एस आर बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले के महत्व को स्पष्ट करने के लिए एक तथ्य पत्र

28, Dec 2017 | Teesta Setalvad

मार्च 1994, में आया एस आर बोम्मई बनाम भारतीय संघ का फैसला न सिर्फ भारतीय संघवाद का समर्थन करता है बल्कि राजनीति में धर्म की बढ़ती दखल पर भी तीखे सवाल उठाते हुए भारतीय धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करता है. बोम्मई का निष्पक्ष संघ बनाये रखने का वादा, अदालत का धर्मनिरपेक्षता स्थापित रखने का निर्णय जो धर्म के साथ राजनीति के मिश्रण को रोकता है, की अवहेलना करते हैं. फैसले पर अभी तक कोई कार्यवाही नहीं की गयी.

मार्च 1994, सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यी बेंच ने फैसला सुनाया जिसे आमतौर पर एस आर बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया [सर्वोच्च न्यायालय के मामले(एस सी सी) 1994, संस्करण 3] के नाम से जाना जाता है.

धर्म और राजनीति के खतरनाक मिश्रण का उल्लेख करते हुए आये इस फैसले के कुछ अनुच्छेद का संक्षिप्त में विवरण.

 

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है न कि धर्मतान्त्रिक देश

सर्वोच्च न्यायालय ने एस आर बोम्मई बनाम भारतीय संघ [(1994) 3 SCC1](बोम्मई मामले)सावंत जे के निम्नलिखित शब्दों के अनुसार अनुच्छेद 145 में ये स्थापित किया गया धर्म का अधिकार उन कानूनों के आधीन है जो धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों जैसे राजनीती को नियमित करने वाले कानून को निर्धारित करते हैं.

हमारा संविधान किसी भी धर्म के पालन को निजी तौर पर या सार्वजनिक रूप से प्रतिबंधित नहीं करता है. संविधान की प्रस्तावना के माध्यम से, इस देश में लोगों ने इस देश का गठन दूसरों के दरमियान, एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य में और अपने सभी नागरिकों को सुरक्षित करने का संकल्प किया है. संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा भी व्यक्तियों को अंत-करण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा. हालाँकि ये अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य तथा राज्य की सामाजिक कल्याण और सुधार के उपाय करने की शक्ति के आधीन होते हैं. अनुच्छेद 26 सभी साम्प्रदायिक गुटों तथा पंथों को सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन अपने धार्मिक मामलों का [a] स्वयं प्रबंधन करने [b] अपने स्तर पर धर्मार्थ या धार्मिक प्रयोजन से संस्थायें स्थापित और कानून के अनुसार [c] संपत्ति रखने, प्राप्त करने और [d] उसका प्रबंधन करने के अधिकार की गारंटी देता है. अनुच्छेद 29 अपनी विशिष्ट संस्कृति रखने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग को उनका संरक्षण और विकास करने का अधिकार प्रदान करता है. अनुच्छेद 30 सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी स्वयं की संस्कृति बनाए रखने और विकसित करने के लिए अपनी पसंद की शैक्षिक संस्थाएं स्थापित करने और चलाने का अधिकार प्रदान करता है और राज्य को वित्तीय सहायता देते समय किसी भी संस्था के साथ इस आधार पर कि उसे एक धार्मिक या अल्पसंख्यक द्वारा चलाया जा रहा है, भेदभाव करने से रोकता है. अनुच्छेद 14,15, और 16 सामूहिक रूप से कानून के समक्ष समानता, सार्वजनिक रोजगार के संबंध में अवसर की समानता की गारंटी देता है और धर्म के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है. अनुच्छेद 44 सभी नागरिकों के लिए सामान नागरिक संहिता बनाने के लिए राज्य को प्रोत्साहित करता है. अनुच्छेद 51 के अनुसार [a] प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों और संस्थाओं का आदर करें. [b] भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा कतरे [c] सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्व समझें और उसका निर्माण करें [d] वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करें [e] सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा को त्यागें. वर्णित सारे अनुच्छेद निहितार्थ द्वारा भारत में धर्मतांत्रिक राज्य की स्थापना होने से रोकते हैं और राज्य को किसी भी विशिष्ट धर्म या धार्मिक सम्प्रदाय के पक्ष में अपनी पहचान बनाने से रोकते हैं. राज्य को सभी धर्मों और धार्मिक सम्प्रदायों के समान व्यवहार के लिए अनुमोदित किया गया है.”

बोम्मई मामले में नौ सदस्य की संवैधानिक पीठ ने धारा 125 की RPA, 1951 की व्याख्या पर लम्बे समय तक चर्चा की गयी. यह परिच्छेद प्रासंगिक है. उन्हें पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है:

धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए : सर्वोच्च न्यायालय

एस आर बोम्मई (SUPRA ) में अनुच्छेद 149 :

“सम्मानपूर्वक, हम इस विवाद को स्वीकारने में असमर्थ हैं. धारा 123 के उप खंडों (3) और (3A) को साथ में पढ़ने से यह स्पष्ट है कि किसी भी धर्म के लिए या किसी भी धर्म के नाम पर वोट मांगना दो प्रावधानों द्वारा निषिद्ध है. इन्हें अन्यथा पढ़ना उक्त प्रावधानों के इरादे और उद्देश्य को नष्ट करना है. और इससे अधिक यह सोचते हुए कि प्रबुद्ध वकील द्वारा दी गई व्याख्या सही है, यह धर्मनिरपेक्षता की धारणा को नियंत्रित नहीं कर सकती जिसे स्वीकारा गया है और हमारे संविधान में निहित है. (इसका अर्थ है कि भ्रष्ट व्यवहार किसी भी उम्मीदवार के सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं है बल्कि सम्पूर्ण धर्म तक है) (सवाल यह है कि ‘उसका’ शब्द मतदाता के धर्म को संदर्भित करता है या ‘उसका’ शब्द ‘अपने प्रतिनिधि’ या उसके दल घोषणापत्र के बारे में बता सकता है”.

चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों को धर्म को शामिल नहीं करना चाहिए: सर्वोच्च न्यायालय

एस आर बोम्मई (SUPRA ) अनुच्छेद 187 :

सकारात्मक धर्मनिरपेक्ष राज्य में राजनीति को धर्म से परे रहना है दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीतिक दल को न तो धर्म का आह्वान करना चाहिए और न ही उसपर समर्थन या निर्वाह के लिए निर्भर होना चाहिए. संविधान व्यक्ति के धर्म की रक्षा सुनिश्चित करता है, धर्मनिरपेक्ष जीवन जीने के लिए अनुकूल शिक्षा के प्रचार की आज़ादी देता है, ताकि इंसान के और देश की प्रगति राज्य द्वारा सुनिश्चित की जा सके. यह सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता से जुड़ा अहम पहलू है”

भारतीय सरकार संविधान और कानून के तहत किसी धर्म विशेष का संरक्षण नहीं कर सकती है : सर्वोच्च न्यायालय

एस आर बोम्मई (SUPRA) अनुच्छेद 190:

“अनुच्छेद 25 सरकार को किसी एक विशिष्ट धर्म को गुप्त रूप से या प्रत्यक्ष रूप से संरक्षित करने से रोकता है. अतः राजनीतिक दल धार्मिक विश्वासों में तटस्थता बनाये रखने और संविधान और कानून के लिए अपमानजनक प्रथाओं को रोकने के लिए सकारात्मक रूप से निरूपित हैं. धर्म का राजनीति में प्रवेश न सिर्फ संवैधानिक जना देश को नकारता है बल्कि संविधान के दायित्व, कर्तव्य, जिम्मेदारी और सकारात्मक निषेचन ,जो संविधान और जन प्रतिनिधित्व कानून को प्राप्त हैं, का उल्लंघन है. जो राजनीतिक दल धार्मिक नीति या जाति अभिविन्यास नीति के माध्यम से सत्ता को सुरक्षित करने की कोशिश करते हैं वे लोगों को धर्म और जाति के आधार पर बाँट देते हैं. यह लोगों को विभाजित करते है और सामाजिक संरचना को धर्म और जाति के आधार पर भंग करते है जो शर्मनाक और संवैधानिक संस्कृति और उसके बुनियादी स्वरूप के लिए अभिशाप है. धर्म के आधार पर वोट माँगना धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को अपमानित करता है.”

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, यह स्पष्ट होना चाहिए कि हमारे संविधान के तहत, राजनीति में कोई भी धर्म नहीं होगा जैसे कि धर्म में कोई राजनीति नहीं होगी.

राजनीति से धर्म को अलग करें: सर्वोच्च न्यायालय

एस आर बोम्मई (SUPRA) अनुच्छेद 196

“दूसरे शब्दों में कहें तो, धर्म को राजनीति में सम्मिलित करना धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की संवैधानिक विशेषताओं का एक बड़ा उल्लंघन है. इसलिए ज़रूरी है कि धर्म और जाति को किसी भी राजनीतिक दल, संघ या किसी व्यक्ति द्वारा राजनीति में सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए साथ ही राजनीति को धर्म और जाति के प्रदूषण से बचाए रखना चाहिए.”

एक धार्मिक चर्चा, एक तर्क-वितर्क, या एक प्रवचन या फिर एक धार्मिक राज्य की उम्मीद हो सकती है जो किसी भी तथाकथित मौलिक अधिकार धारा 25 के तहत, किसी चुनावी सभा में, जो राजनीतिक गतिविधि है, इस्तेमाल की जा सकती है. यह निःसंदेह राजनीति को प्रदूषित करेगी और केवल धर्म के आधार पर वोट देने की अपील के अलावा और कुछ नहीं है.

राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिक मापदंडों का समर्थन करना चाहिए : सर्वोच्च न्यायालय

अधिनियम एस. 123(3) और (3A) के संदर्भ में अदालत ने एस आर बोम्मई (SUPRA) के अनुच्छेद 189 में कहा :

“राजनीतिक दल को, इस ही लिए, संविधान की मूलभूत विशेषताओं और कानून को अनदेखा नहीं करना चाहिए. घोषणापत्र अपने तमाम परिष्कार और भाषा की सुंदरता के बावजूद राजनीतिक दल को संवैधानिक जनादेश से बचा नहीं सकता और न ही ये दल धारा 29 A के तहत पंजीकृत होने के बाद संविधान और कानून को कायम रखने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी को नकार सकते हैं. साथ ही वो / वे संविधान के बुनियादी विशेषताओं को, चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करके या संविधान या कानून से छेड़छाड़ करके, नुकसान नहीं पहुँचा सकते हैं. राजनीतिक दल या राजनीतिक कार्यकारिणी जो मतपत्र की लड़ाई के माध्यम से विधायिका में बहुमत हासिल करके गठित हुई हो उसे पूरे कार्यकाल के दौरान अपने कार्यों और कार्यक्रमों द्वारा संविधान और कानून का पालन करना चाहिए.”

राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता के प्रति बाध्य हैं: सर्वोच्च न्यायालय

एस आर बोम्मई (SUPRA) अनुच्छेद 252:

राजनीतिक दल, व्यक्तियों का समूह या व्यक्ति जो राजनीतिक सत्ता में आने के लिए चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने की इच्छा रखते हैं, उन्हें संविधान और देश की धर्मनिरपेक्षता सार्वभौमता, अखंडता सहित कानूनों का पालन करना चाहिए. उन्हें धर्म को राजनीति में नहीं सम्मिलित करना चाहिए. धार्मिक सहिष्णुता और बंधुता संविधान के बुनियादी तत्व हैं जो देश के एकीकरण अनुभागीय और धार्मिक एकता के आधार हैं. धर्म के आधार पर राजनीतिक दलों द्वारा विकसित कार्यक्रमों या धर्म को राजनीतिक शासन को चलने का उपकरण बनाना संविधान में स्पष्ट रूप से निषिद्ध है. ये संविधान के बुनियादी स्वरूप का उल्लंघन करते हैं.

 

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