वाराणसी: दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा लाखों लोगों का तन ढंकने वाला बुनकर कारीगर बेहद खराब माली हालत के चलते बुनकरों के बच्चे पढ़ लिख नहीं पा रहे हैं।

01, Feb 2023 | फ़ज़लुर रहमान अंसारी

बनारस की मेहनतकश आबादी खासकर बुनकरों को संगठित और गोलबंद करने के क्रम में बुनकर कारीगर फ्रंट की ओर से मोहल्ला सराय स्थित मौला द्वार में आयोजित कार्यक्रम में बुनकर उपस्थित हुए। इस दौरान उन्होंने अपनी बदहाल जिंदगी की दास्तां सुनाई। बुनकरों ने बताया कि बुनाई के काम में लगे लोगों की वास्तविक मज़दूरी 300 रुपये भी नहीं है, जितनी कि निर्माण क्षेत्र के मज़दूरों की है।

 इसी दौरान मुस्लिम आबादी के सामाजिक पिछ़ड़ेपन, स्त्रियों की पुरुषों  से अधिक खराब दशा और शिक्षा का प्रश्न भी उठा। बुनकर कारीगर फ्रंट के सहयोगी मनीष शर्मा ने कहा कि जब बुनकर कारीगर की मज़दूरी-आमदनी ही इतनी कम है तो वे अपने परिवार के भरण-पोषण की चिंता करें या बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की। बेहद खराब माली हालत के चलते बुनकरों के बच्चे पढ़ लिख नहीं पा रहे हैं।

सीजेपी का ग्रासरूट फेलोशिप प्रोग्राम एक अनूठी पहल है जिसका लक्ष्य उन समुदायों के युवाओं को आवाज और मंच देना है जिनके साथ हम मिलकर काम करते हैं। इनमें वर्तमान में प्रवासी श्रमिक, दलित, आदिवासी और वन कर्मचारी शामिल हैं। सीजेपी फेलो अपने पसंद और अपने आसपास के सबसे करीबी मुद्दों पर रिपोर्ट करते हैं, और हर दिन प्रभावशाली बदलाव कर रहे हैं। हम उम्मीद करते हैं कि इसका विस्तार करने के लिए जातियों, विविध लिंगों, मुस्लिम कारीगरों, सफाई कर्मचारियों और हाथ से मैला ढोने वालों को शामिल किया जाएगा। हमारा मकसद भारत के विशाल परिदृश्य को प्रतिबद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ जोड़ना है, जो अपने दिल में संवैधानिक मूल्यों को लेकर चलें जिस भारत का सपना हमारे देश के संस्थापकों ने देखा था। CJP ग्रासरूट फेलो जैसी पहल बढ़ाने के लिए कृपया अभी दान करें

बुनकर कारीगर फ्रंट के संयोजक फजलुर्रहमान अंसारी ने कहा कि अब यह  बताने की ज़रूरत नहीं कि केवल बनारस के आस पास के ज़िलें में ही बुनकरों की संख्या 5 लाख से अधिक है। चूंकि बुनकरों का पुश्तैनी पेशा बिनकारी है लिहाज़ा 90% लोग इसी पेशे से जुड़े हुए हैं। सच यह भी है कि, इनमें 85% लोग मुस्लिम कम्युनिटी के ही हैं। बुनकरों का काम बिनकारी करना है। इनमें कुछ लोग हथकरघा, कुछ पावर लूम पर काम करते हैं, कोई डिज़ाइन बनाता है, कोई धागा रंगता है, कोई कांटी भरता है, कोई कटिंग करता है। यानी एक साड़ी बनाने में कितने हाथ लगते हैं वो तो एक बुनकर ही जानता है। 

अंसारी ने आगे कहा कि बदकिस्मती देखिये कि लाखों लोगों का तन ढंकने वाला बुनकर कारीगर आज खुद कितना लाचार है। खाने के लिए पैसे नहीं, रहने के लिए मकान नहीं ,न ढंग से बच्चों को पढ़ा ही पाते हैं, न अपना व अपने परिवार का इलाज करा पाते हैं। ये कहना शायद गलत न हो कि बुनकर कारीगर आज की तारीख में रोज़ जीता है और रोज़ मरता है। लेकिन गिरस्ता मालिक, बुनकरों की मेहनत की बदौलत और भी अधिक अमीर होता जा रहा है। एक सच यह भी है कि इन्हीं मजदूरों की ज़िंदा लाशों पर सर रख कर इन अमीर, गिरस्ता मालिकों के बड़े बड़े कारोबार ऊंची ऊंची इमारतें शहर के हर चौराहे, मोड़ पर खड़ी नज़र आतीं हैं। एक आखिरी सच यह भी है कि इन गरीब बुनकर मजदूरों को मजबूर भी इन अमीर बुनकरों ने ही बना दिया है।

बुनकरों में एक बुनकर वो हैं जो गिरस्ता,गद्दीदार कहलाते हैं। ये वो लोग हैं जो शहर देहातों के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में अपना हथकरघा, पॉवरलूम की सैकड़ों मशीनें बिठाकर अपना सारा मटेरियल्स देकर बुनकरों से रोजाना दिहाड़ी की बुनियाद पर काम करवाते हैं।

दूसरे बुनकर वो हैं जो अपने घरों में अपनी मशीन लगाकर करघा बिठाकर दो चार पॉवरलूम, करघे पर अपनी ज़िम्मेदारी पर काम तो करवाते हैं लेकिन इन्हें भी सारा मटेरियल्स उसी गद्दीदार, ग्रहस्ताओं से ही लेना पड़ता है यानि यह भी उन्हीं के आर्डर का काम करवाते हैं और साड़ी, वस्त्र उन्हीं के यहां पहुंचाकर अपना मेहनताना वसूल करते है। 

तीसरा बुनकर वो हैं जो इनके यहां रोज़ की मजदूरी पर काम करते हैं जिन्हें 8 से 10 घंटे मेहनत के बाद 200 से 300 रुपये मिलते हैं।वो भी रोज पेमेंट नहीं, सप्ताह 10 दिनों में इन्हें इनका मेहनताना काट पीट कर दे दिया जाता है।

इन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नही पड़ता कि गिरस्ता उनका अपना माल कहाँ सप्लाई करता है, कितने में करता है या उसे पेमेंट पार्टी कितने दिनों में करती है। वैसे सच्चाई यह भी है कि, चूंकि वाराणसी वस्त्र, बनारसी साड़ियों का पूरा कारोबार ही क्रेडिट बिजनेस पर आधारित है लिहाजा उन्हें अपने पेमेंट के लिए कम से कम 3 महीने का इंतज़ार तो करना ही पड़ता है।

ऐसा भी नहीं है कि गरीब बुनकर मजदूरों को अपने गिरस्ता, गद्दीदारों, इलाके के सरदारों से कोई शिकायत नहीं है, बिल्कुल है और वो यह है कि, वो अमीर गिरस्ता इन गरीब बुनकरों को आज भी वही मजदूरी देते हैं जो मजदूरी पिछले 10/15 साल पहले देते थे।

दिहाड़ी मजदूरों कहते हैं, ”अव्वल तो हमारी मजदूरी बढ़ाने के बारे में ये अमीर गिरस्ता कभी सोचते ही नहीं और जब कभी मांग उठी, उठाई भी जाती है तो गिरस्ता,गद्दीदार यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि कारोबार में मंदी आ चुकी है और इसी मजदूरी में काम करना हो तो करो वरना अपना रास्ता नाप लो। नतीजा मरते क्या नहीं करते, मजदूरों को चुप हो जाना पड़ता है।दरअसल इन गरीब बुनकर मजदूरों की कोई यूनियन नहीं है और जो बुनकर तंजीमें हैं वो भी मजदूरी बढ़ाने की बात कभी नहीं उठातीं।

बताते चलें कि इन बुनकर समाज के हर इलाके का एक सरदार भी होता है। इन सरदारों का काम बुनकरों के दुख सुख में शरीक होने और पांच पंचायत, उत्पन्न समस्याओं को सुलझाने का फर्ज भी निभाना होता है, पर यह सरदार साहिबान भी ग़रीब बुनकरों की मजदूरी बढ़ाने या इस समस्या को उठाने का प्रयास भी कभी नहीं करते। इसका एक बड़ा कारण यह भी बताया जाता है कि इन सरदारों में अधिकतर सरदार खुद ही साड़ियों के छोटे बड़े कारोबारी हैं।

इन बुनकर समाज के कई समाजी व फलाही इदारे भी हैं लेकिन यहां भी गरीब बुनकर मजदूरों की सुनने वाला कोई नहीं।

अब सवाल यही है कि जब यह गरीब बुनकर मजदूर रजिस्टर्ड हैं नहीं, न ही इनके पास कोई करघा या पॉवरलूम है तो बुनकरों को मिलने वाली योजनाओं का लाभ उठाता कौन है? तो जाहिर सी बात है कि इसका सारा लाभ अमीर और बड़े बुनकरों, गिरस्ता, गद्दीदार, कोठीदर को ही पहुंचता है। चाहे फिक्स्ड रेट बिजली की योजना हो या रेशम के धागे पर सरकारी सब्सिडी।

यह सच है कि बनारसी साड़ी और बनारसी वस्त्र का कारोबार फिलहाल पूरी तरह लड़खड़ा तो जा ही चुका था लेकिन इन 6,7, सालों में यानि 2014 के बाद नोट बंदी, जीएसटी,और कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन ने इस कारोबार को इतना प्रभावित किया है कि फिलहाल जहां हज़ारों पॉवरलूम बन्द पड़े हैं वहीं लाखों बुनकर मजदूर बेरोजगार हो चुके हैं। इन मजदूरों में कुछ मजदूर तो अब दूसरे पेशे से जुड़कर अपनी रोज़ी रोटी हासिल करने में लगे हैं और कुछ लोग फुटपाथों पर साग सब्जियां बेचकर अपना और अपने परिवार का पेट पालने पर मजबूर हो चुके हैं। काम और दाम न मिलने की वजह से बनारस के बुनकर कारीगरों की भारी संख्या, सूरत, मुम्बई की ओर पलायन करने लगी है। आज उनकी परेशानी का आलम यह है कि अब उनके पास इतने भी पैसे नहीं कि वो बिजली का बिल, बच्चों की स्कूल फीस दे सकें या उनके परिवार का कोई सदस्य बीमार पड़ जाए तो वो इलाज के लिए डॉक्टर के पास जा सकें।

शायद यही वो कारण है कि ये गरीब बुनकर मजदूर अब या तो जीने खाने के लिए अपने घरों के समान बेचने लगे हैं या मौत की दुआ मांग रहे हैं। लेकिन वाह रे अमीर बुनकरो, गृहस्ताओं की एक बड़ी जमात, बुनकरों के मसीहा जिन्हें इन बुनकरों की कोई चिंता नहीं। वो इतना भी नहीं सोचते कि यही वो गरीब बुनकर मजदूर हैं जिनके कारण आज वो करोड़ों में खेल रहे हैं और आज जब अपना गरीब बुनकर सड़क पर आ चुका है तो हमें उनके लिए क्या करना चाहिये?

राज्य की योगी सरकार ध्यान दे कि इन गरीब बुनकर कारीगरों को भी किसी सरकारी योजना के तहत इनकी आर्थिक मदद करे, वरना ये गरीब बुनकर मज़दूर कोरोना से कम भूख से ज़्यादा मर जायेंगे।

फ़ज़लुर रहमान अंसारी से मिलें

Fazlur Rehman Grassroots Fellow

एक बुनकर और सामाजिक कार्यकर्ता फजलुर रहमान अंसारी उत्तर प्रदेश के वाराणसी के रहने वाले हैं. वर्षों से, वह बुनकरों के समुदाय से संबंधित मुद्दों को उठाते रहे हैं. उन्होंने नागरिकों और कुशल शिल्पकारों के रूप में अपने मानवाधिकारों की मांग करने में समुदाय का नेतृत्व किया है जो इस क्षेत्र की हस्तशिल्प और विरासत को जीवित रखते हैं.

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