Imagine waking up on the morning of New Year’s Day 2022, and finding a photo of yourself, your mother, friend, sister, daughter, a woman you know and admire - including the mother of Najeeb, a young student went missing after being assaulted by ABVP goons in Delhi - all Muslims, obscenely morphed and put up for auction on an app!
Imagine not being able to attend Church during Christmas, not because of Covid restrictions, but due to the looming threat of disruption of services and violence by right-wing goons. Imagine the message it sends to minorities when a call for mass slaughter of all Muslims is given from one of Hinduism’s Holy Cities, Haridwar. Did one feel a sense of revulsion and shame, given how one’s religion was being misused to spread hate against minorities by vested interests? Did it bother those of us who form the majority? Did we even react?
The tragic reality is that for you, and us, the possibility appears remote because we are safe and secure in this country where you are in majority. Right? There is 60 % of us in this country – minus the minority and Dalits and Adivasis – secure behind the numbers. Barely a few of us so much as squeak.
The silence stems from both fear and complicity. This silence needs to end, and the focus needs to be on protests that aim to bring about change on the ground – in society, in our hearts, and in our homes. The failure to break the silence will ensure that this Hate consumes us.
This Hate that has swirled in our midst peripherally for decades, has now permeated all spaces both public and personal: Parliament, streets, public meetings, newsrooms, offices, living rooms and bedrooms. We hear and read of public confessions of how it has wrenched apart families.
This Hate is an integral part of State project and policy to demonise and denigrate a whole section of Indians to invisibility and second-class status.
Is it not about time that the silent complicity of the Hindu majority is addressed, directly challenged, cajoled even, provoked if need be, to take a stand? At all levels of the social stratum, state non state etc. We all need to speak up - judges, lawyers, businessmen, doctors, teachers, artists, filmmakers, writers, activists of all hues, academics, journalists, farmers, workers, ALL OF US!
The majority needs to speak up for the minority because it is the right thing to do! Minorities have after all coexisted peacefully with us for thousands of years and contributed to the rich tapestry of Indian culture, whether it is in the field of music, science, healthcare, education, art or cinema. The names are innumerable, but what cannot be questioned is the pride they too have taken in being Indian. It is this India we need to defend and protect.
Why do we need to protest – loudly and creatively? Is it for decency, for democracy, for the Constitution, or also for ourselves?
When the infamous ‘Dharam Sansad’ called for annihilation of the minority, it was the final call that began with systematic hate calls (Corona Jihad, Muslims as Traitors etc etc), socio-economic boycott, acts of bias, institutionalised bias etc. There has been an overall legitimisation of this hatred that needs to be challenged by the people and broken.
When the pernicious Bulli Bai App, (which followed six months after the Sulli Deals App) came to light on New Year’s Day 2022, it was a direct assault on articulate, autonomous womens’ voices from the Muslim minority who had challenged majoritarian fascism at its roots. The echo in the form of a tweet by CT Ravi (national executive member of the Bharatiya Janata Party (BJP) late evening January 5 (Goli Maron S***on Ko) reveals that Hate as a political project has cynical sanction from the absolute top of the ruling political spectrum.
The Mumbai police has acted, arrested some; the Haridwar police compelled by a measure of public revulsion have registered an FIR against Yati Narsinghanand. The question is that for you and me, is that enough?
When people in positions of power speak up, they have the influence to check the poison, check the onset of violence because that is what Hate propaganda is - the onset of a long arrow that finally results in targeted lynching or mob violence. Hence whoever you are and wherever you are, a doctor, an artist, a nurse, a lawyer, industrialist, corporate leaders, most importantly judges, actors, filmmakers, artists, writers, mediapersons - its time we make our collective outrage and protest felt. Now!
Remember when #BlackLivesMatter protests broke out across the United States. It was the white majority, many of them in powerful positions, that spoke in unison demanding justice for their fellow black citizens. In India though there has been a deafening silence. It is we the majority who need to speak up, protest in a million ways and make ourselves heard.
This should boil our blood, certainly. Our country has never seen so much hatred against women, or any minority for that matter, unleashed at such a large scale. Such hate needs to be countered on a massive scale, to show the hate mongers that they are outnumbered by peacemakers, and we as a country are united in the spirit and vision our forefathers fought with when they demanded Independence. “Unity in diversity” is not just a value lesson for school children but it has to be now served as a reminder to each one of us that “united we rise” else, as a country we will soon fall.
Wake up, speak up, make a fist and let it rise in revolution to call for a new India where everyone has equal opportunity and nobody has to fall victim to hatred. It is our Duty as Indians, to speak up, before it is too late.
नफ़रत के ख़िलाफ़ बुलंद करें आवाज़!
भारत के बहुसंख्यकों से एक अपील
कल्पना कीजिए कि नए साल 2022 की पहली सुबह आप जागती हैं और आपको अपनी, अपनी मां की, दोस्त की, बहन की, बेटी की, और नजीब की मां (जो एबीवीपी के गुंडों द्वारा हमले के बाद से गायब अपने बेटे को आज तक ढूंढ रही हैं) सहित उन सभी मुस्लिम औरतों की तस्वीरें अश्लील तरीक़े से एक ऐप पर पेश करके नीलामी के लिए रखी हुई नज़र आती हैं जिन्हें आप इज़्ज़त देती आई हैं और प्यार करती हैं!
यह भी कल्पना कीजिए कि क्रिसमस के दौरान चर्च जाने से आपको रोक दिया गया हो, और ऐसा कोविड प्रतिबंधों के कारण नहीं हुआ हो, बल्कि इसके पीछे की वजह दक्षिणपंथी गुंडों द्वारा व्यवधान पैदा करने की धमकी और हिंसा का ख़तरा हो। जब हिंदू धर्म के सबसे पवित्र स्थलों में से एक, हरिद्वार से सभी मुसलमानों के नरसंहार का आह्वान किया जाता है, तो इससे अल्पसंख्यकों के बीच कैसा संदेश जाता है। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए एक धर्म का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए किया जाता है, क्या इस बात से किसी के मन में घृणा का भाव पैदा होता है और शर्मिंदगी महसूस होती है? क्या इस बात ने हमें परेशान किया, जो बहुसंख्यक आबादी का हिस्सा हैं? क्या हमने इसके ख़िलाफ़ कोई प्रतिक्रिया तक दी?
दुखद सच्चाई यही है कि आपके और हमारे लिए, इसकी संभावना दूर की कौड़ी लगती है, क्योंकि हम इस देश में बहुमत में हैं और सुरक्षित व सकुशल हैं। सही बात है न? इस देश में हमारी आबादी 60% है - अल्पसंख्यकों और दलितों व आदिवासियों को छोड़कर। हमारे बीच से बमुश्किल कुछ ही लोग अपनी आवाज़ उठाते हैं।
यह सन्नाटा, भय और सहमति-मिलीभगत, दोनों की उपज है। इस चुप्पी को तोड़ने की सख़्त ज़रूरत है, और उन प्रतिरोधों पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है जिनका उद्देश्य ज़मीनी बदलाव लाना है - समाज में, हमारे दिलों में, और हमारे घरों में। अगर आज हम अपनी चुप्पी नहीं तोड़ेंगे, तो यह नफ़रत हमें खा जाएगी।
यह नफ़रत दशकों से हमारे बीच घूमती रही है और अब सार्वजनिक और व्यक्तिगत, दोनों जगहों (संसद, सड़कों, सार्वजनिक बैठकों, न्यूज़रूम, कार्यालयों, बैठक और शयनकक्षों) में फैल गई है। हम ऐसी सार्वजनिक स्वीकारोक्तियों के बारे में सुनते और पढ़ते रहते हैं कि कैसे इस नफ़रत ने परिवारों में दरार पैदा कर दी है।
यह नफ़रत, स्टेट की सुनियोजित परियोजना और साज़िश का हिस्सा है, जिसने भारत के एक पूरे वर्ग को हाशिए पर ढकेल दिया है और उन्हें दोयम दर्जे की स्थिति में पहुंचा दिया है।
क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि इस नफ़रत के प्रति हिंदू बहुसंख्यकों की मूक सहमति पर बोला जाए, सीधी चुनौती दी जाए, ज़रूरत पड़ने पर उन्हें (सभी सामाजिक स्तरों पर - राज्य या गैर-राज्य आदि) आवाज़ उठाने के लिए उकसाया जाए? हम सभी (न्यायाधीश, वकील, व्यवसायी, डॉक्टर, शिक्षक, कलाकार, फिल्म-निर्माता, लेखक, सभी एक्टिविस्ट, शिक्षाविद, पत्रकार, किसान, मज़दूर) को इस नफ़रत के ख़िलाफ़ बोलने की ज़रूरत है!
बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के लिए आवाज़ उठाने की ज़रूरत है, क्योंकि यही सही रास्ता है! अल्पसंख्यक, हज़ारों वर्षों से हमारे साथ शांतिपूर्वक रहते आए हैं, और भारतीय संस्कृति को समृद्ध बनाने में अहम योगदान दिया है; चाहे वह संगीत का क्षेत्र हो या विज्ञान, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, कला या सिनेमा का क्षेत्र हो। असंख्य नाम हैं जो गिनाए नहीं जा सकते। लेकिन जिस बात पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता वह है उनके भारतीय होने का गौरव। यही वह भारत है जिसका हमें बचाव करना है और उसकी रक्षा करनी है।
हमें पुरज़ोर ढंग से और रचनात्मकता के साथ से प्रतिरोध करने की आवश्यकता क्यों है? क्या यह सिर्फ़ हमारी सभ्यता, लोकतंत्र, संविधान के लिए ज़रूरी है? या हमारे ख़ुद के लिए भी?
जब कुख्यात 'धर्म संसद' ने अल्पसंख्यकों के नरसंहार का आह्वान किया, तो यह निर्णायक आह्वान था जिसका सिलसिला सांस्थानिक ढंग से फैलाई जा रही नफ़रत (कोरोना जिहाद, गद्दार के रूप में मुसलमानों को दिखाना आदि), सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार, पूर्वाग्रह से प्रेरित कृत्यों, संस्थागत पूर्वाग्रहों आदि के साथ शुरू हुआ था। इस नफ़रत को हर तरह से वैधता देने की कोशिश की गई है, जिसे लोगों द्वारा चुनौती देने और तोड़ने की ज़रूरत है।
जब शर्मनाक बुल्ली बाई ऐप, (जो सुल्ली डील ऐप के छह महीने बाद आया) नए साल 2022 के पहले दिन प्रकाश में आया, तो यह मुस्लिम अल्पसंख्यकों की मुखर, स्वतंत्र महिला आवाज़ों पर सीधा हमला था, जिन्होंने बहुसंख्यक फासीवाद को चुनौती पेश की थी। इसके बाद 5 जनवरी की देर शाम सीटी रवि (भारतीय जनता पार्टी - भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्य) के एक ट्वीट (गोली मारो सालों को...) के रूप में आह्वान से पता चलता है कि नफ़रत को एक सियासी प्रोजेक्ट के तौर पर हालिया सत्तारूढ़ पार्टी से पूर्ण रूप से स्वीकृति मिली हुई है, जो सरासर निंदनीय है।
मुंबई पुलिस ने कार्रवाई की है और कुछ को गिरफ़्तार किया है; वहीं, जनता के आक्रोश से मजबूर होकर हरिद्वार पुलिस ने यति नरसिंहानंद के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज कर ली है। अब सवाल आपके और मेरे लिए बचता है कि क्या इतना काफ़ी है?
जब महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग बोलते हैं, तो उनके पास ज़हर का असर जांचने, हिंसा की शुरुआत को रोकने की ताक़त होती है; वरना नफ़रत तो यही चाहती है - एक लंबे दौर की शुरुआत, जो अंततः प्रायोजित मॉब लिंचिंग या भीड़ की हिंसा के रूप में फलती है। इसलिए, आप जिस क्षेत्र में भी कार्यरत हैं और जहां भी रहते हैं, आप एक डॉक्टर हैं, कलाकार हैं, नर्स, वकील, उद्योगपति, कॉर्पोरेट नेता, न्यायाधीश, अभिनेता, फिल्म निर्माता, लेखक, मीडियाकर्मी हैं - समय आ गया है कि हम अपने सामूहिक आक्रोश और प्रतिरोध की आवाज़ को बुलंद करें। और इसी वक्त करें!
याद कीजिए, कुछ अरसे पहले पूरे अमेरिका में #BlackLivesMatter कैंपेन शुरू हुआ था। वहां श्वेत आबादी बहुसंख्यक थी, जिनमें से तमाम लोग शक्तिशाली पदों पर थे, और उन्होंने अपने साथी अश्वेत नागरिकों के लिए एक स्वर में इंसाफ़ की मांग की। हालांकि, भारत में सन्नाटा पसरा हुआ है। हम बहुसंख्यकों को अपनी चुप्पी तोड़कर बोलने, तरह-तरह से विरोध करने, और सत्ताधीशों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने की ज़रूरत है।
इन बातों से हमारा ख़ून खौलना चाहिए। हमारे देश के इतिहास में ऐसा कभी नहीं देखा गया था, जब महिलाओं या किसी अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ इतने बड़े पैमाने पर इतनी नफ़रत फैलाई जा रही हो। इस तरह की नफ़रत का बड़े पैमाने पर मुक़ाबला करने की ज़रूरत है, ताकि नफ़रत फैलाने वालों को यह मुंहतोड़ जवाब मिले कि शांति और अमन की चाह रखने वाले संख्या में उनसे कहीं ज़्यादा हैं, और हम एक देश के तौर पर उसी भावना और दृष्टि के साथ एकजुटता रखते हैं जिनके साथ हमारे पुरखों ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी। "अनेकता में एकता" केवल स्कूली बच्चों के लिए बनाया गया नैतिक शिक्षा का पाठ नहीं है, बल्कि हमें अब इसे एक चेतावनी के तौर पर याद रखना होगा कि अगर "हम एकजुट होकर" नहीं रहेंगे, तो एक देश के रूप में हम जल्द ही नष्ट हो जाएंगे।
इसलिए, अब जाग जाइए, आवाज़ उठाइए, क्रांति के नारे के साथ अपनी मुट्ठियां बांधिए, और एक नए भारत का आह्वान कीजिए, जहां सभी को समान अवसर मिले और किसी को भी नफ़रत का शिकार न होना पड़े। एक भारतीय के तौर पर यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम अपनी आवाज़ बुलंद करें। वरना, आज अगर ख़ामोश रहे तो कल सन्नाटा छाएगा!
द्वेषाविरुद्ध आता तरी बोला
बहुसंख्य सुखवस्तू भारतीयांना एक आवाहन
कल्पना करा की २०२२ च्या नववर्षाच्या दिवशी सकाळी उठल्यावर तुम्हाला तुमचा, तुमच्या आईचा, मैत्रिणीचा, बहिणीचा, मुलीचा किंवा ज्यांना तुम्ही ओळखता किंवा ज्यांचा तुम्ही आदर करता अशा एखाद्या – दिल्लीत अभाविपच्या गुंडांनी हल्ला केल्यापासून बेपत्ता असलेल्या नजीबच्या आईसह – स्त्रीचा, सर्व मुस्लीम, अश्लील पद्धतीने मॉर्फ केलेला फोटो एका ॲपवर लिलावासाठी ठेवल्याचे आढळले तर काय वाटेल!
कल्पना करा की ख्रिसमसच्या दिवशी तुम्ही चर्चला जाऊ शकत नाही, कोविडच्या निर्बंधांमुळे नव्हे तर उजव्या विचारसरणीच्या गुंडांनी प्रार्थनेत अडथळा आणून हिंसाचार करण्याच्या संभाव्य धोक्यामुळे. हिंदू धर्मियांसाठी पवित्र शहरांपैकी एक असलेल्या हरिद्वारमधून सर्व मुस्लिमांची सामूहिक कत्तल करण्याचे आवाहन केले जाते तेव्हा अल्पसंख्याकांमध्ये काय संदेश जात असेल याची कल्पना करा. स्वार्थी हितसंबंधांसाठी अल्पसंख्याकांविरुद्ध द्वेष पसरवण्यासाठी आपल्या धर्माचा कसा गैरवापर केला जात आहे, हे पाहून कुणालातरी तिरस्कार आणि लाज वाटली का? आपल्यापैकी जे बहुसंख्याकांपैकी आहेत त्यांना याचा त्रास झाला का? आपण यावर साधी प्रतिक्रिया तरी दिली का?
दुःखद वास्तव हे आहे की, तुमच्यासाठी आणि आमच्यासाठी ही शक्यता कमीच दिसते, कारण आपण या देशात बहुसंख्य असल्याने आपण अत्यंत सुरक्षित आहोत. बरोबर ना? या देशात आकडेवारीनुसार बहुसंख्य आणि त्यामुळे सुरक्षित असे आपण ६०% लोक आहेत - अल्पसंख्याक आणि दलित आणि आदिवासी यांना वगळून. आपल्यापैकी जेमतेम काहीच जण याविषयी थोडंफार बोलतात.
हे मौन भीती आणि मूक सहमती या दोन्हींपासून उद्भवते. हे मौन थांबणे आवश्यक आहे आणि त्यासाठी प्रत्यक्ष परिस्थितीमध्ये म्हणजे आपल्या समाजात, आपल्या हृदयात आणि आपल्या घरांमध्ये बदल घडवून आणण्याच्या उद्देशाने निषेध करण्यावर लक्ष केंद्रित करणे आवश्यक आहे. मौनाचा भंग करण्यात अपयशी ठरल्यास हा द्वेषच आपल्याला खात्रीशीरपणे भस्मसात करेल.
अनेक दशकांपासून आपल्या परिघावर फिरत असलेल्या या द्वेषाने आता सार्वजनिक आणि वैयक्तिक अशा सर्व जागा व्यापल्या आहेत: संसद, रस्ते, सार्वजनिक सभा, न्यूजरूम, कार्यालये, बैठकीच्या खोल्या आणि बेडरूमही. अनेकांना आपण सार्वजनिकपणे सांगताना ऐकतो आणि वाचतो की यामुळे कशाप्रकारे कुटुंबे दुभंगली आहेत.
हा द्वेष राज्यव्यवस्थेच्या प्रकल्पाचा आणि धोरणाचा एक अविभाज्य भाग आहे, जो भारतीयांच्या एका संपूर्ण वर्गाला अदृश्य करण्यासाठी आणि दुय्यम दर्जा मिळवून देण्यासाठी खलनायक ठरवून बदनाम करण्यासाठी आहे.
आता आपण हिंदू बहुसंख्य लोकांच्या मूक सहमतीवर उपाय शोधण्याची, त्याला थेट आव्हान देण्याची, गोड बोलून मन वळवण्याची, गरज पडल्यास चिथावण्याची, ठाम भूमिका घेण्याची वेळ आली नाहीये का? सामाजिक स्तर, राज्य व राज्येतर इत्यादी सर्व स्तरांवर आपण आवाज उठवला पाहिजे - न्यायाधीश, वकील, व्यावसायिक, डॉक्टर, शिक्षक, कलाकार, चित्रपट निर्माते, लेखक, सर्व विचारांचे कार्यकर्ते, शिक्षणतज्ज्ञ, पत्रकार, शेतकरी, कामगार, अगदी आपण सगळ्यांनी!
बहुसंख्यांनी अल्पसंख्याकांच्या बाजूने आवाज उठवण्याची गरज आहे कारण तेच योग्य आहे! अल्पसंख्याक हजारो वर्षे आपल्याबरोबर शांततेने एकत्र राहिले आहेत आणि त्यांनी भारतीय संस्कृतीच्या समृद्ध परंपरेमध्ये योगदान दिले आहे, मग ते संगीत, विज्ञान, आरोग्यसेवा, शिक्षण, कला किंवा सिनेमा असे कोणतेही क्षेत्र असो. नावे असंख्य आहेत, पण ज्यावर प्रश्नचिन्ह उपस्थित करता येत नाही ती गोष्ट म्हणजे भारतीय असल्याचा त्यांना असलेला अभिमान. हाच भारत आपल्याला जपण्याची आणि त्याचे रक्षण करण्याची गरज आहे.
आपण मोठ्याने आणि कल्पकतेने निषेध करण्याची गरज का आहे? हे सभ्यतेसाठी आहे, लोकशाहीसाठी, राज्यघटनेसाठी आहे की स्वतःसाठीही.
जेव्हा कुप्रसिद्ध 'धर्म संसदे'ने अल्पसंख्याकांचा नायनाट करण्याचे आवाहन केले, तेव्हा ही शेवटची हाक होती जी पद्धतशीर द्वेषाची आवाहने (कोरोना जिहाद, मुस्लिमांना देशद्रोही म्हणणे इत्यादी), सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार, पक्षपातीपणाची कृत्ये, संस्थात्मक पक्षपात इ. पासून सुरू झाली होती. या द्वेषाला एकंदरीतच कायदेशीर मान्यता मिळाली आहे, ज्याला लोकांनी आव्हान देणे आणि तो मोडून काढणे आवश्यक आहे.
२०२२ च्या नववर्ष दिवशी जेव्हा घातक बुल्ली बाई ॲप (सुल्ली डील्स ॲपनंतर सहा महिन्यांनी) उघडकीस आले, तेव्हा तो बहुसंख्याकवादाच्या मुळाशी असलेल्या फॅसिझमला आव्हान देणाऱ्या, मुस्लिम अल्पसंख्याकांमधील स्पष्टवक्त्या, स्वतंत्र विचारांच्या महिलांच्या आवाजावर केलेला थेट हल्ला ठरला. सीटी रवी (भारतीय जनता पक्षाचे (भाजप) राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्य) यांनी ५ जानेवारी रोजी संध्याकाळी उशिरा केलेल्या ट्विटच्या स्वरूपात (गोली मारो **लोंको) उमटलेल्या प्रतिक्रियेवरून दिसून येते की, राजकीय प्रकल्प म्हणून द्वेषाला सत्ताधारी राजकीय वर्गाच्या अगदी सर्वोच्च स्तरावरून निंदनीय मंजुरी आहे.
मुंबई पोलिसांनी कारवाई करून काहींना अटक केली आहे; मोठ्या प्रमाणात तीव्र सार्वजनिक प्रतिक्रियांमुळे भाग पडल्याने हरिद्वार पोलिसांनी यती नरसिंगानंद यांच्याविरोधात एफआयआर दाखल केला आहे. तुमच्या आणि माझ्यासाठी प्रश्न हा आहे की, एवढे पुरेसे आहे का?
सत्तेच्या पदावरील, प्रभावशाली लोक आवाज उठवतात तेव्हा, त्यांच्यामध्ये विषाला आवर घालण्याचा, हिंसाचाराची सुरुवात रोखण्याचा प्रभाव असतो, कारण द्वेषपूर्ण अपप्रचार (प्रोपागंडा) म्हणजे हेच तर असते - भात्यातून एक असा विषारी बाण दूरवर सोडणे ज्याचा परिणाम अखेरीस शेवटी टार्गेटेड लिंचिंग किंवा जमावाच्या हिंसाचारात होतो. म्हणूनच तुम्ही कोणीही असाल आणि तुम्ही कुठेही असाल, एक डॉक्टर, कलाकार, नर्स, वकील, उद्योगपती, कॉर्पोरेट नेते, सर्वात महत्त्वाचे म्हणजे न्यायाधीश, अभिनेते, चित्रपट निर्माते, कलाकार, लेखक, माध्यमांमधील व्यक्ती - ही वेळ आहे की आपण आपला सामूहिक संताप आणि निषेध जाणवू देण्याची. तेही आत्ताच!
संपूर्ण अमेरिकेत #BlackLivesMatter निदर्शने सुरू झाली तेव्हा तुम्हाला आठवतंय का. गोऱ्या बहुसंख्याकांनी, त्यांच्यापैकी प्रभावशाली पदांवर असलेल्या बऱ्याच जणांनी, त्यांच्या कृष्णवर्णीय बांधवांना न्याय मिळवून देण्याच्या मागणीसाठी एकसुरात आवाज उठवला होता. याउलट भारतात मात्र बधिर करणारे मौन आहे. आपण बहुसंख्य लोकांनीच आवाज उठवण्याची, लाखो मार्गांनी निषेध करण्याची आणि आपला आवाज पोहोचवण्याची गरज आहे.
यामुळे आपले रक्त नक्कीच पेटून उठले पाहिजे. आपल्या देशाने इतक्या मोठ्या प्रमाणावर स्त्रियांबद्दल किंबहुना कोणत्याही अल्पसंख्याकांविरुद्ध इतका द्वेष कधीच पाहिला नाही.
अशा द्वेषाचा मोठ्या प्रमाणावर प्रतिकार करणे आवश्यक आहे, द्वेष पसरवणाऱ्यांना हे दाखवून देण्यासाठी की शांतताप्रिय लोकांची संख्या आता त्यांच्यापेक्षा कैक पटींनी जास्त आहे, आणि स्वातंत्र्याची मागणी करताना आपल्या पूर्वजांनी ज्या भावनेने आणि दूरदृष्टीने लढा दिला होता तसेच आता आपण एक देश म्हणून एकजूट झालो आहोत. “विविधतेत एकता” हा केवळ शालेय मुलांनी मूल्यशिक्षणाच्या वर्गाला शिकायचा एक धडा नसून आता आपल्यापैकी प्रत्येकाला याची आठवण करून देणे आवश्यक आहे की “एकजुटीनेच आपण यशस्वी होऊ” अन्यथा, एक देश म्हणून आपण लवकरच कोलमडून पडू.
जागे व्हा, बोला, मूठ आवळा आणि नवीन भारताची हाक देणाऱ्या क्रांतीसाठी ती वर येऊ द्या, एका अशा भारतासाठी ज्यामध्ये प्रत्येकाला समान संधी असेल आणि कोणीही द्वेषाला बळी पडणार नाही. खूप उशीर होण्यापूर्वी आवाज उठवणे हे एक भारतीय म्हणून आपले कर्तव्य आहे.
1085 लोगों ने याचिका का समर्थन किया है, 2500! तक पहुँचते हैं
1085 लोकांनी या याचिकेला पाठिंबा दिला आहे, 2500! पर्यंत पोह्चुया
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