सीजेपी की असम से विशेष रिपोर्ट: छह भारतीय महिलाएं, छह भयावह रातें और राज्य द्वारा ‘बांग्लादेशी’ करार दिए जाने की पीड़ा क्या होता है जब राज्य भारतीयों को “बांग्लादेशी” कहकर अपमानित करता है? छह महिलाओं ने अपनी दर्दनाक कहानी साझा की कैसे उन्हें गैरकानूनी तरीके से सीमा पार करा दिया गया और फिर वापस लाया गया लेकिन उन्हें अपने घर का रास्ता खुद ढूंढना पड़ा।

11, Jun 2025 | Nanda Ghosh, CJP Team

अब तक हमें जो जानकारी हैं: 3 जून, 2025

उत्तर पूर्वी राज्य असम में मजदूर वर्ग के हजारों नागरिकों के लिए दस दिन दर्दनाक और रातों की नींद हराम करने वाले रहे हैं। जब असम सीमा पुलिस ने बिना किसी कानूनी प्रक्रिया या वारंट के सभी 33 जिलों में छापा मारा और चुनिंदा तरीके से महिलाओं, बच्चों के साथ महिलाओं, पुरुषों को उठाया और उन्हें अवैध रूप से हिरासत में लिया, इससे पहले कि उनमें से कई को कथित तौर पर अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करके बांग्लादेश की तरफ भेज दिया गया। सीजेपी की पहली एक्सक्लूसिव रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।

एक हफ्ते बाद, यानी रविवार 1 जून को थोड़ा सुकून जरूर महसूस हुआ लेकिन गुस्सा और सदमा अब भी बना रहा। इस बीच ऐसी कई खबरें और स्टोरी सामने आईं कि कैसे कुछ और लोगों को, जिन्हें गैरकानूनी तरीके से बिना कोई वजह बताए हिरासत में लिया गया था, असम के अलग-अलग इलाकों में छोड़ दिया गया। मुआवजे या किसी तरह की भरपाई की तो कोई बात तक नहीं हो रही, जैसे उनके साथ कुछ हुआ ही नहीं।

हर हफ्ते, CJP की समर्पित टीम जिसमें असम के कम्युनिटी वॉलंटियर, डिस्ट्रिक्ट वॉलंटियर और वकील शामिल हैं, वे राज्य के 24 से ज्यादा जिलों में नागरिकता संकट से जूझ रहे लोगों को जरूरी कानूनी सलाह, सहायता और परामर्श देती है। 2017 से 2019 के बीच हमारी जमीनी मेहनत से 12 लाख लोगों ने सफलतापूर्वक NRC के फॉर्म जमा किए। हम हर महीने जिला स्तर पर फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के केस भी लड़ते हैं। इन लगातार कोशिशों की बदौलत हर साल लगभग 20 लोगों को भारतीय नागरिकता दिलाने में सफलता मिल रही है। ये जमीनी आंकड़े CJP को हमारे संवैधानिक अदालतों में मजबूत और तथ्यों पर आधारित दखल करने में मदद करते हैं। आपका सहयोग हमारे इस महत्वपूर्ण काम को पूरा करने में मदद करता है। हमारे साथ मिलकर सभी के लिए समान अधिकारों की इस लड़ाई में शामिल हों। #HelpCJPHelpAssam. Donate NOW!

CJP की टीम के सदस्यों ने उन छह महिलाओं से मुलाकात की और उनकी व्यथा सुनी, जिन्हें किस्मत ने किसी तरह बचा लिया। लेकिन अभी भी दर्जनों लोग ऐसे हैं जिन्हें हिरासत में लिया गया था और वे लापता हैं। अपुष्ट रिपोर्ट के अनुसार, शुरू में जो लोग गायब थे, उनकी संख्या करीब 145 बताई जा रही है।

हाजरा खातून:

करीब 60 साल की हाजरा खातून, कुरपान अली की बेटी और संगसेर अली की पत्नी हैं। वो असम के बारपेटा जिले के भल्लुकी गांव की रहने वाली हैं, जो बारपेटा रोड थाना क्षेत्र में आता है। बंगाली भाषी मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखने वाली डायबिटीज की मरीज हाजरा खातून को 25 मई को असम बॉर्डर पुलिस ने जबरन और गैरकानूनी तरीके से हिरासत में ले लिया। उन्हें एक अनजान जगह पर ले जाया गया।

हाजरा खातून के लिए हिरासत कोई नई बात नहीं थी। उन्हें पहले भी असम के खतरनाक डिटेंशन कैंपों में से एक कोकराझार डिटेंशन सेंटर में रखा गया था और उन्हें 2021 में अस्थायी जमानत पर रिहा किया गया था। उनका केस अब भी गुवाहाटी हाई कोर्ट में चल रहा है। सबसे अहम बात यह है कि गुवाहाटी हाई कोर्ट के निर्देशों के अनुसार उन्हें देश से निकाला नहीं जा सकता था फिर भी उन्हें डिपोर्ट कर दिया गया। CJP ने उनके दस्तावेजों की कॉपी हासिल की है।

25 मई को असम के अलग-अलग इलाकों से दर्जनों लोगों की तरह ही इस गरीब भारतीय महिला को भी पुलिस उठा कर ले गई। उसके बाद से वह लापता थी। परिवार वाले एक हफ्ते से ज्यादा वक्त तक उसे ढूंढ़ते रहे, दर-दर भटके और CJP की कानूनी और पैरालीगल टीम से भी मदद मांगी। फिर भी उनका कोई पता नहीं चल पाया। आख़िरकार 30 मई (शुक्रवार) को जब वह घर लौटी तो CJP के वॉलंटियर्स, जिनमें CJP के राज्य प्रभारी नंदा घोष और एडवोकेट अभिजीत चौधरी भी शामिल थे, उनसे मुलाकात की और उसका इंटरव्यू लिया।

जब CJP की टीम पहली बार हाजरा खातून के घर पहुंची तो पता चला कि उनकी तबीयत खराब है, उन्हें बीपी तेज हो गया था और परिवार वाले उन्हें इलाज के लिए ले गए थे। करीब एक घंटे बाद जब उनकी हालत थोड़ी संभली, तो हाजरा ने अपना दर्द बयां किया, “पुलिस बस यूं ही आ गई और बिना कोई वजह बताए कहा, 25 मई को SP (पुलिस अधीक्षक) के ऑफिस जाना है। मैं घबरा गई। मैंने पूछा, मैं क्यों जाऊं SP ऑफिस?”

हाजरा ने आगे कहा, “वे मुझे यहां से यह कहते हुए ले गए कि, ‘अब और कितने दिन इस तरह हाज़िरी देती रहोगी? ये तुम्हारे लिए भी मुश्किल है और हमारे लिए भी।’ उन्होंने कहा, ‘आज कुछ इंतजाम कर देते हैं, ताकि आगे से तुम्हें बार-बार आने की जरूरत न पड़े और फिर हमें भी कुछ नहीं करना पड़े।’

बस इसी वजह से मैं उनके साथ चली गई।”

हाजरा खातून ने डर और घबराहट भरी आवाज में बताया, “बारपेटा में एसपी ऑफिस से हमें ले जाया गया। मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन वहां तीन-चार बसों में लोग थे। बाद में सिर्फ दो बसें ले गए और दो को वहीं छोड़ दिया गया। बहुत सारे लोग जाना नहीं चाहते थे, लेकिन उन्हें मारा-पीटा गया और जबरन बस में ठूंसकर दरवाजे बंद कर दिए गए। फिर हमें माटिया डिटेंशन कैंप (जिला गोलपारा) ले जाया गया, जो बारपेटा से करीब 91 किलोमीटर दूर है, करीब तीन घंटे की दूरी है। पूरा दिन और रात हमने बिना खाए-पिए वहीं गुजारी। अगले दिन सुबह 10 बजे तक हम अब भी बस में ही बैठे थे। फिर थोड़ी देर बाद हमें बाहर निकाला गया और थोड़ा सा चावल दिया गया। हम इतने डरे हुए थे कि ठीक से खा भी नहीं पाए। फिर हमने सोचा कि अब शायद हमें उस कमरे में बैठने दिया जाएगा जहां हम थे। लेकिन जैसे ही हम बैठे, हमें फिर बुलाया गया, कहा गया कि फोटो खिंचवाना है। हम सब बैग और पैसे वहीं कमरे में छोड़कर फोटो खिंचवाने चले गए, ये सोचकर कि बाद में सब ले लेंगे। लेकिन फोटो लेने के बाद, डिटेंशन सेंटर का गेट फिर से बंद कर दिया गया। इसके बाद हमें जानवरों की तरह बस में ठूंसना शुरू किया गया। हमारे साथ एक टीचर भी थे, जो लगातार जोर-जोर से बोल रहे थे कि महिलाओं के साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया जा रहा है? उन्हें इस तरह क्यों तकलीफ दी जा रही है? वो पुलिस को रोकने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई। उन्हें हमारी आंखों के सामने बुरी तरह पीटा गया, उनकी आंखें ढक दी गईं और हाथ पीछे बांध दिए गए। फिर भी हमें जबरन बस में ठूंस दिया गया।”

हाजरा कांपते हुए बोलीं, “खैरुल मास्टर (शिक्षक खैरुल इस्लाम) को इतनी बुरी तरह पीटा गया कि वो बेहोश हो गए।” फिर उन्होंने आगे कहा, “असम बॉर्डर पुलिस ने हममें से हर एक को एक पैकेट दिया, जिसमें उस देश (बांग्लादेश) की दो करेंसी नोटें थीं। फिर हमें बॉर्डर तक ले जाया गया, बस से उतारा गया और जबरन बॉर्डर पार कराया गया। वो पल इतना डरावना और भयानक था कि बयां नहीं कर सकती।”

हाजरा रोते हुए बोलीं, “उन्होंने हमें कहा, ‘एक शब्द मत बोलना, किसी से कुछ मत कहना।’

कुछ पल चुप रहने के बाद उन्होंने कहा, “हम पूरी रात उस डरावनी जगह पर खड़े रहे- भीगते हुए, भूखे, बॉर्डर पर।”

हाजरा ने आगे बताया, “सुबह बांग्लादेश के लोग और पुलिस हमें देखा। उन्होंने पूछा, ‘तुम भारतीय यहां बांग्लादेश में क्यों घुस आए?’ फिर उन्होंने हमें वापस BSF (भारतीय सीमा सुरक्षा बल) के हवाले कर दिया। इसके बाद दोनों देशों की पुलिस पूरे दिन आपस में बात करती रही, लेकिन हमारे लिए कोई नहीं था, हमारी बात कहने वाला कोई नहीं था। बस हमें इधर-उधर धकेला जा रहा था। हम डर के मारे बस रोते रहे, चिल्लाते रहे- दो देशों की सरहद के बीच (उस ‘नो मैन्स लैंड’ में)। इसी तरह बीते कुछ दिन डर और दहशत में कटे। फिर उसके बाद पुलिस ने हमें पकड़कर एक कैंप में डाल दिया। अगली सुबह, दोनों देशों की पुलिस ने फिर बातचीत की, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। कोई भी हमें अपनाने को तैयार नहीं था!” हाजरा ने आगे कहा, “हमें आज तक नहीं पता कि कैसे और क्यों, लेकिन अचानक हमें वापस भगा दिया गया।”

हाजरा के बेटे ने बताया, “(31 मई, शनिवार की रात) रात करीब 11 बजे हमें खबर मिली कि मेरी मां हाजरा और एक महिला सोना भानु को गोलपाड़ा हाईवे पर देखा गया है। तब मैंने जब्बार भाई (जो यहां के AAMSU के छात्र नेता हैं) को फोन किया। फिर हम गाड़ी लेकर निकले और मां को वहां से लिया।”

सोना भानु:

59 वर्षीय विधवा सोना भानु असम के बारपेटा जिले के बुरीकुमार गांव की रहने वाली हैं। 25 मई को उन्हें भी असम पुलिस ने कथित तौर पर उठा लिया था और तब से वे लापता थीं। 1 जून की रात करीब 11:30 बजे, वे अचानक गोलपाड़ा हाईवे पर दिखाई दीं। सोना भानु की नागरिकता को लेकर विवाद काफी पुराना रहा है। साल 2013 में बारपेटा की फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ने उन्हें ‘विदेशी’ करार दिया था। 2016 में गुवाहाटी हाई कोर्ट ने इस फैसले को बरकरार रखा। हालांकि, 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी। CJP ने उनके सभी दस्तावेजों की कॉपी हासिल की है।

सोना भानु के छोटे भाई असरफ अली ने CJP की टीम से अपनी नाराजगी और दुख जाहिर करते हुए कहा, “हमारे पास सारे जरूरी दस्तावेज हैं, यहां तक कि 1951 की NRC में भी हमारा नाम दर्ज है। हमारे माता-पिता भारतीय हैं और हम सभी भाई-बहन भारतीय नागरिक हैं। तो फिर मेरी बहन को बांग्लादेशी कैसे कह सकते हैं?” उन्होंने पहचान की गलती की तरफ इशारा किया और बताया कि बॉर्डर पुलिस की तरफ से जो नोटिस आया था, वो पहले ‘कमला भानु’ नाम से जारी हुआ था, लेकिन बाद में बिना किसी वजह के नाम बदलकर ‘सोना भानु’ कर दिया गया।”

असरफ अली ने अपनी बहन सोना भानु के साथ हुई परेशानियों को बताया, “बारपेटा की फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ने मेरी बहन को विदेशी घोषित कर दिया था और उन्हें कोकराझार डिटेंशन कैंप में बंद कर दिया गया। उन्होंने वहां 3 साल, 3 महीने और 13 दिन बिताए। इसके बाद उन्हें जमानत पर रिहा किया गया और तब से हर हफ्ते लोकल पुलिस स्टेशन में हाज़िरी देना उनकी जिंदगी का हिस्सा बन गया है।”

सोना भानु ने खुद वो डरावने पल याद किए, उनकी आवाज डर से कांप रही थी। उन्होंने बताया कि कैसे पुलिस या सुरक्षा बल उन्हें जबरन बांग्लादेश की ओर धकेल रहे थे और उन्होंने पूरी एक भयानक रात ‘नो मैन्स लैंड’ में गुजारी। उन्होंने कांपती आवाज में कहा, “पूरी रात जोंकों और मच्छरों ने काटा। बारिश में भीगने से मुझे बुखार आ गया।”  फिर आगे कहा, “हमें डर था कि कहीं वो हमें रात के अंधेरे में गोली न मार दें… कौन जाने क्या हो सकता था?”

भानु के अनुसार, उन्हें उसी समूह के साथ भारत वापस भेजा गया जिसमें खातून भी थीं।

रहीमा बेगम:

करीब 51 साल की रहीमा बेगम, जो असम के गोलाघाट जिले के पदुमोनी गांव की रहने वाली मुस्लिम महिला हैं, हाजरा खातून और सोना भानु के साथ ही उसी समूह में ‘नो मैन्स लैंड’ से लौटकर अपने घर पहुंचीं।

CJP टीम से फोन पर बात करते हुए रहीमा बेगम और उनके बेटे रकिब उद्दीन चौधरी ने उस दर्दनाक अनुभव को साझा किया। सोना और हाजरा की तरह ही रहीमा को भी जबरन बांग्लादेश की ओर धकेल दिया गया। रकिब ने बताया, “25 मई को असम बॉर्डर पुलिस ने मेरी मां से कहा कि उन्हें कुछ सवालों के जवाब देने के लिए थाने आना होगा। सुबह का वक्त उन्होंने वहीं बिताया, फिर उन्हें गोलाघाट एसपी ऑफिस ले जाया गया।” वो आगे बताते हैं, “फिर पुलिस ने मेरी मां के दस्तावेज ले लिए और उनके साथ कुछ और लोगों के फिंगरप्रिंट भी लिए गए।”

“मेरी बहनें और परिवार के बाकी सदस्य पूरे दिन वहीं थे, लेकिन उन्हें मेरी मां से मिलने नहीं दिया गया। देर रात पुलिस मेरी मां को गोलपाड़ा डिटेंशन कैंप ले गई और फिर बॉर्डर की ओर ले जाया गया।”

रहीमा के बेटे ने इस डरावने अनुभव को साझा किया, “जो पुलिसवाले मेरी मां और बाकी लोगों के साथ थे, उन्होंने सबको बांग्लादेशी नोट थमा दिए और कहा कि बॉर्डर पार कर जाओ।” रहीमा ने कहा, “हमारे सामने बस धान के खेत, कीचड़ और पानी था। हमें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें और कहां जाएं।”

उन्होंने आगे बताया, “मैं और बाकी लोग बस धान के खेतों के बीच से पैदल चलते रहे, जब तक एक गांव तक नहीं पहुंच गए। लेकिन वहां के लोगों ने हमें भगा दिया और बॉर्डर फोर्स ने हमें पकड़ लिया, बहुत मारा-पीटा और कहा, ‘जहां से आए हो, वहीं वापस जाओ।” उनके बेटे का कहना है कि उनकी मां के साथ बांग्लादेशी पुलिस ने भी मारपीट की।

जहांआरा बेगम – अशीफा बेगम – साहेरा खातून

जहांआरा बेगम असम के सोनीपुर जिले के बिस्वनाथ चाराली थाना क्षेत्र के डिरिंग पाथर गांव की रहने वाली हैं। उन्हें 25 मई को असम पुलिस ने हिरासत में ले लिया था, लेकिन 29 मई को वे सौभाग्य से घर लौट पाईं, हालांकि ये सफर बेहद सदमे और तकलीफ से भरा रहा। 27 मई को उनके एक परिवार के सदस्य माटिया डिटेंशन सेंटर तक पहुंचे और वहां उन्होंने CJP की टीम से मुलाकात की, जिसमें नंदा घोष, हबीबुल बेपारी, एडवोकेट अशीम मुबारक और एडवोकेट दीवान अब्दुर रहीम शामिल थे। जैसे ही जहांआरा घर पहुंचीं परिवार वालों ने CJP को इसकी जानकारी दी।

CJP से फोन पर बातचीत में जहांआरा बेगम ने अपनी आपबीती सुनाने की कोशिश की, हालांकि उस वक्त वे काफी बीमार थीं। उन्होंने बताया कि उनके साथ दो और महिलाएं थीं – अशीफा बेगम और साहेरा खातून, जो ढेकियाजुली की रहने वाली हैं। इन तीनों को भी जबरन उनके ही देश से बाहर निकालकर ‘नो मैन्स लैंड’ में छोड़ दिया गया था, जहां से वे जैसे-तैसे वापस घर लौट पाईं। इनकी कहानी भी हाजरा खातून और सोना भानु की आपबीती जैसी ही है।

अनजान लोग: हाजरा और सोना भानु ने CJP को बताया कि जब उन्हें रात में गोलपाड़ा वापस लाया गया था, तो उनके साथ पांच अन्य पुरुष भी थे। यानी उनके समूह में कुल सात लोग थे, जिनमें हाजरा और सोना भी शामिल थीं। लेकिन उन्हें उन बाकी लोगों के नाम या पहचान का कोई पता नहीं है।

इसी बीच, CJP ने रिपोर्ट किया की है कि मोरिगांव के शिक्षक खैरुल इस्लाम, जिन पर माटिया डिटेंशन सेंटर में असम बॉर्डर पुलिस ने बेरहमी से पिटा था, वे शुरू में उस 14 सदस्यों वाले समूह का हिस्सा थे जिन्हें ‘नो मैन्स लैंड’ में जबरन भेज दिया गया था। उस घटना के बाद, बांग्लादेशी सुरक्षा बलों ने उस समूह को दो हिस्सों में बांट दिया, हर हिस्से में सात-सात लोग थे और खैरुल इस्लाम उस दूसरे समूह में थे। रहीमा ने CJP को यह भी बताया कि उनके साथ नो मैन्स लैंड से जोधा पुलिस स्टेशन एक और महिला भी वापस लाई गई थी लेकिन उनका नाम वह नहीं जानती।

राज्य अधिकारियों की गैरजिम्मेदारी के स्तर को देखते हुए, मानवाधिकार संगठनों और पीड़ित समुदाय को मिलकर ही इस त्रासदी के पैमाने का आकलन करने के लिए सामुदायिक तरीकों का इस्तेमाल करना पड़ता है।

माटिया डिटेंशन कैंप से रिहाई:

इसी बीच, CJP की टीम सदस्य ज़ेस्मिन सुल्ताना ने बताया है कि एक और इसी तरह के मनमाने हिरासत के शिकार, रहीम अली, जिन्हें माटिया डिटेंशन कैंप में 29 मई से रखा गया था, उन्हें 31 मई को दो दिन की हिरासत के बाद उनके घर गोलपाड़ा भेज दिया गया। उनकी पहचान है रोहीम (रहीम) अली, पिता का नाम डोबिराम संगमा, माता जेलमिश मारक है जो कि क्रिश्चियन गारो जनजाति से ताल्लुक रखते हैं। वे कृष्णई के गांव पैकन पीटी-1 के निवासी हैं।

घटना का परिचय:

23 मई, 2025 की रात से असम पुलिस ने पूरे 33 जिलों में बड़े पैमाने पर छापेमारी शुरू की। लगभग 300 लोगों को बिना कोई सूचना या कानूनी आधार के हिरासत में लिया गया। परिवारों और वकीलों को हिरासत में लिए गए लोगों की जानकारी नहीं दी गई, जो संवैधानिक और कानूनी नियमों का उल्लंघन है। जहां लगभग 150 लोगों को बाद में रिहा किया गया, वहीं अपुष्ट रिपोर्ट के अनुसार करीब 145 लोग जो अपने नागरिकता अधिकारों के लिए लड़ रहे थे उनको जबरन भारत और बांग्लादेश के बीच ‘नो मैन्स लैंड’ में जबरन भेज दिया गया। इनमें वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें विदेशी घोषित किया गया था, जो जमानत पर रिहा थे और जो अपने नागरिकता के फिर से बहाली के लिए मुकदमा लड़ रहे थे।

ध्यान देने वाली बात यह है कि कोई औपचारिक निर्वासन आदेश या द्विपक्षीय पुनर्वास समझौता सार्वजनिक नहीं किया गया है, जिससे प्रभावित परिवारों की स्थिति अनिश्चित बनी हुई है।

एक तरफ जहां कई लोग लापता हैं, वहीं दूसरी तरफ पुलिस और प्रशासन के किसी भी अधिकारी ने अब तक उन परिवारों को कोई जानकारी नहीं दी है जिनके अपने लोगों को पुलिस उठा कर ले गई थी।

कई पीड़ित परिवारों ने शिकायत की कि उन्होंने थाने में जाकर FIR दर्ज करवाने की कोशिश की, लेकिन पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की। इसके बाद मजबूर होकर उन्होंने अपनी शिकायत स्थानीय SP को डाक के जरिये भेजी।

यह उल्लेखनीय है कि CJP असम टीम ने यह ज्ञापन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को सौंपा है, जिस पर CJP असम टीम के सदस्यों, कानूनी टीम के सदस्यों और ‘फोरम फॉर सोशल हार्मनी’ के मुख्य संयोजक के हस्ताक्षर हैं।

इस बीच, हालांकि कोई बड़ा विरोध नहीं हुआ है, लेकिन असम के आम लोगों में काफी गुस्सा है।
लोगों के बीच इस बात को लेकर चर्चा हो रही है कि आखिर ये आदेश किसने जारी किए और क्यों भारतीय नागरिकों को चाहे उनकी नागरिकता पर विवाद ही क्यों न हो, इस तरह छुपाकर और गुपचुप तरीके से बांग्लादेश भेजा गया?  अगर इनमें से कुछ लोग सचमुच बांग्लादेशी थे, तो फिर केंद्र सरकार द्वारा हाल ही के ‘राजुबाला केस’ में तय किए गए निर्वासन के नियमों का पालन क्यों नहीं किया गया? और अगर वे बांग्लादेशी थे, तो फिर बांग्लादेश ने उन्हें स्वीकार क्यों नहीं किया? सबसे गंभीर सवाल यह है कि जो लोग अब भी लापता हैं, वे कहां हैं? और उन आम भारतीय नागरिकों पर जो मानसिक और शारीरिक यातनाएं झेलीं उसका जिम्मेदार कौन है और उसका हिसाब कौन देगा?

 

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