धर्मांतरण विरोधी कानून : जबरन धर्मांतरण मिथक या सच्चाई? उपलब्ध डाटा (तथ्य और आंकड़े) स्पष्ट दर्शाता है कि “जबरन धर्मांतरण“ की सच्चाई क्या है, यह कुछ और नहीं सिर्फ पहले से दरकिनार अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का एक और हथियार हैं – आलेख (रिसोर्स)
03, Apr 2023 | Tanya Arora
यह एक न्यायपूर्ण व निष्पक्ष न्यायशास्त्र का स्थापित सिद्धांत है कि एक बार जब कोई भी कानून पारित हो जाता है, जिसमें कि संविधान विरोधी और दमनकारी प्रावधान हों तो निजी स्वतंत्रता, निजता और स्वायत्तता के मुद्दों में राज्यसत्ता की निगरानी, प्रताड़ना और दखलंदाजी शुरू हो जाती है। यह एक सामूहिक आकार लेते हैं जब इन कानूनों का इरादा ही संप्रदाय निरपेक्ष न होकर बहुसंख्यवादी हो।
यही “धर्मांतरण विरोधी“ कानूनों के साथ हो रहा है जो 2020 से एक के बाद एक भाजपा शासित राज्यों में पारित किये जा रहे हैं। सभी को संवैधानिक चुनौती दी हुई है। इससे पहले कि यह आलेख ऐसे प्रतिबंधात्मक विधेयकों की पृष्ठभूमि और इतिहास में जाये, जबरन धर्म परिवर्तन के मामलों के मुद्दे के पीछे “तथ्य एवं आंकड़ों“ – डाटा – पर ध्यान देना होगा। “जबरन धर्मांतरण“ का मुद्दा बार–बार उछाला जाता है उन संगठनों के जरिये जो आम तौर पर महिलाओं की स्वायत्तता और मर्जी पर राज्यसत्ता का नियंत्रण चाहते हैं। यह इत्तेफाक नहीं है कि यह ताकतें और आवाजें बहुसंख्यवादी और श्रेष्ठतावादी नज़रिये का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह नज़रिया जीने के अधिकार, कानून के समक्ष समानता, गैरभेदभाव, आस्था, धर्म व पूजा की स्वतंत्रता के अकाट्य संवैधानिक सिद्धांतों के खिलाफ जाता है। इनके वर्तमान में केंद्र में और कई राज्यों में सत्ता में होने के कारण यह संकीर्ण और पक्षपाती रवैया अतिश्योक्तियों में दिख रहा है जबकि इस नज़रिये के पक्ष में कोई विश्वसनीय तथ्य या आंकड़े मौजूद नहीं हैं।
यहां हम पूछ रहे हैं, क्या “जबरन धर्मांतरण“ शोर मचाकर उछाला जा रहा मिथक है या सच्चाई? उपलब्ध तथ्य और आंकड़े हमें क्या बताते हैं?
मोदी 2.0 सरकार का संसद में धर्मांतरण पर रुख
सरकारें जब तथ्य और आंकड़े देती हैं तो उन्हें भरोसेमंद और सही माना जाता है क्योंकि यह जनप्रतिनिधियों के सदन, संसद को दिया जाता है। 2021 से “जबरन धर्मांतरण“ के मुद्दे पर तीन मौकों पर सरकार के सामने सीधे सवाल किये गये हैं और जवाब इंकार में मिला है।
2 फरवरी, 2021
संसद के 2021 के बजट सत्र के दौरान लोकसभा सदस्यों डॉ. मोहम्मद जावेद, श्री एंटो एंथनी, श्री टी एन प्रतापन, श्री कुंबकुडी सुधाकरण और डॉ. ए चाल्लाकुमार ने गृह मंत्रालय से पूछा है कि क्या सरकार यह मानती है कि अंतरधर्मीय विवाह जबरन धर्म परिवर्तन के कारण हो रहे हैं और सरकार की तरफ से जुटाये प्रमाण मांगे गये हैं जो दिखाते हों कि देश में अंतरधर्मीय विवाह जबरन धर्मांतरण के मामलों से जुड़े हैं। इस सवाल के जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किशन रेड्डी ने लोकसभा को बताया कि “कानून एवं व्यवस्था“ और “पुलिस“ संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार प्रदेश के विषय हैं। इसलिए धर्मांतरण से संबंधित प्रतिबंधात्मक, इनका पता लगाने, पंजीकरण, जांच और कानूनी कार्रवाई करना राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन की चिंताएं हैं। जहां भी उल्लंघन के मामले सामने आते हैं, कानूनी एजेंसियों की तरफ से कार्रवाई वर्तमान कानूनों के तहत की जाती है।“
इसके बाद, उक्त जनप्रतिनिधियों ने जब केंद्रीय गृह मंत्रालय से जानना चाहा कि क्या केंद्र सरकार अंतरधर्मीय विवाहों को रोकने के लिए केंद्रीय धर्मांतरण विरोधी कानून बनाने का इरादा रखती है, सरकार ने जवाब इंकार में दिया।
धर्म परिवर्तन के मामलों में कानून लाने के सवाल पर सरकार ने स्पष्ट रूप से संसद को बताया कि केंद्र सरकार के ऐसा कोई कानून पारित करवाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि कानून एवं व्यवस्था राज्य के विषय हैं।
पूरा जवाब यहां देख सकते हैं
मार्च 14, 2022
2022 के बजट सत्र के दौरान, लोकसभा सदस्य कनकल कटारा ने आदिवासी मामलों से संबंधित मंत्रालय से पूछा, “क्या यह सच है कि धर्म परिवर्तन राजस्थान, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड आदि राज्यों में गंभीर मुद्दा है, खासकर बंसवाड़़ा-डुंगरपुर संसदीय क्षेत्र में? यदि ऐसा है तो धर्मांतरण रोकने के लिए औैर हमारी जनजातियों की हजारों वर्ष पुरानी संस्कृति बचाने के लिए सरकार की तरफ से उठाये कदमों की जानकारी देने का अनुरोध हे।
सदस्य ने यह भी पूछा था कि “क्या सरकार ने जनजातीय समुदाय द्वारा धर्म परिवर्तन के कारणों की पड़ताल के लिए या कारण जानने के लिए कोई कमेटी बनाई है या बनाने का प्रस्ताव है?
उनके सवाल के जवाब में आदिवासी मामलों के राज्य मंत्री श्री बिश्वेश्वर टुडू ने वही चिरपरिचित जवाब दिया, जो सरकार ने तब दिया था जब उनसे देश में जबरन धर्म परिवर्तन के दावे के समर्थन में प्रमाण का विवरण मुहैया कराने को कहा गया था।
पूरा जवाब यहां पढ़ा जा सकता है:
अगस्त 1, 2022
संसद के 2022 के मानसून सत्र में लोकसभा सदस्यों श्री अरविंद गणपत सावंत और विनायक राऊत ने आदिवासी मामलों के मंत्रालय से पूछा कि क्या यह सच है कि देश के कई शहरों, गांवों और नगरों में बड़े पैमाने पर धार्मिक परिवर्तन हो रहे हैं और इससे निबटने के लिए सरकार ने क्या कदम उठाये हैं।
1 अगस्त 2022 को आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने स्पष्ट कहा कि वह आदिवासियों में धर्म परिवर्तन के आंकड़े नहीं रखती है और यह कि ना ही आदिवासी समुदाय के लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन के कारण जानने के लिए कमेटी बनाई गई है। इससे सरकार ने यही संकेत दिया कि यह ज़मीन पर कोई मुद्दा ही नहीं है।
पूरा जवाब यहां पढ़ा जा सकता है:
इस तरह सरकार ने जनप्रतिनिधियों के सदन को बार-बार उछाले जाने वाले इस मुद्दे, “जबरन धर्म परिवर्तन का खतरा“ पर कभी चेताया नहीं है। इसके बावजूद हर सार्वजनिक मंच पर इसी सरकार के प्रतिनिधि, जनप्रतिनिधियों समेत अतिश्योक्तिपूर्ण दावे और बयानबाज़ी करते रहते हैं।
जबरन धर्म परिवर्तन के दावों के पीछे का मिथक व सच्चाई
2021 में एक कर्नाटक में होसादुर्गा के भाजपा विधायक गूलीहत्ती शेखर ने आरोप लगाया कि उनकी मां को जबरन धर्म परिवर्तन कराकर ईसाई बनाया गया था और पुलिस को निर्देश दिया कि सभी गिरजाघरों का सर्वेक्षण करें। पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा कि उन्हें कोई ‘अवैध‘ गिरजाघर नहीं मिला। तहसीलदार जो जबरन धर्मांतरण के आरोपों की जांच के लिए नियुक्त किये गये थे, ने पाया कि दो गांवों से जिन 50 परिवारों ने ईसाई धर्म अपनाया था, उन्हें कोई लालच नहीं दिया गया था, न उन पर कोई दबाव था।
दिलचस्प यह है कि दिसंबर में गूलहती ने खुद अपना बयान वापस लिया और कहा कि उन्हें पक्का नहीं है कि उनकी मां ने वास्तव में धर्म परिवर्तन किया था।(1)
यह केवल एक उदाहरण है सत्तारूढ़ दल से एक शक्तिशाली निर्वाचित सदस्य के अपने पद का दुरुपयोग झूठा हौव्वा फैलाने का जो फिर ऐसे प्रगतिगामी कानून बनाने की जरूरत को न्यायोचित्त्त ठहराने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
जब उसी सरकार से बाद में “जबरन धर्मांतरण और सामूहिक धर्मांतरण“ का वास्तविक प्रमाण मांगा जाता है, तो वह या तो सवाल टाल जाते हैं या फिर चिरपरिचित जवाब देते हैं कि ऐसी सामग्री जमा करना राज्यों की संवैधानिक जिम्मेदारियों के तहत आता है। आज तक केंद्र सरकार ने जबरन धर्मांतरण के दावों के समर्थन में मामलों या किसीके दोषी पाये जाने के आधिकारिक आंकड़े मुहैया नहीं कराये हैं।
धर्मांतरण विरोधी कानूनों से वास्तव में किसे लाभ मिल रहा है?
झारखंड, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंउ में भाजपा नीत सरकारों के 2020 से पारित किये गये “धर्मांतरण विरोधी कानूनों का एक तथ्य समान है – अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग और महिलाओं, बच्चों, नाबालिगों के धर्मांतरण के किसी प्रयास के लिए “दोषी“ पर ज्यादा जुर्माना लगता है।
झारखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2017 के अनुसार धर्मांतरण की सज़ा तीन वर्ष कैद, 50 हजार रुपये का जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं लेकिन किसी अनुसचूति जाति, जनजाति के व्यक्ति, महिला या नाबालिग के धर्मांतरण की सज़ा चार साल की कैद औैर एक लाख रुपये का जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं। इसी तरह, उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्मांतरण प्रतिबंधक अध्यादेश 2020 के अनुसार आदिवासियों, निचली जातियों के सदस्यों, बच्चों के धर्मांतरण पर कठोर दंड का प्रावधान है।
इन कानूनों में कड़े दंडात्मक प्रावधान होते हैं इसके बावजूद कि धर्मांतरण का इस्तेमाल देश के सर्वाधिक उत्पीड़ित वर्गों की तरफ से जाति-आधारित निष्कासन व हिंसा के बोझ से मुक्त होने के लिए करने का लंबा इतिहास है। वर्ष 1956 से, जब डॉ. बी आर अंबेडकर ने सामूहिक बौद्ध धर्म अपनाये जाने के घटनाक्रम का नेतृत्व किया, दलितों में उत्पीड़ित जातियों और आदिवासियों ने धर्मांतरण का इस्तेमाल उत्पीड़क के धर्म से दूर रहने के लिए किया है।
आंकड़े हमें क्या बताते हैं?
न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने वर्ष 2020 के लिए आधिकारिक आंकड़ों वाले सरकारी गजट से जुटाये आंकड़ों के अनुसार हिंदू धर्म अपनाने वालों की संख्या में सबसे ज्यादा इज़ाफा हुआ। विश्लेषण के अनुसार केरल में उस वर्ष दूसरा धर्म अपनाने वालों में 47 फीसदी हिंदू धर्म अपनाने वाले थे। धर्म परिवर्तन करने के बारे में सरकार को सूचित करने वाले वाले 506 लोगों में 241 ईसाई या मुस्लिम थे जो हिंदू बने। इस्लाम को 144 ने अपनाया और 119 से ईसाई धर्म को। (2)
दलित ईसाइयों या ईसाई चेरामार ईसाई समबव और ईसाई पुलाया हिंदू बने लोगों का 72 फीसदी थे। यह स्पष्ट था कि कोटा या आरक्षण लाभ की अनुपस्थित के कारण कई दलित ईसाई दोबारा हिंदू बने थे। ईसाई समुदाय के 242 सदस्य अन्य दो धर्मों में गये जबकि केवल 119 लोग ईसाई समुदाय में शामिल हुए। इस अवधि में इस्लाम ने 144 नये सदस्य पाये और 40 खोये। बौद्ध धर्म में हिंदू धर्म से दो सदस्य आये।
नये इस्लाम धर्म अपनाने वालों में 77 फीसदी हिंदू थे और 63 फीसदी महिलाएं। इसमें एज़ावा, थिया और नायर समुदायों के लोग सबसे ज्यादा इस्लाम ने आकर्षित किये। एज़ावा जाति से 13 महिलाओं समेत 25 लोगों ने इस्लाम अपनाया। आंकड़ों के अनुसार 17 थिया समुदाय के लोग, जिनमें 11 महिलाएं शामिल थी, ने इस्लाम अपनाया। नायर समुदाय से 12 महिलाओं समेत 17 लोगों ने इस्लाम अपनाया। ईसाई धर्म से इस्लाम में गये 33 लोगों में 9 सीरियाई कैथोलिक थे, जिनमें दो महिलाएं थीं।
धर्मांतरण का आंकड़ेवार ब्यौरा निम्नलिखित है:
धर्मांतरण | महिलाएं | पुरुष | कुल |
हिंदू से ईसाई | 60 | 51 | 111 |
ईसाई से हिंदू | 108 | 101 | 209 |
हिंदू से इस्लाम | 72 | 39 | 111 |
इस्लाम से हिंदू | 22 | 10 | 32 |
ईसाई से मुस्लिम | 19 | 14 | 33 |
मुस्लिम से ईसाई | 2 | 6 | 8 |
हिंदू से बौद्ध | 1 | 1 | 2 |
आंकड़ों का स्रोत – न्यू इंडियन एक्सप्रेस (3)
इन रुझानों के बावजूद, इस पर एक साज़िशन चुप्पी है – हिंदू धर्म अपनाने के मामलों पर सार्वजनिक चर्चा में बात नहीं की जाती और देश के मीडिया में बहस नहीं होती। ऐसे जबरन या सामूहिक धर्मांतरण या ‘पुन.धर्म परिवर्तन को ‘घर वापसी‘ कहा जाता है। यहां तक कि जब वर्तमान धर्मांतरण विरोधी कानूनों के बारे में बात की जाती है, हिंदू धर्म अपनाने पर बात नहीं होती। यह गलत धारणा कि आदिवासियों और दलितों का “मूल“ धर्म सनातनी हिंदुत्व है, बेहद विवादास्पद है क्योंकि उनके धार्मिक रीति-रिवाज़ जातियों में बंटे हिंदू धर्म के औपचारिक होने से पहले के हैं।
अतिवादी समूहों की तरफ से ‘घरवापसी‘ और जबरन धर्मांतरण की मिसालें/घटनाएं:
अनुक्रमांक | राज्य | सन | घटनाएं |
1. | पश्चिम बंगाल | 2015
2015 |
घर वापसी : ईसाई व इस्लाम दोनों समुदायों से कम से कम 50 लोगों ने विराट हिंदू सम्मेलन में फिर से हिंदू धर्म अपनाया। धर्मांतरण को हिंदू समाज की सेवा करार देकर जायज़ ठहराया गया।(4)
तपन घोष के नेतृत्व में हिंदू संहती नामक एक संगठन ने एक मुस्लिम परिवार के 16 सदस्यों की ‘घर वापसी‘ करवाई जो ‘वापस हिंदू धर्म में शामिल हुए‘। यह दक्षिणपंथी हिंदू संहती संगठन के मंच पर हुआ।(5) |
2. | गुजरात | 2020
2021 |
144 आदिवासी हिंदू जिन्होंने कई वर्ष पहले ईसाई धर्म अपनाया था डांग जिले में अग्निवीर संगठन की तरफ से आयोजित कार्यक्रम में वापस हिंदुत्व अपना लिया।(6)
धरमपुर और कापर्डा तालुकाओं के 21 परिवारों को विश्व हिंदू परिषद की तरफ से वापी में आयोजित एक कार्यक्रम में ईसाई धर्म से हिंदू धर्म में वापसी की।(7) |
3. | आंध्र प्रदेश | 2019 | हिंदू राष्ट्रव्रादी पार्टी की स्थानीय शाखा ने लगभग 500 ईसाइयों से हिंदू धर्म पर शपथ दिलवाई और वायदा लिया कि वह अब कभी चर्च नहीं जाएंगे।(8) |
4. | त्रिपुरा | 2019 | 98 ईसाई आदिवासियों को त्रिपुरा में विश्व हिंदू परिषद द्वारा हिंदुत्व में वापसी के लिए ‘मजबूर‘ किया गया। (9) |
5. | केरल | 2015 | लगभग 30 ईसाई आदिवासियों ने विश्व हिंदू परिषद की तरफ से अलापुज़ा में आयोजित एक कार्यक्रम में हिंदू धर्म अपनाया।(10)
कोट्टयम जिले में 35 लोगों को हिंदू धर्म में शामिल किया गया। वह दलित परिवार थे जो कुछ पीढ़ियां पहले ईसाई बने थे।(11) |
6 | उत्तर प्रदेश | 2014 | 2014 में 200 सदस्यों से ज्यादा वाल 57 मुस्लिम परिवार आगरा में हिंदू बने। (12) |
स्रोत : सीजेपी कानूनी अनुसंधान टीम
कुछ और दिलचस्प आंकड़े हैं। जनगणना आंकड़ों के अनुसार बौद्ध आबादी भारत में 1991 के 64 लाख से बढ़कर 2011 में 84 लाख हो गई। संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 के तहत हिंदू, सिक्ख और बौद्ध धर्म के दलितों को अनुसूचित जातियों के सदस्य माने जाते हैं और उन्हें आरक्षण के लाभ मिलते हैं। (13)
यूनाईटेड क्रिश्चियन फोरम (यूसीफ) के अनुसार 2022 के पहले सात महीनों में ईसाइयों के खिलाफ 302 हमले हुए। यूसीफ ने अपने हेल्पलाइन नंबर पर प्राप्त कॉल्स के आधार पर यह आंकड़े जुटाये हैं। यूसीएफ दिल्ली का एक गैरसरकारी संगठन है जिसकी स्थापना निशाना बनने वाले सदस्यों की मदद करना व उनकी रक्षा करना है। यूसीएफ का डाटा बताता है कि उत्तर प्रदेश में ऐसे 60 मामले – सर्वाधिक- हुए हैं, उसके बाद छत्तीसगढ़ में 60 मामले सामने आये हैं।(14) स्पष्ट है कि “जबरन धर्मांतरण‘ का हौवा वास्तव में कमज़ोर अल्पसंख्यकों को पीटने की एक छड़ी है।
कोई दोषसिद्धि नहीं, केवल झूठे आरोप : बन गई है प्रथा
दशकों पहले, जब पहला ‘धर्मांतरण विरोधी‘ विधेयक उड़ीसा सरकार ने 1967 में पारित किया था, प्रदेश में केवल 2 लाख ईसाई थे जो कुल आबादी का केवल 1.1 फीसदी थे जिसकी तुलना में हिंदुओं की संख्या 1.7 करोड़ थी। उड़ीसा के उदाहरण के बाद मध्य प्रदेश ने 1968 में अपना पहला “धार्मिक स्वतंत्रता“ विधेयक पारित किया। उल्लेखनीय है कि 2011 की जनगणन के अनुसार मध्य प्रदेश में कुल आबादी का केवल 0.29 फीसदी हिस्सा खुद को ईसाई बताता है। (15)
यह तथ्य हौव्वे की पोल खोलते हैं, जनवरी 2021 में मध्य प्रदेश और कठोर अध्यादेश लाया और पहले 23 दिनों में 23 मामले कथित जबरन धर्मांतरण का आरोप लगाते हुए दर्ज किये गये। हालांकि किसी मामले में कोई दोषसिद्धि नहीं हुई।
उत्तर प्रदेश में धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत 16 मामलों में से निचली अदालत से एक दोषसिद्धि सामने आयी है। (16) उत्तर प्रदेश पुलिस से द प्रिंट द्वारा जुटाई सामग्री के अनुसार पता चला है कि शुरू किये गये 108 मामलों में से 72 में आरोपपत्र दाखिल किये गये हैं। 11 मामलों में आरोपियों के खिलाफ प्रमाण के अभाव में अंतिम रिपोर्ट दाखिल की जा चुकी है और 24 में जांच जारी है। एक मामले की जांच बेंगलुरू स्थानांतरित की गई है। उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा मामले बरेली क्षेत्र (28) दर्ज किये गये हैं उसके बाद मेरठ क्षेत्र (23) गोरखपुर क्षेत्र (11), लखनऊ क्षेत्र (नौ) और आगरा (नौ) का नंबर आता है। प्रयागराज और गौतम बुद्ध नगर में सात-सात मामले हैं, जबकि वाराणसी व लखनऊ में छह-छह मामले हैं। कानपुर में केवल दो मामले दर्ज हैं। अध्यादेश के नौ महीनों में पुलिस ने धर्मांतरण विरोधी मामलों में 189 लोगों को गिरफ्तार किया है।(17)
सितंबर 2022 में तमिल नाडु ने “बाल गृहों व स्कूलों में बच्चों के जबरन धर्मांतरण‘‘ पर एनसीपीसीआर की रिपोर्ट को खारिज करते हुए कहा था कि दावे झूठे हैं। एनसीपीसीआर ने आरोप लगाया था कि छात्रावास वार्डन छात्रों को ईसाई बनने को उकसा रहा था।(18)
13 अक्तूबर 2021 को गुजरात उच्च न्यायालय ने संशोधित धार्मिक स्वतंत्रता कानून के तहत प्रदेश के पहले मामले में गिरफ्तार सभी सात लोगों को जमानत पर रिहा किया। मामले में एक हिंदू महिला ने अपने मुस्लिम पति, उसके पांच पारिवारिक सदस्यों और उनके विवाह के काजी के खिलाफ जबरन धर्मांतरण के आरोप लगाया थे। इन सभी को 18 जून को गिरफ्तार किया गया था। 5 अगस्त को महिला ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर अपनी शिकायत वापस ली और कहा कि पुलिस ने उनकी शिकायत को “गलत तरीके से“ जबरन धर्मांतरण, बलात्कार और अन्य आरोपों के मामले में बदल दिया था। पुलिस रिपोर्ट के अनुसार महिला के मुस्लिम पति ने शादी से पहले ईसाई होने का दावा किया था और शादी के बाद पारिवारिक सदस्यों ने पत्नी पर इस्लाम अपनाने पर दबाव डाला। महिला के अपनी शिकायत वापस लेने पर पुलिस ने मामला समाप्त कर दिया। (19)
गैर सरकारी संगठनों यूनाईटेड अगेंस्ट हेट, द एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राईट्स और यूसीएफ की एक संयुक्त रिपोर्ट “भारत में ईसाइयों पर हमले“ में बताया गया है कि ईसाइयों के खिलाफ हिंसा की 500 से ज्यादा घटनाएं पिछले साल यूसीएफ की हॉटलाइन पर दर्ज की गईं। रिपोर्ट के अनुसा 486 में से 333 घटनाएं उत्तर प्रदेश्, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में हुईं। रिपोर्ट के अनुसार साल भर में हिंसा में संलिप्त तत्वों के खिलाफ केवल 34 प्राथमिकियां दर्ज की गईं। वर्ष के अंत तक धर्मांतरण प्रतिरोधक कानूनों के तहत नौ राज्यों में 19 मामले ईसाइयों के खिलाफ लंबित थे, हालांकि वर्ष के दौरान किसी ईसाई को देश में अवैध धर्मांतरण के लिए दोषी नहीं ठहराया गया था।(20)
संघ परिवार (श्रेष्ठतावादी संगठनों का व्यापक गठजोड़) के तिरुमाला में कई “जबरन धर्मांतरण“ के दावों का तिरुमाला के भगवान वेंकटेश्वरा मंदिर के मुख्य पुजारी वी वी रमेना दीक्षितुलु ने खंडन किया है। उन्होंने कहा कि इलाके में कोई धर्मांतरण नहीं हुआ। 1999 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अध्यक्ष की टिप्पणी भी यही थी कि दलितों और आदिवासियों से जबरन धर्मांतरण कराये जाने के आरोप के समर्थन में कोई प्रमाण नहीं मिला। (21)
धर्मांतरण के खिलाफ याचिकाएं : अल्पसंख्यकों के और उत्पीड़न का प्रयास?
सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली उच्च न्यायालय ने पिछले दो सालों में “जबरन धर्मांतरण‘ पर तीन याचिकाएं खारिज की हैं। याचिकाएं एक ही याचिकाकर्ता – थोक में जनहित याचिकाएं दाखिल करने वाले भाजपा नेता अश्वनी उपाध्याय – ने दाखिल की थीं।
12 दिसंबर को भाजपा नेता अश्वनी उपाध्याय ने एक जनहित याचिका दाखिल की थी देश भर में “सामूहिक धर्मांतरण“ होने का आरोप लगाते हुए। श्री उपाध्याय ने दावा किया था कि भारत में हिंदू आबादी 2001 के 86 फीसदी से गिरकर 2011 में 79 फीसदी हो गयी है।
याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका में अल्पसंख्यकों के धर्मों के खिलाफ कुछ फूहड़ टिप्पणियों पर ऐतराज जताया। अदालत ने स्पष्ट रूप से याचिकाकर्ता के वकील अरविंद पी दातार से कहा कि सुनिश्चित करें कि ऐसी फूहड़ टिप्पणियां रिकॉर्ड पर न आएं। हाल में एक सुनवाई में न्यायाधीशों ने कहा कि ऐसी कोई टिप्पणियां हों तो निकाल दें जबकि सुनवाई की पिछली तारीखों पर केंद्र सरकार के कानूनी अधिकारियों ने गुमराह करने वाले बयान दिये जिससे खंडपीठ ने टिप्पणी की कि “जबरन धर्मांतरण एक गंभीर मुद्दा हैं।“ एक पिछली सुनवाई में इसीअदालत ने इस मामले में कहा कि “गलत धर्मांतरण“ का मुद्दा “बेहद गंभीर“ समस्या है, यहां तक कि केंद्र सरकार से राज्यों से धार्मिक परिवर्तनों के कानून संबंधी डाटा राज्यों से जुटाने को कहा।
विडंबना देखिये, याचिकाकर्ता अश्वनी उपाध्याय आज खुद नफरती बयान को लेकर मुकदमे का सामना कर रहे हैं। श्री उपाध्याय ने 2021 में सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की बेंच से याचिका खारिज होने के साथ जुर्माना लगाने की चेतावनी दी गई थी। न्यायाधीश आरएफ नरीमन, बीआर गवई और रिषिकेश रॉय ने श्री उपाध्याय की दाखिल याचिका को खारिज किया था और कहा था कि यदि वह ज़ोर देंगे तो उन पर जुर्माना लगाया जाएगा।(22) इस खंडपीठ ने निर्णय दिया था कि धार्मिक परिवर्तन कानून या कोई भी बात जो किसी के धर्म के अधिकार का अतिक्रमण करती है तो वह गैरकानूनी होगी क्योंकि भारतीय संविधान लोगों को अपनी पसंद से किसी भी धर्म के पालन की अनुमति देता है और क्योंकि संविधान के 25वें अनुच्छेद में “प्रचार“ शब्द का भी इस्तेमाल किया गया है। खंडपीठ ने कहा कि 18 वर्ष से अधिक उम्र के किसी भी व्यक्ति को अपना धर्म चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।(23)
स्वायत्तता और स्वतंत्र पसंद के मुकाबले राज्यों के धर्मांतरण विरोधी कानूनों की संवैधानिकता को सीजेपी की चुनौती
नवंबर 2022 के तीसरे सप्ताह में, सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व (2020-21) में दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई की तैयारी दिखाई। याचिकाओं में शादियों के लिए किये जाने वाले धर्मांतरण के खिलाफ ‘लव जिहाद‘ के नाम पर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के धार्मिक स्वतंत्रता कानूनों को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ताओं में से एक सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस की तरफ से वरिष्ठ वकील सी यू सिंह ने मुख्य न्यायाधीश डी वाय चंद्रचूड़, न्यायाधीश हिमा कोहली और न्यायाधीश जे बी पारदीवाला के समक्ष याचिकाओं को मेंशन किया और त्वरित सुनवाई का अनुरोध किया। सी यू सिंह ने खंडपीठ को बताया कि अदालत पहले ही शफीन जहां के मामले में निर्णय दे चुकी है कि किसी व्यक्ति के धर्म परिवर्तन का अधिकार चयन के मौलिक अधिकार का हिस्सा है।
सीजेपी की याचिकाओं पर सुनवाई अब 2023 की शुरुआत में होने वाली है जिनमें उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्म परिवर्तन प्रतिबंधक अध्यादेश 2020 और उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2018 व मध्य प्रदेश के ऐसे ही कानून को चुनौती दी गई है। मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के कानूनों को अदालत में बाद में चुनौती दी गई है।
इन याचिकाओं के संदर्भ में नोटिस जनवरी 2021 में जारी हो चुका है। पिछले साल, मध्य प्रदेश सरकार ने लोगों के लिए यह आवश्यक कर दिया कि अंतरधर्मीय विवाह या अपनी मर्जी से दूसरा धर्म अपनाने के लिए दो महीने पहले अधिकारियों को सूचित करना होगा। मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम की धारा 10 के तहत कारावास और जुर्माने समेत दंडात्मक कार्रवाई किये जाने का प्रावधान है।
2020-22, भय फैलाने के लिए अदालतों का इस्तेमाल
राज्यों की तरफ से पारित इन कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल की जा चुकी हैं। प्राथमिकियां दर्ज की जा रही हैं, अल्पसंख्यक समुदायों से लोगों की गिरफ्तारियां/प्रताड़ना हुई है। राजग 2 (2020 के बाद) शासन में कई राज्यों में बनाये इन कानूनों में एक प्रावधान समान है, वह यह है कि कोई भी व्यक्ति जो धर्म परिवर्तन करना चाहता है को जिला मजिस्ट्रेट को पहले बताना जरूरी है। यह प्रावघान वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता और निजी पसंद में राज्य को हस्तक्षेप की कानूनी स्वीकृति देता है। “सामूहिक धर्म परिवर्तन“ के खिलाफ भी प्रावधान हैं। अधिकाधिक राज्य (सभी पर श्रेष्ठतावादी भारतीय जनता पार्टी – भाजपा का शासन है) कड़े कानून पारित कर रहे हैं – जो वैयक्तिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण करते हैं – प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर देश के ज्यादा पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों को निगरानी में लाने/निशाना बनाने के लिए। कड़े धर्मांतरण विरोधी कानून पारित करने वाले राज्यों की सूची में ताजा नाम उत्तराखंड का है जहां और भी कड़ा कानून, उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता (संशोधन) अधिनियम, 2022, लाया गया है।
यह कानून 2017 के बाद पारित किये गये हैं इस तथ्य के बावजूद कि इसी कानून का एक पूर्व संस्करण, हिमाचल प्रदेश में पारित कानून, निरस्त किया जा चुका है। 2021 में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने 2006 के हिमाचल प्रदेश अधिनियम की धारा 4 को संविधान के तहत अधिकारातीत करार दिया था और नियम 3 और पांच निरस्त कर दिये थे, जो धारा 4 से संबंधित थे। धारा 4 इस तरह थी:
“4. इरादे का नोटिस – (1) एक व्यक्ति जो एक धर्म से दूसरे धर्म में जाना चाहता है संबंधित जिले के जिला मजिस्ट्रेट को अपने इरादे के बारे में कम से कम 30 दिन पहले नोटिस देगा और जिला मजिस्ट्रेट मामले की जांच योग्य एजेंसी से करायेगा:
नोटिस की आवश्यकता नहीं होगी यदि कोई व्यक्ति अपने मूल धर्म को वापस अपनाना चाहेगा तो।
(2) कोई भी व्यक्ति जो उपधारा (1) के तहत आवश्यकतानुसार पूर्व नोटिस देने में विफल रहता है जुर्माने का दंड भुगतेगा जो एक हजार रुपये तक हो सकता है।“
उच्च न्यायालय ने कहा कि:
“एक व्यक्ति के पास न सिर्फ विवेक का अधिकार है, विश्वास का अधिकार है, अपना विश्वास बदलने का अधिकार है बल्कि अपने विश्वास को गुप्त रखने का भी अधिकार है। इसमें कोई संदेह नहीं कि निजता के अधिकार पर भी अन्य अधिकारों की तरह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकतता और राज्यसत्ता के व्यापकहित की कसौटी लागू होती है। जब नागरिकों के अधिकार व्यापक जनहित से टकराएं तो नागरिकों के अधिकारों को पीछे हटकर व्यापक जनहित काके रास्ता देना होगा। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि बहुसंख्या का हित व्यापक जनहित है। व्यापक जनहित का मतलब है देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता, कानून एवं व्यवस्था बनाये रखना। सिर्फ इसलिए कि बहुसंख्यकों का नज़रिया अलग है, अल्पसंख्यकों का नज़रिया दबाया नहीं जा सकता।“
इस मामले में, उच्च न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर कहा कि नागरिक का निजता का अधिकार और धर्म बदलने का अधिकार इस आधार विशेष पर नहीं छीना नहीं जा सकता कि सार्वजनिक बिगड़ सकती है। उच्च न्यायालय ने कहा, “हम समझ नहीं पा रहे हैं कि एक धर्म परिवर्तन के इच्छुक व्यक्ति की तरफ से नोटिस जारी करना छल, दबाव या लालच से होने वाले धर्मांतरण को कैसे रोक सकता है। वास्तव में, यह मुश्किलों के पिटारे को खोल सकता है और एक बार नोटिस जारी होने के बाद प्रतिद्वंद्वी धार्मिक संगठनों व समूहों के बीच टकराव की स्थितियां पैदा कर सकता है।“
हिमाचल प्रदेश अधिनियम की 30 दिनों के नोटिस की आवश्यकता पर सवाल उठाते हुए उच्च न्यायालय ने पूछा कि सरकार कैसे तय करेगी कि किसी व्यक्ति की सोच प्रक्रिया कब बदली। अदालत ने कहा, “धर्म परिवर्तन, जब यह किसीकी अपनी मर्जी से हो, सामान्यत: एक लंबी प्रक्रिया होती है। यदि कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से अपना धर्म परिवर्तन करता है तो तारीख आंकने या तय करने का कोई तरीका नहीं है जिस दिन उसने ‘क‘ धर्म में न रहकर ‘ख‘ धर्म अपना लिा। यह एक सतत प्रक्रिया होती है और इसलिए जैसा कि हिमाचल प्रदेश अधिनियम के तहत आवश्यक है, 30 दिनों का नोटिस नहीं हो सकता।“
उच्च न्यायालय ने धारा 4 के प्रावधान को भेदभावपूर्ण और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता पाया। अदालत ने समझाया, ‘‘हिमाचल अधिनियम में ‘मूल धर्म‘ को परिभाषित नहीं किया गया… सामान्य सर्वसम्मत राय जो इस्तेमाल की गई है वह है कि मूल धर्म वह होगा जो धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति का जन्म के समय था यानी जिस धर्म में वह जन्मा था। हम इसका औचित्य समझ नहीं पा रहे हैं कि यदि कोई व्यक्ति अपने मूल धर्म में लौटना चाहता है तो उसे नोटिस की आवश्यकता नहीं है… मान लें कि धर्म ‘क‘ में जन्मे एक व्यक्ति ने 20 वर्ष की उम्र में धर्म ‘ख‘ अपनाया और 50 वर्ष की उम्र में धर्म ‘क‘ में लौटना चाहता है यानी उसने ज्यादा वर्ष, वह भी परिपक्व वर्ष, धर्म ‘ख‘ के अनुयायी के रूप में गुजारे हैं तो उसे नोटिस देने की जरूरत क्यों नहीं है?… यदि कोई व्यक्ति धर्म ‘क‘ में जन्मा है, ‘ख‘ धर्म अपनाता है, फिर धर्म ‘ग‘ अपनाता है और उसके बाद धर्म ‘घ‘ अपनाता है, अब यदि वह वापस धर्म ‘ख‘ या ‘ग‘ में जाना चाहता है तो उसे नोटिस देने की जरूरत है लेकिन यदि वह वापस धर्म ‘क‘ में जाना चाहता है, तो उसे नोटिस देने की आवश्यकता नहीं है। यह भी, हमारी राय में, पूरी तरह अतार्किक है और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।“
उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण था कि ‘दबाव‘, ‘छल‘ या ‘लालच‘ से धर्मांतरण से कड़ाई से निबटना चाहिए और हतोत्साहित करना चाहिए। लेकिन साथ में जोड़ा कि, अधिकतर, यह गरीब और दबे-कुचले लोग होते हैं जिनसे ‘दबाव‘, ‘छल‘ या ‘लालच‘ से धर्मांतरण करवाया जाता है। धारा 4 बनाकर और नोटिस जारी न करने को अपराध बनाने को लेकर राज्य ने, वास्तव में, इन गरीब और दबे-कुचले लोगों को अपराधी बनाया है, जबकि अधिनियम का मुख्य ज़ोर उन लोगों पर होना चाहिए जो ‘दबाव‘, ‘छल‘ या ‘लालच‘ से लोगों का धर्म परिवर्तन कराते हैं। यह पूछते हुए कि क्यों एक व्यक्ति, जो ऐसा नोटिस नहीं दे सकता, को 1000 रुपये तक का जुर्माना भरने की आश्यकता पड़नी चाहिए?“
हालांकि, इस पृष्ठभूमि के बावजूद, 2019 में, 2006 का हिमाचल प्रदेश अधिनियम निरस्त किया गया औैर उसकी जगह हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2019 लाया गया। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की तरफ से दरकिनार किये गये प्रावधान 2019 में पारित नये कानून में शामिल किये गये। नये कानून की धारा 7(4) के तहत अग्रिम घोषणा की प्रक्रिया अपनाये बिना किया गया धर्मांतरण अवैध और रद्द माना जाएगा।
उल्लेखनीय है, कि 2012 का हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का इवेंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य निर्णय न्यायाधीश दीपक गुप्ता ने लिखा था, जो दो बार उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे। बाद ममें 2017 में वह सुप्रीम कोट के न्यायाधीश के रूप में पदोन्न्त किये गये। न्यायाधीश दीपक गुप्ता सुप्रीम कोर्ट से 2020 में सेवानिवृत्त हुए।
सिटीजंस फॉर पीस एंड जस्टिस (सीपीजे), मुंबई के गैर सरकारी संगठन ने 2020 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के धर्मांतरण विरोधी कानूनों को चुनौती दी। तीन न्यायाधीशों – पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे, न्यायाधीश वी रामासुब्रमणियम और ए एस बोपन्ना – ने राज्यों को 6 जनवरी 2021 के अपने आदेश के जरिये नोटिस जारी किये।
उसके बाद, फरवरी 2021 में सीपीजे की याचिका में संशोधन कर हिमाचल प्रदेश व मध्य प्रदेश के भी नये धर्मांतरण विरोधी कानूनों को चुनौती दी गई। संशोधित याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने 17 फरवरी 2021 के आदेश से स्वीकृत किया।
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि, “व्यापक जनहित का मतलब है देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता, कानून एवं व्यवस्था बनाये रखना। सिर्फ इसलिए कि बहुसंख्यकों का नज़रिया अलग है, अल्पसंख्यकों का नज़रिया दबाया नहीं जा सकता।“
हिमाचल प्रदेश में नया कानून लाने का जहां तक मामला है, सीपीजे की याचिका में कहा गया है कि 2019 के कानून में “विवाह से धर्मांतरण“ से जुड़े कई प्रावधान जोड़े गये हैं, और धारा 7 व 9 के तहत हिमाचल प्रदेश अधिनियम, 2006 के निरस्त किये गये प्रावधानों से भी अधिक बेतुके और असंवैधानिक प्रावधान पूर्व नोटिस, जांच और पड़ताल के जोड़े गये हैं। याचिका के अनुसार यह विधायिकी का अपने बूते से बाहर जाकर उच्च न्यायालय की तरफ से दर्शायी गयी असंवैधानिकता को हटाये बिना सक्षम उच्च न्यायालय की तरफ से बाध्यकारी कानून को उलटने के प्रयास का मामला है। नया कानून, वास्तव में, धर्मांतरण करने वाले व्यक्ति पर ही प्रमाण का बोझ डालता है और विवाह करने समेत मामलों को संज्ञेय ओर असंज्ञेय अपराध बनाता है। याचिका “सिटीजंस फॉर पीस एंड जस्टिस बनाम उत्तर प्रदेश राज्य इस समय सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है।
1977 : सुप्रीम कोर्ट का स्टेनलिस्लॉस निर्णय
उड़ीसा और मध्य प्रदेश में इन “धर्मांतरण विरोधी“ कानूनों के पहली बार बनने के बाद दोनों को संवैधानिक आधारों पर चुनौती दी गई थी। उड़ीसा अधिनियम 1973 में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने संविधान के प्रतिकूल बताया था। हालांकि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 1977 में रेव स्टेनलिस्लॉस बनाम मध्य प्रदेश मामले में बदल दिया था।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने स्टेनलिस्लॉस में पड़ताल की कि क्या धर्म के पालन और प्रचार करने के अधिकार में धर्मांतरण का अधिकार भी है। उड़ीसा अधिनियम और 1958 के मध्य प्रदेश अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 25 सभी लोगों को विवेक की स्वतंत्रता और धर्म के पालन व प्रचार का सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता व स्वास्थ्य की शर्त पर अधिकार देता है। पीठ ने कहा, “शब्द ‘प्रचार‘ अनुच्छेद 25(1) में इस्तेमाल किया गया है, अनुच्छेद लेकिन किसी दूसरे व्यक्ति को अपने धर्म में लाने का अधिकार नहीं देता, बल्कि अपने धर्म के मूल्यों के प्रचार-प्रसार से अपने धर्म के प्रसार का अधिकार देता है।“
इस आदेश पर दोबारा नज़र डालने की आवश्यकता है। वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ज़ोर देकर कते हैं कि इस निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। हेगड़े के अनुसार धर्मांतरण के खिलाफ राज्यों के कानून भीड़ को अंतिम निर्णय का मौका देते हैं। राज्यों के कानूनों पर टिप्पणी के लिए कहने पर हेगड़े कहते हैं यदि आप एक धर्म में पैदा हुए हैं, आप अपना धर्म राज्य की सहमति के बिना नहीं बदल सकते।“ धार्मिक विश्वास मजबूर या विनयमित नहीं हो सकते। वह कहते हैं… “यह कानून विवाहों को नहीं, महिलाओं को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं और मानते हैं कि महिलाओं का अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं है।“
शब्दाबंडर से सजा दुष्प्रचार जनता के मूड को बदलता है और तमाशा जारी है क्योंकि तमाम समाचार चैनल दुष्प्रचार जारी रखे हुए हैं। शक्तिशाली हिंदुत्व विचारधारा के प्रति निष्ठा रखने वाले राज्यसत्ता के अंग और गैर सरकारी तत्व मिलकर योजनाबद्ध तरीके से यह हौवा खड़ा करते हैं ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने व प्रताड़ित करने के लिए।
जब तक कि समझदारी और संवाद – जिसमें उपलब्ध समग्र सामग्री को समझना व प्रसारित करना – मानक नहीं बनता, कमजोर अल्पसंख्यकों को पीटने का यह औजार काम करता रहेगा।
तस्वीर साभार : hindi.oneindia.com
[1]Anti-Conversion Laws In India: Are We Ready To Debate Presumptions, Prejudices And Preferences? (outlookindia.com)
[2]At 47%, Hinduism biggest gainer in religious conversion in Kerala- The New Indian Express
[3]At 47%, Hinduism biggest gainer in religious conversion in Kerala- The New Indian Express
[4]religious conversion (indianexpress.com)
[5]16 of a family put on display at Bengal ‘ghar wapsi’ event | Kolkata News – Times of India (indiatimes.com)
[6]Gujarat: 144 tribals ‘reconverted’ to Hinduism in Dang | India News,The Indian Express
[7]Gujarat: 21 families revert to Hinduism in Ghar Wapsi programme arranged by the VHP (opindia.com)
[8]INDIA Andhra Pradesh, nationalists push Christians to mass conversion to Hinduism (asianews.it)
[9]INDIA Sajan K George: 98 Christian tribals ‘forced’ to reconvert to Hinduism (asianews.it)
[10]VHP holds ‘ghar wapsi’ for 35 tribal Christians in Kerala | The News Minute
[11]35 ‘reconverted’ in Kottayam district – The Hindu
[12]https://timesofindia.indiatimes.com/videos/toi-original/up-anti-love-jihad-law-gets-1st-conviction-man-sentenced-to-5-years-in-jail/videoshow/94398554.cms
[13]https://theprint.in/india/10-cr-buddhists-by-2025-says-group-behind-conversion-event-that-cost-aap-minister-his-job/1165072/
[14] ‘Over 300 Attacks Against Christians Till July 2022’: NGO Data Based on Distress Calls
[15]Anti-Conversion Laws In India: Are We Ready To Debate Presumptions, Prejudices And Preferences? (outlookindia.com)
[16]Afzal becomes first convict under UP anti-conversion law, jailed for 5 years (opindia.com)
[17]https://theprint.in/india/1-year-of-up-anti-conversion-law-108-cases-chargesheet-filed-in-72-lack-of-proof-in-11/770763/
[18]https://timesofindia.indiatimes.com/videos/city/chennai/tamil-nadu-govt-rejects-ncpcr-report-of-forceful-conversion/videoshow/94157793.cms
[19]https://www.state.gov/reports/2021-report-on-international-religious-freedom/india/
[20]Report: ‘Christians Under Attack in India’ – Exaudi
[21]https://www.epw.in/journal/2008/02/special-articles/anti-conversion-laws-challenges-secularism-and-fundamental-rights
[22]https://indianexpress.com/article/opinion/columns/supreme-court-religious-conversion-hard-data-anti-conversion-laws-convictions-8272084/
[23]https://www.ndtv.com/india-news/person-above-18-free-to-choose-religion-supreme-court-rejects-plea-to-curb-religious-conversion-2409713