हेट बस्टर: सांप्रदायिक मीम ने संदिग्ध आंकड़े पेश किए यह आंकड़े या तो गणितीय रूप से गलत हैं, असंभव हैं या पूरी तरह से निराधार हैं!
27, Apr 2022 | CJP Team
दावा : मुस्लिम भले ही अल्पसंख्यक हो पर वह अपने अनुपात के हिसाब से ज्यादा सरकारी सब्सिडी का फायदा ले रहे हैं साथ ही यह आतंक और यौन उत्पीड़न के मामलों मे संलिप्त होने में यह सबसे आगे है।
पर्दाफाश! इस तरह के किसी भी आरोपों को प्रमाणित करने के लिए ऐसा कोई भी डाटा नही हैं जो ऐसे आरोपी की पुष्टि करता हो।
हर दिन, एक ऐसी इस्लामोफोबिक पोस्ट सोशल मीडिया पर डाली जाती है जिसका मकसद देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुँचाना होता है, हाल ही में “बिटर ट्रुथ” नाम से एक हिंदी सोशल मीडिया पोस्ट डाली गयी जिसका मात्र उद्देश्य सिर्फ आम लोगो को डराना और भ्रमित करना था.
और सच्चाई तो ये है कि उस पोस्ट से किसी भी तर्कशील व्यक्ति को समस्या होगी क्योंकि उसमें लिखी बातों का न कोई सिर पैर है और न ही उसमें किसी क़िस्म की तथ्यात्मक सच्चाई है. ये कुछ और नहीं बल्कि विषवमन है, जो हिन्दू श्रेष्ठताबोध से ग्रस्त लोगों की असुरक्षाओं की ही पुष्टि करता है.
सीजेपी हेट स्पीच के उदाहरणों को खोजने और प्रकाश में लाने के लिए प्रतिबद्ध है, ताकि इन विषैले विचारों का प्रचार करने वाले कट्टरपंथियों को बेनकाब किया जा सके और उन्हें न्याय के कटघरे में लाया जा सके। हेट स्पीच के खिलाफ हमारे अभियान के बारे में अधिक जानने के लिए, कृपया सदस्य बनें। हमारी पहल का समर्थन करने के लिए, कृपया अभी दान करें!
अगर हम इस तरह की सोशल मीडिया पोस्ट के कंटेंट को ध्यान से देखे तो पाएंगे की उन्होंने अपनी पोस्ट में दो–दो बार भारत में मुस्लिम आबादी (प्रतिशत में) के आंकडे गलत दिए है, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो पर यौन उत्पीड़न, चोरी, आतंकवाद जैसे अपराधों की सूची है, इनके द्वारा दिए गए आंकड़ो को वहा से चेक किया जा सकता है की इनके सभी आंकडे फर्जी है.
एनसीआरबी क्षेत्र और वर्ष के आधार पर डाटा दर्ज करता है साथ ही यौन उत्पीडन के मामलो में अपराधियों की उम्र भी दर्ज करता है यहाँ तक की राष्ट्रीय स्तर पर भी धर्म के आधार पर डाटा रिकॉर्ड करने का कोई तरीका नहीं , तब इनके पास धर्म के आधार डाटा कैसे आया?
इस मीम में यह बोला गया है की मुसलमानों को “सरकारी स्वास्थ सेवाओ” और “अन्य सब्सिडी” का लाभ ज्यादा मिलता है इसके अलावा और कोई भी जानकारी नहीं दी गयी है, अफवाह फ़ैलाने वाले इसी तरह से काम करते है, इनका एक ही उद्देश्य है लोगो को डराना और भ्रमित करना.
इसके बाद पोस्ट में यह कहा जाता है कि कर भुगतान में मुसलमानों का योगदान 0.1 प्रतिशत ही है! डीओडीटी ना ही करदाता के धर्म का रिकॉर्ड रखता है ना ही उसे प्रकाशित करता है. न ही आईटीआर फॉर्म में धर्म के लिए कोई जगह है, तब आश्चर्य होता है कि विद्वान मीम–निर्माता यह आंकड़े कहाँ से लाते हैं। और इस तरह के सभी आंकड़ों में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए बता दे की, सभी भारतीयों में से केवल 4% ही आयकर का भुगतान करते हैं – जिसमे सभी धर्मों के लोग शामिल है।
(स्रोत: नि.व. 2020-21 के लिए सीबीआईटी के आंकड़े)
यह जनसंख्या वृद्धि (300 प्रतिशत!), सब्सिडी तक पहुंच (700 प्रतिशत!) और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच (800 प्रतिशत!)
इन आंकड़ो का क्या मतलब है? क्या इसका यह मतलब यह हुआ की मुस्लिम समुदाय अन्य समुदायों से आठ गुणा से अधिक स्वास्थ सुविधा प्राप्त कर रहा है, इस तरह के आकंडे कहाँ से लाए जा रहे है? स्पष्ट है, यह नफरत फैलाने वाले की कल्पना का एक मात्र उदाहरण है
कुछ वास्तविक आंकड़े
2011 की जनगणना के रिकॉर्ड के अनुसार, भारत में मुसलमानों की आबादी 14 प्रतिशत है। इस दशक में जो भी हुआ हो, जिसमें कोविड -19 महामारी शामिल है, यह संभावना बिलकुल नहीं है कि अल्पसंख्यक आंकड़ा भारत में हिंदू आबादी (79.7 प्रतिशत) से आगे निकल सकता है. कुल आबादी के हिस्से के रूप में मुसलमानों का 18 प्रतिशत का आंकड़ा गलती से 2019 के एनसीआरबी जेल सांख्यिकी से लिया गया हो सकता है। इसमें मुसलमानों का 18 प्रतिशत जो आकंडा है वह अपराधियों का हिसाब है। यह दूसरा सबसे बड़ा समूह था, लेकिन 67 प्रतिशत हिंदू कैदियों से बहुत कम था।
शिक्षा के अलावा, यह स्पष्ट नहीं है कि सोशल मीडिया पोस्ट में किस सब्सिडी का जिक्र हो रहा है. हालांकि, सच्चर समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 1999-2000 में एससी/एसटी को छोड़कर मुसलमानों की नामांकन दर सबसे कम थी. उस समय, राष्ट्रीय नामांकन दर 78 प्रतिशत थी – जोकि एक बड़ी संख्या नहीं. 2004-05 में इसमें थोड़ा सुधार हुआ जब मुस्लिम समुदाय की नामांकन दर ओबीसी की तुलना में थोड़ी अधिक थी. कोविद -19 के दौरान, बेबाक कलेक्टिव और अन्य संगठनों ने एक रिपोर्टें तैयार की जिनमें बताया गया था कि कैसे मुस्लिम लड़कियों को “बीमारी फैलने के डर” के कारण स्कूलों में शिक्षा से वंचित कर दिया गया.
चूंकि एनसीआरबी धर्म पर आधारित श्रेणियों के आंकड़ों को नहीं रखता है, इसलिए अपराधों के आंकड़ों को सत्यापित करना असंभव है. हालाँकि, केवल मुस्लिम महिलाओं को ही “नीलामी” ऐप पर उनकी तस्वीरों को ऑनलाइन साझा किए जाने का नुकसान उठाना पड़ा. 180 से अधिक महिलाओं की कुख्यात S**li Deals और B**li Bai प्लेटफॉर्म पर तस्वीरें साझा की गयी थीं. हैरानी की बात यह है की, इनमें से एक ऐप के निर्माता को आखिरकार “मानवीय आधार” पर जमानत मिल गई!
चोरी वास्तव में निंदनीय है लेकिन उन समुदायों का क्या, महामारी के दौरान जिनकी आजीविका के साधन छिन लिए गए थे? सीजेपी की साइलेंस ऑफ द लूम्स रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश के 13 स्थानों पर बुनकरों (जो मुख्य रूप से मुस्लिम हैं) ने कोविड लॉकडाउन के दौरान और बाद में अपने हस्तशिल्प, हथकरघा और पावरलूम व्यवसाय को 3,000 करोड़ रुपये के अनुमानित नुकसान की सूचना दी।
28 मार्च के आसपास, विधानसभा चुनावों के बाद, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) – कर्नाटक ने कम से कम दो जिलों में मुसलमानों के “आर्थिक बहिष्कार” के बारे में बात करते हुए चिंता व्यक्त की. इसके साथ ही, द कश्मीर फाइल्स के जारी होने के बाद नफरत की 10 घटनाएं और यूपी चुनावों के दौरान सीजेपी द्वारा 6 जगह दिए गये नफरती भाषण का मुद्दा उठाया गया, खुद को अच्छा दिखाने और नफरत में योगदान देने की तुलना में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को देखने की अधिक आवश्यकता है.
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