चुनाव आयोग के नाम खुला पत्र- प्रवासियों की जिंदगी भी रखती हैं मायने देश की नजर शायद पहली बार प्रवासी मजदूरों की ओर गई है

18, Jul 2020 | तीस्ता सेतलवाड़

आम नागरिक और लोकतांत्रिक शासन की सफलता में अपार विश्वास की बदौलत ही इस असेंबली ने वयस्क मताधिकार के सिद्धांत को अपनाया है. इस सभा का इस बात में पूरा विश्वास है कि वयस्क मताधिकार के जरिये एक लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना से देश में जागरुकता और बेहतरी आएगी. लोगों का जीवन स्तर सुधरेगा. इस देश का आम आदमी एक गरिमामय और सुकून भरी जिंदगी जी सकेगा.

–    अलाडी कृष्णस्वामी अय्यर

अमेरिका में सबको वोट देने का अधिकार मिलने में लंबा वक्त लग गया था. यहां यह अधिकार लोगों को धीरे-धीरे दिया गया. लेकिन भारत में आजादी के साथ ही हर नागरिक वोट देने का हकदार हो गया. भारत में अगर 15 फीसदी के बजाय सारे वयस्क नागरिकों को वोट देने का अधिकार हासिल हुआ तो इसके पीछे समानता और भेदभाव विरोधी आदर्शों से प्रेरित हमारा आजादी का आंदोलन था.

सभी भारतीयों को वोट देने के अधिकार के मामले में डॉ. बी.आर. अंबडेकर की सोच साफ थी. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 में डॉ. अंबेडकर की यही दृष्टि प्रतिबिंबित हुई है. इस अनुच्छेद में न सिर्फ सभी को मताधिकार के आधार पर चुनाव कराने की व्यवस्था है, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया गया है कि संपत्ति जैसी संभ्रांत सुविधा के आधार पर यह अधिकार सिर्फ समाज के कुछ उत्कृष्ट लोगों तक सीमित न रह जाए. हर नागरिक को मताधिकार और चुनाव लड़ने का अधिकार होगा.

इस मामले में होने वाले सार्वजनिक विमर्शों को अंबेडकर ने दशकों तक प्रभावित किया था. 1919 में साउथबोरो कमेटी के सामने प्रमाण देते हुए (यह कमेटी उस समय इंडियन डोमिनियन का प्रतिनिधित्व करने वाले संस्थानों का स्वरूप तय करने के लिए प्रमाणों को रिकार्ड कर रही थी) अंबेडकर ने इस बात पर जोर दिया कि लोकतांत्रिक सरकार का और मताधिकार का चोली-दामन का साथ है, इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है. मताधिकार ही राजनीतिक शिक्षा का अग्रदूत (मुख्य अग्रदूतों में से एक) साबित होगा.

आज जब 21वीं सदी में पूरा भारत कोविड-19 की वजह से लागू लॉकडाउन से जूझ रहा है, तो देश के लिए अपनी इस समृद्ध विरासत को याद करना जरूरी है. दरअसल देश की नीतियों और सरकार चलाने वाली पार्टियों के चुनाव में जनता की मंशा झलकती है. इसके जरिये ही वह अपना प्रतिनिधि चुनती है. यह वोट ही प्रतिनिधित्व के आधार पर खड़े इस लोकतंत्र की बुनियाद का प्रतीक है.

आज जिस प्रकार हमारे आधुनिक और पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया पर, अबाध पैसों, जाति, वर्ग और सामुदायिक हितों जैसे अभिशाप हावी हैं, ऐसे में क्या भारत अपने गिरेबान में झांक कर यह बता सकता है, कि क्यों सिर्फ काम के लिए अपने घरों से दूर रहने वाली आबादी के एक बड़े हिस्से को उसके मौलिक संवैधानिक अधिकार से महरूम रखा जा रहा है?

देश की नजर शायद पहली बार प्रवासी मजदूरों की ओर गई है. अचानक लगाए गए लॉकडाउन से इस देश की एक बड़ी आबादी को त्रासदियों का सामना करना पड़ा. ये त्रासदियां राजनीतिक नेताओं समेत इस देश के ज्यादा सुविधा संपन्न लोगों की आंखों के सामने थीं. भारतीय लोकतंत्र अगर इस त्रासदी से सही सबक सीखना चाहता है, तो उसे घरों से दूर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के लिए वोट देने का अधिकार सुनिश्चित करना होगा. ये लोग अपने इस अधिकार का इस्तेमाल कर सकें उसकी पुख्ता  व्यवस्था करनी होगी. वे अपने हित में विधानसभाओं, सांसद और पार्टियों का चुनाव कर सकें इसलिए उन्हें यह अधिकार देना ही होगा. इसके जरिये वे सामाजिक परिवर्तन के लिए तैयार होंगे और इसके वाहक बन सकेंगे.

इस मुहिम को आगे बढ़ाने की जरूरत है. भारतीय संविधान अपने हर नागरिक को देश के किसी हिस्से में आने-जाने और रहने का अधिकार देता है. यह लोगों को बेहतर जीविका और रोजगार के मौके तलाशने के लिए किसी भी हिस्से में जाने की इजाजत देता है. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में आंतरिक प्रवासियों की तादाद 45 करोड़ थी. उस समय तक 2001 की तुलना में इसमें 45 फीसदी का इजाफा हो चुका था. इसमें से 26 फीसदी यानी 11.7 करोड़ लोग अपने ही राज्य में एक जिले से दूसरे जिले के बीच आने-जाने वाले थे. 12 फीसदी लोग यानी 5.4 करोड़ प्रवासी एक राज्य से दूसरे राज्यों में गए थे. आधिकारिक और स्वंतत्र विशेषज्ञों दोनों का मानना है कि यह आंकड़ा कम है. एक बड़ी आबादी उन प्रवासियों की होती है, जो किसी दूसरे राज्य या जिले में जाकर बहुत दिनों तक नहीं टिकते. वो अपने गृह नगर या जिलों के बीच फेरा लगाते रहते हैं. ऐसे प्रवासियों की संख्या ही 6 से 6.5 करोड़ लोगों की हो सकती है. इनमें इनके परिवार के सदस्यों को शामिल किया जाए तो यह संख्या 10 करोड़ हो जाती है. इनमें से आधे अंतरराज्यीय प्रवासी हैं.

अध्ययनों से यह जाहिर हो चुका है कि प्रवासी मजदूर सबसे कमजोर वर्ग के भारतीयों में शामिल हैं. ये सबसे गरीब इलाकों से आते हैं. ये समाज के हाशिये वाले कगार पर पड़े लोग होते हैं. (इनमें से अधिकतर, अनुसूचित जाति-जनजाति, ओबीसी, मुस्लिम समेत अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के लोग हैं). यह शिक्षा से वंचित, और संपत्ति या जमीन के मालिकाना हक से वंचित लोगों का समूह होता है.

2011 में सबसे ज्यादा लोग यूपी और बिहार से दूसरे राज्यों में जा रहे थे. इनकी संख्या क्रमश: 83 और 63 लाख थी. सबसे ज्यादा लोग महाराष्ट्र और दिल्ली जा रहे थे. बाद में इन प्रवासियों की तादाद में झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के प्रवासी भी शामिल हो गए. ये प्रवासी मजदूर अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक सेक्टरों में काम करते हैं.

ज्यादातर प्रवासी मजूदरों के पास अपने गृह क्षेत्र का बना हुआ वोटर कार्ड होता है. 2012 की एक स्टडी के दौरान जिन प्रवासियों के बीच सर्वे कराया गया था, उनमें से 78 फीसदी के पास अपने गृह नगरों के बनाए गए वोटर आईडी कार्ड थे. वोटर लिस्ट में भी वे अपने क्षेत्र के मतदाता के तर्ज पर ही मौजूद थे.

आर्थिक मजबूरियां प्रवासियों को अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने के लिए अपने गृह राज्य नहीं जाने देतीं. काम के कड़े घंटे और सीजन से वे एक दिन में अपने घर पहुंच कर अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान एक सर्वे में जिन लोगों से सवाल पूछे गए थे उनमें से सिर्फ 48 फीसदी ने वोट दिए थे, जबकि राष्ट्रीय औसत 59.7 फीसदी था. उस चुनाव में सिर्फ 31 फीसदी लोगों ने वोट दिए थे. यह ढर्रा लगातार चला आ रहा है. 2019 लोकसभा चुनाव में बिहार, यूपी जैसे सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूर वाले राज्यों में वोटिंग सबसे कम रही थी. बिहार और यूपी में क्रमश: 57.33 और 59.21 फीसदी वोटिंग हुई. जबकि राष्ट्रीय औसत 67.4 फीसदी रही.

इसके अलावा गृह राज्य और दूसरे राज्यों के बीच लगातार आवाजाही (सर्कुलर माइग्रेशन) की वजह से स्थायी और लंबे वक्त तक एक राज्य में न रह पाने वाले प्रवासी मजदूर, जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 20 के तहत ‘साधारण नागरिक’ (“ordinary resident”) का दर्जा हासिल नहीं कर पाते हैं, और वहां के वोटर आईडी कार्ड से महरूम हो जाते हैं. इस तरह से वे उन चुनाव क्षेत्रों में वोट नहीं डाल पाते हैं, जहां वे काम कर रहे होते हैं. उन शहरों में काम करने वाले मजदूरों में सिर्फ दस फीसदी के पास ही वहां के वोटर आईडी कार्ड थे.

इंटर-स्टेट माइग्रेशन वर्कमैन एक्ट, 1979 (“ISMW”) प्रवासी मजदूरों को शोषण से बचाने के लिए लाया गया था. इस एक्ट के मुताबिक केंद्र और राज्यों के लिए प्रवासियों मजदूरों की ओर से किए जाने वाले काम का रिकार्ड रखना जरूरी है. इस डेटा को बिल्कुल सही तरीके से रखा जाना चाहिए ताकि भारत का चुनाव आयोग यहां से ये आंकड़े ले सके.

भारतीय निर्वाचन आयोग, संविधान के अनुच्छेद के तहत गठित एक संवैधानिक संस्थान है. जन प्रतिनिधत्व कानून की धारा 60 (सी) के तहत उसे यह अधिकार है वह कुछ खास वर्गों को पोस्टल बैलेट (डाक मत पत्र) के जरिये वोट डालने का अधिकार दे सके. चुनाव आयोग का मिशन है कि कोई भी ‘वोटर छूटना नहीं नहीं चाहिए’. इसलिए डाक के जरिये वोट डालने की सुविधा दी गई है. 2019 के चुनाव में 28 लाख से ज्यादा वोट पोस्टल बैलेट के जरिये हासिल हुए. लिहाजा, भारत के प्रवासी मजदूरों को भी डाक के जरिये वोट देने का अधिकार मिलना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने भी मताधिकार की व्याख्या की है. सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या के मुताबिक मताधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1) (ए) के तहत मिली अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार का विस्तार है.

इसलिए यह भारतीय निर्वाचन आयोग का दायित्व बनता है कि इस आजादी के इस्तेमाल के लिए ज्यादा से ज्यादा माकूल हालात तैयार करे. इसलिए हर धर्म, लिंग, पंथ, जातीयता या विश्वास से परे हर प्रवासी मजदूर के इस मौलिक अधिकार के इस्तेमाल की व्यवस्था सुनिश्चित करे. यह भारतीय निर्वाचन आयोग का संवैधानिक कर्तव्य है.

अगर ‘’भारतीयों के इस वर्ग” (प्रवासी मजदूरों) के मताधिकार की वैधानिक इस्तेमाल के इंतजाम नहीं किए जाते हैं तो यह माना जाएगा कि इस देश का पूरा राजनीतिक विमर्श (इसमें सत्ता और विपक्ष, दोनों के लोग शामिल हैं) ऐसे लोगों की सुरक्षा, गरिमा और बेहतरी की अनदेखी कर रहा है.

‘अछूतों’ के मताधिकार को लेकर अंबेडकर की जो दृष्टि थी, उस पर गौर करना जरूरी है. उन्होंने कहा था, “नागरिकता दो चीजों से बनती है. पहला प्रतिनिधित्व के अधिकार से और दूसरा राज्य के अधीन पद हासिल करने के अधिकार से. इन्हीं दो अधिकार से नागरिकता का लक्ष्य हासिल होता है.”

भारत के लिए यह बेहतर होगा कि वह डॉ. अंबेडकर के इस विचार को जमीनी स्तर पर लागू करे. इस देश में लंबे समय से अदृश्य रही आबादी के एक बड़ा हिस्से (प्रवासी मजदूर) की राजनीतिक शिक्षा तभी पूरी हो पाएगी. ऐसे कदम इस देश को और बेहतर बनाएंगे.

अप्रवासी की जिंदगियां मायने रखती हैं. इसे समझना जरूरी है.

(इस लेख में व्यक्त विचार सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस (cjp.org.in) की ओर से भारतीय निर्वाचन आयोग को भेजे गए सामूहिक ज्ञापन से जुड़े हैं. आयोग को यह ज्ञापन 10 जुलाई, 2019 को भेजा गया था, इस पर लोक शक्ति अभियान, ओडिशा, ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपुल्स (AIUFWP), बांग्ला संस्कृति मंच और भारतीय नागरिक अधिकार सुरक्षा मंच, असम) के हस्ताक्षर हैं)

(इस लेख के लिए संचिता कदम, राधिका गोयल और शर्वरी कोठावाड़े ने सिसर्च की है. तीनों वकील हैं)

 

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