निगरानी के प्रयासों से निजता के अधिकार का हनन, निशाने पर चुनिंदा लोग, कानून की खामियाँ उजागर एप्पल की ओर से हालिया अलर्ट ने विपक्षी नेताओं और पत्रकारों पर राज्य प्रायोजित निगरानी हमले के मामलों को सामने लाकर सत्तारूढ़ शासन द्वारा प्रायोजित पेगासस का भूत वापस ला दिया है
15, Nov 2023 | तान्या अरोड़ा
31 अक्टूबर की सुबह कई भारतीय पत्रकारों और विपक्षी पार्टियों के नेताओं को अपने आईफोन पर उनके फोन पर राज्य-प्रायोजित हमले का अलर्ट मिला। एप्पल ने यह अलर्ट मैसेज और ईमेल के जरिए भेजा था। अलर्ट में यह आरोप भी लगाया गया था कि इन लोगों के फोन से छेड़खानी के प्रयासों के पीछे कारण यह जानना भी हो सकता है कि वह कौन लोग हैं और क्या काम करते हैं।
संदेश था: “एप्पल को लगता है कि आपको राज्य-प्रायोजित हमलावर निशाना बना रहे हैं जो आपकी एप्पल आईडी से जुड़े आईफोन से दूर से छेड़खानी करना चाहते हैं। ईमेल का विषय था: “अलर्ट : राज्य-प्रायोजित हमलावर आपके आईफोन को निशाना बना रहे हो सकते हैं।” संदेश में कहा गया था, “संभव है कि यह हमलावर आपको इसलिए निशाना बनाना चाहते हैं कि आप कौन हैं और क्या करते हैं। यदि आपका फोन राज्य-प्रायोजित हमलावर हैक कर लेते हैं तो वह दूर से ही आपके संवेदनशील डाटा, सम्प्रेषण और कैमरा व माइक्रफोन तक पहुँच सकते हैं।” संदेश प्राप्तकर्ताओं को बताया गया कि ‘’यह संभव है कि यह गलत चेतावनी हो, लेकिन इस चेतावनी को गंभीरता से लें।”
यह संदेश और ईमेल महुआ मोइत्रा (तृणमूल काँग्रेस), प्रियंका चतुर्वेदी (शिवसेना – उद्धव बालासाहेब ठाकरे गुट), राघव चड्डा (आम आदमी पार्टी), सीताराम येचुरी (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी), और शशि थरूर (काँग्रेस) समेत कई विपक्षी नेताओं को मिले। यह अलर्ट सिद्धार्थ वरदारजन (वायर के संस्थापक संपादक), श्रीराम कार्री (डेक्कन क्रॉनिकल के रेजिडेंट संपादक) रवि नायर (ऑर्गनाइज़्ड क्राइम एण्ड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट – ओसीसीआरपी – के पत्रकार) समेत कई पत्रकारों को भी भेजा गया था।
उक्त अलर्ट प्राप्तकर्ताओं ने इस तरह निशाना बनाए जाने पर एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर हैरानी और आक्रोश जताया था। टीएमसी संसद महुआ मोइत्रा ने आरोप लगाया था कि भारत सरकार उनका फोन हैक करना चाहती है। उन्होंने एक्स पर लिखा था, “एप्पल से संदेश और ईमेल मिला कि सरकार मेरे फोन और ईमेल को हैक करना चाहती है। @एचएमओ अपना काम करें। अदानी और पीएमओ की धौंस जमाने वालो, आपका भय देखकर मुझे आप पर तरस आता है।”
कांग्रेस के मीडिया एवं प्रचार विभाग के प्रमुख पवन खेरा ने एक्स पर लिखा, “प्रिय मोदी सरकार, आप यह क्यों कर रहे हैं?” कई अन्य प्राप्तकर्ताओं ने अपने फोन से छेड़खानी के राज्य-प्रायोजित प्रयासों से भारत सरकार को जोड़ने जैसे आरोप लगाए।
ऐसे आरोपों को भारतीय जनता पार्टी ने आधारहीन करार देते हुए खारिज कर दिया। सत्तारूढ़ पार्टियों के मंत्रियों और नेताओं ने ट्विटर पर विपक्षी नेताओं की आलोचना की और उनकी चिंताओं को प्रचार पाने का शगूफ़ा करार दिया। कुछ घंटों बाद एप्पल ने बयान जारी कर कहा कि कुछ सूचनाएं गलत चेतावनी हो सकती हैं और हमले डिटेक्ट नहीं किए जा सकते हैं। कंपनी ने कहा कि “एप्पल इन सूचनाओं को किसी खास राज्य-प्रायोजित हमलावर से नहीं जोड़ता है। कंपनी ने कहा कि राज्य-प्रायोजित हमले संसाधनयुक्त, परिष्कृत हैं और उनके हमले स्वरूप बदलने वाले हैं। ”
हालांकि कंपनी के बयान का इस्तेमाल भाजपा ने अपना बचाव करने के लिए किया, लेकिन सवाल बना हुआ है कि अलर्ट केवल मोदी सरकार के मुखर आलोचकों को ही क्यों भेजे गए? यदि यह अलर्ट केवल गलत चेतावनी थे तो सत्तारूढ़ पार्टी के किसी नेता को क्यों नहीं मिले? पत्रकारों और विपक्षी नेताओं को मिलने वाले अलर्ट में आरोप लगाया गया था कि उनके आईफोन से जानकारी चुराने के लिए राज्य-प्रायोजित हमलावरों ने प्रयास किए थे। सरकार की तरफ से निगरानी को हथियार बनाने के हालिया इतिहास के मद्देनजर प्राप्तकर्ताओं का यह मानने में कि केंद्र सरकार इनके पीछे थी, क्या गलत था?
वरिष्ठ भाजपा नेता रवि शंकर प्रसाद ने आरोपों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए विपक्षी नेताओं को लताड़ा था कि उन्होंने सरकार को निशाना बनाया, जबकि एप्पल के समक्ष मामला नहीं उठाया। उन्होंने विपक्षी नेताओं को एफआईआर दर्ज करने के लिए भी ललकारा। प्रसाद ने कहा कि अलर्ट के संबंध में भ्रम और आरोपों पर कंपनी को सफाई देनी है, सरकार को नहीं। लेकिन सवाल उठता है कि केवल विपक्षी नेता और वर्तमान सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को ही यह अलर्ट क्यों मिला? भारत का पिछला रिकार्ड देखते हुए, पेगासस मैलवेयर का इस्तेमाल और आर्सनल रिपोर्ट जिसमें भीमा कोरेगाँव में हिंसा मामले में प्रमाण प्लांट करने के आरोप लगाए गए थे, क्या देश के लोगों की अपने फोन हैक किए जाने की चिंता क्या वैध नहीं है?
विवाद के बीच, इलेक्ट्रॉनिक एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि सरकार ने मामले में जांच के आदेश दिए हैं। उन्होंने कहा, “मिली जानकारी और व्यापक अटकलबाज़ी के बीच हमने एप्पल को कथित राज्य-प्रायोजित हमलों पर वास्तविक और सटीक जानकारी के साथ जांच में शामिल होने के लिए कहा है।”
भारत में राज्य-प्रायोजित साइबर हमले
सिंगापुर की साइबर सुरक्षा कंपनी सायफर्मा ने हाल में 2023 इंडिया थ्रेट लैंडस्केप रिपोर्ट जारी की, जो बताती है कि विश्व में होने वाले साइबर हमलों का 13.7 फीसदी हमले भारत को निशाना बनाते हैं, जो सबसे ज्यादा हैं। उपरोक्त विश्लेषण के अनुसार 2021 और सितंबर 2023 के बीच भारत पर राज्य प्रायोजित साइबर हमलों में 278 फीसदी वृद्धि हुई है। इनमें से अधिकांश हमले आईटी और बीपीओ जैसी सेवा कंपनियों पर होते हैं। द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी संस्थानों को लक्षित करने वाले साइबर हमलों में 460 फीसदी वृद्धि देखी गई जबकि स्टार्ट-अप और लघु एवं माध्यम इकाइयों (एसएमई) पर हमलों में 508 फीसदी वृद्धि देखी गई।
यह आँकड़े, चिंतित करने वाले तो हैं, पर आश्चर्यजनक नहीं। यह बताना आवश्यक होगा कि यह पहली बार नहीं है कि विपक्षी नेता और पत्रकार वर्तमान केंद्र सरकार के निशाने पर आए हैं। 2021 में ऐसी रिपोर्ट पर काफी हंगामा हुआ था कि वर्तमान केंद्र सरकार ने कई पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और राजनीतिज्ञों के खिलाफ जासूसी के लिए पेगासस स्पाइवेयर इस्तेमाल किया था। पेरिस के गैर-लाभकारी पत्रकारिता समूह फॉरबिडेन स्टोरीज के नेतृत्व में 17 मीडिया संस्थाओं की प्रकाशित एक खोजी रपट में बताया गया था कि उक्त स्पाइवेयर इस्राइल की साइबर इंटेलिजेंस कंपनी एनएसओ ग्रुप ने बनाया था और मुहैया कराया था जिसका इस्तेमाल पत्रकारों, सरकारी अधिकारियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के 37 स्मार्ट फोन हैक करने के विफल और सफल प्रयास करने के लिए किया गया था।
द वायर ने भी रिपोर्ट किया था कि विपक्षी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी, दो अन्य सांसद उन 300 भारतीय नागरिकों की सूची में शामिल थे जिनके स्मार्ट फोन हैक किए जाने वाले नंबरों की सूची में शामिल थे जो 2017-2019 में आम चुनाव से पहले निगरानी के संभावित लक्ष्य थे। पूर्व भारतीय चुनाव आयुक्त अशोक लवासा और सीबीआई के पूर्व प्रमुख आलोक वर्मा भी इस सूची में शामिल थे। एनएसओ ग्रुप ने अपना उत्पाद मुहैया कराया था जिसका इस्तेमाल केवल सरकारी खुफिया और कानूनी एजंसियों द्वारा आतंकवाद और अपराध से लड़ने के लिए किया जाना था।
सरकार ने पेगासस स्पाइवेयर से सेल फोन हैक कर कई लोगों की वार्ताओं तक गैरकानूनी तरीके से पहुँचने के सभी आरोपों से इनकार किया। अगस्त 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नागरिकों के फोन की जासूसी के लिए पेगासस स्पाइवेयर के इस्तेमाल के मामले में लगाए गए आरोपों की जांच के लिए एक पैनल नियुक्त किया। पैनल, जिसमें साइबर सुरक्षा, डिजिटल फोरेंसिक, नेटवर्क और हार्डवेयर के तीन विशेषज्ञ शामिल थे, से यह जांच करने और निर्धारित करने के लिए कहा गया कि क्या पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल नागरिकों पर जासूसी के लिए किया गया था और उनकी जांच पूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश रवींद्रन की निगरानी में होनी थी। पैनल सदस्य नवीन कुमार चौधरी, प्रभाहरण पी और अश्विन अनिल गुमस्ते थे।
इस पैनल ने तकनीकी समिति की तरफ से जाँचे 29 फोन में से 5 में कुछ मैलवेयर पाया। पैनल ने कहा कि उनके जांच किए 29 में से 5 फोन में मैलवेयर पाया गया था पर स्पष्ट नहीं है कि यह पेगासस था। अदालत ने यह भी कहा था कि केंद्र सरकार ने पेगासस स्पाइवेयर मामले की जांच में सहयोग नहीं किया था। पैनल को अब भंग कर दिया गया है।
इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में फेसबुक ने एनएसओ ग्रुप के खिलाफ पेगासस बनाने के लिए मामला दायर किया था। रिपोर्ट में बताया गया था कि फेसबुक के सुरक्षा शोधकर्ता अपने सिस्टम में पेगासस ढूंढ रहे थे और उन्होंने पाया कि सॉफ्टवेयर भारत में कई पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को इन्फेक्ट करने के लिए इस्तेमाल किया गया था। उल्लेखनीय है कि, 2019 में ही फेसबुक के स्वामित्व वाले व्हाट्सएप ने पुष्टि की कि उसने 2019 में भारत सरकार को सूचित किया था कि कम से कम 121 भारतीय नंबर, जो शिक्षाविदों, वकीलों, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के थे, पेगासस ने एप की प्रणालियों की खामियों का फायदा उठाकर हैक किए थे। गार्जियन और वाशिंगटन पोस्ट ने इस पर रिपोर्ट दी थी और इसे पेगासस का इस्तेमाल करते हुए वैश्विक निगरानी ऑपरेशंस करार देते हुए विवरण दिया था। इन रिपोर्टों के अनुसार भारत समेत 10 सरकारें पेगासस का इस्तेमाल करते हुए लोगों की निगरानी कर रही हैं। भारत ने गार्जियन की रिपोर्ट को “अंधेरे में तीर चलाने, कही-सुनी बातों, अनुमानों, अतिशयोक्तियों के आधार पर भारतीय लोकतंत्र को बदनाम करना’’ करार दिया था। हालांकि, गार्जियन को देश ने दिए अपने बयान में पेगासस के इस्तेमाल से स्पष्ट इनकार नहीं किया था।
पेगासस के दुरुपयोग के संबंध में चिंताएं और बढ़ीं जब एक और रिपोर्ट सामने आई जिसमें आरोप लगाया गया कि लोगों को आपराधिक तरीके से फँसाने के लिए सरकार ने सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया। वाशिंगटन पोस्ट की 2021 की एक रिपोर्ट में बताया गया कि भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में 16 विचाराधीन कैदियों में से आठ को जेल में डालने से पहले पेगासस का निशाना बनाया गया था। अमरीकी डिजिटल फोरेंसिक कंपनी आर्सनल कंसल्टिंग के अनुसार उनमें से दो के कंप्युटरों पर डिजिटल फाइल प्लांट करने का प्रमाण मिला है। यह फाइल वही थीं जिन्हें आरोपियों को जेल में रखे रहने के लिए महत्वपूर्ण प्रमाण माना गया था। उल्लेखनीय है कि अमेरिकी फोरेंसिक कंपनी की एक और रिपोर्ट ने इसका खुलासा किया कि कैसे कई आपत्तिजनक दस्तावेज़ फादर स्टेन स्वामी के कंप्युटर में डाले गए। 83 वर्षीय कार्यकर्ता को भीमा कोरेगाँव मामले में कथित आंतकी संबंधों के लिए 2020 में गिरफ्तार किया था और उनकी हिरासत में ही एक साल बाद मौत हो गई थी।
डेक्कन हेराल्ड की एक हालिया रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि अमेरिकी एमेज़ान डॉट कॉम की क्लाउड सेवा के एनएसओ ग्रुप के इंफ्रास्ट्रक्चर को बंद किए जाने के बाद भारत ने संभवत: वैकल्पिक सॉफ्टवेयर की तलाश शुरू कर दी है। फायनेंशियल टाइम्स ने मार्च में खबर दी थी कि भारत 120 मिलियन अमरीकी डॉलर के अनुमानित बजट के साथ पेगासस के विकल्प जैसे क्वाड्रीम और कॉगनाइट (दोनों इस्राइली कॉम्पनियों द्वारा निर्मित) और ग्रीक कंपनी इंटेलेक्सा से प्रेडटर खरीदने के लिए बाजार में हैं। इंटेलेक्सा ने स्पाइवेयर बनाने के लिए इस्राइल के पूर्व सैन्याधिकारियों का सहारा लिया हुआ है। रिपोर्ट ने बताया कि अप्रैल में कांग्रेस पार्टी ने दावा किया था कि केंद्र सरकार राजनीतिज्ञों, मीडिया, एक्टिविस्ट्स और गैर सरकारी संगठनों पर जासूसी के लिए कॉगनाइट खरीद रही है। जैसा कि अपेक्षित था, भारत की तरफ से किसी नए स्पाइवेयर कार्यक्रम खरीदने की कोई आधिकारिक जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।
निगरानी पर भारत में कानून
राज्य प्रायोजित निगरानी के आरोप सामने आते ही, आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के उद्देश्य से, खासकर किसी सार्वजनिक आपात स्थिति में या जनसुरक्षा के हित में केन्द्रीय और राज्य एजंसियों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक सम्प्रेषण को कानूनी तरीके से इन्टरसेप्ट करने की स्थापित प्रक्रिया है। इसके बावजूद अगस्त 2023 में फायनेंशियल टाइम्स की एक रिपोर्ट ने आरोप लगाया कि भारत की “तथाकथित कानूनी इंटरसेप्शन मॉनिटरिंग प्रणालियाँ” ऐसा ‘’पिछला दरवाजा” मुहैया करने में मदद करती हैं जो नरेंद्र मोदी सरकार को अपने 140 करोड़ नागरिकों की जासूसी करने की अनुमति देता है, यह शासन की बढ़ती निगरानी का हिस्सा है।”
निगरानी को लेकर भारत के कानून भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 और सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम (आईटी अधिनियम) तब बनाए गए थे जब स्पाइवेयर, जिनका आज इस्तेमाल किया जा रहा है, उनकी कल्पना तक नहीं की गई थी। टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5(2) और आईटी अधिनियम की धारा 69 के तहत राज्य “संप्रभुता, राष्ट्रीय सुरक्षा, अंतर्राष्ट्रीय सरकारों के साथ संबंधों की सुरक्षा और कानून व्यवस्था के लिए कोई भी जानकारी इन्टरसेप्ट कर सकता है, निगरानी रख सकता है और डीक्रिप्ट कर सकता है।”
यह निर्दिष्ट कानून खास उद्देश्यों के लिए किसी का फोन इन्टरसेप्ट करने की अनुमति देते हैं। लक्षित निगरानी के मामले में वर्तमान नियामक फ्रेमवर्क केंद्र और राज्य सरकार को सीधे या अधिसूचित एजेंसियों को किसी सम्प्रेषण का इन्टरसेप्शन की अनुमति देता है। यह राज्य को लक्षित निगरानी के लिए कानूनी एजेसियां चुनने के मामले में संसद या न्यायपालिका की निगरानी या प्रतिवाद के विवेकाधीन अधिकार देता है। लेकिन, यह कानून राज्य एजेंसियों को किसी फोन को हैक करने या वेपनाइजेशन की हद तक जाने की अनुमति नहीं देता कि कोई गैरकानूनी तरीके से इस्तेमाल पेगासस जैसा स्पाइवेयर संभव बनाए।
इसके अलावा, आईटी अधिनियम की धाराएं 43 और 66 साइबर अपराध और चुराए हुए कंप्युटर संसाधनों का अपराधीकरण करती हैं। हैकिंग इसके तहत दंडनीय अपराध है। लेकिन पेगासस “जासूसी कांड” ने दिखाया कि लक्ष्य को इस उल्लंघन की कोई जानकारी न होते हुए भी हैकिंग ऑपरेशन हो सकते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी (सूचना के अवरोधन, निगरानी और डीक्रिप्शन के लिए प्रक्रियाएं और सुरक्षा उपाय) नियम, 2009 के अनुसार कोई भी एजेंसी या व्यक्ति बिना सक्षम अधिकारी की सहमति और निर्देश के इन्टरसेप्शन नहीं कर सकता।
जैसा कि ऊपर स्थापित किया गया है, हमारे कानूनों में राज्य-प्रायोजित गैर कानूनी निगरानी से नागरिकों को बचाने के मामले में छेद हैं। यहाँ लोगों का ध्यान डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन अधिनियम की तरफ दिलाना ठीक होगा, जो संसद के 2023 के मानसून सत्र में एक्टिविस्ट्स, शिक्षाविदों और विद्वानों की आलोचना के बीच पारित किया गया। यह कानून, जो निगरानी को कानूनी कवर देता है, सरकार को जांच से बचाता है, नागरिकों को नहीं। द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार आलोचकों और एक्टिविस्ट्स ने कहा, “सरकार का प्रिय वाक्य ‘जैसा कि निर्धारित किया जाए” इस कानून की विशेषता है। यह 44 धाराओं वाले 21 पृष्ठों के विधेयक में 28 बार इस्तेमाल किया गया है। अस्पष्टता रखी गई है ताकि सरकार मनमाने निर्णय ले सके।”
निजता के अधिकार पर न्यायिक व्यवस्था
आईटी अधिनियम और टेलीग्राफ अधिनियम के तहत उक्त कानून राज्य को व्यापक दायरे में जैसे “कानून व्यवस्था बनाए रखने, राष्ट्रीय सुरक्षा और जनसुरक्षा के लिए” निगरानी की अनुमति देते हैं। इन पर देश के संवैधानिक अदालतों ने निम्नलिखित व्यवस्थाएं दी हैं:
जस्टिस केएस पुट्टास्वामी बनाम केंद्र
अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट के नौ न्यायाधीशों की खंडपीठ ने पुट्टास्वामी मामले में भारत के संविधान के तहत निजता के अधिकार को मान्यता दी। अदालत ने कहा कि यह भारत के नागरिकों को दिए मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 21) का हिस्सा है और इसके अनादर को उच्चतम स्तर की न्यायिक जांच का सामना करना होगा। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि एक व्यक्ति का मौलिक निजता अधिकार राज्य एवं वैयक्तिक हितों के समक्ष “निजता व्यक्ति की पवित्रता की अंतिम अभिव्यक्ति है”, दूसरे शब्दों में वैध इन्टरसेप्शन के समक्ष नहीं टिकेगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
1. मनमानी राज्य कार्रवाई के संदर्भ में निजता का उल्लंघन अनुच्छेद 14 के तहत “तर्कसंगतता” की कसौटी पर होगा।
2. निजता उल्लंघन जो अनुच्छेद 19 की स्वतंत्रताओं को प्रभावित करेगा, को कानून एवं व्यवस्था, अश्लीलता आदि की पाबंदियों के तहत होना होगा।
3. अनुच्छेद 21 के तहत किसी के जीवन और निजी स्वतंत्रता में औचित्यपूर्ण, निष्पक्ष और तर्कसंगत होना होगा।
4. फोन टैपिंग न सिर्फ अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है बल्कि अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्रताओं का भी उल्लंघन करती है। ऐसे कानून को अनुच्छेद 19(2) के तहत जायज पाबंदियों के तहत न्यायोचित्त होना होगा और इसके अलावा अनुच्छेद 21 के तहत औचित्यपूर्ण, निष्पक्ष और तर्कसंगत भी होना होगा और जैसा कि पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीस बनाम केंद्र (1997) में व्यवस्था दी गई थी। इसे “ राज्य हित” के उच्च पैमाने पर भी खड़ा उतरना होगा।
5. अनुपात और वैधता कसौटी भी स्थापित की गई थी – जो निम्नलिखित चार कसौटियाँ हैं जो निजता के अधिकार में राज्य हस्तक्षेप से पहले पूरी करनी होती है:
(i) राज्य कार्रवाई कानून से मंजूर होनी चाहिए
(ii) लोकतान्त्रिक समाज में कार्रवाई के लिए वैध उद्देश्य जरूर होना चाहिए
(iii) कार्रवाई ऐसे हस्तक्षेप की आवश्यकता के अनुपात में होनी चाहिए
(iv) और यह हस्तक्षेप के अधिकार के दुरुपयोग के खिलाफ प्रक्रियागत गारंटियों के तहत होना चाहिए
विनीत कुमार बनाम केन्द्रीय जांच ब्यूरो और अन्य:
2019 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने पुट्टास्वामी मामले के बाद के समय में फोन टैपिंग और निगरानी के संबंध में कानून पर निजता का अधिकार, आईटी अधिनियम की धारा 5(2) के संबंध में सिद्धांतों को लागू करते हुए व्यवस्था दी। इस मामले में एक व्यवसाई जो खुद को ऋण से मुक्त करने के लिए बैंक कर्मचारियों को रिश्वत देने का आरोपी था, ने सीबीआई के उन आदेशों को चुनौती दी थी, जो उनके टेलीफोन को इंटरसेप्ट करने का निर्देश देते थे। चुनौती का आधार था कि ऐसे आदेश आईटी अधिनियम की धारा 5(2) का उल्लंघन थे।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने दोहराया कि आईटी अधिनियम की धारा 5(2) के तहत इन्टरसेप्शन का आदेश केवल सार्वजनिक आपात स्थिति में या जनसुरक्षा की स्थितियों में दिया जा सकता है। यह आदेश ‘जन सुरक्षा’ के आधार पर दिए गए थे।
मामले का निर्णय करते हुए, उच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के पिछले मामलों में दर्शाये रुख से संदर्भ लिया। हुकुम चंद श्याम लाल विरुद्ध केंद्र और अन्य मामलों से संदर्भ लेते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि उक्त अपराध एक आर्थिक अपराध था, उक्त आदेशों का औचित्य सिद्ध करने के लिए कोई जनसुरक्षा का मामला नहीं था या पुट्टास्वामी मामले के अनुसार यह “अनुपातिक्ता और वैधता” की कसौटी को भी संतुष्ट नहीं करते।
इस तरह, इन्टरसेप्शन के मामले के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
1. आईटी अधिनियम की धारा 5(2) के तहत इन्टरसेप्शन का कोई भी आदेश केवल ‘सार्वजनिक आपात स्थिति’ में या ‘जन सुरक्षा’ के हालात में दिया जा सकता है।
2. यदि इन्टरसेप्शन आईटी अधिनियम की धारा 5(2) का उल्लंघन करते हुए की गई है, यह आवश्यक है कि उक्त इन्टरसेप्ट किए संदेश नष्ट किए जाएँ।
3. धारा 5(2) और उसके तहत बनाए नियमों का उल्लंघन करते हुए प्राप्त किया प्रमाण अदालत में स्वीकार्य नहीं है।
उक्त दो मामलों से सबसे महत्वपूर्ण सबक हैं कि आईटी अधिनियम की धारा 5(2) के तहत इन्टरसेप्शन को न्यायोचित्त ठहराने के लिए ‘’सार्वजनिक आपात स्थिति” और/या “जन सुरक्षा” की आवश्यकताओं को संतुष्ट करना होता है और इसके तहत स्थापित नियमों और दिशानिर्देशों का पालन करना होता है। प्रोटोकॉल से जरा भी विचलन हुआ तो प्रमाण न्याय प्रक्रियाओं से हटा दिया जाएगा। विनीत कुमार मामला मौलिक अधिकारों के बचाव और यह सुनिश्चित करने में मददगार है कि अधिकारी कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किए बिना व्यक्ति विशेष को निशाना बना कर फोन वार्ताएं सुनने की अपनी क्षमता का दुरुपयोग न करें। जैसे मुश्किल समय में हम रह रहे हैं, ऐसा लगता है कि इस निर्णय के लागू होने पर लगातार सवाल उठाए जाएंगे।
राज्य-प्रायोजित निगरानी से बचाव एक दूर का सपना?
निजता का अधिकार सुनिश्चित करने वाले अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत निजता के खिलाफ मनमाने या गैरकानूनी अतिक्रमण निषिद्ध हैं। इसके अलावा, जैसा कि भारत के सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक अदालतों ने बताया है कि निजता के मौलिक अधिकार पर पाबंदियाँ और अपवाद की केवल तभी अनुमति है जब वह कानून सम्मत हों और वैध उद्देश्य पूरा करने के लिए हों। इसे देखते हुए, पेगासस जैसे स्पाइवेयर का गैर आनुपातिक, गैरकानूनी, या मनमाना इस्तेमाल लोगों के निजता के अधिकार का उल्लंघन है, स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्ति और संगठित होने से रोकता है और उनकी सुरक्षा, आजीविका और ज़िंदगियों को जोखिम में डालता है। सरकार के पेगासस मैलवेयर के इस्तेमाल के हालिया प्रयास और एप्पल के भेजे अलर्ट भारत में पहले से कमजोर निजता बचाव के खतरे के संकेत देते हैं। इसके अलावा भारत में निजता बचाव कानूनों के पुराने पड़ चुके फ्रेमवर्क को सुधारने के साथ यह भी आवश्यक है कि सुनिश्चित किया जाए कि नए लागू किए जाने वाले कानून सरकार केंद्रित होने के बजाय नागरिक केंद्रित हैं। वर्तमान में, कानूनों में ऐसी दरारें और खामियाँ हैं जो समुचित संतुलन के अभाव में राज्य के अंगों को अपनी मर्जी से लक्षित निगरानी करने देती हैं। “भारत लोकतंत्र की माँ है” जैसे शब्दों को वास्तविक अर्थ देने के लिए जरूरी है कि हम आलोचनात्मक आवाजों के खिलाफ गैरकानूनी और अनैतिक तरीकों के इस्तेमाल के लिए राज्य को जिम्मेवार ठहराएं।
Image Courtesy: ikigailaw.com
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