खाद्य संप्रभुता बचेगी तभी होगा भारत आत्मनिर्भर छोटे किसानों के अधिकारों की सुरक्षा से ही महफूज रहेगा हर किसी के भोजन का अधिकार

28, Sep 2020 | वंदना शिवा

(सरकार की ओर से हाल में पारित कराए गए तीन कृषि बिलों से देश की खाद्य संप्रभुता खतरे में पड़ गई है. इनसे खाद्य सुरक्षा के नियमन और इसके लिए जरूरी कानूनी ढांचे के टूटने की आशंका बढ़ गई है. यह ब्रीफिंग पेपर इसी मुद्दे से जुड़ा है)

संसद में खेती-किसानी से जुड़े जो तीन बिल पास किए गए हैं. उन्हें “ फार्म बिल” यानी कृषि बिल कहा जा रहा है. हालांकि उनका संबंध सिर्फ खेती-किसानी से नहीं है.

दरअसल ये खाद्य व्यवस्था से जुड़े बिल हैं. ये हमारी खाद्य प्रणाली को प्रभावित करते हैं. ये कानून यह तय करेंगे कि हम अपना खाद्यान्न कैसे उगाएं. जो फसल पैदा होगी उसमें से किसान को कितना मिलेगा. लोग इन खाद्य वस्तुओं का कितना भुगतान करेंगे. इस पूरी खाद्य व्यवस्था में कितने लोगों को जीविका हासिल होगी. हम अपनी मिट्टी की गुणवत्ता, जैव विविधता और प्राकृतिक संसाधनों को कैसे बचा कर रख सकेंगे. यह सब इन तीन बिलों से प्रभावित होगा.

ये बिल इस पूरी व्यवस्था में भारी उथल-पुथल मचा सकते हैं. ये भारत की सदियों पुरानी जैव विविधता को खत्म कर सकते हैं. यह आत्मनिर्भर भारत की धुरी रहे छोटे किसानों को बरबाद कर सकते हैं. इससे पिछले 70 साल से करोड़ों छोटी जोतों, छोटे किसानों, उनकी जीविका और मंडियों के छोटे कारोबारियों को जो संरक्षण मिला हुआ था, वह खत्म हो जाएगा और उनके लिए आफत की एक नई दुनिया खुल जाएगी. ये बिल भारत में भोजन के अधिकार और खाद्य संप्रभुता को पूरी तरह खत्म कर देंगे.

सिटीज़न्स फ़ॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) ने हमेशा किसानों के अधिकारों और भारत के कृषि समुदायों के संघर्ष का समर्थन किया है, और ये विधेयक इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. किसानों और आदिवासियों के लिए CJP द्वारा उठाए गए कदमों का समर्थन करने के लिए योगदान दीजिए.

ये तीन बिल हैं:

  • आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन) अध्यादेश, 2020. इसमें खाद्य वस्तुओं को आवश्यक वस्तु अधिनियम से हटा दिया गया है.
  • किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा), अध्यादेश 2020. व्यापारियों और एग्री बिजनेस के हाथों किसानों को बचाने वाले नियमन ढांचे को ध्वस्त कर रहा है.
  • किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) विधेयक मूल्य आश्वासन और सेवा विधेयक, 2020. ग्लोबल एग्री बिजनेस और फूड प्रोसेसिंग कंपनियां किसानों को एक नए कॉरपोरेट गुलामी में धकेल देगी.

आवश्यक वस्तु अधिनियम न सिर्फ पैदावार के मूल्य से बल्कि पूरी खाद्य व्यवस्था से जुड़ी है. आवश्यक वस्तु अधिनियम उन बीजों, खाद्यान्न, खाद्य पदार्थों और दवाओं पर मुनाफाखोरी को रोकने के लिए बना है, जिस पर लोगों का जीवन निर्भर है. इसका उद्देश्य खाद्य वस्तुओं की सट्टेबाजी और इसकी कृत्रिम कमी को पैदा करने की कोशिश को रोकना है. खाद्यान्न और खाने की दूसरी चीजें एक जरूरी वस्तु है. जब इनकी कीमतें बढ़ती हैं तो लोगों के सामने भुखमरी की स्थिति आ जाती है. इसलिए खाद्य वस्तुओं को आवश्यक वस्तु अधिनियम से बाहर निकालना सीधे तौर पर सट्टेबाजी और मुनाफाखोरी को बढ़ावा देना है.

भोजन पर लोगों के अधिकार के ऊपर व्यापार और मुनाफे को रखना भूख को न्योता देने का नुस्खा तैयार करना है. ऐसी स्थिति हम ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में देख चुके हैं. इसने व्यापार और किसानों से टैक्स उगाहने के सिस्टम के जरिये हमारी खाद्य संप्रभुता पूरी तरह नष्ट कर दी थी. ब्रिटिश साम्राज्य की इन नीतियों से देश मे कई बड़े अकाल पड़े. इनमें से सबसे बड़ा अकाल 1942 में बंगाल में पड़ा, जिसमें 20 लाख से ज्यादा लोग मारे गए.

यही वजह है कि स्वतंत्र भारत ने 1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम लागू किया था ताकि व्यापारियों को खाद्यान्न और खाद्य वस्तुओं की मुनाफाखोरी से रोका जा सके. सरकार ने इसी कानून का इस्तेमाल बीटी कॉटन की कीमतों को नियंत्रित करने मोन्सेंटो के हाथों किसानों का शोषण रोकने के लिए किया था. मोन्सेंटो के पास GMO बीटी कॉटन का कोई पेटेंट नहीं था लेकिन 2002 से 2018 के बीच भारतीय किसानों ने उसे 14 हजार करोड़ रुपये कमा कर दिए.

आवश्यक वस्तु अधिनियम भोजन के अधिकार से जुड़ा है. यह मौलिक अधिकार है क्योंकि भोजन जीवन है. और संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन की गारंटी दी गई है. खाद्य सुरक्षा 2013 भी यही कहता है. इसकी शुरुआती पंक्तियां हैं –

यह कानून मानव जीवन चक्र को भोजन और पोषण की सुरक्षा देता है. लोगों तक पर्याप्त, सस्ती और गुणवत्ता युक्त भोजन की पहुंच को सुनिश्चित करता है ताकि लोग एक गरिमापूर्ण जीवन जी सकें.

आवश्यक वस्तु अधिनियम के जरिये एक संप्रभु सरकार आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करती है. खाद्य वस्तुओं की कीमतों के नियमन के बगैर भोजन का अधिकार का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता.

किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा), अध्यादेश 2020, व्यापारियों औरएग्री बिजनेस के हाथों किसानों को बचाने वाले नियमन ढांचे को ध्वस्त कर रहा है. किसानों को शोषण से बचाने वाली यह व्यवस्था दुनिया के सबसे बड़े सार्वजनिक खाद्य व्यवस्था की बुनियाद है. मंडी AMPC कमेटियों की ओर से व्यवस्थित होती है, जिसमें किसान और व्यापारी दोनों होते हैं.

कर्नाटक एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग (रेग्यूलेशन) यानी APMC एक्ट, 1966 में इसमें कौन लोग शामिल होंगे, इसका साफ जिक्र है-

(iv) कृषि उत्पादों के खरीदारों की मार्केट कमेटी में प्रतिनिधित्व होगा. खरीदारों के को-ऑपरेटिव सोसाइटी के प्रतिनिधि इसमें शामिल होंगे. को-ऑपरेटिव मार्केटिंग और प्रोसेसिंग सोसाइटियों के प्रतिनिधि के अलावा नगरपालिका, तालुक बोर्ड, सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपरेशन या स्टेट वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन के प्रतिनिधि भी इसमें शुमार होंगे.

APMC के तीन पहलू हैं:

  • APMC की व्यवस्था राज्य देखते हैं. इसलिए किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा), अध्यादेश 2020 पूरी तरह गैर संवैधानिक हैं और राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं.
  • दूसरा पहलू यह है कि मंडियों का प्रशासन APMC संभालती हैं और यह किसानों और व्यापारियो के बीच एक तरह की सहकारी व्यवस्था होती है. इस पर सरकार की निगरानी होती है. सरकार की ओर से मंडियों का नियमन होता है. कोई भी व्यापारी एक निश्चित सीमा से ज्यादा स्टॉक नहीं रख सकता है. और कीमतों का नियमन इस तरह होता है कि किसानों का शोषण न किया जा सके.
  • तीसरा पहलू यह है कि मंडियां फिजिकल स्पेस में होती हैं और इस तरह बाजार विकेंद्रित होकर किसान तक पहुंचता है.

दरअसल मंडियों के अस्तित्व में होने की वजह से किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिल जाता है. राज्यों की देखरेख में चलने वाली मंडियों के विकेंद्रीकरण से ही ऐसा हो पाता है. एक संघीय ढांचे में यह भारत की खाद्य सुरक्षा व्यवस्था की रीढ़ है.

पहले मंडी में कोई व्यापारी 2.5 फीसदी से ज्यादा मार्जिन नहीं ले सकता था. अगर तीन व्यापारी हैं तो किसान के खेत से लेकर ग्राहक तक सामान पहुंचाने में उनके बीचमार्जिन का अंतर 6 से 7 फीसदी ही होता था. लेकिन 1991 नव उदारवादी सुधारों से यह स्थिति बदलने लगी. और 1997 के बाद से तो मार्जिन बढ़ कर 40 फीसदी तक पहुंचने लगा.

जब कंपनियां किसी नियमन विहीन बाजार में कारोबार और वाणिज्य को नियंत्रित करने लगे तो वे 90 से 95 फीसदी तक का मार्जिन लेने लगती हैं. किसानों की आय घट जाती है और और खाद्य वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं. जैसे-जैसे कॉरपोरेट कंपनियों का नियंत्रण बढ़ता है किसानों की कीमत और उपभोक्ता की कीमतों के बीच ध्रुवीकरण बढ़ने लगता है.

मसलन आलू को ही ले लीजिए. खेती की लागत बढ़ने और आलू की कीमतें घटने से इसके किसान आत्महत्या कर रहे हैं. पेप्सी किसानों को आलू के बीज, कीटनाशक, फर्टिलाइजर ऊंची कीमत पर बेचती है और उनसे बेहद सस्ती कीमतों पर आलू खरीदती है. 2019 में पश्चिमी यूपी के आलू किसानों ने 20 किलो की आलू की बोरी 5 रुपये में बेची थी. इस बीच, पेप्सी ने गुजरात के किसानों के खिलाफ यह कर मुकदमा ठोक दिया कि उन्होंने करोड़ों के बीज बचा कर रख लिए हैं. पेप्सी को मुकदमा वापस लेना पड़ा क्योंकि, पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण अधिनियम (the Plant Variety Protection and Farmers Rights Act) के खंड 39 (Clause 39) के मुताबिक, किसान को बीजों को बेचने, बचा कर रखने इसकी अदला-बदली करने और इसे उगाने का अधिकार है.

दरअसल किसानों को कॉरपोरेट फूड सिस्टम में शामिल करना उनकी गुलामी को दावत देना है. यह व्यवस्था किसानों को आजाद नहीं करेगी बल्कि यह उनकी आजादी और संप्रभुता को खतरे में डाल देगी.

न तो कंपनियां खाद्यान्न पैदा करती हैं और न ही उपभोक्ता. बिचौलिया ही वह क़ड़ी है जो किसान और उपभोक्ता के बीच दूरी पैदा करता है और दोनों का शोषण कर पर्याप्त मुनाफा कमाता है. दरअसल, एपीएमसी एक्ट को खत्म करके कृषि उत्पादों के कारोबार को मुक्त करने का झूठा दावा किया जा रहा है. सरकार नियमन विहीन एक ऐसा सिस्टम बनाने जा रही है जिससे विशालकाय कंपनियां खेती के लिए जरूरी महंगी चीजें बेचेंगी और किसानों से सस्ती फसल खरीद कर उन्हें अपने गोदामों में जमाखोरी करेंगी. यह उनकी भारी मुनाफाखोरी का जरिया बन जाएगा. सरकार तर्क दे रही है कि कृषि बाजार से नियमन से बिचौलियों का खात्मा कम हो जाएगा. लेकिन यह झूठा दावा है.

किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा), अध्यादेश 2020 किसानों को बिचौलियों से मुक्ति नहीं दिलाता. यह बड़ी कंपनियों और एग्री-बिजनेस के लिए खुला मैदान छोड़ देता है. दरअसल ये कंपनियां बहुत बड़ी बिचौलिया होती हैं, जो किसानों से उनके उत्पाद सस्ते दाम पर खरीदती हैं और ऊंचे दाम पर उपभोक्ताओं को बेच देती हैं. खाद्य वस्तुएं अब उन प्रमुख चीजों में शामिल हो गई हैं, जिन पर सट्टेबाजी हो सकती है.

खाद्य वितरण का विशालकाय एग्री बिजनेस कंपनियों के हाथ आना एक तरह से खाद्य सुरक्षा का खात्मा है. नए बिल में सारे स्टॉक लिमिट खत्म कर दिए हैं और एक तरह से जमाखोरी को कानूनी बना दिया गया है. आवश्यक वस्तु अधिनियम को हटा कर कॉरपोरेट व्यापारियों पर लगे सारे बंधन खत्म कर दिए गए हैं.

दरअसल यह बड़े कृषि संकट और खाद्य संकट को दावत देना है. 2008 के वित्तीय संकट के दौरान जब खाद्य वस्तुओं की सट्टेबाजी होने लगी तो अरब देशों में रोटी की कीमत बढ़ गई और इसके लिए वहां दंगे हुए. अरब स्प्रिंग दरअसल रोटी के लिए लड़ाई से ही शुरू हुआ था.

किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) विधेयक मूल्य आश्वासन और सेवा विधेयक, 2020 के जरिये कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की नींव रख दी गई है. इसने अनाज के ग्लोबल व्यापारियों के लिए देश के दरवाजे खोल दिए हैं. उनके भारतीय कॉरपोरेट पार्टनर और फूड प्रोसेसिंग कंपनियों भारतीय किसानों को नई कॉरपोरेट गुलामी की बेड़ियों में जकड़ देंगी.

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की जमीन इस तर्क पर बनाई जा रही है कि भारत में छोटी जोत की वजह से खेती फायदेमंद नहीं रह गई है. यह कानून देश में छोटी जोतों को मिलाकर बड़े पैमाने पर खेती को बढ़ावा देगा जिससे यह ज्यादा उत्पादक हो सके. इससे किसानों की आय दोगुना हो जाएगी. जबकि तमाम उदाहरणों से यह साबित हो चुका है कि छोटे खेतों में ज्यादा पैदावार होती है. FAO के मुताबिक हम जो भोजन करते हैं उसका 80 फीसदी हिस्सा छोटे किसान पैदा करते हैं.

नवधान्य का छोटे किसानों के साथ काम करने का अनुभव बताता है कि कृषि पारिस्थितिकी और पोषण संवेदी खेती पर आधारित छोटे जैव विविधता वाले खेत भारत की आबादी के दोगुना लोगों को पर्याप्त पोषण दे सकते हैं.

जैव विविधता की प्रणाली प्रति एकड़ खेती में पोषण को बढ़ा देती है और इससे किसानों की आय भी बढ़ती है। क्योंकि इससे किसानों का पैसा क़ॉरपोरेट कंपनियों के महंगे बीजों और एग्रीकेमिकल पर खर्च होने से बच जाता है। यह किसानों को उस कॉरपोरेट बेड़ी से मुक्त करता है जो कृषि उत्पादों की कीमत को लगातार नीचे ले जाती है।

FAO (संयुक्त राष्ट्र का खाद्य और कृषि संगठन) ने दिखाया है कि छोटे जैव विविधता भरे खेत बड़े औद्योगिक तरीके से उगाए गए एक फसली खेती से हजार गुना ज्यादा पैदावार दे सकते हैं। बड़े खेत कमोडिटी पैदा करते हैं भोजन नहीं

खाद्य संप्रभुता से लैस छोटे किसान और विकेंद्रित और विविधता भरी खाद्य व्यवस्था ही हमारी खाद्य सुरक्षा और खाद्य संप्रभुता की रीढ़ है.

भारत के एक अरब 30 करोड़ लोगों के भोजन का अधिकार हमारे किसानों की खाद्य संप्रभुता पर निर्भर है. लोगों की खाद्य संप्रभुता पर ही देश की खाद्य संप्रभुता टिकी हुई है.

किसानों और भारतीय नागरिकों की खाद्य संप्रभुता के बिना आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता.

*डॉ. वंदना शिवा स्कॉलर, पर्यावरणविद और खाद्य संप्रभुता की पैरोकार हैं.

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