भीमा कोरेगाँव मामला: मुंबई उच्च न्यायालय ने सुधा भारद्वाज को क्यों जमानत दी और सह-अभियुक्तों की जमानत अर्जी क्यों ख़ारिज़ की? गैर-कानूनी गतिविधि निवारक कानून (यूएपीए) में आरोप-पत्र का संज्ञान लेने में असमर्थता अभियुक्त को डिफाल्ट जमानत देने के लिए पर्याप्त नहीं है
17, Jan 2022 | CJP Team
दिसम्बर 1, 2021, को मुंबई उच्च न्यायालय ने एक विस्तृत आदेश में वकील और कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज को भीमा कोरेगाँव मामले में जमानत दी, लेकिन उसी आदेश में शुद्ध रूप से तकनीकी आधार पर इस मामले के अन्य आठ अभियुक्तों को जमानत देने से इनकार कर दिया। भारद्वाज की जमानत अर्जी काआधार सह-अभियुक्तों द्वारा उठाए गए आधार से अलग था। सुधा की दलील से न्यायाधीश एस.एस शिंदे और एन.एल जामदार की खंडपीठ सहमत थी और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया।
पीठ ने रोना विल्सन, सुरेन्द्र गाडलिंग, सुधीर धावले, सोमा सेन, महेश राऊत, वरवरा राव, वरनन गोंनजालवेस और अरुण फ़रेरा की जमानत अर्जी को उनके द्वारा आरोप पत्र दाख़िल होने से पहले एवं 90 दिनों की कैद का समय समाप्त होने के बाद जमानत अर्जी नहीं डालनेके बुनियादी आधार पर ख़ारिज कर दिया। जबकि भारद्वाज ने बहुत पहले जमानत की अर्जी डाली थी और अदालत ने राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) का सुधा द्वारा समय से पहले जमानत अर्जी डालने का तर्क मानने से इनकार कर दिया।
पृष्ठभूमि
दिसम्बर 31, 2017 को एलगार परिषद द्वारा आयोजित कार्यक्रम के संबंध में तुषार डामगुडे ने 8 जनवरी, 2018 को एफआईआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दायर किया था। जाँच के क्रम में छापेमारी कीगयीऔर 28 अगस्त को सुधा भारद्वाज,वरवरा राव, गौतम नवलखा,वरनन गोंनजालवेस और अरुण फ़रेरा को पुणे पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किया गया था। 24 जनवरी, 2020 को केंद्र सरकार ने जाँच को एनआईए के सुपुर्द कर दिया और उसने 9 अक्टूबर, 2020 को भारतीय दंड संहिता की अलग-अलग धाराओं और यूएपीए की धारा के तहत आरोप पत्र दाख़िल किया।
भारद्वाज की दलील
सुधा भारद्वाज नेडिफाल्ट जमानत के लिए अपील किया जिसमेंउन्होंने यूएपीए की धारा 43-डी (2) के तहतजाँचकी अवधि बढ़ाने एवं उन लोगों पर आरोप का संज्ञान लेने में न्यायाधीश के कानूनी रूप से सशक्त नहीं होने की दलील दी। डिफाल्ट जमानत के लिए सुधा की अपील में कहा गया कि पुणे के अतिरिक्त सेशन न्यायाधीश के.डी वड़ाने ने 21 फरवरी, 2019 को यूएपीए की धारा 43-डी (2) के तहत अभियोजन द्वारा दायर रिपोर्ट के आधार पर उनकी कैद की अवधि को 90 दिन तक बढ़ाने एवं अपराध का संज्ञान लेने का आदेश दिया। न्यायाधीश के.डी वड़ाने एनआईए कानून की धारा 11 या धारा 22 के तहतविशेष न्यायाधीश के रूप में नामित नहीं होने के कारण ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं।
अन्य अभियुक्त एवं उनकी दलीलें
अन्य आठ सह-अभियुक्त जिन्हें जमानत नहीं दी गयी, ने तर्क दिया था कि5 सितंबर, 2019 को उनकी जमानत अर्जी ख़ारिज करने का आदेश कानूनन बुरा है, इस केस को विद्वान दंडाधिकारी ने प्रतिबद्ध नहीं किया था, इसलिए न्यायाधीश को मूल अधिकार क्षेत्र के न्यायालय के केस का संज्ञान लेने का अधिकार नहीं है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा था कि यूएपीए में विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति या विशेष न्यायालयों के गठन के लिए कोई प्रावधान नहीं है। इस प्रकार, विशेष न्यायाधीश के मिथ्या नाम के तहत अतिरिक्त सत्र न्यायाधीशों द्वारा क्षेत्राधिकार की धारणा पूरी तरह से अवैध थी।
एनआईए का तर्क
एनआईएने तर्क दिया कि एनआईए के कानून और यूएपीए के कानून की ग़लत व्याख्या के आधार पर भारद्वाज ने जमानत के लिए अपील किया है। यूएपीए के तहत परिभाषित अपराध के लिये किसी विशेष प्रक्रिया पर विचार नहीं किया गया है, विशेष अदालत का गठन करनेका तो सवाल ही नहीं उठता। संहिता के तहत काम करने वाले सामान्य आपराधिक न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को बरकरार रखा जाता है और उसके निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना जरूरी है। उसने तर्क दिया कि केंद्र सरकार ने एनआईए कानून की धारा 11 के तहत पुणे में किसीअदालत का गठन नहीं किया है, इसलिए सत्र न्यायाधीश द्वारा रिमांड पर विचार करने और हिरासत को अधिकृत करने में किसी तरह का कानूनी अड़चन नहीं था।
जिन सवालों पर विचार किया गया
अदालत द्वारा विचार के लिये तैयार किये गये सवाल नीचे दिये गये हैं:
- यूएपीए की धारा 43-डी (2) के प्रावधानों के पहले प्रावधान का हवाला देकर और धारा 167 (2) को एक साथ रखते हुए जाँच और हिरासत की अवधि बढ़ाने का आदेश क्या किसी सक्षम अदालत ने दिया था?
- क्या किसी सक्षम अदालत के सामने आरोप पत्र को प्रस्तुत किया गया था और उसका संज्ञान लिया था?
- ऊपर दिये गए सवालों का जवाब अगर ना है तो क्या अर्जी डालने वाले डिफाल्ट जमानत के हकदार हैं?
यूएपीए और एनआईए कानून में अदालत की परिभाषा
अदालत ने यूएपीए की “अदालत” की और एनआईए अधिनियम में “अनुसूचित अपराधों” की परिभाषा का विश्लेषण किया। एनआईए अधिनियम की धारा 6 और धारा 10 को एक साथ पढ़ने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एजेंसी द्वारा जाँच अपने हाथ में लेने से पहले तक पुलिस को जाँच और किसी अनुसूचित अपराधों पर मुक़द्दमा चलाते रहना चाहिए। एजेंसी के पासजाँचचले जाने के बाद पुलिस का अधिकार समाप्त हो जाता है। हालांकि अदालत ने एनआईए कानून के प्रावधानों का उसके द्वारा जाँच अपने हाथों में लेने के बाद ही लागू होने की दलील को मानने से इनकार किया। अदालत ने कुछ फैसलों केआधार परकहा कि एनआईए अधिनियम में एनआईएद्वारा जाँच को अपने हाथ में लेने से पहले अनुसूचित अपराधों के लिए उसके द्वारा तय किया गया अदालत का अधिकार नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि अपराधपर मुक़द्दमा चलाने के लिए कानून के तहत अधिकार क्षेत्र वाले आपराधिक न्यायालय यूएपीए के तहत नज़रबंदी की अवधि बढ़ाने के लिए सक्षम हैं।
अदालत की मुख्य टिप्पणियाँ
अदालत की टिप्पणियाँ नीचे दी गयीहैं:
- 1. राज्य की जाँच एजेंसी द्वाराजाँचकिये गयेकिसी भी अनुसूचित अपराध के मुक़दमेंको राज्य सरकार द्वारा गठिट किये गये विशेष अदालत में चलाना चाहिए।
- केंद्र सरकार द्वारा गठित अदालत की तरह राज्य सरकार की अदालत पर भी गैर-अवरोधक धारा लागू होती है।
- एनआईए अधिनियम की धारा 22(3) के तहत राज्य सरकार द्वारा विशेष अदालत नामित करने के पहले उसके अधिकार क्षेत्र का प्रयोग सत्र न्यायालय द्वारा किया जायेगा।
- एनआईए अधिनियम की धारा 22(1) के तहत राज्य सरकार द्वारा विशेष अदालत का गठन करने के बाद एनआईए अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार राज्य की एजेंसी द्वारा जाँच किये जा रहे अपराधों के मुक़दमे विशेष अदालत में स्थानांतरित हो जाएंगे।
- यूएपीए की धारा 2(1)(डी) के तहत परिभाषित इस तरह की विशेष अदालत का गठन हो जाने के बादयूएपीए के तहत सभी अपराधोंके मुक़दमें सिर्फ विशेष अदालत में होंगे।
6.सभी अनुसूचित अपराधों के मुक़दमें सिर्फ एनआईए अधिनियम के तहत गठित विशेष अदालत में चलेंगे और 7 साल तक की सजा वाले अपराधों में किसी तरह का प्रतिबंध नहीं है।
- यूएपीए के धाराओं के तहत किए गए अपराधों के लिए हिरासत अवधि बढ़ाना दंडाधिकारी के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। इसके लिए सिर्फ विशेष अदालत या उसकी अनुपस्थिति में सत्र अदालत ही सक्षम अदालत है।
अदालत ने दोहराया कि विशेष अदालत के नहीं होने की स्थिति में सिर्फ सेशन अदालत न किमजिस्ट्रेट की अदालत संज्ञान ले सकता है। अदालत ने कहा : “इस दृष्टिकोण में, एनआईए अधिनियम की धारा 22(1) के तहत राज्य सरकार द्वारा गठित विशेष अदालतों को केवल “ट्रांसफ़री” अदालत के रूप में माना गया था।राष्ट्रीय जाँच एजेंसी द्वाराजाँच को राज्य सरकार को स्थानांतरित कर देने की स्थिति में इसे मामले की सुनवाई करने के लिए कहा गया था। यहदलील कानून के अनुरूप नहींहै।
अदालत में प्रतिवादी राज्य सरकार एवं एनआईए ने दलील दिया कि विशेष अदालत में अभियुक्त पर आरोप लगने के बाद मुक़दमा चलता है न कि मुक़दमा शुरू होने से पहले विशेष अदालत उसका संज्ञान लेता है। अदालत ने कहा कि मुक़दमा-पूर्व और मुक़दमें के स्तर पर फर्क करने की कोशिश में कोई दम नहीं है क्योंकि यूएपीए में हिरासत की अवधि बढ़ाने का अधिकार अदालत को सौंपा गया है। इसका मतलब विधायिका ने हिरासत बढ़ाने का अधिकार अदालत को दिया है और वह यूएपीए के तहत किए गए अपराधों पर मुक़दमा चलाने के लिए सक्षम अदालत है।
हिरासत अवधि बढ़ाने का अधिकार
एनआईए अधिनियम की धारा 22 के तहत पुणे में विशेष अदालत का गठन होने के बाद क्या सत्र अदालत को यूएपीए के तहत नज़रबंद की अवधि बढ़ाने का अधिकार है?अदालत ने इस बात पर ज़ोर दिया किनज़रबंदी की अवधि को 180 दिन तक बढ़ाने के लिए सिर्फ सरकारी अभियोजक द्वारा प्रस्तुत कीगयीजाँच रिपोर्ट से जाँच में प्रगति होने और 90 दिन से ज़्यादा हिरासत की ज़रूरतके लिए बताये गये विशिष्ट कारणों से संतुष्ट होने पर ही अदालत इस अधिकार का प्रयोग कर सकता है। अदालत ने कहा:
“नज़रबंदी की अवधि बढ़ाने के अधिकार को रूटीन कार्यवाही के रूप में उपयोग नहीं करना चाहिए। जाँच और नज़रबंदी की अवधि बढ़ाने की ज़रूरत पर अदालत से अपने विवेक का उपयोग करने की अपेक्षा की जाती है। इसका अर्थ यह है कि यह अधिकार सिर्फ उसी अदालत को सौंपा गया है जिसका अधिकार क्षेत्र इस कानून में विशेष रूप से अंतर्निहित है।
अदालत ने कहा कि एनआईए अधिनियम की धारा 22 के तहत पुणे में विशेष अदालत का गठन नहीं होने की स्थिति में पूरी तरह से अलग विषय पर गौर करना पड़ता। हालांकि उस समय पुणे में विशेष अदालत मौजूद रहने के बाद भी अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा नज़रबंदी की अवधि बढ़ाने को बगैर अधिकार क्षेत्र का ही कहा जा सकता है।
अदालत ने फतेमा बीबी अहमद पटेल बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य को उद्धृत किया। अदालत द्वारा अधिकार क्षेत्र से बाहर की गयी कार्यवाही कानून के नज़र में शून्य ही है।
अदालत ने इस सवाल पर भी विवेचना कीकि कानूनी रूप से न्यायाधीश के अधिकार क्षेत्र के बाहर होने के बावजूद उनके द्वारा उसका संज्ञान लेने से क्या पूरी कार्यवाही प्रभावित होती है?अदालत ने कहा कि संहिता इसे अनियमितता के रूप में देखती है जो पूरी प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करती है। “पुणे में विशेष अदालत के अस्तित्व में रहते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा अनुसूचित अपराध का संज्ञान लेने के तथ्य के मद्देनज़र न्याय के व्यर्थ होने की बात सही नहीं है क्योंकि यह दिखाने के लिए सामग्री नहीं है। इसे इतना बढ़ाकर नहीं देखना चाहिए जिससे किजाँच एजेंसी द्वारा प्रस्तुत किये गये आरोप पत्र भी कानून कीनज़र में ग़लत लगने लगे।
क्या प्रार्थी जमानत की हकदार हैं?
अदालत ने भारद्वाज द्वारा 90 दिन कीनज़रबंदी की अवधि के पहले जमानत अर्जी देने एवं शेष 8 प्रार्थियों द्वारा पूरक आरोप पत्र दाख़िल करने के बाद जमानत की अर्जी लगाने की विवेचना की। इन आठों में से किसी ने भी 90 दिन के शुरुआती अवधि समाप्त होने और आरोप पत्र दाख़िल करने के पहले जमानत की अर्जी नहीं लगायी, इसलिए इन्हें डिफ़ाल्ट जमानत का हकदार होने की बात को छोड़ देनी चाहिए।हालांकि अदालत ने प्रतिवादी द्वारा भारद्वाज भारद्वाज की जमानत की अर्जी को समय से पहले डालने के आधार पर डिफाल्ट जमानत का अधिकार नहीं होने के तर्क को मानने से इनकार किया। यह घर में नज़रबंदी के समय को नज़रबंदी के रूप में स्वीकार नहीं करने के बावजूद भी मान्य नहीं होगा।
डिफाल्ट जमानत का अधिकार
अदालत ने कहा कि नज़रबंदी की अवधि समाप्त हो जाने के बाद आरोपी ने एक आवेदन करके अधिकार का लाभ उठाने का इरादा प्रकट किया है। इस अपरिहार्य अधिकार को हराने के लिए किसी तरह का छल नहीं किया जा सकता है। अदालत ने आगे कहा:
“संहिता की धारा 167 के तहत निर्धारित अवधि के भीतर यदि जाँच पूरी नहीं हुई है और आरोप पत्र नहीं दाख़िल किया गया है तो निर्णयों की एक श्रृंखला के द्वारा, आरोपी को जमानत पर रिहा करने का अधिकार है।विशेष अधिनियम का उल्लंघन अक्षम्य है औरइसमेंभारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ से निकलने वाले मौलिक अधिकार के चरित्र भी शामिल हैं।”
अदालत ने विशेष तौर पे कहा:
निर्धारित अवधि के भीतर आरोप पत्र दाख़िल करने में चूक और डिफ़ाल्ट जमानत के लिए आरोपी की कार्यवाही की शर्त पूरा हो जाने के बाद संहिता की धारा 167(2)वैधानिक अधिकार बन जाता है। इस स्थिति में हिरासत अवधि बढ़ाना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सुनिश्चित किये गये व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का उल्लंघन है। अदालत ने दोहराया कि भारद्वाज के मामले में सत्र न्यायाधीश के पास यूएपीए की धारा 43-डी(2)(बी) के तहत हिरासत की अवधि बढ़ाने की कोई अधिकारिता नहीं थी। अदालत ने यह कहा कि :
चूंकि हिरासत की अवधि को विद्वान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 90 दिनों के लिए बढ़ा दिया था, इसलिए आवेदक-सुधा भारद्वाज 25 जनवरी 2019 के बाद आरोप-पत्र के आने तक डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए आवेदन नहीं कर सकती थी। इसलिए, यह दलील नहीं दीजा सकती है कि आवेदक-सुधा भारद्वाज ने उक्त अवधि के दौरान आवेदन नहीं किया और इस प्रकार उसने डिफ़ॉल्ट जमानत के अधिकार का लाभ नहीं उठाया।
अदालत ने नवंबर 2018 में सुधा कीजमानत अर्जी दाख़िल करने को ‘पूर्व परिपक्व’ नहीं माना क्योंकि ऐसा करना बहुत तकनीकी और औपचारिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। अदालत ने कहा, “हमारे विचार में, आवेदक-सुधा भारद्वाज को डिफ़ॉल्ट जमानत पर रिहा करने के लिए सभी आवश्यक शर्तें पूरी तरह से मौजूद थीं।”
सह अभियुक्तों को जमानत क्यों नहीं दिया गया?
शेष आवेदकों के बारे में अदालत ने कहा किउन्होंने डिफाल्ट जमानत के लिए आरोप पत्र दाख़िल होने से पहले एवं 90 दिन की हिरासत ख़त्म होने के बाद अर्जी नहीं डाली। आरोपियों ने दूसरी दलील भी प्रस्तुत की जिसके अनुसार सक्षम अदालत द्वारा बिना संज्ञान लिए उन्हें 180 दिन से ज़्यादा हिरासत में रखा गया। उनका तर्क था कि विद्वान मजिस्ट्रेट द्वारा केस को प्रतिबद्ध किये बगैर सत्र न्यायाधीश केस का संज्ञान नहीं ले सकता।
हालांकि अदालत ने कहा कि आरोपीडिफाल्ट जमानत के लिए अर्जी डालने में उस समय चूक गए जब वे इसके हक़दार थे। इसके बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया। इस कारण से डिफ़ाल्ट जमानत का अधिकार समाप्त हो गया क्योंकि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आरोपियों ने डिफ़ाल्ट जमानत पर छूटने के अधिकार का प्रयोग किया था। अदालत ने कहा :
“नतीजतन अधिकार लेने की महत्वपूर्ण शर्त जो इसे अपरिहार्य अधिकार बना देता है, पूरा नहीं हुआ एवं 21 फरवरी, 2019 को आरोप पत्र केदाख़िल होने के साथ समाप्त हो गया। आरोप पत्र दाख़िल हो जाने के बाद संज्ञान लेने में विफलता या संज्ञान लेने में अधिकार क्षेत्र में दोष का परिणाम डिफ़ाल्ट जमानत नहीं हो सकता।
अदालत ने भारद्वाज की जमानत को मंजूर किया और उन्हें मुंबई में एनआईए की विशेष अदालत में 8 दिसम्बर को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया ताकि अदालत उन्हें कुछ नियम और शर्तों के साथ रिहा करने का आदेश दे सके।
पूरा फैसला यहाँ पढ़ा जा सकता है :
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