POCSO आरोपी को इलाहबाद हाई कोर्ट द्वारा पीडिता से शादी करने की शर्त पर मिली जमानत! इंसाफ के नाम पर बेतरतीबी जारी, आरोपी को पीडिता से शादी करने और उनकी बच्ची को अपना नाम देने की शर्त पर दी गई जमानत।

13, Dec 2022 | CJP Team

10 अकतूबर 2022 को बाल यौन अपराध विरोधी कानून POCSO के तहत एक 17 वर्ष की किशोरी का बलात्कार करने के आरोपी को इलाहबाद हाई कोर्ट द्वारा इस शर्त पर जमानत दे दी गई कि वह एक महीने के भीतर पीडिता से शादी कर लेगा और उसे व अपनी बच्ची को पत्नी व बेटी के सभी हक देगा। आरोप लगाने वाली पीडिता व उनके पिता का यह कहना कि उन्हें आरोपी को जमानत देने में “कोई आपत्ति नहीं है” जस्टिस दिनेश कुमार सिंह की बेंच द्वारा यह निर्णय लेने का आधार बना। अदालत ने इस बात को भी नोट किया कि किशोरी द्वारा पहले ही याचिकाकर्ता आरोपी की बच्ची को जन्म दिया जा चुका है।

इस मामले के तथ्य इस प्रकार हैं। धारा 363, 366 व 376 के तहत तय किए गए आरोपों वाले इस केस में पीडिता ने बताया कि मार्च 2022 में आरोपी उसे बहला-फुसलाकर साथ ले गया जबकि उसकी उम्र 17 वर्ष थी। तत्पश्चात, किशोरी ने एक बच्ची को जन्म दिया।

किशोरी व उसके पिता ने अदालत से कहा कि यदि आरोपी उससे हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार शादी कर लेता है, उस शादी को आधिकारिक रूप से दर्ज करवाता है और किशोरी एवं नवजात बच्ची को अपनी पत्नी व बेटी के सभी अधिकार देता है तो उन्हें उसके जमानत पर रिहा होने से कोई आपत्ति नहीं है।

जमानत इस आधार पर दी गई है कि आरोपी जेल से रिहा होने के 15 दिन के भीतर अभियोजिका (पीड़ित लड़की) से शादी करेगा, शादी के एक माह के भीतर उसे सक्षम अधिकारी द्वारा पंजीकृत करवाएगा एवं अभियोजिका व अपनी बच्ची को पत्नी व बेटी के सभी अधिकार देगा।

यह अदालती आदेश यहाँ पढ़ा जा सकता है।

 

यह आदेश उन कई और फैसलों की शृंखला का हिस्सा है जहां अलग-अलग अदालतों द्वारा महिलाओं व बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों के विरुद्ध बनाए गए कानूनों की नई-नई व्याख्या की जा रही हैं। ऐसे फैसले न सिर्फ न्याय की मौलिक धारणा को कमजोर करते हैं बल्कि पीडिता की सोच-समझ कर फैसला लेने की क्षमता को भी नकार देते हैं।

लंबे समय तक यह पितृसत्तात्मक धारणा रही है कि कोई यौन अपराध एक आरोपी पुरुष द्वारा हिंसा व वर्चस्व जमाने की चेष्टा न होकर ऐसी चीज है जो पीडिता के साथ “हो जाती है” जिसका कारण उसके कपड़े, व्यवहार आदि माना जाता है। इस तर्क की परिणति यह है कि पीडिता को एक निरीह प्राणी के रूप में देखा जाता है, जिसे “बचाए जाने” की जरूरत है, वह भी उस व्यक्ति के साथ शादी के द्वारा जिसने यह कृत्य किया! यहाँ हम न्यायपालिका के भीतर महिलाओं की निजी स्वतंत्रता और इंसाफ को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित सोच देख सकते हैं। अतीत में यह देखा गया है कि जिन मुकदमों में आरोपी को सजा हो भी जाती है, फैसलों में ऐसी भाषा का इस्तेमाल होता है जो अपराध व सजा देने के कारणों को दरकिनार कर देती है।

बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम, 2012 अर्थात POCSO लिंगभेद से मुक्त है और यह मानता है कि लड़के और लड़कियां दोनों ही यौन अपराध के शिकार हो सकते हैं। इस अधिनियम में सभी वर्णित अपराधों के लिए काफी कड़े दंड प्रावधान हैं और बाल यौन अपराध की परिभाषा को भी व्यापक बनाया गया है। इसके साथ अधिनियम में जिम्मेदाराना पदों पर बैठे लोगों, जैसे सरकारी मुलाजिम, शिक्षा संस्थानों के कर्मचारी एवं पुलिस अधिकारियों पर दोषी होने की स्थिति में अतिरिक्त दंड एवं यौन अपराध की परिभाषा में सुधार करके हल्के या तीव्र, हर तरह के जबरिया यौन प्रच्छेदन (mild or severe penetrative assault) को अपराध घोषित किया गया है।

इसके साथ ही है आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 जिसे 2012 में दिल्ली में हुए नृशंस बलात्कार कांड के बाद लागू किया गया और इसे “निर्भया ऐक्ट” भी कहते हैं। इस संशोधित कानून में भारतीय दंड संहिता (IPC), भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) एवं दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत बलात्कार एवं यौन अपराधों की परिभाषा में सुधार किया गया। न सिर्फ इस कानून में लिंगभेद खत्म किया गया बल्कि ऐसिड अटैक, अश्लील हरकतों, कार्यस्थलों में यौन उत्पीड़न आदि को भी गंभीर यौन अपराधों के दायरे में लाया गया। साथ ही, बलात्कार की प्रच्छेदन (penetration) पर आधारित पुरानी और घिंसी-पिटी परिभाषा को भी बदला गया।

POCSO व निर्भया ऐक्ट के अंतर्गत जहां कुछ फैसलों में इस कानूनी बदलाव के द्वारा स्वीकार की गई सच्चाईयों को समझदारी से रखा गया है, कई बार भारत की संवैधानिक अदालतों (उच्च न्यायलयों एवं सुप्रीम कोर्ट) में भी ऐसे फैसले आते हैं जो न्यायपालिका में भी मौजूद पुरातनपंथी व दंभ से युक्त विचारों को व्यक्त करते हैं।

सवाल यह उठता है कि अदालतों को पीड़ित व आरोपी के बीच शादी या इस तरह के अन्य समझौते का सुझाव देने का अधिकार कहाँ से प्राप्त होता है।

महिला व बाल यौन अपराध के मुकदमों में आए कुछ चिंताजनक फैसले

  1. 2020 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट द्वारा एक महिला के साथ छेड़छाड़ करने के लिए गिरफ्तार आरोपी को इस शर्त के साथ छोड़ दिया गया कि वह शिकायतकर्ता के घर जाकर “भविष्य में किसी भी समय उनकी रक्षा करने के वायदे” के साथ उनसे राखी बांधने का अनुरोध करेगा। यह फैसला एक ऐसे मामले में दिया गया जहां एक पड़ोसी ने शिकायतकर्ता के घर जाकर जबरदस्ती उसका हाथ पकड़ा और छेड़छाड़ का प्रयास किया।

अदालत के जमानती आदेश में कहा गया “ (i) जमानत प्रार्थी अपनी पत्नी के साथ राखी की डोर और मिठाई का डब्बा लेकर 3 अगस्त 2020 को प्रातः11 बजे शिकायतकर्ता के घर जाएगा और भविष्य में किसी भी समय उनकी रक्षा करने के वायदे के साथ उनसे अनुरोध करेगा कि वे उसे राखी बाँधें। वह उन्हें ऐसे मौके पर एक भाई द्वारा बहन को परंपरागत तौर पर दी जाने वाली भेंट के रूप में 11,000 (ग्यारह हजार) रुपये देगा और उनका आशीर्वाद भी लेगा। वह शिकायतकर्ता के बेटे को मिठाई और कपड़ा खरीदने के लिए 5000 रुपये भी देगा।“

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता अपर्णा भट एवं आठ अन्य महिला वकीलों ने इस जमानती आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने जमानत के साथ दी गई इन शर्तों पर रोक लगते हुए कई दिशानिर्देश निर्धारित किए। उनमें से एक यह था कि जमानत का आदेश CrPC की शर्तों के अनुरूप होना चाहिए और उसमें कहीं से भी महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह या पितृसत्ता का भाव नहीं झलकना चाहिए। शिकायतकर्ता व आरोपी के बीच किसी भी तरह के सुलह-समझौते, जैसे शादी या बातचीत द्वारा हल निकालने, से बचना चाहिए क्योंकि यह अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।

अपर्णा भट एवं अन्य द्वारा दायर याचिका को यहाँ पढ़ा जा सकता है।

इस आदेश की कॉपी यहाँ संलग्न है:

 

  1. कई बार उच्चतम न्यायालय को निछली अदालतों के ऐसे चलताऊ नजरिए का संज्ञान लेते हुए लताड़ लगानी पड़ी है। मध्य प्रदेश राज्य बनाम मदनलाल जैसे कई फैसलों की कड़ी में यह स्पष्ट किया गया है कि बलात्कार के मामले में समझौते की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। लेकिन 2021 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश शरद अरविन्द बोबड़े ने POCSO के एक आरोपी को नाबालिग पीडिता से शादी करने की शर्त पर जमानत की पेशकश की। मोहित सुभाष चव्हाण बनाम महाराष्ट्र राज्य में आरोपी सरकारी कर्मचारी को ऐसी पेशकश किए जाने की बहुत आलोचना हुई। एक रिपोर्ट के अनुसार तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री एस.ए. बोबड़े ने आरोपी के वकील से कहा था “यदि आप उस लड़की से शादी करने को तैयार हैं तो आपकी कुछ मदद की जा सकती है। वर्ना आप नौकरी से हाथ धोएंगे और जेल जाएंगे। आपने उस लड़की को बहला-फुसलाकर उसके साथ बलात्कार किया है।“
  1. बंबई हाई कोर्ट की जज पुष्पा वी. गनेडीवाला द्वारा दिए गए उस विवादित फैसले का भी यहाँ जिक्र जरूरी है, जिसमें उन्होंने एक 32 वर्षीय आरोपी को POCSO के एक मामले में यह कहते हुए बरी कर दिया था कि ‘त्वचा से त्वचा का संपर्क न होने’ (skin to skin contact, अर्थात आरोपी द्वारा पीडिता को बिना छूए उत्पीड़ित करने) के कारण यौन उत्पीड़न का मामला नहीं बनता। PCOSO की धारा 7 में पीड़ित के साथ कोई भी प्रच्छेदन रहित जबरदस्ती संपर्क सेक्शुअल असॉल्ट माना जाता है। इस मामले में जमानत के लिए अपील कर रहे आरोपी पर पीडिता “के स्तन दबाने” का आरोप था जिसे अभियोग पक्ष ने परिस्थितिजन्य (circumstantial) और सीधा सबूत (direct evidence) देकर साबित किया।

इस सब के बावजूद अदालत का मानना था कि धारा 7 यहाँ लागू नहीं हो सकती क्योंकि पीडिता के अंतर्वस्त्र नहीं उतारे गए थे और जब आरोपी ने ऐसा करने का प्रयास किया तो पीडिता ने शोर मचाया और दरवाजा बाहर से बंद कर लिया। अतः अदालत के अनुसार आरोपी का कृत्य महज IPC की धारा 364 के तहत “किसी महिला से छेड़छाड़ करने” तक सीमित है। जज ने यह भी कहा कि PCOSO की धारा 8 के अनुसार- जहां धारा 7 के अंतर्गत किए गए अपराध के लिए 3-5 वर्ष की सजा और जुर्माने का प्रावधान है, दिया गया दंड कृत्य की तुलना में “आवश्यकता से अधिक कठोर” (disproportionate) है। अतः जज ने आरोपी को सिर्फ धारा 354 के लिए दोषी पाया। इस आदेश की सब जगह तीखी आलोचना होने के पश्चात सुप्रीम कोर्ट ने इसपर रोक लगा दी।

  1. एक अन्य मामले में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने बलात्कार के मामले मे आरोपी को ‘पीडिता से शादी करने’ हेतु दो महीने की जमानत दी। पीडिता ने आरोपी के खिलाफ बलात्कार का मामला IPC की धारा 376 (2)(n) एवं 506, और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 की धारा 3(I), (W-II), 3(2)(V) एवं 3(2)(V-a) के तहत दर्ज कराया था। इसी बीच, 2021 के एक अन्य केस में केरल हाई कोर्ट ने कहा था कि कानून और इंसाफ को झकझोर देने वाले बलात्कार जैसे घृणित अपराध के संदर्भ में पीड़ित और आरोपी के बीच शादी या समझौता किसी भी सूरत में केस खारिज करने का आधार नहीं बन सकता। इस तरह के आदेश न्यायतंत्र में उम्मीद जिंदा रखते हैं।
  1. 2020 के एक मामले में मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै पीठ द्वारा दिए गए फैसले में नाबालिग किशोरी को गर्भवती करने के आरोपी को उसके इस आश्वासन पर जमानत मिल गई कि पीडिता के बालिग होते ही वह उससे शादी कर लेगा। इस केस में एफआईआर POCSO की धारा 5(I), 5(n), 5(j) (ii) एवं धारा 6 के तहत दर्ज की गई थी। इस फैसले में कहा गया कि यदि जमानत याचिकाकर्ता शादी को पंजीकृत नहीं करवाता तो पुलिस उसपर कानूनी कार्यवाही कर सकती है। आरोपी ने अदालत से कहा कि उसके और पीडिता के बीच अंतरंग संबंध थे। उन्हें आपस में प्रेम हो गया और इसीलिए शारीरिक संबंध कायम हुए।

यह स्पष्ट है कि जज भी हमारे समाज के भीतर से ही आते हैं और उनमें पितृसत्तात्मक पूर्वग्रह हो सकते हैं। वे अलग-अलग सामाजिक तबकों, वर्गों (अनुमानतः उच्च) से हो सकते हैं। अतः न्यायपालिका की धारणा बदलने के लिए कानून बनाने की प्रक्रिया और उसमें नारी आंदोलन से निकली आवाजों का मुखर स्वर सहायक हो सकता है। अंततः यह बात जरूरी है कि सभी अदालती फैसलों व हस्तक्षेपों में किसी औरत की निजी स्वतंत्रता और फैसले लेने की क्षमता को सर्वोपरि रखा जाए।

PCOSO के मामलों में प्रेम प्रसंग का ऐंगल

हालांकि बाल यौन अपराध से संबंधित इस कानून के उद्देश्यों व कार्यान्वयन में ‘नाबालिग की रजामंदी’ से माममले का निर्धारण नहीं हो सकता, अदालतें कई बार फैसला देते समय उम्र को ध्यान में रख लेती हैं।

2020 के एक मामले, धर्मेन्द्र सिंह साहब बनाम दिल्ली सरकार में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक आरोपी को इस आधार पर जमानत दी थी कि आरोपी व नाबालिग के बीच संबंध परस्पर सहमति से बने थे। साथ ही, दोनों के बीच मे आयु का अंतर, अभियोजिका व आरोपी के बीच अंतरंग संबंध व किसी भी प्रकार की क्रूरता या हिंसा का न होना भी इस फैसले का आधार बना।

2021 के अन्य मामले में मेघालय हाई कोर्ट ने कहा कि हालांकि संबंध बनाने में नाबालिग की सहमति कानूनी रूप से स्वीकार्य नहीं है लेकिन जमानत देते समय इसे ध्यान में रखना चाहिए। यह मामला एक उन्नीस वर्षीय लड़के व नाबालिग लड़की के बीच शारीरिक संबंध का था जहां अदालत ने कहा कि यह दो किशोर/युवाओं के ‘प्रेम में होने’ का मामला है।

ऐसे ही एक अन्य ‘परस्पर सहमति’ वाले मामले में कलकत्ता हाई कोर्ट ने एक आरोपी को PCOSO की धारा का ऐसा अर्थ निकाल कर बरी किया जहां वह धारा परस्पर सहमति से बने यौन संबंधों पर लागू नहीं की जा सकती थी। इस संदर्भ में हाई कोर्ट ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि यह कानून मासूम बच्चों को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया था और इसके प्रावधानों का ऐसा कड़ा अर्थ निकालने से इसके दुरूपियोग की संभावना बढ़ सकती है।

2021 में मद्रास हाई कोर्ट ने कहा कि PCOSO नौजवानों को प्रेम करने के लिए सजा देने वाला कानून नहीं है। अदालत ने इस केस में लगगए गए सभी आरोपों को खारिज करते हुए यह भी माना कि उत्पीड़न के शिकार बच्चों को सुरक्षा व न्याय देने के लिए बने इस कानून का गलत इस्तेमाल हो सकता है। अदालत का कहना था कि POCSO के अंतर्गत कई मामलों में मुकदमे किशोरावस्था में प्रेम करने वाले जोड़ों के परिवार वालों की नाराजगी के चलते दर्ज होते हैं, जो कि इस कानून का कतई उद्देश्य नहीं था।

हालांकि फरवरी 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाई कोर्ट के धारा 376 और POCSO की धारा 6 के अंतर्गत एक आरोपी दी गई जमानत के आदेश पर रोक लगा दी थी। सर्वोच्च न्यायालय का यह मत था कि प्रथम दृष्टाय यह साबित होने पर कि अभियोजिका नाबालिग है, लड़की व आरोपी के बीच ‘प्रेम प्रसंग’ होने व आरोपी के लड़की से कथित रूप से शादी के लिए इनकार जैसे तर्क जमानत देने के लिए असंगत हैं।

इसी फैसले के आलोक में अगस्त 2022 में कर्नाटक हाई कोर्ट ने POCSO के अंतर्गत दर्ज किए गए केस में इस आधार पर समझौता करने की सहमति दी कि कथित रूप से उत्पीड़न की शिकार पीडिता ने मुकदमे के दौरान ही आरोपी से शादी कर ली थी और केस खारिज किए जाने की हामी भरी थी। मार्च 2019 में लड़की के पिता द्वारा PCOSO के तहत दर्ज किए गए मामले के समय लड़की 17 साल और जमानत याचिका करने वाला लड़का 20 साल का था। 11 अकतूबर 2019 को लड़की ने यह बयान दिया कि उसके और लड़के के बीच जो कुछ हुआ, उसकी सहमति से था। उन दोनों ने हाई कोर्ट को दिए एक हलफनामे में लगाए गए सभी आरोपों को खारिज करवाने की बात कही और 18 नवंबर 2020 को लड़के के न्यायिक हिरासत से छूटने के दिन ही कानूनी तरीके से शादी कर ली।

जिन मामलों का जिक्र यहाँ किया गया है वह वर्तमान समय में देश के समक्ष अंतर्विरोधों को स्पष्ट करते हैं। कई बार बने हुए कानून के इस्तेमाल एवं हर मामले की अलग परिस्थिति, अपराध की समझ व वे पारिवारिक व सामाजिक कारण जिसके आलोक में उत्पीड़न हो सकता है, इन सब के बीच संतुलन न बैठा पाने के चलते अदालती फैसलों में खामी आ जाती है, फिर चाहे वह POCSO का मामला हो या यौन अपराध पर बने संशोधित कानून का। ऐसे में अदालतें स्वतः रूप से इंसाफ देने वाली संस्थाएँ न रहकर महिलाओं, नाबालिग किशोरों व बच्चों के प्रति व्याप्त सामाजिक पूर्वाग्रहों की जाने या अनजाने में संवाहक बन जाती हैं।

इसी कारण से जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला के “त्वचा का संपर्क न होने” वाले फैसले पर देशभर में रोष व्याप्त हुआ।

साल 2020 में कर्नाटक हाई कोर्ट ने बलात्कार, धोखाधड़ी व धमकी देने के आरोपी को गिरफ़्तारी के पूर्व ही जमानत देते हुए कहा था कि “संबंध बनाए जाने” के बाद किसी भारतीय महिला का सो पाना उसे शोभा नहीं देता। इससे पहले 2017 में दिल्ली हाई कोर्ट ने फिल्म निर्देशक महमूद फरुकी के खिलाफ बलात्कार के आरोप को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि “मंद या क्षीण स्वर में मना करना संबंध के लिए सहमति ही मानी जाएगी” खासकर जब पीड़ित सुशिक्षित हो।

हाल में ही ऐसे कई फैसले आए हैं जहां अदालतों ने यौन अपराध के मामलों में अजीबोगरीब हल सुझाए हैं। किसी महिला की इज्जत और पहचान को उसके शरीर से जोड़कर देखने वाली पितृसत्ता से ग्रस्त धारणा को आगे बढ़ाते हुए कई बार न्यायपालिका में पीड़िता से शादी के जरिए आरोपियों को ‘दोषमुक्ति’ की राह सुझा दी जाती है। प्रश्न उठता है कि क्या इसी लिए देश में बलात्कार के कानूनों को कडा किया गया था? अपराध के समय वैसे भी पीडिता की निजता का हनन होता ही है, ऐसे में न्यायिक संस्था से भी उसके साथ यही बर्ताव करने की अपेक्षा नहीं रहनी चाहिए।

इससे भी भयानक स्थिति यह होगी कि ऐसे मामलों में सजा या रिहाई जजों के व्यक्तिगत विचारों पर निर्भर होने के उदाहरण पीड़ितों व उनके परिवारों को शिकायत करने से रोकने लगेंगे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने निछली अदालतों के ऐसे बेतुके फैसलों पर ज्यादातर रोक ही लगाई है, लेकिन कई बार सर्वोच्च अदालत की न्यायिक समझ में भी इस विषय को लेकर खामी नजर आती है। यहाँ बेहतर ट्रेनिंग व यौन अपराध के मामलों में संवेदनशीलता बरतने की जरूरत को जितना बयान किया जाए, कम है। महिलाओं व बच्चों के खिलाफ ऐसे अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं और हमारे लिए हर वह कोशिश करना आवश्यक है जिससे पीड़ितों को जल्द न्याय मिले।

यौन अपराधों के शिकार लोगों को भारतीय समाज में हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता है। महिलाओं से लगातार उनके कपड़ों, व्यवहार व घर से निकालने के समय को लेकर सवाल किए जाते हैं। कई बार मुकदमों के दौरान न्यायाधीशों द्वारा भी पीड़ित से अनावश्यक सवाल पूछने या टिप्पणी करने से ऐसे पूर्वाग्रह मजबूत होते हैं और केस पर असर पड़ता है।

ऊपर दिए उदाहरणों के आधार पर अदालतों द्वारा बलात्कार के मामलों से निबटने में इस तरह की पोंगापंथी मानसिकता को दर्शाया जा सकता है। महिलाओं को हमेशा ‘बचाए जाने’ की आवश्यकता होने और बलात्कार से उपजे अवांछित गर्भ से ‘जीवन बर्बाद होने’ की धारणा भी ऐसे कदमों को जन्म देती है। कई बार पीडिता के माता-पिता समाज में बदनामी के डर और लड़की की इज्जत बरकरार रखने के दबाव में इस तरह के समझौतों के लिए तैयार हो जाते हैं। चूंकि भारत में वैवाहिक संबंध में जबरदस्ती (marital rape) अपराध भी नहीं माना जाता, अतः बलात्कार के आरोपी से शादी के जरिए समझौता करना महिला के लिए आगे भी हिंसा व यौन उत्पीड़न की अंधेरी राहें खोल देता है। साथ ही, इससे बलात्कार के आरोपियों को सजा से बचने का एक अवसर मिल जाता है। न्यायपालिका द्वारा इस तरह का इंसाफ पीड़ितों के लिए और ज्यादा भावनात्मक आघातों का कारण बन सकता है।

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