इतिहास का एक दौर समेटे हैं बनारस के गिरजाघर: गंगा-जमुनी तहज़ीब की जीवंत मिसाल गत वर्ष ( 2022) में देशभर में क्रिसमस के त्योहार वाला दिसंबर महीना काफी चर्चाओं में रहा. कई जगहों से बुरी खबरें आईं लेकिन भोले बाबा की नगरी काशी में क्रिसमस को लेकर खासा उत्साह देखने को मिला. इस बीच हम आपको वाराणसी के दो अनोखे चर्च की दास्तान बताएंगे

07, Feb 2023 | फ़ज़लुर रहमान अंसारी

दिसंबर, 2022 के अंतिम माह में देश भर में क्रिसमस की तैयारियां जोरों पर रहीं, वहीं उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों से ईसाई समुदाय पर हमले, जबरन धर्मांतरण के इल्ज़ाम लगाकर गिरफ्तारी आदि की खबरें भी आयीं। लेकिन हिंदू धर्म संस्कृति की राजधानी कहलाने वाली काशी नगरी में जिसे बनारस और वाराणसी भी कहते हैं क्रिसमस को लेकर खासा उत्साह देखने को मिला।

क्रिसमस की पूर्व संध्या से लेकर नए साल के दिन तक बनारस में मेले जैसा माहौल रहता है और अलग-अलग धर्मों के लोग बड़ी संख्या में यहां के सभी गिरजाघरों में प्रार्थना करने के लिए आते हैं और मोमबत्तियां जलाते हैं, मन्नतें मांगते हैं, सेल्फी लेते हैं। 

अन्य धर्मों के लोगों का यह मानना है कि क्रिसमस के दिन जो प्रार्थना की जाएगी वह पूरी होगी। बनारस का सबसे बड़ा और सबसे आकर्षण गिरजाघर सेंट मेरीज कैथेड्रल है जिसे मां मरियम महामंदिर भी कहते हैं इसमें 25 दिसंबर से लेकर 28 दिसंबर तक तीन दिन का क्रिसमस मेला लगता है।  

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फादर आनंद ने बताया कि बनारस वासी चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, सबको इस मेले का इंतजार रहता है,लाखों लोग इस मेले में आते हैं, जिसकी वजह से इन तीन दिनों में यहाँ का यातायात संभालने में पुलिस प्रशासन को चुनौती का सामना करना पड़ता है। मेले में कठपुतली नाटक, नृत्य प्रदर्शन आदि कार्यक्रम होते हैं जिन्हें देखने के लिए टिकट लेने वालों की लम्बी लाइन लगी रहती है।

कैथड्रल चर्च के परिसर में स्थानीय युवा कलाकार सुरीली आवाज़ में क्रिसमस के कैरोल गीत गाते हैं। गिरजाघर के अन्दर प्रवेश कर अराधना करने और ईसाई पादरियों का आशीर्वाद लेने के लिए भी काफी लम्बी लाइन लगी रहती है। पूरे परिसर में सौहार्द और प्रेम के सन्देश को प्रसारित करने वाले विभिन स्टाल लगते हैं। सारे वातावरण में प्रेम का माहौल बना रहता है।

बनारस में साझी विरासत को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द और प्रेम बढ़ाने के लिए कार्य कर रही संस्था विश्व ज्योति जनसंचार समिति के निदेशक फादर आनंद से जब हमने पूछा कि बनारस में क्रिसमस मेला लगना कब शुरू हुआ तो उन्होंने बताया कि उनके कुछ साथियों ने यहां के बिशप के अनुरोध पर पहली बार सन 1984 में गिरजाघर परिसर में क्रिसमस पर नृत्य नाटकी प्रस्तुत किया था और उसके बाद से ही हर वर्ष यहां पर क्रिसमस पर आम लोगों के लिए मेला लगना शुरू हुआ। हर धर्म के लोग क्रिसमस पर मेला देखने और प्रार्थना करने बहुत बड़ी संख्या में आते हैं।

विश्व के प्राचीनतम जीवंत शहरों में एक काशी, जो शिव की नगरी मानी जाती है, बहुत ही ऐतिहासिक शहर है। यहां गंगा किनारे के घाट,अनगिनत मंदिर और तंग गलियों के अलावा ढेरों ऐसे गिरजाघर हैं जिनका इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। 

जब हमने प्रमुख गिरजाघरों के बारे में जानकारी चाही तो फादर आनंद ने बताया कि बनारस में सबसे बड़ा गिरजाघर सेंट मैरीज कैथलिक चर्च है जो छावनी क्षेत्र में है। दूसरा सेंट मैरीज इंग्लिश चर्च है जो होटल क्लाथ और जे.एच.वी. मॉल के सामने स्थित है। तीसरा नदेसर में स्थित लाल गिरजा घर है। इनके अलावा सिगरा में सेंट पॉल चर्च, गोदौलिया स्थित सेंट थॉमस चर्च, बेनियाबाग का सी.एन.आई, चर्च , बी.एल.डब्लू. स्थित सेंट जांस कैथलिक चर्च, मड़ौली का सेंट जॉन डी बीपीस्टिट कैथलिक चर्च, मवईया में फातिमा चर्च, शिवपुर में ईशा माता चर्च, काकरमत्ता में ई.सी.आई चर्च आदि शहर के कुछ प्रमुख गिरजाघर हैं।

मां मरियम महा गिरजाघर 1854 से पूर्व बनारस के कैथलिक विश्ववासियो के लिए कोई गिरजाघर नही था। इलाहाबाद, चुनारऔर गाजीपुर में कैथलिक चर्च थे जहां से मिशनरी लोग आकर यहां के कैथलिक ईसाइयों की सेवा करते थे। 1854 में  स्विटज़रलैंड के मिशनरी फादर अर्थना सियूस ने बनारस की छावनी में अवर लेडी ऑफ असम्शन चर्च की स्थापना की। लेकिन वर्तमान में जो भव्य और अनूठे रूप में आकर्षक गिरजाघर आप देख रहे हैं, इसकी स्थापना पुराने गिरजाघर के स्थान पर 1993 में वाराणसी कैथलिक धर्मप्रांत के प्रथम धर्माचार्य बिशप पैट्रिक डिसूज़ा द्वारा की गयी थी। यह माँ मरियम महा गिरजाघर व सेंट मेरीज़ कैथीड्रल के नाम से जाना जाता है। 

इस नए गिरजाघर की वास्तुकला भारतीय वास्तुकला पर आधारित है और बहुत ही खूबसूरत है। 

इस चर्च की खिड़कियों के बाहरी हिस्सों में लोहे के टुकड़ों से बनी खूबसूरत कलाकृतियाँ हैं भारतीय कला शैली में ईशा के जीवन की मुख्य मुख्य घटनाओं का चित्रिकरण है। इसको मशहूर चित्रकार ज्योति साहू ने बनाया है। इन तस्वीरों के नीचे इन घटनाओं के बारे में दो पंक्तियों में दोहे लिखे हुए हैं जिनकी रचना बनारस के विख्यात कवि हरिराम द्विवेदी ने की है।

चर्च के अंदर भागवत गीता और बाइबिल के वाक्य हिंदी और संस्कृत भाषाओं में स्वर्णीय अक्षरों में लिखे हुए हैं।

यह आकर्षक गिरजाघर अष्टकोणीय है, जो भारतीय वास्तुकला पर बनाया गया है, जो सभी दिशाओं से देखने में एक जैसा ही लगता है। बताते चलें कि दक्षिण भारत में इस वास्तुकला पर कई मन्दिर हैं। इसके वास्तुकार दिल्ली के विख्यात आर्किटेक विजय कृष्ण मेनन हैं।

यहां के आराधना कार्य केवल हिंदी भाषा में ही होते हैं। यह गिरजाघर प्रति दिन खुला रहता है और सिस्टर यहां बैठकर देश-दुनिया की बेहतरी के लिए प्रार्थना करती हैं। सभी धर्मों के लोग यहां प्रार्थना करने आते हैं। यहां 2022 का क्रिसमस भी खूब धूमधाम से मनाया गया।

सेंट मेरीज इंग्लिश चर्च

वाराणसी छावनी क्षेत्र में सड़क की एक ओर होटलों की कतार है, तो ठीक दूसरी छोर पर वीरान परिसर, जिसने पूरा एक दौर सहेज रखा है। झाड़ झंखाड़ व झुरमुट में तब्दील 12 एकड़ का बाग, जिसे कभी धर्म के भेद से परे हिन्दुस्तानियों ने समभाव से सींचा। बीचों-बीच खड़ी ईंट की दीवार जो देखने में महज गिरजाघर नजर आती है। लेकिन अगर इसकी तह में जाएं तो बेशक यह इतिहास की पूरी किताब बन जाती है।  

उत्तर भारत में कोलकत्ता के बाद सबसे पूराने इस प्रोटेस्टेंट गिरजाघर की स्थापना सन 1810 में फादर जॉर्ज वीट्ली द्वारा की गयी थी। प्राचीन बनारस के परिकल्पनाकार जेम्स प्रिंसेप ने इस गिरजाघर को सजाने के लिए अपने सपनों के रंग भरे। बात 1917 की है, जब प्रिंसेप बनारस आए और आराधना के लिए जगह तलाश कर रहे थे। लोगों ने उन्हें इस गिरजाघर का रास्ता और महत्ता बताई। सृजनधर्मी प्रिंसेप के मन को यह स्थान इतना रास आया कि गिरजाघर के ऊपर एक भव्य मीनार बनवाई और साज संवार भी कराई। फरवरी 1960 में काशी भ्रमण पर आई एलिजाबेथ और प्रिंस फिलिप ने इस गिरजाघर में आराधना की और इसकी भव्यता देख कर काफी प्रशंसा की।

परमात्मा के निरंकार स्वरूप की आराधना करने वाले भारतीय प्रोटेस्टेंट ईसाईयों का राष्ट्र प्रेम ही था कि उन्हें धर्म स्थल में भी अंग्रेजी सत्ता स्वीकार नही थी। उनके प्रयासों से आज यह गिरजाघर चर्च ऑफ नार्थ इंडिया (सी.एन.आइ.) के अधीन है। इस गिरजाघर की छत कुछ वर्ष पहले पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी थी। दीवारों के प्लास्टर उखड़ गए थे कई स्थानों पर ईंटें दिख रही थीं। दीवारों पर उभरी कलाकृतियां सुरक्षित तो थीं लेकिन ईंट और बालू से ढक जाने के बाद उनके सौंदर्य का कोई मतलब ही नही रह गया था।

 इस ऐतिहासिक चर्च की प्राचीनता को बचाने के लिए इसकी मरम्मत का कार्य हाल ही के कुछ वर्षो पहले भारत सरकार के इनटक के कुशल कारीगरों द्वारा कराया गया।

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लाल गिरजाघर, नदेसर 

बनारस का 136 साल पुराना ‘लाल गिरजाघर’ पूरी तरह से पुरबिया रंग में रंगा नजर आता है और इसकी वजह हैं भोजपुरी भाषी पूरे शहरवासी। प्रोटेस्टेंट समुदाय का यह सुन्दर और छोटा गिरजाघर इस नाम से प्रचलित है क्योंकि यह सड़क किनारे आकर्षक लाल रंग में रंगा हुआ है। यहां न केवल हिन्दी भाषा में ईश वंदना होती है, बल्कि भोजपुरी में गीत संगीत और प्रार्थनाओं के ज़रिए भी ईश्वर की आराधना की जाती है। 

पिछले पांच साल से लोगों को ध्यान में रखकर भोजपुरी में भी प्रार्थना शुरू की गई है, ताकि लोग अपनी मातृ भाषाओं में भी प्रार्थना करके परमात्मा, ईश्वर से सीधे जुड़ सकें और संतुष्टि का अनुभव कर सकें। यहां गीत भी भोजपुरी और हिंदी में भाषाओं में गाये जाते हैं। लाल गिरजाघर में भोजपुरी भाषियों की तादाद लगातार बढ़ रही है।

ब्रिटिश पादरी एलवर्ट फ्रेंटीमैन ने इस चर्च की नींव रखी थी और 1887 से यहां आराधना होती है। फादर आनंद ने कहा कि उपरोक्त तीनों गिरजाघरों के साथ साथ बनारस शहर के अन्य सभी गिरजाघरों में तथा गाँव में स्थित छोटे-छोटे आराधनालयों में भी सभी धर्मो के लोग मिलजुल कर क्रिसमस को उल्लास और उमंग के साथ मनाते हैं। उन्होंने कहा कि क्रिसमस शांति, अमन और प्रेम का पर्व है। इस दिन ईसा मसीह इस दुनियां में शांति के दूत बनके आए, ताकि इस संसार में अमन शांति और भाईचारा बना रहे। बहुत सारे युवक और युवतियां इस दिन गिरजाघरों में जाते हैं। 

दिल्ली में गोल डाकखाना स्थित सेक्रेड हार्ड चर्च के प्रभारी फादर ने, फादर आनंद को बताया कि वहां इस साल करीब दो लाख लोग 25 दिसंबर को चर्च में आए जिनमें 90 फीसद लोग अन्य धर्मों के थे। लगभग 10 फीसद लोग ही ईसाई समुदाय से थे। यह स्थिति कमोबेश पूरे देश की रही। लेकिन काफी दुखी मन से यह भी कहना पड़ रहा है कि पिछले 6-7 सालों से हिंदूवादी संगठनों द्वारा क्रिसमस के दिन ही धर्मांतरण के झूठे आरोप लगाकर ईसाई समुदाय पर हमला किया जा रहा है। ये संगठन महिलाओं और बच्चों को मारते और पीटते हैं, पुलिस को बुलाकर पास्टर लोगों की गिरफ्तारी करवाते हैं। इस प्रकार की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं। एक तरफ पूरे भारत के लोग क्रिसमस के दिन को पवित्र, शांति और प्रेम का दिन मानते हुए यीशु का आशीर्वाद प्राप्त करने गिरजाघरों में जाते हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश में जहां लोग गांव स्तर पर छोटे छोटे समूहों में यीशु के नाम पर प्रार्थना करते हैं, उन्हें असुरक्षा, हिंसा और कारागार जैसे जोखिमों का सामना करना पड़ता है।

गत वर्ष 24 दिसंबर को अखबारों के पहले पन्ने पर बड़ी हैडलाइन ये रही कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि ईसाईयों को क्रिसमस मनाने दिया जाए, पर यह ज़रूर देखा जाए कि कहीं धर्मांतरण ना होने पाए। प्रदेश के ईसाइयों को इस बात से बहुत दुख हुआ कि धर्मांतरण की झूठी बात को आधार बनाकर इस कीमत पर हमें क्रिसमस मनाने की छूट दी गई है। 

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वास्तव में क्रिसमस के दिन कभी भी धर्मांतरण की किसी भी तरह की कोई परम्परा नहीं है। इस तरह के बयान से हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी संगठनों के हौसले बढ़े हैं और ये और तेजी से ईसाई समुदाय पर धर्मांतरण के झूठे आरोप लगाकर मासूमों और मजलूमों पर अत्याचार करते हैं और क्रिसमस के पवित्र दिन को धर्मांतरण का दिन बताकर लोगों में नफरत फैलाते हैं।

फादर आनंद ने सूफी कवि पलटू दास का एक दोहा सुनाया-

“डाल डाल पर राम, पात पात पर रहीम, कौन चिरइया असगुन बोले , जंगल जले तमाम”।  

इस दोहे को सुनाने के बाद उन्होंने पूछा कि बताइए ऐसी कौन चिरइया है जो साझी विरासत और एकता वाले इस देश में असगुन बोल रही है जिसकी वजह से नफरत दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है।

उन्होंने कहा कि नफरत का यह आलम है कि इस साल नवम्बर माह के अंत तक ईसाईयों पर हमले की 525 घटनाएं हुईं जिसमें उत्तर प्रदेश में ही सबसे ज़्यादा 147 घटनाएं हुईं। काफी तादाद में ईसाईयों को धर्मांतरण के झूठे आरोप में गिरफ़्तार भी किया गया। उनमें से कुछ लोग आज भी कई महीनों से जेलों में बंद हैं। क्रिसमस के दिन उनके परिवार के लोग रो रहे हैं। इसके बावजदू ईसाईयों ने अपने विरोधियों की भलाई के लिए प्रार्थना की और गरीबों और मजलूमों के साथ क्रिसमस मनाया। आगे भी इस तरह क्रिसमस को विभिन्न धर्मों और जातियों के बीच प्रेम और सौहार्द बढाने का अवसर बनायेंगे और काशी नगरी में इस तरह गंगा जमुनी तहजीब की इस अनूठी मिसाल को आगे भी कायम रखेंगे।

फ़ज़लुर रहमान अंसारी से मिलें

Fazlur Rehman Grassroots Fellow

एक बुनकर और सामाजिक कार्यकर्ता फजलुर रहमान अंसारी उत्तर प्रदेश के वाराणसी के रहने वाले हैं. वर्षों से, वह बुनकरों के समुदाय से संबंधित मुद्दों को उठाते रहे हैं. उन्होंने नागरिकों और कुशल शिल्पकारों के रूप में अपने मानवाधिकारों की मांग करने में समुदाय का नेतृत्व किया है जो इस क्षेत्र की हस्तशिल्प और विरासत को जीवित रखते हैं.

 

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