भारत की शरणार्थी नीति अस्पष्ट क्यों है? इस संबंध में संवैधानिक कोर्ट्स में अनेक व्याख्याएं प्रचलित हैं जबकि कार्यवाही के स्तर पर बुनियादी अधिकार मिलने का रास्ता काफ़ी मुश्किल है.
28, Aug 2023 | CJP Team
भारत विविध बहुलताओं वाले दक्षिण एशियाई क्षेत्र का केन्द्र है जिसने आज़ादी के बाद के दशकों में शरणार्थियों का खुला स्वागत किया है. लेकिन इसी बीच शरणार्थियों की समस्याओं के प्रति भारत की प्रतिक्रिया और म्यांमार और बंग्लादेश के पड़ोसी राज्यों से आने वाले शरणार्थियों के लिए नीति में एक अहम बदलाव आया है. ताज़ा नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 में हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय से नाता रखने वाले लोगों के लिए नागरिकता के भेदभाव वाले प्रावधानों का उल्लेख किया गया है. इनमें से अधिकतर अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश (इस्लामिक देश) में धार्मिक उत्पीड़न का शिकार लोग हैं. इसके साथ ही इस एक्ट में इन शरणार्थियों के प्रति भारत की नीति में बदलाव का भी उल्लेख है. हाल ही में बंग्लादेश और मिज़ोरम-बंग्लादेश बार्डर के कुकी-चिन शरणार्थियों के समूह ने सीमा सुरक्षा बल से मुलाक़ात की और इन शरणार्थियों से इलाक़ा छोड़ने को कहा गया क्योंकि उन्होंने ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से प्रवेश लिया था.
इस लेख में भारत की शरणार्थी नीति का विवरण पेश किया गया है. शरणार्थियों के अधिकार न सिर्फ़ अहम बल्कि अंतर्राष्ट्रीय और सीमा पार महत्व के विषयों में शुमार होते हैं जिसमें क़ानून के तय पैमानों का इस्तेमाल उपयोगी मगर पेचीदा है. हमें शरणार्थियों के लिए तय अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों को समझने की ज़रूरत है जिन्होंने भारत सहित सभी देशों का मार्गदर्शन किया है. इसके साथ ही हमें ये भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत ने 1951 के शरणार्थियों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के मसौदे पर हस्ताक्षर नहीं किया था और भारत के पास ऐसी कोई राष्ट्रीय क़ानूनी नीति नहीं है जो शरणार्थियों के अधिकारों से तय करती हो.
अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी क़ानून
1951 के UN कंवेन्शन ऑफ़ रिफ़्यूजीज़ UN Convention on Refugees और 1967 के प्रोटोकॉल रिलेटेड टू द स्टेटस ऑफ़ रिफ़्यूजीज़ 1967 Protocol related to the Status of Refugees अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी क़ानून के दो मज़बूत स्तंम्भ हैं. ये दोंनो अंतर्राष्ट्रीय मसौदे शरणार्थी नीति के मुख्य सिद्धांतों को तय करते हैं जिसका अन्य देशों द्वारा पालन किया जाता है.
शरणार्थी का अर्थ है अपने मूल देश के बाहर ऐसे लोग जिन्हें सैनिक संघर्ष, हिंसा या गंभीर जन आक्रोश के कारण अपने मूल देश में जीवन, शारीरिक संप्रभुता और आज़ादी पर ख़तरा होता है और जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा की ज़रूरत होती है.
शरणार्थियों के प्रति भारत का व्यवहार क़ानूनी नज़रिए से नहीं समझा जा सकता है क्योंकि इस बारे में क़ानूनों का अभाव है. हालांकि शरणार्थियों से संबंधित अलग अलग निर्णय और मिसालों से इस मामले का कुछ संज्ञान लिया जा सकता है.
अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी क़ानूनों में अवापसी (Non-Refoulement) के सिद्धांत और अन्य तत्व
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों के मुताबिक़ अवापसी का सिद्धांत ये गारंटी देता है कि किसी को भी उस देश में नहीं लौटाया जाएगा जहां उसे उत्पीड़न, क्रूरता, अमानवीय अपमानजनक व्यवहार, दण्ड या विकराल नुक़सान का सामना करना पड़ सकता हो. 1951 के संकल्प के आर्टिकल 33 में ये प्रावधान दर्ज किया गया है. इसके अलावा इस समझौते के आर्टिकल 3 में कहा गया है कि कि समझौते में शामिल पक्ष शरणार्थियों में मज़हब, नस्ल या देश के आधार पर भेदभाव नहीं करेंगे. इसी समझौते के आर्टिकल 31 के अनुसार समझौते में शामिल पक्ष अवैध रूप से क्षेत्र में दाख़िल होने वाले ऐसे शरणार्थियों पर कोई पेनाल्टी नहीं लगाएंगे जिनके देश में नागरिक आज़ादी पर ख़तरा मंडरा रहा हो. लेकिन इसमें यह प्रवधान भी है कि मज़बूत आधार होने पर उन्हें वापस भेजा जा सकता है. जैसे कि देश में किसी विशेष गंभीर अपराध में दोषी सिद्ध होने पर या उस देश या समुदाय के लिए ख़तरा पैदा होने पर उन्हें वापस भेजा जा सकता है, हालांकि अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का परंपरागत हिस्सा होने के बावजूद इसपर अनेक राज्य एकमत नहीं हैं. भारत शरणार्थी क़ानून के दूसरे प्रावधानों के मुक़ाबले अवापसी के सिद्धांत का अनुसरण करता है.
भारत और शरणार्थी नीति
मोहम्मद सलीमुल्लाह और अनरव बनाम भारतीय संघ और अन्य केस के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू- कश्मीर में हिरासत में बंद रोहिंग्या शरणार्थियों की स्वतंत्रता के मुद्दे को संबोधित किया था. इस दौरान कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के आर्टिकल 14 और 21 इन सभी पर लागू होते हैं जबकि आर्टिकल 19 (1) (e) के तहत उन्हें अवापसी यानि वापस न भेजे जाने का (non-refoulement) अधिकार हासिल है, जिससे उन्हें अंतरिम राहत या रिहाई नहीं दी जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के एक महीने बाद मणिपुर हाइकोर्ट ने नंदिता हकसव बनाम मणिपुर राज्य में एक विपरीत निर्णय देते हुए कहा गया कि कुछ लोग जिन्होंने म्यांमार की इजाज़त के बिना भारत में प्रवेश किया है उन्हें अवैध शरणार्थियों की तरह नहीं वरन शरणार्थियों और ठिकाना खोजने वालों की देखा देखा जाना चाहिए जिन्हें दिल्ली जाने और UNHCR (United Nations High Commissioner for Refugees) से सुरक्षा की मांग करने का पूरा हक़ होगा. हाईकोर्ट ने ये भी कहा कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत अनेक दूरगामी सुरक्षाओं के दायरे में अवापसी (non-refoulement) का अधिकार भी शामिल है. 1951 के मसौदे पर भारत के हस्ताक्षर न करने के सवाल पर कोर्ट ने कहा –
“हालांकि भारत ने1951 के शरणार्थी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किया है लेकिन अंतरराष्ट्रीय घोषणाओं और समझौतों के साथ भारतीय संविधन के आर्टिकल 21 के तहत इसे जीवन और आज़ादी पर ख़तरा झेल रहे, उत्पीड़न के खिलाफ़ सुरक्षा खोज रहे असाइलम सीकर्स के अधिकारों का सम्मान करना होगा.”
भारत की संवैधानिक कोर्ट्स से हासिल दो अलग नज़रियों से दो बातें ज़ाहिर हैं, पहला यह कि समझौते पर हस्ताक्षर न करने की व्याख्या में भेद है और दूसरा इससे भारत के शरणार्थियों के प्रति व्यवहार में कितना फ़र्क़ पड़ता है. इन दोनों ही मामलों में राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न सरकार का मुख्य तर्क था जिससे सरकार का शरणार्थियों के लिए नज़रिया तय होता है या अपनी शक्ल बदलता है. हाल में ही में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर हाईकोर्ट का एक आदेश रोक दिया था क्योंकि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सूचना दी थी कि जिन शरणार्थियों को दिल्ली जाने की अनुमति मिली है अब उनकी शिनाख़्त नहीं हो पा रही है. कहा जा सकता है कि देशों को अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का पालन करने के मसौदे के बावजूद राज्यों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर अवापसी के नियम को पालन कराने को लेकर भेद है.
क़ानूनी स्तर पर सरकार शरणार्थियों और अवैध प्रवासियों में भेद नहीं करती है. लेकिन 1967 के पासपोर्ट एक्ट, 1946 के रजिस्ट्रेशन ऑफ़ फ़ारेनर्स एक्ट और फ़ॉरेनर्स आर्डर 1946 के तहत सरकार को संदेह या अधिनियम का पालन न होने की बुनियाद पर विदेशियों को गिरफ़्तार करने या हिरासत में लेने का अधिकार है. जबकि दूसरी ओर फ़ॉरेनर्स आर्डर, 1948 सरकार को अनेक कारणों से भारत में दाख़िल होने की इजाज़त देने और रोक लगाने का अधिकार है. शरणार्थियों को लेकर सरकार के रवैय्ये के अनेक पुट हैं जिससे यह बात पुख्ता होती है कि भारत सरकार ने शरणार्थियों के लिए यथासंभव मानवीय नज़रिया अपनाने की कोशिश की है.
2011 में UNHCR की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारत अवापसी के सिद्धांत का अनुसरण (non-refoulement) करता है. इस रिपोर्ट में उन प्रतिबंधों को भी उजागर किया जिनके तहत भारत सरकार श्री लंका के शरणार्थियों की मदद तो करती है लेकिन संसाधनों के अभाव और बुनियादी ज़रूरतों के लिए संघर्षरत भारत की विशाल आबादी के कारण इस सहयोग की सीमा नहीं बढ़ा पा रही है.
हालांकि ये तस्वीर की पूरी अक्कासी नहीं है. मिसाल के तौर पर हाउसिंग और अर्बन अफ़ेयर्स के मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने हाल ही में ऐलान किया था कि दिल्ली में रोहिंग्या शरणार्थियों को कम क़ीमत वाले घर मुहैय्या कराए जाएंगे. इसके बाद गृह मंत्रालय ने कुछ घंटो में ही स्पष्टीकरण दिया कि अवैध प्रवासियों को वापस भेजे जाने तक डिटेंशन कैंप्स में रखा जाएगा. रोहिंग्या मुसलमानों के लिए ये निराशावादी रवैय्या केस में सरकरी दलीलों से लेकर गृह मंत्रालय के वर्गीकरण तक लगातार दृष्टिगोचर होता रहा है. UNHCR के तहत रिफ़्यूजी स्टेटस रजिस्ट्रेशन (RSD) के मैंडेट में अक्टूबर 2022 की अवधि तक 48,450 शरणार्थियों और असाइलम सीकर्स को रिकार्ड किया गया है. शरणार्थी एक जगह केंद्रीकृत नहीं हैं जिससे उन्हें मिलने वाला मानवीय सहयोग या उसकी कमी संसाधनों के अभाव से अधिक नीतिगत फ़ैसला बन जाता है.
निष्कर्ष
भारत का शरणार्थियों के लिए दो तरह का रवैय्या रहा है. एक पक्ष क़ानूनी है और दूसरा पक्ष क्रियान्वन संबंधी है. यहां न सिर्फ़ शरणार्थी क़ानूनों का अभाव है बल्कि अलग अलग शरणार्थी समुदायों को अलग अलग तरीक़ों से डील किया जाता है जिससे कि भेदभाव पैदा होता है. इसका तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू न्यायिक है. हैरानी की बात है कि अवापसी के सिद्धांत (non-refoulement) की कोई पहचान नहीं है न ही ऐसा कोई अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी क़ानून है जिसे पूरे हिंदुस्तान में लागू किया जा सके या जिसकी सारे शरणार्थियों तक पहुंच बन सके.
भारत सभ्यता के शुरूआती समय से अनेक संस्कृतियों और राष्ट्रीयताओं को समेटे हुआ है और एक अस्पष्ट नीति भारत की पुरातन परिपाटी से मेल नहीं खाती है. 2014 में भारतीय जनता पार्टी के शासन में आने के बाद से देश में उग्र राष्ट्रवादी भाव तेज़ी में हैं. अब ये कोर्ट की ज़िम्मेदारी है कि वो अवापसी के इन अधिकार का संज्ञान लेकर उचित व्याख्या पेश करे और इसे आर्टिकल 19 के बजाय आर्टिकल 21 के हिस्से के तौर पर शुमार करे क्योंकि काफ़ी समय से कुछ शरणार्थियों को दोबारा उनके मूल देश भेजने का दबाव है जहां उनके जीवन को ख़तरा है.
[1]AIR 2021 SC (CIVIL) 1753
[2]2021 SCC OnLine Mani 176
[3] Working Environment, India, UNHCR, 2011. Available at https://www.unhcr.org/4cd96e919.pdf
[4] India needs to enact a Domestic Refugee Law, Sudha Ramachandra, September 07, 2022, Available at https://thediplomat.com/2022/09/india-needs-to-enact-a-domestic-refugee-law/