राख से उभर कर बाल यौन शोषण के खिलाफ हरीश अय्यर की #जंगजारी

23, Nov 2017 | हरीश अय्यर

यह कहानी है सामाजिक कार्यकर्ता और बाल यौन शोषण उत्तरजीवी हरीश अय्यर की. आज इस लेख के माध्यम से हरीश अपने शब्दों में हमें अपनी कहानी बयां कर रहे है, कि कैसे एक सताया हुआ बच्चा जीवन में आगे बढ़कर दुसरे पीड़ित बच्चों की सहायता करने वाला युवा बन गया.  

हर दिन, मेरी सुबह होती है यौन शोषण के शिकार बच्चों की ख़बरों के साथ. इस चुनौती की अतिनीचता दिखाई देती है जब हम पीड़ितों/उत्तरजीवियों की उम्र पर गौर करते हैं और पाते हैं कि उनमें से कुछ बच्चे तो अभी पालने में हैं और कुछ पालने से बाहर ही आये हैं. मैंने अपने जीवनकाल में बाल यौन शोषण के शिकार एक लाख से अधिक वयस्क पीड़ितों से बात की है.जो बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं वे पूरे उम्रभर के लिए एक अपराधबोध और शर्म से ग्रस्त वयस्क के रूप में बड़े होते हैं. कुछ पर अविश्वास का गहरा असर होता है और भीतर एक गुस्सा होता है जो रोज़मर्रा की जिंदगी में दूसरी चीजों पर बाहर निकलता चाहता है, कुछ आवाज़ें बाहरी रूप से नहीं  लेकिन भीतर से चुप्पियों से भरी चीख महसूस करती हैं जब स्मृतियाँ  उन पर हमला करती हैं. कुछ अपने साथ हुए दुष्कर्म को याद नहीं करते हैं और बाकी की उम्र यह समझने में बिता देते हैं कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं क्यों महसूस कर रहे हैं. कुछ किस्मतवाले हैं जो यह समझ पाते हैं कि उनके साथ क्या हुआ था और अपने अतीत को अतीत में छोड़ने में सफ़ल होते हैं. हालाँकि, इनके लिए भी ये नहीं कहा जा सकता कि वे पूरी तरह से बाहर आ चुके हैं.

सच कहूँ तो, मुझे नहीं पता कि पूरी तरह बाहर आ जाने का मतलब क्या है. मेरे कहने का अर्थ है कि क्या इसका  मतलब यह है कि आप जिस दर्द और पीड़ा से गुज़रे हैं उससे प्रभावित नहीं होते हैं? क्या उससे विनाशकारी भावना व्यक्त होती है. मुझे लगता है ये भयानक हो सकता है. हमारा अतीत हमें परिभाषित या सीमित नहीं करता है, लेकिन यह हमें मुक्ति की भावना दे सकता है जब हम बुरे वक़्त से बाहर निकल कर आत्मविश्वास के पंखों के सहारे नई उड़ान भरते हैं.

आप कहेंगे मैं कैसे जानता हूँ? मैं हमेशा अपने अतीत से सशक्त होता आया हूँ. जब से मैंने बोलना शुरू किया है,मैंने कभी अपने नियमित यौन शोषण से भरे बचपन के बारे में चीखने से गुरेज़ नहीं किया है. यह सब तब शुरू हुआ जब मैं सात वर्ष का था. यह मेरे ग्यारह साल का होने तक जारी रहा. यह मेरी दिनचर्या बन गया था. वह मुझे बाल कटाने के लिए अपने स्कूटर पर ले जाया करता था.उसके बाद हम उसके घर जाया करते थे. पहली बार जब उसने मुझे डरा दिया, उसके बाद हमेशा के लिए मेरे हथियार गिर गए. उसके बाद कभी उसे जबरदस्ती नहीं करनी पड़ी. हर बार मुझे पता होता था कि जब वह और मैं अकेले होंगे,  मैं अपने सारे कपड़े निकालूँगा और अपनी छाती के बल लेट जाऊंगा और मेरी पीठ ऊपर की ओर होगी. वह मेरे पैरों को उठाएगा और उन्हें घुमाएगा जैसे वह मेरे अंदर प्रवेश करना चाहता है. यह सब होने तक, मेरा दिमाग सुन्न पड़ जाता था और किसी दूसरी दुनिया में तब्दील हो जाता था. उस पल मुझे दुष्कर्म के बारे कुछ भी महसूस नहीं हुआ. अपने दिमाग के अन्दर कई चित्र बनाता जिनमें  गिरने वाले पेड़ होते और दूध पीती बकरियां होती जिन्हें जिबह करने के लिए ले जाया गया है. मैं अपने दिमाग में डरा हुआ था और असहाय था पर मेरे साथ क्या हो रहा है इस बात से अनजान था. यह एक भावनात्मक ‘कोमा’ जैसी स्थिति थी,जब आप भौतिक रूप से जान रहे थे कि क्या हो रहा है पर आपकी प्रतिक्रिया शून्य पड़ गयी थी.

जब मैं कुछ बड़ा हुआ, किशोरावस्था में था, मेरे दर्द के प्रति मेरी जागरूकता बढ़ गयी. लेकिन उसकी बेशर्मी भी साथ-ही-साथ बढ़ चुकी थी. वह और लोगों को बुलाने लगा था.लोग होते थे, एक के मेरे साथ सेक्स करने के बाद दूसरा आता था.कभी-कभी मेरा खून बहने लगता था. कभी-कभी, बिना एक शब्द बोले दर्द की इस घिनौनी कहानी से डबडबायी आँखों से मैं निवेदन करता था. उम्मीद करता था कि वे मेरी होंठों की सिहरन पढेंगे लेकिन वे केवल मुझ कमजोर पर अपनी दानवी देहों से हमला करते थे.

यौन शोषण के शिकार बच्चे भावनाओं की हानिकारक अधिकता से गुजरते हैं. उनमें से कई गंभीर दमित स्मृति से होकर गुजरते हैं जहाँ उन्हें घटना के बाद की बहुत कम याद रहती है, लेकिन उसके बाद ख्यालों का ट्रिगर होना उन्हें हर एक टुकड़े को याद करने पर मजबूर कर देता है. कई बार वे पूरी उम्र गुत्थी के इन्हीं टुकड़ों को साथ जोड़ने और सुलझाने में लगा देते हैं और स्वीकार कर लेते हैं कि यही उनका जीवन है और उनका बलत्कृत अतीत. चूँकि यह सबकुछ यौन शोषण से जुड़ा हुआ है इसलिए सबको यह समझने की जरूरत है कि यौन संबंधों के बीच से निकलकर कोई भी चीज अगर ट्रिगर करती है बुरे वक़्त की याद दिलाती है तो कई केसों में इसे गुस्से के रूप में फलित होता देखा गया है. मुझे लगता है कि हमें सामान्यीकरण करने से बचना चाहिए इसलिए ही मैं “कुछ” और “थोड़े” जैसे शब्दों का उपयोग कर रहा हूं. सबसे बुरी चीज जो घटित हो सकती है वह यह कि उन्हें आंकड़ों तक सीमित करके या उनकी पीड़ा का माप-तौल करके उनकी चुनौतियों की भयावहता को मंसूख कर दिया जाए,

मैं अक्सर मर्दाना सेक्स से परेशान महिलाओं और सम्भोग को लेकर बेचैन विषमलैंगिक पुरुषों के बारे सुनता रहता हूँ, यह एक आम बात है.कुछ समलैंगिक पुरुषों के साथ बचपण में दुष्कर्म किया गया है. मुझे पता है कि उनमें से कई सेक्स के प्रति अत्यंत प्रतिकूल रहते हैं और असफल रिश्तों के साथ जीवन समाप्त होता है. कुछ समलैंगिक पुरुषों मानते ​​है कि समलैंगिक दुष्कर्म के कारण ही वे समलैंगिक हैं. यह जीवन की पुष्टियों और समझदारी की एक जीवन भर लंबी प्रक्रिया है. यह वह संघर्ष है जो ख़ुद के साथ और खुद के अतीत के साथ है पर खुद का चुनाव नहीं है.

पीड़ित सभी वर्गों और सभी जातियों से आते हैं. दुष्कर्म कभी भेदभाव नहीं देखता. हालांकि,अगर आप आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से आते हैं, एक दलित या मुस्लिम हैं,  एक ट्रांसपर्सन हैं या औरत, स्त्रियोचित या गे हैं, और ऐसी जगह पर हैं जहां आप सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से वंचित महसूस करते हैं – संभावनाएं अधिक हैं कि वहाँ पर आप आसान शिकार हैं. जब अपराधियों की बात आती है, तो वह कोई भी हो सकता है. पुरुष, महिला, ट्रांसजेंडर या अन्य कोई लिंग. वह आपकी मां, पिता, बहन, भाई – कोई भी हो सकता है.

इसे रोकने के लिए, हमें शिक्षा की जरूरत है … और शिक्षा सिर्फ सेक्स-एड कक्षा नहीं है, यह खाने की मेज, शयनकक्ष भी और कार्यस्थल पर भी होती है. हमारे घरों के भीतर और कार्यक्षेत्रों में पितृसत्ता के सदियों पुराने राज ने सबकुछ ‘सामान्य’ है की स्थिति बनाए रखा है. अगर हमें ऐसी दुनिया की कल्पना करने की जरूरत समझते हैं जहां दुर्व्यवहार/दुष्कर्म न किया जाना नई ‘सामान्य’ स्थिति बन सके, तो  हमें पितृसत्ता, श्रेष्ठता के दंभ,वर्ग, जाति और धर्म के आधार पर होने वाले हीनताबोध से सम्बंधित विमर्श को खुद से होने वाली बातचीत में बदलना होगा, खुद के साथ के विमर्श में उन्हें त्यागना होगा. हमें “लिस्ट” की कम आवश्यकता है लेकिन अपराधियों के साथ और अधिक शोध की जरूरत है. हमें ऐसे दंडव्यवस्था की जरूरत है जो सुधारवादी और सुधारात्मक हैं और न कि केवल उनकी जो अपराधी का खून बहाना चाहते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें ऐसे तरीकों की जरूरत है जिनसे उन्हें रोका जा सके जो यौन उत्पीड़क से लेकर हमलावर कुछ भी सकते हैं.

यह नैतिकता के पाठ द्वारा या गुरिल्ला(छापामार) रणनीति से नहीं किया जा सकता है जो बहिष्कार और सख्त दंड की मांग करती है, इनमें से कुछ तो केवल निरी भावनात्मक प्रतिक्रियाएं होती हैं. यदि हम चाहते हैं कुछ सकारात्मक किया जाए तो मेरा मानना है कि यह मनोविज्ञान और मनोचिकित्सक के हस्तक्षेप के साथ होना चाहिए. हमले जो किये गए हैं, हमें सज़ा की भयावहता की बजाय सजा की सुनिश्चितता पर ध्यान देने की जरूरत है.

और अगर दो बच्चों में से एक का यौन शोषण होता है, तो हर दस या बीस में से एक ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जो बच्चों का यौन शोषण करता हो. हमें सुधारवादी तरीकों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है. कितने जेल हम अपराधियों से भरेंगे. कुछ बाल अपराधी हैं, कुछ चिकित्सकीय रूप में पीडोफिलिया(मानसिक बीमारी) के रूप में चिह्नित किये जाते हैं. बहुत से हैं जो इस श्रेणी में आते हैं जो हमारे पिता, भाई, यहां तक ​​कि हमारी बहनें और माएं हैं. हमें उन्हें पहचानने की जरूरत है और यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि वे ख़ुद तक सीमित रहें.

मैं अपनी बात करूँ तो बदला लेने की कोई भी भावना मेरे अन्दर नहीं है. मैं अपने 11 कीमती साल वापस नहीं पा सकता. लेकिन जब आपको ब्लैक होल में ढकेल दिया जाता है, तो आप सारी ऊर्जा  को अपने भीतर इकठ्ठा कर सकते हैं और अपने व अन्य लोगों के उत्थान के लिए लगा सकते हैं. मैं यही हूँ,  अपने अतीत को स्वीकार करता हूँ, लेकिन उसे वहीँ अतीत में रहने देता हूँ. इसका एकमात्र उद्देश्य  मेरे वर्तमान में ऊर्जा का प्रसार करना है. यही ताक़त है हमारी जो शोषित हैं. हम ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी की किरणें फैलाते हैं.

 

अनुवाद सौजन्य: देवेश त्रिपाठी

 

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