असम के डिटेंशन कैंप में क़ैद 70 वर्ष की महिला शायद रिहाई तक जीवित न रह सके CJP के प्रतिनिधिमंडल ने महिला के पुत्र से मुलाकात की, जो अपनी बीमार माँ की रिहाई के लिए जद्दोजहद कर रहा है
08, Jul 2019 | डेबरा ग्रे
जून 2019, CJP वरिष्ठ वकीलों और पत्रकारों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ असम में ज़मीनी हालात का जायज़ा लेने पहुंची। चिरांग जिले के बिजनी गाँव में, हमारी मुलाकात बिस्वनाथ दास से हुई, जिसकी 70 वर्षीय माँ, पारबती, कोकराझार के डिटेंशन कैंप में 2 साल 8 महीने से क़ैद हैं।
हमने बिस्वनाथ को बताया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार डिटेंशन कैंप में तीन साल पूरे करने पर चार महीनों बात उसकी माँ को रिहा कर दिया जाना चाहिए। परंतु बिस्वनाथ दास को उसकी वृद्ध माँ के बिगड़ते स्वास्थ को लेकर यह डर सता रहा है कि शायद रिहाई तक वे जीवित ही न रहें। बिस्वनाथ ने उदास स्वर में कहा कि “मैं नहीं चाहता कि उनकी मृत्यु क़ैद में हो, मैं चाहता हूँ कि वे अपने परिवार के साथ अपने घर में जीवन के अंतिम पल व्यतीत करें।“
पारबती अपने आप को अपने ही पिता की पुत्री होने का सबूत नहीं जुटा पाई थीं, इसलिए उसे विदेशी घोषित कर दिया गया था। गौहाटी हाईकोर्टने उसकी ज़मानत याचिका भी रद्द कर दी थी और अभी वह काफी बीमार है। बिस्वनाथ ने हमसे बातचीत करते हुए कहा कि “मैं एक ई-रिक्शा चलाता हूँ, जिससे मुश्किल से ही गुजर बसर हो पाता है। फिर भी मैंने किसी तरह से पैसों का जुगाड़ किया है, अब तक मैं वकीलों के ऊपर सत्तर हज़ार रुपए खर्च कर चुका हूँ, इसके अलावा एक लाख रुपए फॉरेन त्रिबुनल (FT) से गौहाटी हाईकोर्टका चक्कर लगाने में चले गए हैं।
NRC ड्राफ्ट में 40 लाख लोगों को शामिल नहीं किया गया था, जिनमें से अधिकतर लोग सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों से हैं। गुजरात में कानूनी सहायता प्रदान करने के अपने पुराने अनुभवों से प्रेरित होकर CJP ने अब NRC प्रभावित लोगों की मदद के लिए कदम उठाया है। CJP परिणाम उन्मुख वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम के साथ यह सुनिश्चित करेगी कि बुरी तरह प्रभावित जिलों में से 18 जिलों के प्रभावित लोगों को अपना दावा दाखिल करते समय उचित अवसर प्राप्त हो सके। CJP के इस प्रयास में आपके योगदान से कानूनी टीम की लागत, यात्रा,प्रलेखीकरण और तकनीकी खर्चों का भुकतान किया जाएगा। कृप्या प्रभावित लोगों की मदद के लिए यहाँ योगदान करें।
पारबती की कहानी
ढुबरी के FT के समक्ष सितंबर 2005 पारबती के खिलाफ आवेदन दाखिल किया गया था। फिर मई 2008 में बोंगाईगांव में नए FT की स्थापना होने पर इस मामले को वहां स्थानांतरित कर दिया गया था। शुरुआत की कुछ सुनवाई में पारबती हिस्सा नहीं ले पाई, लेकिन 2 जुलाई 2008 को वह FT के समक्ष सुनवाई में शामिल हुई और उसने अपने सभी दस्तावेज़ जमा कर दिए थे। जिसके बाद वह कुछ अन्य सुनवाई में भी शामिल नहीं हो पाईं, लेकिन उनके द्वारा दाखिल किए गए दस्तावेज़ों में वर्ष 1949 का उनके पिता का राशन कार्ड और वर्ष 1970 के मतदाता सूची में शामिल उनके पिता के नाम से जुड़े प्रमाण थे। गाँव की पंचायत के सचिव ने उन्हें एक लिंक प्रमाणपत्र (गाँव बुराह प्रमाणपत्र) भी जारी किया था, जिसे पारबती ने FT के समक्ष प्रस्तुत किया था। पारबती के दस्तावेज़ों को यहाँ देखा जा सकता है-
लेकिन FT ने उनके पिता शरत चंद्र दास को उनका ‘अनुमानित पिता’ माना है। यह उसके दादा का नाम दो अलग-अलग दस्तावेजों पर एक समान न होने के कारण है। जिसके बाद FT ने फैसला किया था कि गाँव बराह प्रमाणपत्र को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता है, और वे पारबती को शरत चन्द्र दास की पुत्री नहीं साबित कर सकते हैं। जिस कारण उसे एक विदेशी घोषित करने के साथ कोकराझार के डिटेंशन कैंप में भेज दिया गया। डिटेंशन कैंप में जून 2019 तक, पारबती के क़ैद के 2 साल 8 महीने पूरे हो चुके हैं। FT के फैसले को यहाँ पढ़ा जा सकता है:
विवाहित महिलाओं की दुर्दशा
अपने आप को अपने पिता की पुत्री होने का सबूत न दे पाना आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों की विवाहित महिलाओं के लिए एक आम समस्या है। इन महिलाओं के पास शायद ही कभी जन्म प्रमाण पत्र रहा होगा, क्योंकि इनमें से ज़्यादातर अस्पतालों में पैदा नहीं हुई हैं। वे अनपढ़ हैं और इसी कारण उनके पास स्कूल छोड़ने का प्रमाणपत्र भी नहीं है। इतना ही नहीं, कम उम्र में उनकी शादी कर दी जाती है और इसलिए जिस गाँव में पति का परिवार रहता है, वहीं के मतदाता सूची में उनका नाम दर्ज कर दिया जाता है। और पंचायत सचिव द्वारा दिया गया प्रमाण पत्र भी एक ठोस सबूत के रूप में मान्य नहीं है, जिस कारण अपनी दावों की विश्वसनीयता साबित करने के लिए इन्हें अन्य मज़बूत दस्तावेज़ों की ज़रूरत पड़ती है।
इससे पता चलता है कि आखिर आधे से ज़्यादा महिलाएं ही क्यों 30 जुलाई, 2018 के NRC मसौदे से अपवर्जित कर दी गई थीं?
गृहिणियाँ और वृद्ध महिलाएं बन गईं घुसपैठिया?
एक बड़ा सवाल अभी भी बना हुआ है। दक्षिणपंथी वर्चस्ववादी ताकतें भले ही “घुसपैठिया” करार करने वाले बयान देती हों, मगर एक 70 वर्ष की महिला से आखिर क्या खतरा हो सकता है? भारत में अवैध रूप से प्रवेश करने का उसका मकसद क्या हो सकता है? क्या अब हम अपनी दादी-नानी पर आतंकवादी होने की शंका करें? या ये स्वयं आतंकवाद का रूप नहीं, जो बूढ़ी बुज़ुर्ग महिलाओं को भयभीत और आतंकित कर के डिटेंशन कैम्प में मरने को मजबूर कर रहा है?
अनुवाद सौजन्य – साक्षी मिश्रा
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