिर्ज़ा ग़ालिब को भी ख़िराजे अक़ीदत पेश करते हैं. ये मज़ार भी हमारी सहधर्मी तहज़ीब का नमूना है. हमें भूलना नहीं चाहिए कि मुसलमान होने के बावजूद ग़ालिब ने दुनिया को मंदिरों के शहर बनारस की दिलकशी पर फ़ारसी में बेहतरीन रचनाओं का तोहफ़ा दिया है. 

हज़ारों की तादाद में व्यवसायी, फ़कीर, इतिहासकार, आम नागरिक और मशहूर क़व्वाल यहां भारतीय उपमहाद्वीप के अलग- अलग हिस्सों से तशरीफ़ लाते हैं और रचनात्मकता के साथ फलती-फूलती सूफ़ी परंपरा में ख़ास भूमिका अदा करते हैं. ये जगह भेदभाव को घटाती है और महकते हुए अक़ीदों के साथ लोगों को आपस में जोड़ती है. 

 

उम्मीदों के जश्न वसंतपंचमी की विरासत

इस दरगाह के पास की गलियां हमेशा अक़ीदतमंदों की आवाज़ही से गुलजार रहती हैं जिस कारण वसंत पंचमी की रौनक़ यहां क़ाबिले-दीदार होती है. हर साल दरगाह कमेटी वसंत-पंचमी के जश्न के लिए यहां ख़ास इंतज़ाम करती है. पीले थालपोश से सजे थाल, गुलाब और चमेली की ख़ूशबू, क़ुरआन की तिलावत और शाम ढले ‘क़ुन फ़ा या कुन’  क़व्वाली या ‘आज रंग है री’ की धुनों में गूंजते सूफ़ी पैग़ाम यहां का ख़ास आकर्षण हैं. यहां हज़रत अमीर ख़ुसरो के गीतों से वसंत का स्वागत धार्मिक एकता को हर साल नए सिरे से ताज़ा करता है. हिंदू समुदाय के लोग भी इस जश्न में पूरी बराबरी से बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं जिससे ये त्योहार और भी ख़ूबसूरत बन जाता है.   

सूफ़ियों ने हमेशा ही अपने रूहानी उरूज के लिए रहस्यवाद और अनदेखे की इबादत में भरोसा जताया है जिससे इश्क़े-हक़ीक़ी के रास्ते को रोकने वाले मसलों को हल किया जा सके. इस दरगाह का एक नारीवादी पहलू भी है जिससे एक ज़्यादा जागृत और संवेदनशील आबादी के लिए भी इबादत का दरवाज़ा खुलता है. हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह में औरतों के लिए इबादत का एक अलग कोना है जहां वो सकून से नमाज़ अदा कर सकती हैं. ये एक ख़ूबसूरत बदलाव का सबूत भी है जिससे समग्र नैतिकता को बल मिलता है.  

इबादत और अक़ीदत के विविध क़िस्से

अनेक रिवाजों के बीच दुआ-ए-रौश्नी इस मज़ार की सबसे समृद्ध परंपराओं में से एक है. इस्लाम में सूरज डूबने के बाद रौश्नी जलाने को फ़रिशते की आमद से जोड़कर देखा जाता है जो अक़ीदे के मुताबिक़ मौत के बाद ईमान की नब्ज़ टटोलने के लिए कुछ सवाल पेश करता है. परंपरागत इस्लामी रिवायतों के हिसाब से लोग अंधेरे में रौश्नी जलाते वक़्त एक ख़ास दुआ दोहराते हैं. दुआ-ए-रौश्नी के वक्त पिया निज़ामुद्दीन औलिया के चाहने वाले आंगन में समूहिक प्रार्थनाओं के लिए इकट्ठा होते हैं. कुछ अरसे पहले हिंदुस्तान टाइम्स ने हरिबाबू नामक एक हिंदू श्रद्धालू की कहानी प्रकाशित की थी जो कि पिछले 40 सालों से इस इमारत में दुआ-ए-रौश्नी की परंपरा को पूरी ज़िम्मेदारी से निभा रहे हैं. इस रिपोर्ट को हज़रत निज़ामुद्दीन एक अन्य अक़ीदतमंद मयंक आस्टिन सूफ़ी ने पेश किया था जो कि अंग्रेज़ी के समसामयिक लेखक और फ़ोटोग्राफ़र होने के साथ दिल्ली के लोगों और जगहों के बीच जादुई वास्तविकता की बेहतरीन तस्वीरकशी करते हैं. हज़रत निज़ामुद्दीन के इर्द-गिर्द उनका काम देश-विदेश के साहित्यकारों, कलाकारों और वैचारिक लोगों का ध्यान खींचता है. 


हरिबाबू-  तस्वीर – मयंक आस्टिम सूफ़ी – हिंदुस्तान टाइम्स से साभार

जब हम एक ही सूरज की छत के नीचे रहते हैं और एक ही प्यास की नदी में तैरते हैं तो फिर हम मज़हब के नाम पर इतनी दीवारें क्यों बना लेते हैं ? जब इंसानियत से प्यार का जज़्बा अक़ीदत का सबसे उजला मक़सद है तो हम एक ही धरती पर रहने के बावजूद इतनी दीवारें क्यों गढ़ लेते हैं?

सूफ़ीवाद के अनुसार अल्लाह की रस्सी को थामना ही अपने महबूब का प्यार पाने का अकेला तरीक़ा है. मानवता और दया के रास्ते पर चलकर ही हम प्रेम के सबसे ऊंचे दर्जे को हासिल कर सकते हैं और हौसले के साथ सही मक़सद के लिए अपनी आवाज़ बुलंद कर सकते हैं. 

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