क्या असम में नागरिकता निर्धारित करने वाली प्रक्रिया गरीब और पिछड़ों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण है? कागज़ातों की कमी के कारण अक्सर प्रभावित होते हैं अनपढ़, दरिद्र और विवाहित महिलाएँ
12, Jul 2019 | डेबरा ग्रे
असम राज्य में ‘नागरिकता’ का मसला बेहद ही गंभीर मुद्दा है, जहां “स्थानीय और बाहरी” होने का विवाद अक्सर हिंसा और मृत्यु का कारण बन जाता है। राज्य के निवासियों को उम्मीद है कि, नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) को असम समझौते की मूल भावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपडेट किया गया है। मगर गंभीर चिंता का विषय यह है कि बड़ी संख्या में भारतीय मूल के गरीब नागरिक, जिनके पास अपने दावों को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं है, वे भी अपवर्जन के शिकार हो रहे हैं।
यह पक्षपात भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए आवश्यक दस्तावेज़ों में साफ़ झलकता है। NRC प्राधिकरण ने उन्हें दो सूचियों में वर्गीकृत किया है, A और B. NRC वेबसाइट के अनुसार:
A) व्यक्ति को सबसे पहले सूची A में निम्नलिखित दस्तावेज़ों में से कोई एक प्रस्तुत करना आवश्यक है, जिसे 24 मार्च, 1971 की मध्यरात्रि से पहले जारी किया गया हो और जिसमें स्वयं या पूर्वज का नाम दर्ज हो (असम के निवासी के तौर पर 24 मार्च, 1971 की मध्यरात्रि तक, स्वयं को सिद्ध करने के लिए)।
- वर्ष 1951 की NRC सूची, या
- वर्ष 1971 के 24 मार्च की मध्यरात्रि तक मतदाता सूची, या
- भूमि और किरायेदारी रिकॉर्ड्स
- नागरिकता प्रमाण पत्र , या
- स्थायी आवासीय प्रमाण पत्र
- शरणार्थी पंजीकरण प्रमाणपत्र
- पासपोर्ट, या
- LIC, या
- सरकार द्वारा जारी किया गया कोई भी प्रमाणपत्र, या
- सरकारी नौकारी का प्रमाण पत्र, या
- बैंक/ डाक खाता का दस्तावेज़
- जन्म प्रमाण पत्र
- विश्वविध्यालय या किसी शिक्षा संस्थान का प्रमाण पत्र
- अदालत के अभिलेख/ कार्यवाही
यहां NRC प्राधिकरण ने दो दस्तावेज़ों का विशेष रूप से उल्लेख किया है।
(1) विवाह के बाद स्थान परिवर्तित करने वाली विवाहित महिलाओं के संबंध में सर्किल अधिकारी या GP सचिव द्वारा जारी किया गया प्रमाण पत्र (वर्ष 1971 के 24 मार्च से पहले या उसके बाद किसी भी वर्ष का) और
(2) राशन कार्ड, जिसे 24 मार्च, 1971 की मध्य रात्रि तक जारी किया गया हो। NRC प्राधिकरण के अनुसार, इन्हें सहायक दस्तावेज़ों के रूप में शामिल किया जा सकता है। परन्तु, इन दोनों दस्तावेज़ों को केवल तभी स्वीकार किया जाएगा, जब उपरोक्त दस्तावेज़ों में से भी कोई दस्तावेज़ साथ में प्रस्तुत हो।
B) दूसरी आवश्यकता तब होती है जब सूची A के किसी भी दस्तावेज़ में आवेदक का नाम न होकर, किसी पूर्वज का हो, जैसे आवेदक के माता-पिता या दादा-दादी या परदादा-परदादी, आदि. ऐसे में आवेदक को उस पूर्वज के साथ अपना संबंध सूची B में निम्नलिखित दस्तावेज़ों को प्रस्तुत कर के स्पष्ट करना होगा। साथ ही, उस दस्तावेज़ में आवेदक की रिश्तेदारी स्पष्ट होनी चाहिए और वह कानूनी रूप से भी मान्य भी होना चाहिए।
- जन्म प्रमाण पत्र, या
- भूमि से जुड़े दस्तावेज़, या
- विश्वविध्यालय या शिक्षा संस्थान का प्रमाण पत्र
- बैंक/LIC/ डाक खाता का दस्तावेज़
- विवाहित महिलाओं के संबंध में सर्किल अधिकारी/ GP सचिव द्वारा जारी किया गया प्रमाण पत्र
- मतदाता सूची
- राशन कार्ड
- कोई अन्य कानूनी तौर पर मान्य दस्तावेज़
NRC ड्राफ्ट में 40 लाख लोगों को शामिल नहीं किया गया था, जिनमें से अधिकतर लोग सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों से हैं। गुजरात में कानूनी सहायता प्रदान करने के अपने पुराने अनुभवों से प्रेरित होकर CJP ने अब NRC प्रभावित लोगों की मदद के लिए कदम उठाया है। CJP परिणाम उन्मुख वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम के साथ यह सुनिश्चित करेगी कि बुरी तरह प्रभावित जिलों में से 18 जिलों के प्रभावित लोगों को अपना दावा दाखिल करते समय उचित अवसर प्राप्त हो सके। CJP के इस प्रयास में आपके योगदान से कानूनी टीम की लागत, यात्रा,प्रलेखीकरण और तकनीकी खर्चों का भुकतान किया जाएगा। कृप्या प्रभावित लोगों की मदद के लिए यहाँ योगदान करें।
अब इन दस्तावेज़ों को एक-एक कर के अच्छे से समझते हैं।
मतदाता सूची: वर्ष 1951 का NRC उस वर्ष के मतदाता सूची से परिवर्तित किया गया था। इसके अलावा 24 मार्च, 1971 की मध्यरात्रि तक की मतदाता सूची भी स्वीकार्य है। हालांकि, यह समझना महत्वपूर्ण है कि मतदाता सूची में सिर्फ वयस्कों को ही शामिल किया जाता है। साथ ही, यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि भले ही मतदान देना एक अधिकार है, पर कानूनी तौर पर सूची में अपना नाम दर्ज कराने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता है। इसलिए, यह संभव है कि इन मतदाता सूची में कई लोगों के नाम शामिल न हों। इसके अलावा, नामों की स्पेलिंग में गलतियाँ होने के कारण भी लोगों को NRC में शामिल नहीं किया गया, जैसे साकेन अली के नाम पर पर एक अतिरिक्त ’एच’ के साथ लिखा गया था, जिसके कारण उन्हें 5 साल डिटेन्शन कैंप में गुज़राना पड़ा। इसी तरह, सामान मलिक का नाम दर्ज करते समय चुनाव आयोग के अधिकारियों ने गलती से उसका नाम “श्यामलाल अली” लिख दिया था, जिस वजह से उसे डिटेन्शन कैंप तक भेज दिया गया था।
भूमि के रिकॉर्ड: उन ही लोगों के पास भूमि रिकॉर्ड का होना संभव है, जिनके पास भूमि खरीदने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन हैं या जिन्हें यह विरासत में मिला है। यहां तक कि किरायेदारी का रिकॉर्ड भी केवल उन लोगों के ही पास हो सकता है, जो किराया चुकाने के योग्य हों। यह उन लोगों को अनदेखा कर देता है, जो बेघर हैं और जो काम के सिलसिले में या तलाश में लगातार एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते हैं, या झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं। इन लोगों के पास अक्सर निवास से जुड़े कोई दस्तावेज़ नहीं होते हैं। इसके अतिरिक्त, असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के निर्देश पर फरवरी 2017 में स्थापित ब्रह्म समिति ने भारतीय मूल के लोगों के भूमि अधिकारों को संरक्षित करने के दौरान पाया, कि 90 प्रतिशत मूल निवासियों के पास उचित भूमि दस्तावेज़ ही नहीं है। हरि शंकर ब्रह्मा, जिनके अधीन समिति का गठन किया गया था, ने इकोनॉमिक टाइम्स को बताया, “नब्बे प्रतिशत मूल लोगों के पास म्यादी पत्ता (स्थायी भूमि बंदोबस्त) नहीं है, उनके पास या तो इक्सोनिया पत्ता (वार्षिक भूमि निपटान) है या वे सरकारी जमीन पर कब्जा कर के रह रहे हैं।” समिति ने यह भी पाया कि तिनसुकिया, डिब्रूगढ़ और माजुली के कई मूल निवासियों के पास भी कोई भूमि दस्तावेज़ नहीं है, और जिनके पूर्वजों के घर ज़मीन 1950 के भूकंप में बर्बाद हो गए थे।
पासपोर्ट: एक दौर था, जब पासपोर्ट होना स्टेटस सिंबल माना जाता था। पासपोर्ट उन्हीं के पास होता था जो व्यक्ति धनवान और विदेश यात्रा करने के काबिल होता था। यही कारण है कि, कम आय पृष्ठभूमि के लोग पासपोर्ट के लिए शायद ही आवेदन करते हैं। आज भी, भारत की कुल 130 करोड़ लोगों की आबादी में से केवल लगभग 6.5 करोड़ लोग ही पासपोर्ट धारक हैं।
LIC दस्तावेज: आज भी भारत की बहुत बड़ी आबादी किसी भी प्रकार की बीमा सुविधा से वंचित है, एक प्रकार से यह हैसियत रखने वाले व्यक्ति की पहचान सा है,इसके अलावा बीमा पॉलिसी पाने की शर्तें भी इतनी जटिल हैं कि यह केवल धन और स्वास्थ तक ही सीमित नहीं है. साथ ही, बहुत से लोगों को बीमा करवाना महत्वपूर्ण नहीं समझते हैं, और लोगों को बीमा खरीदने के लिए मजबूर भी नहीं किया जा सकता है। वास्तव में आज भी 98.8 करोड़ लोगों के पास जीवन बीमा नहीं है!ब्लूमबर्ग क्विंट की रिपोर्ट कहती है, “भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) की भारतीय बीमा सांख्यिकी, 2016-17 की हैंडबुक के आंकड़ों के अनुसार, 2017 में भारत में लगभग 32.8 करोड़ जीवन बीमा पॉलिसी ली गई थी। यह अनुमान लगाते हुए कि, प्रत्येक पॉलिसी एक नागरिक के लिए ली गई हो, तो इस हिसाब से देश की कुल आबादी के 25 प्रतिशत लोगों के पास ही जीवन बीमा कवर, जबकि अन्य 75 प्रतिशत, 98.8 करोड़, के पास कोई बीमा कवर नहीं है।”
बैंक खाते: आज भी, 19 करोड़ से अधिक भारतीयों के पास बैंक खाता नहीं है। पीएम नरेंद्र मोदी की बहुचर्चित ‘जन धन योजना’ के बावजूद, 50 प्रतिशत से अधिक खाते निष्क्रिय पड़े हुए हैं। भारत की जमीनी हकीकत, चमक-धमक वाले विज्ञापनों से कहीं दूर है, और अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत लोगों के लिए वित्तीय समावेशन एक बड़ी चुनौती है, खास कर के उन दिहाड़ी मजदूरों के लिए जो दो वक़्त की रोटी भी मुश्किल से जुटा पाते हैं। आज भी नकद लेन-देन पर बहुत अधिक निर्भरता है, कई लोग डिजिटल टेक्नोलॉजी और इलेक्ट्रॉनिक भुगतान करने में समर्थ नहीं हैं, इसलिए लोगों के लिए नकद ही ज्यादा विश्वसनीय, सरल और तीव्र माध्यम है।
जन्म प्रमाण पत्र: अब, इस बात पर ध्यान देना बेहद महत्वपूर्ण है कि पंजीकरण और जन्म मृत्यु अधिनियम वर्ष 1969 लागू किया गया था। इस अधिनियम के लागू होने से सभी जन्मों को पंजीकृत करना अनिवार्य हो गया था। UNICEF के अनुसार, “देश में जन्म और मृत्यु के वर्तमान पंजीकरण के अनुसार, केवल 58% जन्म, 54% मृत्यु ही दर्ज कराई जाती है। जबकि हर साल लगभग 42% बच्चों के जन्म का कोई पंजीकरण नहीं होता, जिसकी संख्या लगभग १ करोड़ है। अब इस पर विचार कीजिए कि अगर आज ऐसा हाल है, तो वर्ष 1971 से पहले क्या हाल रहा होगा?
बोर्ड / विश्वविद्यालय / शिक्षा प्रमाण पत्र: अब इस पर गौर फरमाइए कि यह प्रमाण पत्र 24 मार्च, 1971 की समय सीमा से पहले का होना चाहिए। इसलिए यदि कोई अपने पिता या दादाजी के स्कूल छोड़ने के प्रमाण पत्र का उपयोग करना चाहता है, तो इसका अर्थ यह है कि उन्हें स्कूल में नामांकित होना चाहिए, जो उस दौर में अल्प आय वालों के लिए न सिर्फ एक सौभाग्य से कम नहीं, बल्कि उनकी कल्पना से भी परे था। गौहाटी उच्च न्यायालय के अधिवक्ता मृण्मय दत्ता ने एक उदाहरण दिया, “वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार,असम में 1,41,948 मैट्रिक पास लोग थे।” इससे पता चलता है कि राज्य की आबादी का केवल एक हिस्सा ही औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के काबिल था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि शिक्षा मुफ्त ही क्यों न दी जा रही हो। पर्याप्त शिक्षकों की अनुपस्थिति और गरीबी के कारण ड्रॉप-आउट दर सबसे बड़ी चुनौती थी। खासकर शौचालयों की कमी लड़कियों के लिए एक बहुत बड़ी बाधा है। इसलिए अक्सर युवावस्था में आने पर लड़कियां स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर हो जाती हैं।
महिलाओं के हालात सबसे खराब है
यह भी उल्लेखनीय बात है कि कम आय के परिवारों और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों की लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती है। उनके पास शायद ही कभी जन्म प्रमाण पत्र होते हैं, क्योंकि अस्पताल और स्वास्थ्य सेवा केन्द्र होने के बावजूद उनमें से अधिकांश घर में ही पैदा होती हैं। उन्हें शायद स्कूल भी नहीं भेजा जाता, जिसके कारण उनके पास शिक्षा से जुड़े दस्तावेज़ भी नहीं हैं। वास्तव में उनके पास कोई भी दस्तावेज़ नहीं है, और यही वजह है कि पंचायत सचिव या गाँव बुराह के प्रमाण पत्र उनके लिए जीवनदायी है। एक लंबी अदालती कार्रवाई के बाद ही इस प्रमाण पत्र को वैध माना गया था, लेकिन फिर भी इसे एक कमजोर दस्तावेज़ बना दिया गया है और इसके समर्थन में अन्य दस्तावेज़ों को जमा करना पड़ता है। एक ऐसी ही 70 वर्षीय महिला के बारे में पढ़ें, जो ऐसे ही कारण से डिटेन्शन कैंप में क़ैद है।
इस लेख को पढ़ने वालों के पास सभी या अधिकांश दस्तावेज़ हो सकते हैं और उन्हें NRC प्रक्रिया बड़ी सरल और त्रुटिरहित लगे, परन्तु गरीबों और वंचितों के लिए यह बहुत ही बड़ी दुविधा है, जिसकी कीमत वे अपनी नागरिकता खोकर चुका रहे हैं. यह सब देखकर लगता है कि कहीं गरीबों को बाहर निकालने या उन्हें और भी अधिक हाशिए पर लाने की एक बड़ी योजना का हिस्सा तो नहीं है?
अनुवाद सौजन्य – साक्षी मिश्रा
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