पुलिस द्वारा भीड़ पर नियंत्रण : कितने बल प्रयोग को ज़्यादती समझा जाए? पुलिस की बर्बरता एवं ज़्यादतियों को अच्छी नियत से की गई कार्यवाही समझ कर माफ़ नहीं किया जा सकता
30, Nov 2021 | संचिता कदम
असम के दारंग जिले के अल्पसंख्यक समुदाय के साधनहीन लोगों के घरों को तोड़ने और उन्हें बेदख़ल करने का अमानवीय काम करने के बाद प्रशासन गुरुवार को नीचता में एक पायदान और नीचे उतर गया। बेदख़ली का विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोलियां चलाकर 2 लोगों को मार डाला और 10 लोगों को घायल कर दिया।
घटनास्थल पर मौजूद प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा भेजी गई तस्वीरों से साफ़ है कि पुलिस ने घुटनों पर गोली मारने की क़ानूनी बंदिश को नजरअंदाज करके लोगों के शरीर के ऊपरी हिस्सों पर गोली चलाई। सबरंग इंडिया के पास लोगों की छाती ,पेट यहाँ तक कि चेहरे एवं सर पर गोली लगने की तस्वीरें उपलब्ध हैं। घायलों में कुछ तो बालिग भी नहीं लगते।
असम में सप्ताह के प्रत्येक दिन, सामुदायिक वॉलंटियर्स, जिला वॉलंटियर्स, प्रेरकों और वकीलों की सीजेपी की टीम असम में नागरिकता–संचालित मानवीय संकट से ग्रस्त सैकड़ों व्यक्तियों और परिवारों को पैरालीगल मार्गदर्शन, परामर्श और वास्तविक कानूनी सहायता प्रदान कर रही है। एनआरसी (2017-2019) में शामिल होने के लिए 12,00,000 लोगों ने अपना फॉर्म भरा है और पिछले एक साल में हमने असम के खतरनाक डिटेंशन कैंपों से 41 लोगों को रिहा कराने में मदद की है। हमारी निडर टीम हर महीने औसतन 72-96 परिवारों को पैरालीगल सहायता प्रदान करती है। हमारी जिला–स्तरीय कानूनी टीम हर महीने 25 विदेशी न्यायाधिकरण मामलों पर काम करती है। यह जमीनी स्तर का डेटा हमारे संवैधानिक न्यायालयों, गुवाहाटी उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में सीजेपी द्वारा सूचित हस्तक्षेप सुनिश्चित करता है। ऐसा काम आपके कारण संभव हुआ है, पूरे भारत में जो लोग इस काम में विश्वास करते हैं। हमारा उद्देश्य, सभी के लिए समान अधिकार। #HelpCJPHelpAssam। अभी दान कीजिए!
पुलिस द्वारा कितना बल प्रयोग करने को ज़्यादती समझा जाए, इस पर अब विमर्श चल रहा है। प्रदर्शनकारियों की ताकत के अनुपात में पुलिस द्वारा बल प्रयोग करना सबसे आदर्श स्थिति है। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए गोली चलाने जैसा आख़िरी कदम उठाने के पहले कई अन्य कदम उठाये जा सकते हैं। गोली चलाने जैसा आख़िरी कदम उठाना निःसंदेह मानवाधिकारों का उल्लंघन है एवं इसके लिए पुलिस को जवाबदेह बनाने की ज़रूरत है।
पुलिस को “अच्छी मंशा से की गई कार्यवाही” के प्रावधान के तहत सभी क़ानूनों में दिए गए अकूत अधिकार एवं दंड से छूट मिलने के कारण उन्हें इस तरह के काम के लिए जिम्मेदार ठहराने की गुंजाइश बहुत कम है। भीड़ को नियंत्रण करने के लिए पुलिस को दिए गए अधिकारों के बारे में हमारे कानून, पुलिस सुधार के प्रावधानों तथा इस विषय पर अंतराष्ट्रीय मानकों पर विचार करना प्रासंगिक होगा।
भारत के फ़ौजदारी कानून के प्रावधान
फ़ौजदारी कानून की संहिता में गैर-कानूनी जमावड़े से निपटने के लिए कई प्रावधान हैं। धारा 129 में सभा को बल प्रयोग द्वारा तितर-बितर करने का प्रावधान है। इसमें पुलिस थाना अधीक्षक को सभा को तितर-बितर करने का आदेश देने का प्रावधान है। भीड़ द्वारा पुलिस अधिकारी की बात मानने से इंकार करने पर संबन्धित अधिकारी भीड़ को तितर-बितर कर सकते हैं एवं आवश्यक होने पर वह भीड़ में इकट्ठा लोगों को गिरफ़्तार कर सकते हैं या उन्हें हवालात में रख सकते हैं।
धारा 130 में सभा को तितर–बितर करने के लिए हथियारों द्वारा बल प्रयोग करने का प्रावधान है लेकिन इसकी उप-धारा 3 में कहा गया है कि “उनको (पुलिस अधिकारी) भीड़ को तितर-बितर करने एवं उन्हें गिरफ़्तार करने तथा रोकने के मकसद के अनुरूप न्यूनतम बल प्रयोग, लोगों को न्यूनतम चोट पहुंचाना एवं तथा संपत्ति का न्यूनतम नुकसान करना चाहिए।“
धारा 131 में भीड़ द्वारा जन-सुरक्षा के लिए प्रकट रूप से ख़तरा बन जाने की स्थिति में सशस्त्र बल का उपयोग करने के विषय में भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कुछ निश्चित सशस्त्र बल अधिकारियों को प्रदान की गई शक्तियों के संबंध में चर्चा की गई है। इसमें सशस्त्र बल को भीड़ को गिरफ़्तार करने, उन्हें हवालात में रखने तथा उन्हें कानून के तहत सजा देने का प्रावधान है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 99 में उन स्थितियों की विस्तार से चर्चा की गई है जहाँ ”आत्मरक्षा के अधिकार” के तर्क को जायज नहीं माना गया है। मौत या गंभीर रूप से घायल होने की आशंका के अलावा किसी सरकारी कर्मचारी की “अच्छी मंशा से की गई कार्यवाही” को कानूनी रूप से उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसमें आगे कहा गया है कि “किसी भी सूरत में आत्मरक्षा का अधिकार बचाव के लिए जरूरी नुकसान पहुँचाने की सीमा को नहीं लांघ सकता।“
भारतीय पुलिस के लिए आचार संहिता
भारतीय पुलिस के लिए गृह मंत्रालय ने 1985 में खंड 4 के तहत आचार संहिता जारी की थी।
“कानून के पालन को सुनिश्चित करने तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस को जहाँ तक व्यावहारिक हो सके लोगों को मनाने, सुझाव देने या आगाह करने का तरीका अपनाना चाहिए। बल प्रयोग करना जब अनिवार्य हो जाए तब उस स्थिति में आवश्यक न्यूनतम बल ही प्रयोग करना चाहिए।“
1979 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कानून प्रवर्तन अधिकारियों के लिए स्वीकृत आचार संहिता के अनुच्छेद 3 में कहा गया है कि वे अति आवश्यक होने पर ही एवं अपने कर्तव्यों के निर्वाह करने की ज़रूरत की सीमा तक ही बल प्रयोग कर सकते हैं।
1964 में पुलिस महानिर्देशकों के सम्मेलन में पुलिस द्वारा गैर-कानूनी भीड़ के खिलाफ बल प्रयोग करने के आदर्श नियम को स्वीकार किया गया। इसमें वांछित लक्ष्य को हासिल करने के लिए न्यूनतम आवश्यक बल प्रयोग करने की बात कही गई है। सभी घटनाओं में स्थिति के अनुरूप बल का नियमन करना चाहिए। बल प्रयोग का मकसद भीड़ को तितर-बितर करना होना चाहिए एवं बल प्रयोग करने के समय दंडात्मक या दमनात्मक सोच नहीं रखनी चाहिए।
असम पुलिस मैन्युअल
इस घटना में असम पुलिस शामिल है। इसलिए असम पुलिस मैन्युअल का जायजा लेना एवं भीड़ को नियंत्रित करने के बारे में इसमे क्या कहा गया है यह जानना महत्वपूर्ण है।
इस मैन्युअल की धारा 47 के भाग 1 में जुलूसों के तितर-बितर करने के बारे में बताया गया है एवं कहा गया है कि जुलूस में शामिल लोगों के रत्ती भर उकसावे से हिंसक हो जाना सामान्य घटना है। इसलिए पुलिस को अत्यंत संयम रखने की ज़रूरत है। उन्हें जुलूस में शामिल लोगों के अभिप्राय तथा उसमें शामिल तत्वों के बारे में पहले से अंदाजा होना चाहिए।
एक शांतिपूर्ण तथा व्यवस्थित जुलूस में कुछ अप्रिय तत्वों के मौजूद होने के बावजूद उसमें पुलिस की दख़लंदाजी की ज़रूरत नहीं है। दमनात्मक निगरानी अपने आप में जन शांति के लिए ख़तरा है। जन मानस को सही तरह से समझना सबसे ज्यादा आवश्यक है। पुलिस को कानून के तहत स्वतंत्रता के रक्षक के रूप में दिखना चाहिए एवं उसे स्वयं को भी उसी भूमिका में देखना चाहिए।
धारा 49 में कहा गया है कि सामान्य जुलूसों में जहाँ किसी तरह के गंभीर विरोध की अपेक्षा नहीं है वहाँ पुलिस सिपाहियों को बांस की लाठी लेकर चलना चाहिए। इसमें यह भी कहा गया है कि जब किसी सभा में शामिल लोगों को किसी तरह के मारक हथियार ले जाने की इजाजत नहीं है, तो वहाँ पुलिस के लिए बड़ी भीड़ को भी नियंत्रित करने तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिए लाठी काफी है। सशस्त्र पुलिस बल को सिर्फ भीड़ को तितर-बितर करने एवं लोगों को गिरफ़्तार करने की ज़रूरत होने की स्थिति में बुलाये जाने के लिए आरक्षित रखना चाहिए।
धारा 50 में कहा गया है कि जहाँ पुलिस अधिकारी को जन सुरक्षा के लिए भीड़ पर गोली चलाकर उसे तितर-बितर करने की ज़रूरत महसूस नहीं होने व इसके बावजूद अगर वह गोली चलाने का आदेश देता है एवं उसमें एक भी आदमी मर जाता है तो उसके काम को अच्छी मंशा से किया गया काम नहीं कहा जा सकता। इसमें आगे और कहा गया है कि मारक बल का उपयोग करने में विवेकशील होने के लिए आत्म-नियंत्रण की ज़रूरत है। जहाँ पुलिस की छवि विवेक का इस्तेमाल किए बगैर गोली चलाने वाले की बन जाती है वहाँ पुलिस खुद हत्या का शिकार बन जाती है। जीने का अधिकार मौलिक मानवाधिकार है। एक पुलिस अधिकारी द्वारा कभी भी किसी की जिंदगी नहीं ली जानी चाहिए, भले ही उसके पास इसके लिए कानूनी बहाना हो, अगर वह ऐसा किए बिना समस्या का समाधान कर सकता है तो बेहतर है।
दंड से बचाव एवं छुटकारा
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 में लोक सेवकों को, उनके द्वारा किए गए अनुचित कामों के लिए, उनके ऊपर मुक़द्दमा चलाने से छूट दी गई है। इन लोक सेवकों में पुलिस भी शामिल है। पुलिस क्रूरता की अधिकांश घटनाओं को रिट पिटिशन के जरिये सीधा न्यायपालिका के सामने लाना पड़ता है। कुछ घटनाओं में न्यायपालिका ने पुलिस की ज़्यादती एवं क्रूरता के शिकार हुए लोगों को क्षतिपूर्ति देने का आदेश दिया है। क्या इसे पर्याप्त समझा जा सकता है? मानवाधिकार का उल्लंघन एवं पुलिस अधिकारी द्वारा कर्तव्य का निर्वाहन करने के बीच में एक महीन रेखा है। पुलिस की ज़्यादती किसी भी तरह सिद्ध हो जाने के पहले तक वह “मैं सिर्फ अपना काम कर रहा था” के ढाल का सहारा लेता है। ज़्यादती के शिकार लोगों को क्षतिपूर्ति मिलने में सालों लग जाते हैं। लेकिन अधिकांश घटनाओं में पुलिस अधिकारी तब तक सेवा निवृत हो जाते हैं तथा लोक सेवक के एवज में मिलने वाले लाभ उठाते रहते हैं।
हालांकि भारतीय पुलिस अधिनियम कर्तव्य का उल्लंघन तथा किसी नियम को जानबूझकर तोड़ने या लापरवाही बरतने को लेकर धारा 29 के तहत दंडित करता है लेकिन पुलिस की क्रूरता से निपटने के लिए कोई विशेष धारा नहीं है।
अंतर्राष्ट्रीय मानक
संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्च आयुक्त ने 2004 में “ह्यूमन राइट्स स्टेंडर्स एंड प्रैक्टिस फॉर पुलिस” शीर्षक से एक पुस्तक जारी की। इस पुस्तक का मूलभूत सिद्धान्त है कि पुलिस कर्मियों को मानव अधिकारों का सम्मान करना चाहिए एवं ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे इन अधिकारों का अनादर हो। इस पुस्तक में बगैर भेद-भाव से कानून लागू करने, जांच, गिरफ्तारी में मानवाधिकारों का पालन करने, समानुपात में बल प्रयोग एवं हवालात में रखने जैसे विषयों पर चर्चा की गई है। इसमें बल प्रयोग एवं हथियार का उपयोग करने को लेकर जवाबदेही तय करने की बात कही गई है। साथ ही बल प्रयोग एवं गोली चलाने की उचित परिस्थिति जैसे विषयों पर चर्चा की गई है। मानवाधिकारों का उल्लंघन होने की स्थिति में पुलिस के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की उपयुक्त व्यवस्था होने की बात कही गई है। इसकी पारदर्शी, निरपेक्ष, पूर्ण, त्वरित एवं कुशल जांच होनी चाहिए। उल्लंघन को उच्च अधिकारियों के आदेश का अनुपालन करने के एवज में जायज नहीं ठहराया जा सकता है। यह सभी दिशा-निर्देश बहुत आदर्श हैं लेकिन इसे वास्तव में लागू करना बहुत कठिन है।
संयुक्त राष्ट्र ने 1990 में कानून प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा बल प्रयोग एवं आग्नेयास्त्र के उपयोग के मूलभूत सिद्धान्त को अपनाया। इसमें सरकारों से गैर-प्राणघातक तथा असमर्थ बना देने वाले हथियारों को विकसित करने का आग्रह किया ताकि उपयुक्त स्थिति में उनका उपयोग करके लोगों को मौत या घायल करने जैसे हथियारों का उपयोग करने से बचा जा सके। धारा 4 में कहा गया है :
कानून लागू करने वाले अधिकारियों को बल प्रयोग तथा आग्नेयास्त्र उपयोग करने के पहले जहाँ तक संभव हो सके अहिंसक उपाय अपनाने चाहिये। वे बल प्रयोग तथा आग्नेयास्त्र का उपयोग तब करें जब उन्हें दूसरे तरीके कारगर होते हुए नहीं दिखते हों या उससे अपेक्षित नतीजे नहीं निकलते दिखते हों।
इन प्रावधानों में घायलों को चिकित्सा राहत मुहैया करवाना एवं अपराध की गंभीरता तथा जायज लक्ष्य को पूरा करने के अनुरूप संयम बरतना शामिल है।
आग्नेयास्त्र के उपयोग के बारे में उसे सिर्फ आत्मरक्षा के लिए या किसी दूसरे के लिए मौत तथा गंभीर रूप से घायल होने की स्थिति पैदा होने पर उपयोग करने की बात कही गई है। अहिंसक गैर-कानूनी सभा को रोकने के लिए बल प्रयोग करना व्यावहारिक नहीं है।
प्रतिकार
पुलिस की क्रूरता के खिलाफ लोगों के पास प्रतिकार के सिर्फ 3 व्यावहारिक एवं उपयुक्त तरीके हैं :
- राज्य पुलिस के शिकायत प्राधिकरण में शिकायत करना।
- उच्च अदालत तथा सर्वोच्च अदालत में रिट पिटिशन दायर करना।
- राज्य या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाना।
यह सभी प्रक्रियायें बहुत लंबी होती हैं क्योंकि इनमें कानूनी रूप से बाध्यकारी समय सीमा नहीं है। हालांकि अधिकारों के उल्लंघन पर रोक लगना चाहिये।
सच्ची राजनीतिक इच्छाशक्ति एवं राज्य तथा स्थानीय स्तर पर पुलिस प्रशासन में गंभीर सुधार, मानव अधिकारों के उल्लंघन से बचने एवं वास्तविक परिवर्तन लाने में सक्षम होंगे।
*अनुवाद सौजन्य – चन्द्रिका
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