गुवाहाटी हाई कोर्ट ने केंद्र से मांगा निर्वासन आदेश, जमानत पर रह रहे लोगों की दोबारा हिरासत पर उठे गंभीर सवाल याचिकाकर्ताओं अब्दुल शेख और मजीबुर रहमान के वकील ने तर्क दिया कि उनकी दोबारा हिरासत, सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई जमानत का उल्लंघन है। अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह गृह मंत्रालय की मई 2025 की निर्वासन अधिसूचना को रिकॉर्ड पर प्रस्तुत करे, ताकि कानूनी औचित्य की जांच की जा सके।

25, Jul 2025 | CJP Team

गुवाहाटी हाई कोर्ट ने 23 जुलाई 2025 को अब्दुल शेख और मजीबुर रहमान की दोबारा हिरासत की वैधता पर गहन सुनवाई की। दोनों को विदेशी न्यायाधिकरणों द्वारा विदेशी घोषित किया गया था और सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल 2020 के सुओ मोटो आदेश (डब्ल्यूपी सिविल संख्या 1/2020) के तहत 2021 में रिहा किया गया था। इन्होंने हिरासत में दो वर्षों से अधिक समय बिताया था और मई 2025 तक नियमित रूप से साप्ताहिक रूप से पुलिस को रिपोर्ट कर रहे थे। फिर भी, उन्हें अचानक, बिना पूर्व सूचना या प्रक्रिया के दोबारा हिरासत में लेकर कोकराझार होल्डिंग सेंटर भेज दिया गया।

सुनवाई में याचिकाकर्ताओं ने दोबारा हिरासत को चुनौती दी और राज्य सरकार के हलफनामे को “अस्पष्ट और अपर्याप्त” बताया। उन्होंने यह भी कहा कि जमानत रद्द करने की कोई प्रक्रिया कभी शुरू ही नहीं की गई थी। अदालत ने चिंता जताते हुए निर्देश दिया कि केंद्र सरकार की 2 मई 2025 की निर्वासन अधिसूचना को अगली सुनवाई से पहले रिकॉर्ड में शामिल किया जाए। मामला अब 25 जुलाई को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध है। दोनों को कानूनी सहायता सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) द्वारा प्रदान की जा रही है।

याचिकाकर्ता के वकील: अवैध हिरासत और अस्पष्ट हलफनामा

याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता मृण्मय दत्ता ने दलील दी कि राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया नया हलफनामा पूरी तरह अस्पष्ट है। उन्होंने विशेष रूप से पैरा 7 का उल्लेख किया, जिसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया कि इन दोनों व्यक्तियों को दोबारा हिरासत में लेने का क्या आधार था।

दत्ता ने कहा कि यह मामला सत्यापन का नहीं, बल्कि हिरासत का है। निर्वासन के लिए तथ्यात्मक या दस्तावेजी सत्यापन हिरासत के बिना भी संभव था, खासकर तब, जब संबंधित व्यक्ति पहले से ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई जमानत पर थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि इनकी रिहाई केवल कोविड के कारण नहीं हुई थी, बल्कि लंबे समय तक हिरासत में रखने के आधार पर की गई थी — और सुप्रीम कोर्ट का आदेश अब भी लागू है।

उन्होंने न्यायमूर्ति कल्याण राय सुराणा और न्यायमूर्ति सुस्मिता फुकन खौंड की खंडपीठ के समक्ष प्रस्तुत किया, “सुप्रीम कोर्ट का आदेश केवल कोविड से संबंधित नहीं था; यह उन सभी लोगों पर लागू होता है जो दो या तीन वर्ष से अधिक समय तक हिरासत में रहे हैं। आदेश आज भी प्रभावी है और इसका उल्लंघन हो रहा है।”

राज्य के वकील: कोविड काल की जमानत अस्थायी थी, अब निर्वासन प्रक्रिया जारी है

राज्य की ओर से विदेशी न्यायाधिकरण (FT) के वकील ने दलील दी कि याचिकाकर्ताओं को पहले अस्थायी रूप से छोड़ा गया था क्योंकि महामारी के कारण निर्वासन रुका हुआ था। अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं और भारत सरकार एवं असम सरकार ने निर्वासन प्रक्रिया शुरू की है, जिसमें उनकी पहचान और नागरिकता की पुष्टि की जा रही है।

वकील ने यह भी कहा कि ये लोग “हिरासत केंद्रों में नहीं बल्कि होल्डिंग सेंटरों में हैं”, और यह हिरासत केवल निर्वासन से पहले सत्यापन प्रक्रिया के लिए है।

हालांकि, न्यायालय संतुष्ट नहीं हुआ।

पीठ ने स्पष्टता की मांग की: “अधिसूचना कहां है?”

खंडपीठ ने राज्य सरकार पर सवाल उठाया कि उसके हलफनामे के साथ कोई अधिसूचना संलग्न क्यों नहीं है, जिससे इन हिरासतों को वैध ठहराया जा सके। अदालत ने टिप्पणी की, “अधिसूचना कहां है? आपने अपने दावे के समर्थन में कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया है।”

न्यायालय ने यह भी माना कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशनों के अनुसार निर्वासन से पूर्व सत्यापन आवश्यक हो सकता है, लेकिन याचिकाकर्ताओं के वकील ने कहा कि केवल सत्यापन की आवश्यकता, हिरासत को न्यायोचित नहीं ठहरा सकती — विशेषकर तब जब व्यक्ति स्थायी जमानत पर हो।

न्यायालय ने गृह मंत्रालय की 2 मई 2025 की अधिसूचना को रिकॉर्ड पर लाने का निर्देश दिया और वकील दत्ता से कहा कि वे राज्य के इस तर्क पर विशेष रूप से जवाब दें कि निर्वासन प्रक्रिया के तहत जमानत पर रह रहे लोगों की हिरासत वैध मानी जा सकती है। अगली सुनवाई 25 जुलाई 2025 को होगी।

यहां पूर्व में हुई सुनवाईयों को देखा जा सकता है

पृष्ठभूमि

अब्दुल शेख और मजीबुर रहमान को असम के विदेशी न्यायाधिकरणों द्वारा विदेशी घोषित कर दो वर्षों से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया था। 2021 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार उन्हें रिहा किया गया, जिसमें यह स्पष्ट था कि लंबी अवधि से हिरासत में रखे गए कैदियों को, जिनका निर्वासन तत्काल संभव नहीं है, रिहा किया जा सकता है।

रिहाई के बाद से दोनों नियमित रूप से अपने संबंधित पुलिस थानों में हाजिरी देते रहे। उनकी अंतिम हाजिरी मई 2025 में दर्ज हुई थी, जिसके बाद अचानक उन्हें बिना कोई आदेश या जमानत शर्तों के उल्लंघन के आरोप के फिर से हिरासत में ले लिया गया और कोकराझार होल्डिंग सेंटर भेजा गया।

यह मामला एक गंभीर संवैधानिक प्रश्न उठाता है: क्या ऐसे व्यक्तियों को, जिन्हें अदालत द्वारा दी गई जमानत के तहत रिहा किया गया है, बिना जमानत रद्द किए दोबारा हिरासत में लिया जा सकता है — केवल इस आधार पर कि राज्य ने निर्वासन प्रक्रिया पुनः आरंभ की है?

25 और 26 जून को हुई पिछली सुनवाईयों में न्यायालय ने माना था कि याचिकाकर्ताओं ने जमानत की शर्तों का पूर्ण रूप से पालन किया था। फिर भी राज्य सरकार ने अपनी कार्रवाई को उचित ठहराने का प्रयास किया कि अब निर्वासन संभव है और हिरासत “तैयारी प्रक्रिया” का हिस्सा है।

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि बिना न्यायिक आदेश के रद्द किए, इस तरह की पुनः हिरासत संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, और यदि राज्य एजेंसियां बिना प्रक्रिया के न्यायिक आदेशों को दरकिनार कर सकती हैं तो इससे पूरी न्यायिक व्यवस्था पर खतरा उत्पन्न होता है।

 

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