संयुक्त राष्ट्र ने असम NRC मुद्दे पर भारत सरकार से पूछे कड़े प्रश्न पत्र लिख कर अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन सम्बंधित अनुलग्न के तहत कर्तव्यों का कराया स्मरण

15, Jun 2019 | CJP Team

संयुक्त राष्ट्र के पांच अधिकारियों ने भारत सरकार को हाल ही में असम NRC के मुद्दे को लेकर पत्र लिखा है। इस पत्र में भारत सरकार से अपने पूर्व के दो पत्रों पर कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर अधिकारियों ने खेद भी प्रकट किया है। संयुक्त राष्ट्र ने असम NRC की प्रक्रियाओं और उससे संबंधित मानवाधिकारों के उल्लंघन पर चिंता जताई है।

 

लेह टोमेई (वर्किंग ग्रुप ऑफ़ आर्बिटवर्ल्ड डिटेंशन के वाइस-चेयर), डेविड काये (अभिव्यक्ति और विचार की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रचार और संरक्षण से जुड़े विशेष अधिकारी),फ़र्नांड डी वर्नेनेस (अल्पसंख्यक मुद्दों से जुड़े विशेष अधिकारी), ई तेंदेई अचियम (जातिवाद,नस्लीय भेदभाव, और संबंधित असहिष्णुता के मुद्दों से जुड़े विशेष अधिकारी) और अहमद शहीद (धर्म या आस्था की स्वतंत्रता के मुद्दों से जुड़े  विशेष अधिकारी) ने संयुक्त राष्ट्र की ओर से भारत सरकार को पत्र लिखा है।

संयुक्त राष्ट्र ने अपने पत्र में सीधे मुद्दे की बात करते हुए उन लोगों के खिलाफ फैलते द्वेष और कट्टरपंथी विचारधारा पर चिंता व्यक्त की है जिन्हें “विदेशी” और “घुसपैठी” मान लिया गया है। उन लोगों में से अधिकांश नस्लीय, जातीय, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक समूहों में से हैं।

NRC ड्राफ्ट में 40 लाख लोगों को शामिल नहीं किया गया था, जिनमें से अधिकतर लोग सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों से हैं। गुजरात में कानूनी सहायता प्रदान करने के अपने पुराने अनुभवों से प्रेरित होकर CJP ने अब NRC पीड़ितों की मदद के लिए कदम उठाया है। CJP ऐसे मुद्दों के लिए विशेष वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम के साथ यह सुनिश्चित करेगी कि बुरी तरह प्रभावित जिलों में से 18 जिलों के पीड़ितों को अपना दावा दाखिल करते समय उचित अवसर प्राप्त हो सके। CJP के इस प्रयास में आपके योगदान से कानूनी टीम की लागत, यात्रा, प्रलेखीकरण और तकनीकी खर्चों का भुगतान किया जाएगा। कृप्या पीड़ितों की मदद के लिए यहाँ  click करें।

संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने 11 जून, 2018 और 13 दिसंबर, 2018 को लिखे अपने पिछले पत्रों का भी उल्लेख किया है। उन्होंने कहा है कि “हमें बेहद अफसोस है कि आज तक आपकी माननीय सरकार ने इन पत्रों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, और न ही हमें इस विषय पर कोई अतिरिक्त जानकारी दी है। साथ ही हमारे किसी प्रश्न पर या टिप्पणी पर कोई स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र ने अपने पत्र में मानवाधिकार संकट के प्रति भारत सरकार के उदासीन रवैये की ओर इशारा किया है। उन्होंने कहा कि “हम लाखों लोगों के मानवाधिकार और कानूनी अधिकारों को प्रभावित करने वाले मुद्दे पर बातचीत के लिए आपकी सम्मानीय सरकार की अनुपस्थिति पर बेहद खेद व्यक्त करते हैं। उन लोगों में विशेष रूप से अल्पसंख्यकों से संबंधित और दूर-दराज एवं सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोग शामिल हैं। जिन्हें बेघर किया जा सकता है, या लंबे समय के लिए कारावास दिया जा सकता है, या उन देशों में वापस जाने के लिए मजबूर किया जा सकता है जहां वे कभी अतीत में रहे ही न हों।

CJP ने NRC प्राधिकरण के उपेक्षित व्यवहार और लोगों के उत्पीड़न पर प्रकाश डाला

CJP इस बात पर प्रकाश डाल रहा है कि इतने बड़े मानवीय संकट होने के बावजूद कैसे NRC अधिकारीयों द्वारा आज भी असम में लोगों के प्रति निर्दयतापूर्ण उपेक्षित व्यवहार और उत्पीड़न जारी है। हमने यह भी बात उठाई थी कि नागरिक सेवा केन्द्रों (NSK) के कर्मचारियों तक को भी पता नहीं है कि सुधार आवेदन कब स्वीकार करना है। इसलिए बाद में इसके लिए समय सीमा बढ़ाई भी गई। हालांकि इससे आर्थिक रूप से पिछड़े और अशिक्षित लोगों की विकट परिस्थिति में कोई राहत नहीं मिली जो ऑनलाइन फॉर्म डाउनलोड करने में भी असमर्थ थे।

हम अधिकारियों के उपेक्षित व्यवहार से जुड़ी घटनाओं पर भी रिपोर्ट कर के उन्हें उजागर कर चुके हैं। मिसाल के तौर पर जब 300 असहाय लोग NRC के दावों के लिए एक केंद्र पर अधिकारी का इंतजार कर रहे थे तब CJP के हस्तक्षेप के बाद ही सुनवाई के लिए अधिकारी सुनिश्चित किए गए और प्रक्रिया संभव हो पाई। हमने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला कि कैसे जान बूझ कर दूर-दराज के सुनवाई केंद्र में बुला कर लोगों को परेशान किया जा रहा था। CJP ने NRC से बाहर रखने के उद्देश्य से कुछ जातिय या धार्मिक पृष्ठभूमि के लोगों के खिलाफ दायर झूठे आपत्ति आवेदनों का उल्लेख करते हुए अराजक ताकतों के नापाक इरादों पर भी प्रकाश डाला था।

 

संयुक्त राष्ट्र द्वारा नियुक्त अधिकारीयों ने पत्र में मानवाधिकारों के उल्लंघन से जुड़ी घटनाओं का उल्लेख किया

अधिकारीयों ने 31 दिसम्बर 2018 की समय सीमा के बाद लोगों को डराने-धमकाने, उत्पीड़न और उनके साथ हुए भेद-भाव से जुड़ी नई घटनाओं पर भी चिंता व्यक्त की है।

पत्र में लिखा है कि

“मिली जानकारी के अनुसार:

30 जुलाई 2018 को प्रकाशित NRC ड्राफ्ट से 40 लाख लोगों को निष्काशित किया गया था, जिसमें से 31 दिसम्बर 2018 तक 36 लाख 2 हजार लोग ही व्यक्तिगत संशोधन का दावा कर पाए। यानी असम के धार्मिक, भाषाई और नस्लीय अल्पसंख्यक समूहों के 4 लाख लोग संशोधन दावा या अतिरिक्त दस्तावेज़ दाखिल करने में असमर्थ रह गए।

इसके साथ ही 31 दिसम्बर 2018 की समय सीमा खत्म होने से ठीक घंटे भर पहले असम नेशनलिस्ट ग्रुप द्वारा NRC ड्राफ्ट में शामिल लोगों के खिलाफ आपत्ति आवेदन दाखिल किया गया। जिनमें से ज्यादातर आवेदन निराधार हैं और सुनवाई प्रक्रिया में शामिल होने से बचने के लिए उन्होंने प्रशासन को अपना गलत नाम/पता दिया है।

हाल ही में 8 मई 2018 को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान NRC स्टेट कोऑर्डिनेटर ने बताया कि NRC ड्राफ्ट में शामिल लोगों के खिलाफ आपत्ति आवेदन दायर करने वाले कई आवेदक उचित पैनल के समक्ष सुनवाई के लिए उपस्थित नहीं हुए। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोऑर्डिनेटर इन मुद्दों पर कानून के दायरे में निर्णय लेने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं।

NRC प्रक्रिया की जटिलता से अवगत होने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट अंतिम NRC सूची के लिए तय अवधी 31 जुलाई 2019 को लेकर अडिग है। अपने 8 मई 2019 के 3 फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से कहा कि “अंतिम NRC की सूची 31 जुलाई 2019 को या उससे पहले प्रकाशित हो।”

“15 फरवरी 2019 को, 3.62 मिलियन संशोधन के दावों का सत्यापन शुरू हो गया है जिसे केवल 4 महीने की अवधि यानि 15 जून 2019 के भीतर ही पूरा करने की उम्मीद है। वहीं इस नई सत्यापन प्रक्रिया में उन लोगों को शामिल नहीं किया गाय जिन्हें पहले से ही चुनाव आयोग द्वारा “संदिग्ध मतदाता” के रूप में घोषित करने के कारण 30 जुलाई 2018को प्रकाशित NRC ड्राफ्ट से बाहर रखा गया था। या वे जिन्हें असम में विदेशी, विदेशी के वंशज या घुसपैठीया के रूप में घोषित किया गया था। नागरिक पंजीकरण के जिला रजिस्ट्रार के प्राधिकृत अधिकारियों के रूप में कार्य करने वाले जिलाअधिकारी और उप-जिला अधिकारी संशोधन दावों और आपत्तियों के लिए धारा 6 “दावों और आपत्तियों के निपटान का स्तर” और धारा 7 के अनुसार मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी)” की सुनवाई करेंगे।

“हालांकि, समीक्षा पैनल के कर्मचारियों की नियुक्ति के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियों से जुड़ी बात सामने आई है। जैसे संशोधन के दावे और आपत्तियों से निपटने वाले अधिकारियों में पर्याप्त प्रशिक्षण की कमी का होना। साथ ही कुछ मामलों में दावेदारों के खिलाफ पूर्वाग्रह और पक्षपात, जिस के कारण संशोधन के दौरान त्रुटियों की संभावना बढ़ जाती है। इसके साथ ही यह भी बात सामने आई है कि प्रारंभिक चरण में आवेदक द्वारा घोषित परिवार से जुड़ी जानकारी को लेकर कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र के खास पत्रकारों ने “फोरेनर त्रिबुनल (FT)” को लेकर भी चिंता जताई है। उन्होंने पूर्व के पक्षपात वाले मामलों को रफा-दफा करने के संधिग्त प्रयासों के जिक्र के साथFT संख्या की अपर्याप्तता और सुनवाई करने वाले न्यायाधीशों की भर्ती से जुड़े मुद्दों को उठाया है। साथ ही उनका यह भी कहना है कि बहुत कम ही लोग “विदेशी घोषित” होने के बाद FT के फैसले के खिलाफ गौहाटी हाईकोर्ट में अपील करने में समर्थ हैं। साथ ही यह भी बात सामने आई है कि आज तक दायर लगभग सभी याचिका  या तो हाईकोर्ट ने खारिज कर दी है या उन्हें FT में पुनः आवेदन दाखिल करने के लिए वापस भेज दिया है।”

पत्र में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि कैसे 31 जुलाई 2019 की समय सीमा तक पूरा करने के लिए लाखों आवेदनों पर अभी भी कार्रवाई होनी बाकी है। जिनमें से 2लाख आपत्तियां आखिरी समय पर दर्ज की गई है। अधिकारियों ने अपने पत्र में कहा है कि “हम 36 लाख 20 हजार पुनरीक्षण दावों पर की जा रही कार्रवाई और अंतिम NRCसूचित प्रकाशित करने के लिए तय तिथि को सुप्रीम कोर्ट द्वारा आगे न बढ़ाने के निर्णय को लेकर चिंतित हैं।

पत्र में आगे कहा गया कि “हमें जुलाई 2018 में NRC ड्राफ्ट में शामिल लोगों के खिलाफ दायर आपत्तियों पर को लेकर भी चिंता है,जिनमें से कई आपत्तियों को साक्ष्य सहित प्रमाणित नहीं किया जा सकता। इस तरह की आपत्तियों के कारण NRC ड्राफ्ट में शामिल लोग और उनके परिवारों के लिए FT के समक्ष नागरिकता प्रमाणित करने को लेकर विकट परिस्थिति उत्पन्न हो गई है। उन्हें FT के निर्णय के खिलाफ अपील करने का मौका दिए बिना विदेशी घोषित किए जाने के साथ बेघर होने का भी डर है। उन्हें असम  में चल रही छह डिटेंशन कैम्पों में से एक में भेजा जा सकता है (गोआलपाड़ा, कोकराझार, सिलचर, जोरहाट, डिब्रूगढ़ और तेजपुर), या फिर उन्हें अपने मूल देश वापस भेजा जा सकता है (हर्ष मंदर बनाम यूनियन ऑफ इंडियन & अन्य की सुनवाई के दौरान 28 जनवरी 2019 को उल्लेखित स्टेट ऑफ असम के हलफनामे के अनुसार विदेशी घोषित लोगों को उनके मूल देश में वापस भेजा जाए )।

संयुक्त राष्ट्र ने अपने पत्र में नौ सवाल करते हुए जवाब देने और सवालों के स्पष्टीकरण की मांग की है। संयुक्त राष्ट्र का पूरा पत्र यहां पढ़ा जा सकता है

 

अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन सम्बंधित अनुलग्न

संयुक्त राष्ट्र ने अपने पत्र में अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और सम्मेलन अधिकार (ICCPR) के उन अनुलग्न भी जिक्र किया है जिसका भारत सरकार ने असम के मानवीय संकट को नजर अंदाज कर उल्लंघन किया है। इसमें अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन के नागरिक और राजनीतिक अधिकार का अनुच्छेद 27 शामिल है, जिसे 10 अप्रैल 1979 को भारत द्वारा अनुसमर्थित किया गया था। इस अनुच्छेद के अनुसार “उन राज्यों में जिनमें जातिय, धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक मौजूद हैं, वहां उन अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को अपने समूह में अपनी संस्कृति का आनंद लेने, अपने धर्म का पालन करने या अपनी भाषा का उपयोग करने की पूरी आजादी है।“ इसके साथ ही ICCPR का अनुच्छेद 19 भी कहता है कि किसी भी मीडिया के माध्यम से बिना किसी भी बंधन के “सभी को” सभी प्रकार की जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है। इस संबंध में यह जानना आवश्यक है कि सूचना प्राप्त करने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का मूलभूत हिस्सा है।

इस पत्र में आगे कहा गया है कि “हम आपकी सम्मानीय सरकार से अपील करते हैं कि मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) के अनुच्छेद 9 और 10 तथा ICCPR के अनुच्छेद 9 और 14 के अनुसार उन लोगों के अधिकारों की सुरक्षा और FTके समक्ष निष्पक्ष कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाए।”

पत्र में भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन की मंज़ूरी के कारण भारत सरकार के प्रमुख को उनके दायित्वों का भी स्मरण कराया गया है। पत्र में लिखा है कि “अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन के तहत नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन (ICERD) के अनुसार हम आपकी सम्मानीय सरकार को उनके दायित्व को याद दिलाना चाहते हैं जिन्हें भारत ने 3 दिसम्बर 1968 को स्वीकृति दी थी। अनुच्छेद 1 (1) नस्लीय भेदभाव को “जाति, रंग, वंश, या राष्ट्रीय या जातीय मूल के आधार पर किसी भी भेद, बहिष्करण, प्रतिबंध या वरीयता के रूप में परिभाषित करता है, या कोई ऐसा भेदभाव जिसका उद्देश्य या इरादा, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक,सांस्कृतिक या सार्वजनिक जीवन के किसी भी अन्य क्षेत्र में मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता का हनन करना हो।

 

नागरिकता और राष्ट्रविहीनता पर सवाल

न केवल NRC प्रक्रिया पर, बल्कि बीजेपी सरकार के उस एजेंडे पर भी सवाल खड़ा होता है जिसके अनुसार मुस्लिमों को छोड़कर विश्व के अन्य भाग से पलायित हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों, सिखों आदि को उत्पीड़न से बचाने के लिए नागरिकता दिया जाना है। हम भारत सरकार द्वारा अनुसमर्थित विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय कानूनी दलीलों का हवाला देते हुए आपकी सम्मानीय सरकार का ध्यान राष्ट्रीयता के अधिकार की ओर आकर्षित करना चाहते हैं। राष्ट्रीयता के अधिकार के तहत प्रत्येक व्यक्ति के पास राष्ट्रीयता प्राप्त करने, बदलने और बनाए रखने का अधिकार है। ICERD का अनुच्छेद 5 (d) (iii) विशेष रूप से प्रासंगिक है, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से राज्यों को किसी भी निषिद्ध आधार पर भेदभाव के बिना, राष्ट्रीयता के अधिकार के उपभोग के साथ कानून के समक्ष सभी को समानता के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए बाध्य करता है। इस संबंध में, नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन पर समिति ने दोहराया है कि नस्ल, रंग, वंश या राष्ट्रीय या जातीय मूल के आधार पर भेद भाव करना, नागरिकता उपभोग करने के अधिकार का उलंघन है।”

अनुलग्न अंत में यह अपील करता है कि भारत सरकार से बताई गई नीतियों और प्रक्रियाओं की त्रुटियों को समाप्त करे और अस्थिरता व अनिश्चिता समाप्त करने के लिए उचित कदम उठाए, जिनके कारण लोगों को घोर मानवाधिकार हनन का सामना करना पड़ रहा है।

 

अनुवाद सौजन्य – साक्षी मिश्रा

 

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