गुजरात नरसंहार के 20 साल बाद, संस्थाओं ने बहुत कम सबक सीखे 2002 के दंगों से ठीक पहले पेश आने वाली गोधरा त्रासदी की बरसी रविवार को पड़ती है।

28, Feb 2022 | Teesta Setalvad

गुजरात नरसंहार को 17 महीने बीत चुके थे लेकिन भारत की संवैधानिक अदालतों में अब तक इसे लेकर खामोशी थी। गुजरात के पांच बड़े राहत शिविरों के प्रबंधकों की ओर से अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 को लागू करने के पक्ष में मुम्बई के वरिष्ठ वकील एसपी चिनॉय गुजरात हाई कोर्ट में जस्टिस पी०बी० मजुमदार की अदालत में जोरदार और अनवरत दलीलें दे रहे थे। अदालत में लोगों की बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गई थी जिसे सामान्य बात नहीं माना जा सकता। उन राजनैतिक धाराओं की पकड़ कोर्ट में बेहद मजबूत थी।  

सन् 2002 का अप्रैल का महीना था। याचिकाकर्ताओं की कोशिश थी कि कानूनी और संवैधानिक ज़िम्मेदारियों को नियमों के मुताबिक अदा किया जाए। रिलीफ कैंपों में रहने वाले सभी मुसलमान थे। मांग यह थी कि राज्य रिलीफ कैंपों में मौजूद 1,68,000 बदहाल बच्चों, महिलाओं और पुरूषों के लिए अनाज, भोजन और दवाओं की आपूर्ति का खर्च 5 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति दिन की दर से वहन करे। उतने ही लोगों के लिए प्रति व्यक्ति, प्रति दिन के हिसाब से 30 लीटर पानी की व्यवस्था की जाए।

हिंसा के तीन महीने के अंदर मई 2002 में अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचार का अधिकार) को लागू कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में तीन स्थाई चुनौती याचिकाएं दाखिल की गयीं। व्यवस्था की मनमानी के सामने उनमें से केवल एक ही टिक पायी।

सिटीजंस फ़ॉर जस्टिस एंड पीस, पिछले 20 वर्षों से गुजरात के 2002 के नरसंहार के उत्तरजीवी और पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने के लिए लड़ रही है। यह कानूनी लड़ाई ट्रायल कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच आगे-पीछे होती हुई चलती रही है। कुल मिलाकर हम 68 मुकदमों को मजिस्ट्रेट कोर्ट से आगे सुप्रीम कोर्ट तक ले गए हैं और पहले चरण में 172 की सजा को सुनिश्चित करा पाए हैं, जिनमें से 124 को उम्रकैद हुई है। हालांकि इनमें से कुछ, अपील के बाद बदल दी गई हैं, फिर भी सीजेपी की कानूनी लड़ाइयों का सफ़र बेहद अहम रहा है और इसने आपराधिक न्याय-सुधारों के क्षेत्र में, चाहे वह उत्तरजीवियों या पीड़ितों की क्रिमिनल ट्रायल में भागीदारी के अधिकार का सवाल हो, या गवाहों की सुरक्षा का, एक अग्रदूत की भूमिका निभाई है। सीजेपी, न्याय की बेहतरीन मिसालें हासिल करने की अपनी यात्रा को जारी रखने के लिए संकल्पबद्ध है जिससे कि इन घावों को भरने की प्रक्रिया को शुरू किया जा सके। हम आपसे समर्थन की, और डोनेट करने की गुजारिश करते हैं।

 

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) और मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) की अंतिम रिपोर्ट के निष्कर्षों पर विश्वास करते हुए और महिला सांसदों की एक समिति और इस मामले में पीड़ितों द्वारा दाखिल किए गए तीन दर्जन से अधिक हलफनामों के आधार पर दंगों के 9 प्रमुख मामलों की जांच और सुनवाई को हस्तानांतरित करने की दरखास्त की गई। इसको सिटिज़ंस फॉर जस्टिस का समर्थन प्राप्त था तथा इसमें अहमदाबाद और मुम्बई के नागरिक बतौर याचिकाकर्ता शामिल थे।

नरसंहार के 17 महीने बाद जुलाई 2003 में बेस्ट बेकरी केस की स्टार गवाह के डराने–धमकाने के सार्वजनिक आरोप लगाने के बाद उदासीनता की दीवार टूटी थी। उसके बाद आगामी कुछ महीनों के लिए सुनवाई में तेज़ी का अनुभव भी किया गया था।

ऐसा लगता था जैसे अंततः न्याय के रास्ते में खड़े ताकतवर लोगों को झटका लगा है और उम्मीद बंध गई थी कि अब इस मामले की गंभीर त्रुटियों को ठीक किया जाएगा और न्याय की जीत होगी।

12 अप्रैल 2004 को एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब एक साहसिक निर्णय में बेस्ट बेकरी मुकदमे को सुनवाई के लिए गुजरात राज्य के बाहर हस्तानांतरित कर दिया गया। वड़ोदरा में 1-2 मार्च की रात में बेकरी में चौदह लोग मारे गए थे। निचली अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया था और हाई कोर्ट ने (सुप्रीम कोर्ट की चौकस निगाहों के बावजूद) फैसले की पुष्टि कर दी थी। एनएचआरसी ने इस हिंसा को गुजरात की 300 हिंसक घटनाओं में 10 सबसे बुरी घटनाओं में से एक माना था और कहा था कि यह मामला पुनरजाँच और सुनवाई के लिए हस्तांतरित करने योग्य है।

12 अप्रैल 2004 के 40 पेज के आदेश में बहुत कुछ कहा गया था। इसमें अदालती ढंग से “सरकार, जांच, अभियोजन और उच्च न्यायालय समेत न्यायालयों की मिलीभगत के स्तर को” संक्षेप में समेटा गया था। (के०जी० कन्नाबिरन, कम्युनलिज्म कॉमबैट, अप्रैल–मई 2004)।

अपनी तर्कसंगत नाराज़गी और साफगोई में असाधारण इस फैसले ने हमले के शिकार अल्पसंख्यक समुदाय को न्याय से वंचित किए जाने पर खेद व्यक्त किया था। इसने अपराधिक न्याय प्रणाली में मौजूद खामियों और बुराईयों को ठीक ढंग से उजागर भी किया था।

जब राज्य सरकार की बात आई तो ज़हीरा हबीबुल्लाह शेख और अन्य (सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस) बनाम गुजरात राज्य 2004 के इस फैसले में शब्दों की काट छांट किए बिना कहा गया, “जब बेस्ट बेकरी और मासूम बच्चे और महिलाएं जल रही थीं तो आधुनिक ‘नीरो’ कहीं और देख रहे थे और शायद सोच रहे थे कि इसमें लिप्त अपराधियों को किस तरह बचाया या सुरक्षित किया जा सकता है”।

इसने भीड़ के आतंक और बम के आतंक की तुलना करते हुए कहा : “जिन उन्मादियों ने धर्म के नाम पर हिंसा फैलाई वे आतंकियों से भी बदतर और विदेशी दुश्मन से ज़्यादा खतरनाक हैं”। 

2022 के भारत की सच्चाई भी यही है

27 फरवरी, 2002 के गोधरा की सामूहिक आगजनी के बाद बदले की हिंसा में 2000 ज़िंदगियां चली गयीं। आज 20 साल बाद गुजरात के नरसंहार को कानूनी चश्मे से समझने के लिए यही वह फैसला है जिस पर फिर से विचार करने की ज़रूरत है।

निचली अदालत और हाई कोर्ट, लोक अभियोजक (“अभियोजकों ने बचाव के वकील की तरह ज़्यादा काम किया”), जांच एजेंसियों (लापरवाही और निष्पक्षता से कोसों दूर), और राज्य की भूमिका पर यह फैसला महत्वपूर्ण सवाल उठाता है।

लेकिन क्या यह निर्णय भी पर्याप्त है? यह साम्प्रदायिक हिंसा राज्य द्वारा मंजूरी प्राप्त और प्रायोजित अपराधिक हमले थे। हितों के स्वभाविक टकराव को देखते हुए यह एक खास तरह की चुनौती प्रस्तुत करता है : राज्य पर अभियोग चलाता हुआ राज्य, इससे भी बढ़कर अभियोग चलाने वाले राज्य के प्रत्येक अधिकारी ने (सम्भवतः) राज्य के आरोपी अधिकारियों को बरी कराने और यकीनी दिलाने के लिए हर संभव कोशिशें कीं।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में सीआरपीसी की उन धाराओं (301, और 386 और 311 जिसे साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के साथ मिलाकर पढ़ा जाए) का उपयोग किया जो लोक अभियोजक और न्यायालय को स्वतंत्र रूप से काम करने की शक्ति देता है। इस फैसले में ऐसे दिशा निर्देश निर्धारित नहीं किए गए जो भविष्य में ऐसी ताकतों के फिर से सिर उठाने को रोकने के लिए मजबूत संस्थागत नज़ीर बनाते हों।

क्या सुप्रीम कोर्ट को राज्य के सरकारी पक्ष की मिलीभगत की सख्ती के साथ निशानदेही करते हुए ऐसी घटनाओं को दोबारा होने से रोकने के लिए दिशा निर्देश निर्धारित नहीं करने चाहिए थे? क्या इसे ऐसे दिशा निर्देश निर्धारित नहीं करने चाहिए जिससे राजनीतिक सरकार के प्रभाव क्षेत्र में धर्म का दखल न हो? पूरा-पूरा इंसाफ हो और सबको न्याय मिले, क्या इसके लिए 1948 के नरसंहार सम्मेलन (Genocide Convention) के साथ लोक शांति पर इसके अध्याय के तहत इन मुकदमों की सुनवाई के लिए सिद्धांत निर्धारित नहीं करना चाहिए था? ताकि सिर्फ बेस्ट बेकरी मामले में ही नहीं बल्कि गुजरात 2002 की अन्य सामूहिक हत्याओं और भविष्य की किसी घटना में बड़े पैमाने पर ताकत के दुरूपयोग के खिलाफ राज्य पक्ष को संस्थागत जांच का सामना करना पड़े।

उसी समय सुनवाई पर मौजूद ऐसे ही एक समानांतर मामले में (एनएचआरसी और सीजेपी, दूसरे की याचिका नरसंहार के तीन महीने के अंदर दाखिल की गई) सुप्रीम कोर्ट की एक विशेष पीठ का गठन (उस समय के मुख्य न्यायधीश के नेतृत्व में) किया गया। पीठ ने नवम्बर 2003 में 9 अपराधिक मामले की सुनवाई स्थगित कर दी। उस मामले की जांच और अभियोजन का जायज़ा लिया और आदेश जारी रखने के अपनी रिट का प्रयोग किया। यह रिट संस्थागत कमज़ोरी और अनिच्छा के बावजूद बेहतर मानी जा सकती है।

इन 9 मामलों के ट्रायल के दौरान समय जैसे ठहर सा गया था। हमें मार्च 2006 में विशेष जांच टीम (एसआईटी) द्वारा आगे की जांच के लिए केवल एक विस्तृत आदेश मिला था। एसआईटी के साथ पीड़ितों का मिलाजुला अनुभव रहा। इसमें गुजरात के प्रमुख अधिकारियों के होने की वजह से टीम शुरू से ही बाधाओं का शिकार लगती थी (पीड़ितों द्वारा सुझाए गए नामों पर अदालत द्वारा विचार नहीं किया गया था)।

हालांकि एक–दो मामलों में वास्तविक न्याय को यकीनी बनाने के लिए कुछ कदम उठाए गए थे लेकिन वह भी अधूरे थे। लगभग सभी मामलों में अहम दस्तावेज़ी सबूतों की जांच नहीं की गई थी और नरसंहार को पहले से तयशुदा या राय बना कर किया गया था ऐसा जाहिर करने वाली किसी सामग्री या अभियुक्तों के किसी संगठन से जुड़े होने पर विचार नहीं किया गया था।

सब कुछ इस तरह से चल रहा था जैसे बेस्ट बेकरी मामले में राज्य सरकार की मिलीभगत के बारे में कठोर टिप्पणियों के बावजूद जानबूझकर घटनाओं को हल्का और कमज़ोर किया जा रहा था। इस मामले की जांच और मुकदमे की कार्रवाई इस पूरी घटना के एक बड़े मसले के रूप में नहीं बल्कि अलग से होने वाले किसी अपराध के रूप में की जा रही थी।

व्यवस्था की वही खराबियां जिनका ज़िक्र 2004 के फैसले में बार-बार किया गया था (लोक अभियोजकों का वैचारिक अनुपालन आदि) बाद की सुनवाइयों में न्याय के लिए बाधा बन गयीं। राजनीतिक ताकतों ने अपनी सर्वव्यापी भूमिका निभाई और जिन लोगों पर 2002 में अभियोग लगाए गए थे उन्होंने चुनाव के जरिए और अधिक समर्थन हासिल कर लिया।

गुजरात नरसंहार का न्याय के लिए संघर्ष ऐसी जंग साबित हुई जिसमें जीत और हार आधी-आधी रही? यह बात अहमियत रखती है कि पहले चरण में हमने खुद 170 लोगों का दोषी करार दिया जाना सुनिश्चित कराया जिनमें से 124 लोगों को उम्र कैद की सज़ा हुई (बाद में इनमें से कुछ को उच्च अदालतों द्वारा पलट दिया गया)। अन्य पीड़ितों ने लड़ाई लड़ी, गोदासर और जिंजर (14 दोषी करार), दैरोल और बिल्कीस बानों मामले में कुछ और लोगों को सज़ा दिलाने ने यकीन पैदा किया। यह गुजरात में पीड़ितों और कानूनी अधिकार समूहों के प्रयासों की अनोखी मिसाल है।

1983 में नेल्ली नरसंहार और 1984 में सिख सामूहिक हत्या के बाद 2002 के गुजरात नरसंहार के दौरान गुनहगारों से मिलीभगत के दोषी और बाद में जांच का सत्यानाश करने वाले लगभग सभी पुलिस अधिकारियों को पदोन्नति और तरक्की से पुरस्कृत किया गया। मुट्ठी भर अधिकारी जो इस धारा के खिलाफ चले और गवाहियां दीं उन्होंने उसकी भारी कीमत चुकायी। प्रतिशोधी राज्य उन्हें डराने और अभियोग चलाने के लिए जो कुछ भी कर सकता है, कर रहा है, यहां तक कि पेंशन रोकने तक, सब कुछ तरह से उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है।

गोधरा कांड के अभियुक्तों और गोधरा मामले के बाद की जवाबी हिंसा के आरोपियों को ज़मानत पर रिहा करने या सज़ा देने के मामलों में भी न्यायिक विवेक अगर भेदभावपूर्ण नहीं तो अलग ज़रूर था।

ऐसा प्रतीत होता है कि 20 साल बाद भी 2004 के बेस्ट बेकरी मामले से शायद संस्थागत सबक बहुत कम सीखा गया है। जून 2009 में न्यायशास्त्र से संबंधित एक सफलता सीआरपीसी की धारा 24(8)(2) में संशोधन के रूप में अवश्य मिली। इसके तहत गवाह और शिकायतकर्ता को अपराधिक मामलों की सुनवाई में भाग लेने का कानूनी हक हासिल हो गया है (ताकि न्याय पाने लिए किसी मामले को सिर्फ राज्य की मनमानी पर न छोड़ा जाए)।

लेकिन बेस्ट बेकरी मामले के फैसले में हासिल होने वाले कई फायदे बाद में बेकार बना दिए गए क्योंकि अल्पसंख्यकों के खिलाफ निशाना बनाकर की जाने वाली हिंसा के सभी घटनाओं के लिए इस निर्णय ने कोई अनिवार्य वैधानिक दिशानिर्देश नहीं छोड़ा था। भविष्य के लिए कोई यकीन सुनिश्चित नहीं कराया गया कि ऐसे मामलों की जांच और अभियोजन को इस प्रकार मजबूत और अलग किया जाए कि भौगोलिक स्थिति की परवाह किए बिना वास्तविक न्याय सुनिश्चित किया जा सके।

2002 के बाद से अन्य मामलों के साथ हमने पूरी तरह से सुनियोजित दंगे (मुज़फ्फरनगर 2013) और भयानक लिंचिंग (मई 2014 से कम से कम 77 मुसलमानों और कुछ दलितों की) देखी है। फिर भी वास्तव में इस ऐतिहासिक निर्णय के निष्कर्षों से संस्थागत रूप से कोई स्थाई सबक नहीं सीखा गया।

स्वंय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इस दिलेराना निर्णय ने एक मुर्झाई हुई विरासत छोड़ी है। यह स्वंय सुप्रीम कोर्ट के भीतर वर्गीकृत संस्थागत स्मरण या यादगार की गैर मौजूदगी में सिमट कर रह गया। हालांकि इस तरह की व्यवस्था को आगे बढ़ाने लिए इसका ऐतिहासिक प्रभाव हो सकता था।

लेखिका सिटिज़ंस फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP.org.in) की सचिव हैं। इस संस्था ने 2002 के गुजरात दंगों के पीड़ितों की 68 अपराधिक, दीवानी और संवैधानिक मामलों में अगुवाई की है।

यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में द टेलिग्राफ में प्रकाशित हुआ था और इसे यहां पढ़ा जा सकता है

 

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