तीस्ता सेतलवाड़ : उस नफरत की चिंगारी को याद रखना ज़रूरी है जो 2002 के गुजरात दंगों में बर्बर रूप से फूट पड़ी थी गुजरात नरसंहार के बीस साल बाद अल्पसंख्यकों के खिलाफ दुष्प्रचार राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गया है।

16, Mar 2022 | तीस्ता सेतलवाड़

सिर्फ चौंकाने वाली बात यही नहीं थी कि हिंसा कैसे फैली। न तो यह जाहिर होता था कि उन घटनाओं को अंजाम देने वाली भीड़ के कृत्य बिल्कुल सटीक और योजनाबद्ध थे। बम के रूप में गैस सिलेंडर, इंसानी जिस्म को जला देने वाले सफेद पाउडर, कृषि उपकरण और यहां तक कि बंदूकों के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने के भी स्पष्ट संकेत नहीं थे।

यह योजनाबद्ध तरीके से की गई क्रूरता थी। इंसानी जिस्म को मांस के छोटे-छोटे टुकड़ों में तब्दील कर दिया गया था। मारे गए बच्चे, महिलाएं और पुरूष लाश की तरह नहीं दिखाई देते थे।

जहां उन्हें जलाकर राख नहीं किया जा सका था वहां मरने वालों के शरीर को बदनुमा और दयनीय दृश्य में बदल दिया गया था। वह तस्वीर एक खास तरह की राजनीति द्वारा पैदा की गई नफरत की गहराई और उग्र अमानवीयता की भूतिया यादें हैं।

सिटीजंस फ़ॉर जस्टिस एंड पीस, पिछले 20 वर्षों से गुजरात के 2002 के नरसंहार के उत्तरजीवी और पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने के लिए लड़ रही है। यह कानूनी लड़ाई ट्रायल कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच आगे-पीछे होती हुई चलती रही है। कुल मिलाकर हम 68 मुकदमों को मजिस्ट्रेट कोर्ट से आगे सुप्रीम कोर्ट तक ले गए हैं और पहले चरण में 172 की सजा को सुनिश्चित करा पाए हैं, जिनमें से 124 को उम्रकैद हुई है। हालांकि इनमें से कुछ, अपील के बाद बदल दी गई हैं, फिर भी सीजेपी की कानूनी लड़ाइयों का सफ़र बेहद अहम रहा है और इसने आपराधिक न्याय-सुधारों के क्षेत्र में, चाहे वह उत्तरजीवियों या पीड़ितों की क्रिमिनल ट्रायल में भागीदारी के अधिकार का सवाल हो, या गवाहों की सुरक्षा का, एक अग्रदूत की भूमिका निभाई है। सीजेपी, न्याय की बेहतरीन मिसालें हासिल करने की अपनी यात्रा को जारी रखने के लिए संकल्पबद्ध है जिससे कि इन घावों को भरने की प्रक्रिया को शुरू किया जा सके। हम आपसे समर्थन की, और डोनेट करने की गुजारिश करते हैं।

करीब 20 साल बाद भारतीय मुसलमानों के नरसंहार के लिए खुल्लमखुल्ला ललकारना और उस पर भारत के सत्तारूढ़ राजनीतिक नेतृत्व की रहस्मयी खामोशी को देखते हुए समझदारी इसी बात में होगी कि गुजरात 2002 और उससे भी पहले की घटनाओं की ज़िम्मेदार इस खूनी विरासत की जड़ों को तलाश किया जाए।

दंगे की तात्कालिक वजह

बीस साल पहले, 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से करीब पांच घंटे देरी से गोधरा रेलवे स्टेशन पर सुबह 7.50 बजे पहुंची। इसके S-6 डब्बे में 58 लोगों की जल जाने से मौत हो गयी थी। इस घटना ने नफरत फैलाने का खुला मौका दे दिया। लेकिन 2002 से वर्षों पहले से पर्चों, पुस्तिकाओं और पम्फलेटों समेत हर तरह से नफरत के प्रचार से गली कूचों में लोगों को भर दिया गया था।

यहां तक कि स्कूल की कक्षाएं भी इससे अछूती नहीं थीं। राज्य बोर्ड की समाज शास्त्र के पाठ्य क्रम की सामग्री में समुदायों के बीच बनाई जा रही दरारों के अक्स को देखा जा सकता था। गुजराती समाज और राज्य के अंदर घरों में, स्टाफ रूम में, कक्षाओं में, वकीलों के कक्ष में, बाज़ारों और शॉपिंग प्लाज़ाओं में अलग पटि्टयां और विभाजन पैदा किए जा रहे थे। परिवार और राज्य के लिए असहमति की आवाज़ परायी चीज़ बन गई थी।

गोधरा में होने वाली भयावह मौतों ने पहले से मौजूद सुलगती हुई चिंगारी को आग की लपटों में बदल कर पूरे राज्य में फैला दिया। महिलाओं, बच्चों और पुरूषों की जली हुई लाशों को उस दिन घंटों तक रेलवे प्लेटफार्म पर रखा गया और नियम व प्रक्रिया के विपरीत खुले में पोस्टमॉर्टम की इजाज़त दी गई।

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बहुत कम लोगों को गुजरात पुलिस के इस नियम की जानकारी है कि सड़ी-गली, जली हुई या क्षतिग्रस्त लाशों की तस्वीरे लेना या उन्हें जनता के बीच किसी भी तरह से फैलाने की मनाही है। इसके उल्लंघन के लिए पुलिस अधीक्षक जवाबदेह हैं। इसका और ऐसे अन्य नियमों का उल्लंघन किया गया। गोधरा में मरने वालों की कई तस्वीरें बदले की कार्रवाई को तर्कसंगत साबित करने लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया।

गोधरा ट्रेन जलाए जाने से समुदाय या सम्प्रदाय के स्तर पर जो नतीजे हो सकते थे उसका अंदाज़ा होने के बाद भी अधिकारियों द्वारा इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं नहीं की गई। इसके बजाय प्रशासन की शह पर विश्व हिंदू परिषद से जुड़े एक व्यक्ति को कुछ लाशें को वाहनों में रख कर जुलूस की शकल में अहमदाबाद ले जाने की इजाज़त दी गई। यह सिर्फ कानून का उल्लंघन नहीं था बल्कि यह आग की लपटों को भड़काने का मंसूबाबंद काम था।

खून के बदले खून

गोधरा की मौतों के कुछ घंटों के अंदर बदला लेने की पहली घटना वड़ोदरा स्टेशन के पास दर्ज की गई। एक मुसलमान व्यक्ति पर हमला कर उसकी हत्या कर दी गई; एक अन्य मुसलमान पर आणंद में भी हमला किया गया। (जले हुए डब्बे को छोड़कर) साबरमती एक्सप्रेस गोधरा से रवाना होकर वड़ोदरा और आणंद होते हुए अपनी मंज़िल कालूपुर रेलवे स्टेशन, अहमदाबाद पहुंची। ट्रेन जैसे आगे बढ़ती गई इसी के साथ उन इलाकों में हिंसक घटनाएं भी होती रहीं।

जब ट्रेन अहमदाबाद पहुंची तो राज्य के इंटेलीजेंस ब्यूरो के अधिकारियों ने “खून का बदला खून से लेंगे” की ज़ोरदार नारेबाज़ियों को खुद सुना था । 27 फरवरी के दिन ही शहर में मुसलमानों पर अपराधिक हमलों की 14 घटनाएं हो चुकी थीं।

आखिरकार, गोधरा की घटना से सालों पहले से बोई जाने वाली नफरत की फसल काटते हुए इस हिंसा ने गुजरात के 25 जिलों में से 19 जिलों को अपनी चपेट में ले लिया। दंगों की यह आग मद्धम गति के साथ मार्च 2002 के शुरू के दिनों (जब वरिष्ठ पुलिस अधिकारी केपीएस गिल को इसे शांत करने के लिए राज्य सरकार के सलाहकार के तौर पर भेजा गया) में जलती रही। इन घटनाओं ने लगभग 2,000 जीवन (हालांकि अधिकारिक आंकड़े इस संख्या के आधे हैं) छीन लिए।

हत्याओं के अलावा लक्ष्य बनाकर चुनिंदा तरीके से आर्थिक तबाही का खेल रचाया गया। 18,924 सम्पत्तियों को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया गया और 4,954 घरों को पूरी तरह तबाह कर दिया गया। 10,429 दुकानें जला दी गयीं और 1,278 को लूट लिया गया। आगज़नी में 2,623 लारियां या फेरी वाली गाड़ियों का नुकसान हुआ। 4,000 करोड़ की संपत्ति के बराबर मुसलमानों के घरों, धनों और व्यापारों को मिट्टी में मिला दिया गया।

धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों को खासतौर से निशाना बनाया गया : 285 दरगाहों, 240 मस्जिदों, 36 मदरसों, 21 मंदिरों और तीन गिरजा घरों (कुल 649) को नष्ट कर दिया गया। इनमें से 412 की मरम्मत खुद समुदाय के लोगों द्वारा कराई गई जबकि बाकी 167 कई सालों तक उसी हालत में पड़ी रहीं।

राज्य के सबसे ज़्यादा बिकने वाले दो दैनिक अखबरों ने आग में तेल डालने का काम किया। जनसंदेश खासतौर से जहरीला था। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, एडिटर्स गिल्ड और खुद गुजरात सरकार के अधिकारियों (पूर्व एस पी भावनगर राहुल शर्मा) और आर बी श्रीकुमार (पूर्व पुलिस महानिदेशक, गुजरात) द्वारा भी इसे तलब किया गया था। उन्होंने इस प्रकाशन पर मुकदमा चलाने की सिफारिश की थी।

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28 फरवरी, 2002 के इस अखबार अंक में गोधरा के पीड़ितों की जली हुई लाशों की रंगीन तस्वीरें प्रकाशित की गयी थीं। तस्वीरों के ऊपर बड़ा सा शीर्षक लगाया गया कि “उन्मादी भीड़ 15 हिंदू महिलाओं को ट्रेन के डब्बे से घसीटती हुई ले गई”। हालांकि गुजरात पुलिस ने ऐसी किसी घटना के होने से इनकार किया था।

इससे भी बुरा यह कि जब कभी मुस्लिम समुदाय के लोगों पर भीड़ द्वारा किए गए हमलों की सूचना मिली तो इस अखबार ने उनकी पहचान का ज़िक्र तक नहीं किया। एक बार फिर 1 मार्च 2002 को संदेश ने पहले पृष्ठ पर प्रमुखता के साथ झूठी रिपोर्ट प्रकाशित किया। इस रिपोर्ट में दावा किया गया था कि “साबरमती एक्सप्रेस से अपहरण कर के ले जाई गई युवतियों के शव बरामद हुए हैं और उनके स्तन कटे हुए पाए गए हैं”। जबकि वास्तव में ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं थी। रिपोर्ट में पुलिस के खंडन का कोई ज़िक्र नहीं किया गया था।

दिलीप पडगाओंकर, बीजी वर्गीज़ और आकार पटेल द्वारा लिखित एडिटर्स गिल्ड की रिपोर्ट (राइट्स एंड रांग्स, गुजरात 2002) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा संदेश के भड़काऊ शीर्षकों को सूचीबद्ध करता है।

आग की लपटों को हवा देना

अधिकारिक मीडिया चैनलों, प्रिंट माध्यमों और टेलीवीज़न के अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और एडिटर्स गिल्ड दोनों ने कम से कम तीन दर्जन के आसपास पम्फलेटों को प्रदर्शित किया था (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़, वड़ोदरा ने 2002 में कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया के आग लगाऊ कवरेज के प्रभाव का दस्तावेज़ पूरी तफसील के साथ किया था)। इनमें से अधिकांश विश्व हिंदू परिषद द्वारा लिखे और (अपने अधिकारिक पते के साथ) प्रकाशित किए गए थे। कुछ अन्य ऐसे भी थे जो अनाम रूप से प्रकाशित हुए थे। इन पम्फलेटों में ऐसे उत्तेजना भरने वाले तर्क दिए गए थे जिसकी उन्मादी भीड़ को ज़रूरत थी ताकि वे इसके जरिए से हिंसा को व्यापक बना सकें।

मैंने स्रोतों से जानकारी हासिल कर के नफरत की एक दर्जन से ज़्यादा सामग्री को कम्यूनलिज़्म कामबैट (मार्च–अप्रैल 2002) के अंक में पम्फलेट प्वाइज़न के शीर्षक से प्रकाशित किया। विश्व हिंदू परिषद की अहमदाबाद इकाई द्वारा गर्व के साथ लिखे गए ऐसे ही एक पर्चे में पाठकों को हत्या के लिए उकसाया गया था। पर्चे में लिखा गया था, “तुम्हारा जीवन खतरे में है – किसी भी समय तुम्हारी हत्या की जा सकती है! भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था : ‘अपने हथियार उठाओ और विधर्मियों को मारो’ भगवान हमें कुछ और भी बताना चाहते हैं.… सामाजिक और आर्थिक रूप से बहिष्कार कर के गद्दार मुसलमानों को देश भक्ति का मज़ा चखाओ”।

सामाजिक–आर्थिक बहिष्कार की वकालत करने और हिंदू आबादी की ईसाई “मिशनरियों” और मुस्लिम “जिहादियों” से हिफाज़त की खातिर हिंदुओं को हथियार उठाने के लिए उकसाने की सामग्री को विश्व हिंदू परिषद– बजरंग दल के साहित्य में जगह मिलती है।

2002 में हिंसा फूट पड़ने की एक बड़ी वजह, लोगों को मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ क्रूर लैंगिक और यौन हिंसा के लिए बेशर्मी के साथ उकसाना था।

इन पम्फलेटों को हमने 20 साल पहले खोज निकाला था और मार्च–अप्रैल 2002 के कम्युनलिज़्म कॉमबैट के अंक में 150 पृष्ठों में प्रकाशित किया था, हालांकि गुजरात में उससे पहले भी नफरत का साहित्य बड़े पैमाने पर उपलब्ध था। कम्युनलिज़्म कॉमबैट के लिए जो पांच कवर स्टोरी मैंने की थी (अक्तूबर 1998, वेल्कम टू हिंदू राष्ट्र, जनवरी 1999, कनवर्जन्स, अक्तूबर 1999, हाऊ टेक्स्ट बुक्स टीच प्रीज्यूडाइस, अप्रैल 2000, फेस टू फेस विथ फासिज़्म, जनवरी 2000, स्पिलिट वाइड ओपेन) उनमें गुजरातियों के अन्य समुदायों के लिए इस घातक और भयानक उन्माद का दस्तावेज़ बहुत सावधानी के साथ तैयार किया गया था।

इस हिंसा से चार साल पहले अगस्त 1998 में गुजरात, मुम्बई और दिल्ली से आई कार्यकर्ताओं की एक टीम ने रंधिकपुर और संजेली (पंचमहल में) का दौरा किया था। वहां उन्होंने पाया, “हम जहां गए उन सभी जगहों पर ऐसे साहित्य लोगों में बांटे गए थे जिनमें कहा गया था ‘जब हिंदू उठेंगे, ईसाई भाग खड़े होंगे”।

हमने कई पत्रक और परचे हासिल किए जिनमें कहा गया था, “जय श्री राम। हम सब हिंदू हैं। ईसाइयों की खूनी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए हमें एकजुट होना चाहिए”। मुसलमानों के खिलाफ भी इस तरह के नफरती साहित्य की कमी नहीं है।

जबरन बेदखली

जून 1998, बरसात का मौसम था। गुजरात के उसी जिले से 300 मुस्लिम परिवारों को गांव से जबरन निकाल दिया गया था इसी जिले में उसके चार साल बाद बिल्कीस बानों के साथ पाशविक बलात्कार की घटना हुई थी। सभी परिवार उस समय तक अस्थाई तंबुओं में रहने को मजबूर थे जब तक कि कुछ लोगों ने हस्तक्षेप कर उनकी सुरक्षित वापसी का भरोसा नहीं दिलाया गया।

1200 गांवों और 350 जगहों पर हमने भारतीय संविधान को धता बताते हुए स्वागत के विज्ञापन पट्ट लगे देखे जिन पर लिखा हुआ था “हिंदू राष्ट्र का स्वागत है”।

राजकोट के आईपी गर्ल्स सेकंडरी स्कूल के अंदर 103 साल पुराने ईसाई संस्थान न्यु टेस्टामेंट की तीन सौ प्रतियां जला दी गयी थीं। ऑल इंडिया कैथलिक यूनियन ने राज्य भर में ईसाइयों पर होने वाले तीन दर्जन हमलों का दस्तावेज़ीकरण भी किया था।

साज़िश के तहत “लव जिहाद” का सिद्धान्त गढ़ा और फैलाया गया। इसको लेकर गुस्से की पहली लहर में उन नवजवानों को निशाना बनाया गया जिन्होंने हिंदू–मुस्लिम विभाजन को दरकिनार करते हुए शादियां की थीं। सूरत में मुस्लिम रिक्शा चालकों पर हमले किए गए थे। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने भी धार्मिक अल्पसंख्यकों, ईसाइयों और मुसलमानों दोनों, के खिलाफ राज्य भर में होने वाली हिंसा की जांच के लिए जेम्स मैसी के नेतृत्व में एक टीम भी भेजी थी।

गुजरात में नरसंहार का माहौल बनाने वाले इस पहलू को याद करना आज के भारत में खासतौर से महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। घृणा अब राज्य की परियोजना बन चुकी है। सत्ता में मौजूद ताक़तें, उसका राजनीतिक रूप और उसके सतर्क संगठन व कार्यकर्ता धार्मिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं और दलितों के खिलाफ हिंसा के जरिए नुकसान पहुंचाने के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से लैस हैं। नफरत का प्रचार प्रसार उनका सबसे बड़ा हथियार है।

पक्षपातपूर्ण विचार, हानि पहुंचाने वाले काम, भेदभाव और हिंसा जैसे नरसंहार से पहले के चार चरणों को भेदा जा चुका है। अगर यह चार चरण किसी राज्य और समाज को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा, नरसंहार या जातिसंहार से बचाने और सचेत करने के शुरूआती चेतावनी संकेत हैं तो यह दशकों से हम तक अधिकाधिक मात्रा में गुजरात से पहुँच रहा है।

लेखिका गुजरात नरसंहार 2002 के पीड़ितों को कानूनी सहायता देने वाली संस्था सिटिज़ंस फॉर जस्टिस एंड पीस की सचिव हैं। वह सबरंग इंडिया (Sabrangindia.in) की सह सम्पादक भी हैं।

यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में स्क्रॉल.इन में प्रकाशित हुआ था और इसे यहां पढ़ा जा सकता है

 

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