कानून करे सुरक्षा, नीतियां करें बेदखल? आवास और बेदखली से संबंधित कानून, प्रक्रिया और अंतर्राष्ट्रीय कानून

28, Jan 2022 | CJP Team

कई बार लोगों के अधिकारों के लिए कानून ने बाधाएंखड़ीकीहैं, लेकिन ऐसे उदाहरण भी हैंजहाँ अदालतें जबरन बेदखली के खिलाफ और आवास के अधिकार पर ज़ोर देते हुए लोगों को राहत देने के लिए आगे आईंहैं। असम में जबरन बेदखली और हत्या की घटना के मद्देनजर इन अधिकारों को अच्छे से समझने की ज़रूरत है।

बेदखली से बचने का अधिकार,आवास का अधिकार

  1. 1981 में सुप्रीम कोर्ट ने फ्रांसिस कोरेली बनाम केंद्र शासित दिल्ली मामले में कहा था “हम सोचते हैं कि जीने के अधिकार में मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार और उसके साथ जुड़े सभी अधिकार शामिल हैं, जैसे कि जीने के लिये न्यूनतम आवश्यकता ज़रूरी पोषण, कपड़ा एवं सर पर छत, लिखने, पढ़ने और अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त करने की सुविधा, लोगों सेबगैर अड़चन के घुलने-मिलने और आने-जाने का अधिकार। मानवीय गरिमा को ठेस पहुँचाने वाले सभी काम, जीने के अधिकार से वंचित करने वाले काम समझेजायेंगे। सभी काम कानून द्वारा स्थापित तर्क सम्मत और न्यायोचित होने चाहिए जो अन्य मूलभूत अधिकारों की कसौटी पर खरे उतर सकें।

 

इस मुद्दे पर 1985 के ओलगा टेल्लिस बनाम मुंबई नगर निगम केफैसले ने न्यायशास्त्र में मौलिक योगदान किया। बारिश के समय मुंबई की सड़कों पर रहने वाले लोगों को बेदखल करने पर अदालत ने रोक लगायी। अदालत ने कहा ‘हमारा मत है कि पिटीशन करने वालों को मौजूदा मानसून सीजन समाप्तनहींहोने तक यानी 31 अक्टूबर, 1985 तक बेघर लोगों को सड़कों,फुटपाथों और सहायक सड़कों से बेदखल नहीं करना चाहिए। इस बीच सड़क पर 1976 से रहने वाले लोगोंको रहने के लिये वैकल्पिक जगह देने के लिये कदम उठाने चाहिए।इन लोगों को वैकल्पिक जगह देने का प्रस्ताव अच्छी नियत से किया जाना चाहिए, हालांकि इन लोगों द्वारा किये गये अतिक्रमण को हटाने के लिए हम किसी तरह की पूर्व-शर्त का प्रस्ताव नहीं कर रहे हैं। अतिक्रमणकारियों को जबरन बेदखल करके दूसरी जगहों पर बसाने के बाद उस परिवार की रोजी-रोटी की व्यवस्था पूरी तरह तहस-नहस हो जाती है।’ प्रशासन एवं शहरी योजना बनाने वालोंकोयह अनुभव है कि लोगों को जबरन बेदखल करके दूसरी जगहों पर बसाने के बाद अक्सर वो कुछ दिनों के बाद उस प्लॉट को बेचकर अपने मूल-जगह के पास,काम करने कीजगह पर लौट आते हैं। शहरों में अतिक्रमणकारियों की कॉलोनियों को कम करने के लिए ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा करना एवं शहरों में रोजगार के मौजूदा अवसरों को समान रूप से फैलाना सबसे महत्वपूर्ण कदम है। बस्ती एवं सड़कों पर रहने वाले लोगों को बेदखल करने के क्रम में उन्हें दुख, तकलीफ और अपमान का सामना करना पड़ता है, ऊपर से यह तरीका शहरों में भीड़ कम करने में कारगर भी नहीं है।अदालत ने अतिक्रमण को गैर-कानूनी कहा लेकिन उसके अनुसार ऐसा करने वाले लोग जान बूझकर ऐसा नहीं करते हैं,हालात की मजबूरी के कारण वे ऐसा करते हैं न कि अपनी इच्छा से करते हैं। अतिक्रमण एक यातना है लेकिन यातना कीस्थिति में भी अतिक्रमणकारी को बेदखल करने के समय ज़रूरत से ज़्यादा बल प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे भी ज़्यादाज़रूरी है कि बेदखल करने के लिए बल प्रयोग करने के पहलेउसे अतिक्रमण हटाने के लिए उपयुक्त समय और अवसर देना चाहिए।

 

1995 में आवास विकास परिषद बनाम फ़्रेंड्स कूप हाउसिंग सोसाइटी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आश्रय के अधिकार को मूलभूत अधिकार माना। अदालत ने इसे धारा 19(1)ईके तहत सुरक्षित किये गये आवास का अधिकार एवं में जीने के अधिकार की गारंटी देने वाली धारा 21 के साथ जोड़ा। गरीबों के लिए इस अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को उन्हें घर बनाने की सुविधा और अवसर देना चाहिए।

 

1.सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में जी. गुप्ता बनाम गुजरात राज्य और अन्य मामले में इसी तरह का फैसला देते हुए कहा कि धारा 19(1)जी में आश्रय के अधिकार को धारा 19(1)ई  और धारा 21 के साथ जोड़कर पढ़ने से उसमें आवास और बसावटका अधिकार शामिल हो जाता है। धारा 21 के तहत जिंदगी की सुरक्षा की गारंटी दी गयी है जो जीने के अधिकार को सार्थक रूप से उपभोग करने के लिए आवास और बसावटके अधिकार को अपने दायरे में लेताहै।

 

आवास के अधिकार का मतलब सिर्फ सर पर छत का होना ही नहीं है, बल्कि इंसान की तरह जीने और विकसित होने के लिए ज़रूरी सभी आधारभूत साधनों का होना है। आश्रय के अधिकार को जब जीने के अधिकार के लिये आवश्यक समझा जाता है तो मूलभूत अधिकार के रूप में उसकी गारंटी देनी चाहिए। संविधान के निर्देशक सिद्धांत के तहत राज्य को अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार सभी नागरिकों के लिए आवास की गारंटी करनी चाहिए। लोकतान्त्रिक समाज का एक उपयोगी नागरिक होने और उसमें समान रूप से भागीदारी करने के लिए शारीरिक,मानसिक और बौद्धिक क्षमता का विकास करना ज़रूरी है एवं इसके लिए सभी नागरिकों के पास स्थायी आवास होना चाहिए। किसी भी इंसान की गरिमा और समानता के साथ जीने को सुनिश्चित करने का मक़सद उसे सांस्कृतिक रूप से विकसित करना है। बेहतर आवास के बगैर संविधान में दिये गए समानता के अधिकार,आर्थिक न्याय,आश्रय के मूलभूत अधिकार,व्यक्ति की गरिमा और जिंदा रहने के अधिकार जैसे सभी मक़सद विफल हो जातेहैं। दलित और आदिवासियों को यह सुविधा मुहैया करके उन्हें देश की मुख्यधारा में शामिल करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। यह सुविधा इनकामौलिक मानवीय और संवैधानिक अधिकार है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा को साल के अंत में सेंटर फॉर ह्यूमन सैटलमेन्टके कार्यकारी निर्देशक से ‘गरीबों के लिए आश्रय और सेवा – कार्यवाही करने का आह्वान’ शीर्षक से एक रिपोर्ट मिली, इस रिपोर्ट को 42/191 नंबर संकल्प के रूप में ग्रहण किया गया। इस रिपोर्ट में बढ़िया और सुरक्षित आवास को बुनियादी मानव अधिकार के रूप में देखा गया और मानवीय आकांक्षा को पूरा करने में इसकी अहम भूमिका को स्वीकार किया गया। इसमें बताया गया कि रहने की जगह का मैला, गंदा वातावरण स्वास्थ्य और जीवन के लिए हमेशा खतरा बना रहता है और यह राष्ट्र की सबसे बड़ी सम्पदा मानव संसाधन को नुकसान पहुंचाता है।’

  1. दलितों, आदिवासियों और गरीबों को रहने के लिए जगह देना राष्ट्रीय मुद्दा है और संवैधानिक ज़िम्मेदारी है। इस समस्या का हल होने तक इसे हल करने की ज़रूरत बनी रहेगी। राज्य गरीबों को उनके आवास की दयनीय स्थिति से निजात दिलाने और उन्हें बेहतर शौचालय के साथ रहने के लिए अच्छा आवास दिलाने के लिए पैसा खर्च कर रहा है।अधिकारियों द्वारा नोटिस के पहले और नोटिस के बाद की सुस्तीअत्यावश्यक धारा लगाने के अधिकार को अवैध नहीं बना देता है।

 

यहाँ भी कोर्ट पहले से नोटिस पाने के अधिकार को स्वीकृति देता है और जबरन बेदखली के खिलाफ फैसला सुनाता है। अहमदाबाद नगर निगम बनाम नवाब खान, गुलाब खान और अन्य के मामले (1997) में कहता है :

संविधान जिंदगी से वंचित करने या निजी स्वतन्त्रता का हनन करने पर पूरी तरह प्रतिबंध नहीं लगाता है। लेकिन किसी खास परिस्थिति में इस वंचना का तार्किक आधार होना चाहिए, इसे न्याय-सम्मत प्रक्रिया के तहत किया जाना चाहिए। न्याय-सम्मत, उचित और तार्किक प्रक्रिया को महज औपचारिकता का पालन करके पूरा नहीं किया जा सकता। यह प्रक्रिया खास स्थिति के अनुसार व्यावहारिक और वास्तविक होनी चाहिए। सभी मामलों में सुनवाई मेंकठोर नियम और विवेक का उपयोग करने पर ज़ोर नहीं दिया जा सकता। सभी मामलों को उसके अपने संदर्भों में देखा जाना चाहिए। अतिक्रमण हटाने के लिए तुरंत कार्यवाही की ज़रूरत है। लेकिन इसके लिए सक्षम विभाग/अधिकारी को सार्वजनिक जगहों पर अतिक्रमण की घटनाओं पर हमेशा निगरानी रखने को सुनिश्चित करना चाहिए। लेकिन दूसरी ओर निगम किन्हीं कारणों से अतिक्रमणकरियों को किसी जगह पर लंबे समय तक बसने देता है (इसका कारण निगम बेहतर जानता है और कारण को समझना मुश्किल भी नहीं है)तो उस स्थिति में उन्हें वहाँ से हटने के लिए दो सप्ताह या 10 दिन पहले नोटिस देना चाहिए या उस संपत्ति पर नोटिस चिपकाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने गरीबों के लिए सस्ते मकान बनाने के लिये राज्य को निर्देश दिया है। जीने के अधिकार को अर्थपूर्ण बनाने के लिए आवास मुहैया करना संवैधानिक ज़िम्मेदारी है।

 

2005 की माला पेंटाम्मा बनाम निजामाबादनगरपालिका मामले में हैदराबाद उच्च अदालत ने कहा : अतिक्रमण हटाने के पहले अतिक्रमणकारियों को नोटिस देना कानून का स्थापित अवस्थान है एवं आंध्रप्रदेश भूमि अतिक्रमण कानून के प्रावधानों के अनुसार उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बगैर अतिक्रमणकारियों को बेदखल नहीं किया जा सकता।इसलिए प्रतिवादी पालिका का याचिकाकर्ता को नोटिस देने के लिए बाध्यनहीं होने की दलील में दम नहीं है और यह उनके घमंड को दिखाता है।

सुदामा सिंह और अन्य बनाम दिल्ली सरकार मामले में अदालत ने दिल्ली मास्टर प्लान 2021 के बारे में चर्चा करते हुए मौजूदा बस्ती/ झुग्गीवासियों का पुनर्वास और अन्य जगहों पर बसाने की बात कही। सार्वजनिकज़रूरतों के लिए झुग्गी-बस्तियों का पुनर्वास करने और दूसरी जगहों पर बसाने का प्रावधान करने के लिए कहा गया। इसमें मौजूदा जगह पर झुग्गियों को अपग्रेड करने या उन्हें दूसरी जगहों पर ले जाने की स्थिति में अन्य सभी बुनियादी सुविधाओं के साथ  25 वर्ग मीटर का आवास देने का प्रावधान है।

52 याचिकाकर्ताओं ने कई दशक पहले उन जगहों पर झुग्गी बसायीथी जब वहाँ कोई सड़क नहीं थी। हो सकता है कि वहाँ सड़क बनाने की योजना हो लेकिन वहाँ पर बसने वाले लोगों को भविष्य में सड़क बनाने के लिए या मौजूदा सड़क का विस्तार करने के लिए सरकार/निगम को इस जगह की ज़रूरत होने के बारे में अंदेशा नहीं था। जिन लोगों ने मौजूदा सड़क पर झुग्गी नहीं बसायी है उन्हेंपुनर्वास/स्थानांतरण के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। याचिकाकर्ताओं को पुनर्वास के अधिकार से वंचित करना संविधान की धारा 21 के तहत गारंटी किये गये आवास के अधिकार का उल्लंघन है। इस स्थिति में झुग्गीवासियों को दूसरी जगहों पर बसाने को सुनिश्चित किए बगैर उनकी झुग्गियों को हटाना उनकेमौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन करना होगा।

“57”अदालत झुग्गीवालों के साथ “दूसरे दर्जे का नागरिक”की तरह बर्ताव नहीं करने पर ज़ोर देता है। झुग्गी वाले अन्य नागरिकों की तरह जिंदा रहने के सभी ज़रूरी बुनियादी सुविधाओं के हक़दार हैं। झुग्गी वालों को जबरन बेदखल करने और उन्हें स्थानांतरित करने के क्रम में उनकी स्थिति को बदतर नहीं बनाने को सुनिश्चित करना राज्य का संवैधानिक और वैधानिक दायित्व है। झुग्गी वालों को दूसरी जगह पर बसाने के काम को उनकी जिंदगी, आजीविका और गरिमा के अधिकार के साथ सामंजस्य पूर्ण होना चाहिए।

“60” पुनर्वास स्थल पर बुनियादी सुविधाओं की कमी चिंता की बात है। बस्ती उजाड़ने और शहर को सुंदर बनाने के नाम पर अक्सर राज्य की एजेंसियाँ हकीकत में और ज़्यादा बस्ती बनाने की संभावना पैदा करती हैं। इतना फर्क ज़रूर होता है की बस्तियाँ शहर के लोगों की नजरों से दूर हो जातीहैं। बगैर किसी अपवाद के शहर के केंद्र से 30-40 किलोमीटर की दूरी पर पुनर्वास स्थल बसाया जाता है। इन पुनर्वास स्थलों जैसे नरेला और बवाना की स्थिति दयनीय है। पुनर्वास स्थल पर पीने का पानी, नहाने, धोने, शौच करने के लिए पानी, सस्ते सार्वजनिक यातायात सेवा की पहुँच, स्कूल और स्वास्थ्य सेवाओं जैसे बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण झुग्गीवालों की मुसीबतें और बढ़ जातीहैं। ऊपर से रोजी-रोटी कमाने के लियेइन्हें शहर के केंद्र में आना होता है। इसलिए अपनी जगहों से बेदखल किये गयेझुग्गीवासियों की जिंदगी बदतर हो जाती है।

 

2015 में अजय माकन बनाम संघीय भारत सरकार मामले में दिल्ली उच्च अदालत ने विधि सम्मत प्रक्रिया अपनाए बगैर, बेदखली को गैर-कानूनी करार देने पर ज़ोर दिया। अदालत ने कहा कि बेदखल करने का अभियान शुरू करने के पहले विस्तृत सर्वे करना, झुग्गी वालों के साथ सलाह करके पुनर्वास की योजना बनाना और बेदखली के तुरंत बाद झुग्गी वालों के पुनर्वास को सुनिश्चित करना होगा। अन्य एजेंसियों के साथ समन्वय करते हुए पहले दिये गए कदमों को पूरा किए बगैर झुग्गी वालों को बगैर घोषणा के जबरन बेदखल करना कानून के प्रावधानों के विपरीत काम होगा।

“141”में अदालत ने आवास के अधिकार को अधिकारों के समूह के रूप में माना जो सर पर छत होने तक सीमित नहीं है। इसमें आजीविका का अधिकार,स्वास्थ्य का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार, पीने के लिए साफ पानी और नाली तथा यातायात सुविधा का अधिकार शामिल है।

“142”उपरोक्त चर्चा किये गये सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और सुदामा सिंह के मामले में अदालत का फैसला जेजे कॉलोनी में रहने वाले लोगों को सिर्फ गैर-कानूनी कब्जेदार के रूप में देखने के नजरिये को गलत ठहराता है। अदालत इन लोगों को भी अधिकार का हक़दार मानता है। इन फैसलों में रहने के लिए उपयोगी आवास के अधिकार में कई तरह के अधिकारों तक पहुँच को स्वीकृति दी गयी है जिनके द्वारा व्यक्ति शहर में आजादी से जीने में सक्षम हो सके। इन लोगों के पास अधिकार है, इनकी संवैधानिक गारंटी को पूरा करने के लिए इन्हें स्वीकार करने, रक्षा करने और लागू करने की ज़रूरत है। डीयूएसआईबी कानून और 2015 की नीति की यही मुख्य बात है।

“143” जेजे बस्ती और झुग्गी को पुनर्वासन का योग्य मानने के बाद सरकारी विभाग को इन बस्तियों में रहने वाले लोगों को गैर-कानूनी अतिक्रमणकारी समझने का नजरिया छोड़ देना होगा। किसी व्यक्ति को अदालत के सामने जबरन बेदखली को लेकर शिकायत करने और उन्हें गैर-कानूनी अतिक्रमणकारी के नजरिये से नहीं देखने की अपील करने पर आश्रय के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला और सुदामा सिंह मामले में इस अदालत का फैसला आता है। पहले तो सरकारी महक़मे को कानून और नीति के तहत बस्ती और झुग्गी में रहने वाले लोगों के पुनर्वास की पात्रता को तय करना चाहिए। अन्य एजेंसियों के साथ समन्वय करते हुए पहले दिये गए उपायों और शर्तों को पूरा किए बगैर झुग्गी वालों को बगैर घोषणा के जबरन बेदखल करना ऊपर दिये गए फैसलों की कानूनी समझ के विपरीत होगा।

 

आवास नीति

भारत की राष्ट्रीय शहरी आवास और पर्यावास नीति 2007  :  इस नीति में सभी के लिए और खासकर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग,अल्पसंख्यक समुदाय और शहरी गरीबों के लिए सस्ते में आवास मुहैया करने की बात कही गयी है। इस नीति में जमीन, मकान और सेवाओं को सस्ते में समान रूप से पूर्ति सुनिश्चित करना है। इस नीति में शहरी गरीबों को उनकी आज की बसत की जगहों पर या उनके काम की जगहों के आसपास आवास देने को प्राथमिकता दी गयी है, इसी के साथ यह नीति लोगों को अपनी जगहों पर पुनर्वास करने का रुख अपनाती है।

[1] राजीव आवास योजना की घोषणा 2009 में हुईथी। यह योजना अब प्रधानमंत्री आवास योजना के नाम से जानी जाती है। यह आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय की राष्ट्रीय योजना है। इसका उद्देश्य शहरी गरीबों को आश्रय और बुनियादी सेवा मुहैया करके देश से बस्तियों को खतम करना है। यह योजना अलग-अलग रूपों में देश के 20 राज्यों में लागू की जा रही है। राजीव आवास योजना के दिशा-निर्देश 2013-2022 में इस योजना के मुख्य घटकों और संचालन के मूल तत्वों की सूची दी गयी है। राजीव आवास योजना (आरएवाई) में शहरी गरीबों के आवास की स्थिति को सुधारने की संभावना है। यह काम वह शहरी गरीबों के मौजूदा आवास/ क्षेत्र की स्थिति को सुधार करके और गरीब लोगों के आवास की सुरक्षा करने का कानूनी गारंटी देकर कर सकता है। यहज़रूरी है कि राज्य सरकारों को इस योजना के द्वारा किसी भी तरह से बेदखली को बढ़ावा नहीं देने और निजी मुनाफे के लिए सार्वजनिक जमीन पर कब्जा नहीं करने को सुनिश्चित करना चाहिए।

1993में मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम पारित किया गया।यह अधिनियम विएना घोषणापत्र के अनुरूप देश के सभी नागरिकों के मानव अधिकारों की रक्षा करने के लिएभारत सरकार के अंगीकार को दिखाता है। इस अधिनियम के पहले भाग के पहले अनुच्छेद में कहा गया है कि “मानव अधिकार और मूलभूत अधिकार सभी मानवों का जन्म–सिद्ध अधिकार है,इन अधिकारों का संरक्षण और इन्हेंबढ़ावा देना सरकार की पहली ज़िम्मेदारी है”।अधिनियम की धारा 2 (डी)मानव अधिकार को परिभाषित करता है, मानव अधिकार का अर्थ संविधान द्वारा सुनिश्चित किया गया या अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध में समाविष्ट व्यक्ति के जीवन, स्वतन्त्रता, समानता और गरिमा का अधिकार जिसे भारत में न्याय पालिका द्वारा लागू किया जायेगा।

अदालत द्वारा महामारी के समय बेदखल पर रोक लगाना

बेंगलुरु में लॉक डाउन के समय प्रवासी मजदूरों कीबर्बर बेदखली पर कर्नाटक उच्च अदालत ने स्वतःसंज्ञान लिया। अदालत ने प्रवासी मजदूरों के घरों को तोड़ने की घटना को संविधान की धारा 21 में जिंदा रहने के अधिकार के तहत आश्रय के अधिकार पर सीधा हमला कहा।अदालत ने कहा “राज्य सरकार प्रभावित परिवारों को उपलब्ध आश्रय के अधिकार की रक्षा करने के लिए बाध्य थी,संविधान की धारा 21 में इस अधिकार को गारंटी दी गयी है। अदालत ने एक अच्छी मिसाल पेश करते हुए प्रभावित परिवारों को मुआवजा दिया और तोड़े गये घरों को उसी जगह पर बनाने के लियेराज्य सरकार को निर्देश दिया।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली नगर निगम को विवेक का प्रयोग करने और प्रभावित व्यक्तियों को रहने के लिए वैकल्पिक बंदोबस्त किये बगैर पंत नगर में घरों को नहीं तोड़ने का आदेश दिया। अदालत ने टिप्पणी की “झुग्गी में रहने वाले लोगों को ठंड के मौसम में,रहने का कोई वैकल्पिक बंदोबस्त किये बगैर उनके रहने की जगह से हटादेना अकल्पनीय है।

 

राजस्थान उच्च अदालत ने एक अन्तरिम आदेश में राज्य सरकार को किसी भूमिहीन व्यक्ति के रहने की वैकल्पिक व्यवस्था किये बगैर बेदखल नहीं करने का निर्देश दिया। अदालत ने कहा कि जब कोई भूमिहीन सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करता है तो उस आदमी को जमीन और उपलब्ध मकान दिया जा सकता है। लेकिन जब तक ऐसा करना संभव नहीं हो पाता है तब तक उसे बेदखल नहीं करना चाहिए।

 

मार्च, 2020 में मुंबई उच्च अदालत ने सभी नगर आयुक्तों को कुछ विशेष समय के लिए किसीके घर को तोड़ने/बेदखल करने/जब्त की गयी संपत्ति को नीलाम करने पर रोक लगाने के लिए सामान्य दिशा-निर्देश जारी करने पर विचार करने के लिए कहा।  (डब्ल्यूपीऐल) एनओ900/2020)

 

आवास और जमीन अधिकार नेटवर्क (एचएलआरएन)के जबरन बेदखल (फोर्सड एविक्सन)2020रिपोर्ट के अनुसार असम में 20लाख से ज़्यादा परिवार और उसके ऊपर 1लाख 80हजार से ज़्यादालोगों पर विकास परियोजना,अतिक्रमण हटाने की मुहिम जैसे कई कारणों से बेदखल होने का खतरा मंडरा रहा है।रिपोर्ट में कुछ न्यायिक आदेशों केनतीजों का विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट में गोहाटी उच्च अदालत के नीचे दिये गये आदेशों के कारण बड़ी संख्या में लोगों के बेदखल होने का अंदेशा जताया गया है:

▪ जन हित याचिका 78/2012 मामले में गोहाटी उच्च अदालत का आदिवासी पट्टियों से अतिक्रमण हटाने के आदेश से लगभग 1लाख से ज़्यादा लोगों के बेदखल होने का खतरा है।

▪जन हित याचिका 67/2012 मामले में गोहाटी उच्च अदालत का काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान से जमीन खाली करवाने का आदेश 600 परिवारों के लिए खतरा है।

वर्षा के मौसम में असम में भारी बारिश होती है और बाढ़ आना सामान्य घटना है। इस समय जब लोग कोविड महामारी का सामना कर रहे हैं तब लोगों को बेघर करने से उनकी स्थिति बदतर हो जायेगी। यह लोगों को गरिमा के साथ और बगैर किसी भेद-भाव से जीनेके अधिकार को प्रभावित करेगा।

 

बेदखल से संरक्षण देने वाले अंतर्राष्ट्रीय कानून

आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध, धारा 11.1: इस अनुबंध में भागीदारी करने वाले राज्यों के प्रतिनिधि सभी लोगों को अपने और अपने परिवार के लिए मानक जीवन स्तर जीने के पर्याप्त साधन होने के अधिकार को स्वीकार करतेहैं। इसमें पर्याप्त भोजन,पहनावा और मकान शामिल है। इसके साथ जीने की स्थिति में लगातार सुधार होना भी शामिल है। सभी राज्यपक्ष स्वेच्छा से दी गयी सहमति के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के महत्व को समझते हुए इन अधिकारों को पूरा करने के लिए उचित कदम उठायेंगे।

महिलाओं के प्रति सभी तरह के भेद-भाव को खतम करने के लिए सम्मेलन (1979)की धारा 14.2: महिला और पुरुषों में समानता के आधार पर महिलाओं का ग्रामीण विकास में भागीदारी करने और उससे लाभ उठाने को सुनिश्चित करने के लिए सभी राज्य पक्ष ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं के प्रति भेद-भाव को समाप्त करने के लिए समुचित कदम उठायेंगे। महिलाओं को विशेष रूप से आवास,साफ-सफाई,बिजली, पानी की पूर्ति,यातायात और संचार के मामले में पर्याप्त जीवन स्तर उपभोग करने के अधिकार को सुनिश्चित करेंगे।

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूडीएचआर)की धारा 25 में सभी व्यक्ति को संतोषजनक मानक जीवन जीने का अधिकार होने की बात कही गयी है। इसके साथ पहनावा,भोजन, स्वास्थ्य की देख-भाल का उपभोग करने की बात भी शामिल है। महिला और बच्चों की विशेष देख-भाल करने की बात शामिल है। इसमें बेरोजगार होने की स्थिति में सुरक्षा का अधिकार भी दिया गया है।

सभी प्रवासी मजदूर और उनके परिवार के सदस्यों के अधिकारों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की धारा 43 में प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों के आवास के अधिकार पर चर्चा की गयी। यह उन्हें किरायेदार के रूप में शोषित होने से संरक्षण देता है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावास का पर्याप्त आवास का अधिकार तथ्य पत्रक संख्या 21, आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समिति की सामान्य टिप्पणी संख्या 4 (1991),पर्याप्त आवास के अधिकार 7(1997)जबरन बेदखलीसे उद्धृत किया गया है।

पर्याप्त आवास के अधिकार में स्वतन्त्रता शामिल है

इस अधिकार में जबरन बेदखली और घर को तोड़े जाने से संरक्षण, अपने घर, निजता और परिवार में मनमाना हस्तक्षेपों से मुक्त होने का अधिकार, अपने आवास चुनने और रहने की जगह चुनने तथा आने-जाने की स्वतन्त्रता शामिल है।

पर्याप्त आवास के अधिकार में कई अधिकार शामिल हैं

इन अधिकारों में कार्यकाल की सुनिश्चयता,आवास, भूमि और संपत्ति की बहाली,पर्याप्त आवास तक समान और गैर-भेदभावपूर्ण पहुंच,राष्ट्रीय और सामुदायिक स्तरों पर आवास संबंधी निर्णय लेने में भागीदारी।

पर्याप्त आवास का अधिकार भूमि के अधिकार के समान नहीं है। कभी-कभी पर्याप्त आवास के अधिकार को भूमि के अधिकार के समानमाना जाता है। पर्याप्त आवास के अधिकार को हासिल करने में जमीन होने की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। यह बात विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्र में और मूलनिवासियों के लिए सच है। जमीन और संपत्ति से वंचित होने कानतीजा अपर्याप्त आवास या जबरन बेदखली के रूप में हो सकता है।

आवास के मामले में भेदभावपूर्ण कानून, नीति और उपायों के रूप में भेद-भाव सामने आ सकता है।यह जोनिंग नियम, विकास की बहिष्करण नीति, आवास का लाभ लेने से वंचित करना, कार्यकाल सुरक्षा से इनकार, ऋण तक पहुँच की कमी, निर्णय लेने में सीमित भागीदारी या निजी क्षेत्र द्वारा किये गये भेदभावपूर्ण व्यवहार के खिलाफ संरक्षण नहीं होने में दिखता है। गैर-भेदभाव और समानता मौलिक मानव अधिकार का सिद्धांतहै और पर्याप्त आवास के अधिकार का महत्वपूर्ण घटक है। पर्याप्त आवास के अधिकार को अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून में पर्याप्त जीवन स्तर के अधिकार केहिस्से के रूप में मान्यता दी गयी है। इसका पहला संदर्भ मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 25(1) में है।

पर्याप्त आवास के अधिकार को मानव अधिकार के कई अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में मान्यता दी गयी है

▪शरणार्थियों की स्थिति के संबंध में 1951 काकन्वेन्शन (अधिनियम 21)

▪ सामाजिक नीतियों के बुनियादी उद्देश्यों और मानकों पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा 1962 में आयोजित किया गया 117वां कन्वेन्शन (अधिनियम 5(2))

▪ सभी तरह के नस्लीय भेदभाव को समाप्त करने के लिये 1965 में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन (अधिनियम 5(e)(iii))

▪ नागरिक और राजनीतिक अधिकार पर 1966 का अंतर्राष्ट्रीयसमझौता (अधिनियम 17)

▪ महिलाओं के खिलाफ सभी तरहके भेद-भाव को समाप्त करने के लिए 1979 काकन्वेन्शन{अधिनियम 14(2) और 15 (2)}

▪बच्चों के अधिकार पर 1989 की कन्वेन्शन(अधिनियम 16 (1) और 27 (3))

▪ स्वतंत्र देशों के मूलनिवासी और आदिवासियों के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा 1989 में आयोजित 169 वां कन्वेन्शन(अधिनियम 14, 16 और 17)

▪ सभी प्रवासी मजदूर और उनके परिवार के सदस्यों के अधिकारों के संरक्षण के बारे में 1990 काअंतर्राष्ट्रीयकन्वेन्शन(अधिनियम 43 (1)(डी)

▪ दिव्यांगों के अधिकार पर 2006 काकन्वेन्शन(अधिनियम 9 और 28)

मानवाधिकार समझौतों को बहाल करते हुए राज्य अपने अधिकार क्षेत्र मेंइन्हेंलागू करने के लिए बाध्य हैं। इनमें कई समझौतोंको फौरन लागू करने की बाध्यता है, इसमेंबगैर भेदभाव के पर्याप्त आवास का अधिकार लागू करने का वचन देना शामिल है।

आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों केअंतर्राष्ट्रीय अनुबंध में राज्यों को समय के साथ पर्याप्त आवास के अधिकार को पूरी तरह से लागू करने की बाध्यता है। अनुबंध राज्यों के पास संसाधन की कमी रहने की बात को स्वीकार करता है और सभी के लिये पर्याप्त आवास के अधिकार को सुनिश्चित करने में समय लग सकता है।

संयुक्त राष्ट्र ने खोड़ी गाँव (फ़रीदाबाद) में विशेष रूप से महामारी को ध्यान में रखते हुए  सामूहिक निष्कासन को रोकने की सलाह दी। संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकार विशेषज्ञों ने भारत सरकार से 1 लाख लोगों को जिसमें 10000 बच्चे भी शामिल थे, को उनके घरों से बेदखल करने को रोकने को कहा। खोड़ी गाँव, जो हरियाणा राज्य में संरक्षित जंगल की जमीन पर बसा है, वहाँ बारिश के मौसम में 14 जुलाई से लोगों को बेदखल करने का काम शुरू किया गया। हालांकि खनन के कारण से जंगल पहले ही नष्ट हो चुका था।

जबरन बेदखली के बारे में संयुक्त राष्ट्र का नजरिया स्पष्ट है “कारण चाहे जो भी हो जबरन बेदखली को मानव अधिकार का घोर उल्लंघन माना जायेगा और प्राथमिक दृष्टि में इसे पर्याप्त आवास के अधिकार का उल्लंघन भी समझा जायेगा।  बड़े पैमाने पर बेदखली को बहुत ही विरल स्थिति में और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का अनुसरण करने की स्थिति में जायज ठहराया जा सकता है। बेदखल किये जा रहे लोगों के पास कारगर कानूनी संसाधन और कानूनी उपचार होना चाहिए, जिसमे बेदखल के कारण किसी निजी संपत्तिका नुकसान होने पर मुआवजा मिल सके। बेदखल होने के कारण लोग बेघर न हो और वे आगे मानव अधिकार उल्लंघन का शिकार न बने।

 

 

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