मायग्रंट डायरीज : गणेश यादव “एक बार मुंबई रहने लायक सुरक्षित हो जाए, तो मैं फिर इसकी ओर रुख करूंगा,” कहते हैं मधुबनी जिले के रसोइए जिनको बिहार में कोई आर्थिक भविष्य नहीं दिखता

27, Jun 2020 | CJP Team

मुंबई में रसोइए का काम करने वाले पैंतीस साल के गणेश यादव अपने फ़न में माहिर हैं. खाना बनाने में उनका कोई सानी नहीं. अपने काम में उन्हें बड़ा आनंद आता है. तीन बच्चों के पिता गणेश एक विनम्र व्यक्ति हैं. वह कहते हैं, “मेरे पास यही एकमात्र हुनर है. लेकिन इसी की बदौलत मैं अब तक मुंबई में अच्छी जिंदगी जी रहा था. मैंने अपनी जिंदगी के 20 साल इस महागनर में गुज़ार दिए हैं.”

मुंबई में रहते हुए गणेश अच्छे-बुरे दौर से गुजर चुके हैं और अब उन्होंने इससे एक नाता जोड़ लिया है. गणेश अपने किशोरावस्था में मुंबई पहुंचे थे. बिहार के मधुबनी जिले से वे इस महानगर में काम की तलाश में आए थे. मुंबई की पहली ट्रेन यात्रा उन्हें आज भले ही याद न हो लेकिन पिछले महीने इस महानगर से निकलने के लिए की गई ट्रेन यात्रा को वे कभी नहीं भूलेंगे.

रातोरात उन्हें अपना कागज-पत्तर समेटना पड़ा था. कुछ कपड़ों, थोड़े से बिस्कुट और बच्चों को लेकर वे श्रमिक स्पेशल ट्रेन में बैठ गए थे. उनकी पत्नी रतन देवी (उम्र- 30 साल) और उनके हाथ में एक-एक बैग था. इनमें ज्यादातर कपड़े थे. कुछ सामान बच्चों के हाथ में था. तीन लड़कियां गौरी (12 साल), गायत्री (6 साल) और गंगा (साढ़े चार साल) को इतना वक्त भी नहीं मिला कि वे अपने खिलौने समेट पातीं और दोस्तों से मिल पातीं.

गणेश कहते हैं, “हमें रात दस बजे कहा गया कि कुल सुबह दस बजे रेलवे स्टेशन पर रिपोर्ट करना है.” इस फरमान से परिवार में मची अफरातफरी को याद करते हुए वह कहते हैं.“ हड़बड़ी मची हुई थी. जल्दबाजी में जितना सामान हम पैक कर सकते थे उतना हमने पैक कर लिया था. ज्यादातर चीजें हमने छोड़ दी. मैंने मकान मालिक को कमरे की चाबी पकड़ाई और कहा कि हम लौट कर आएंगे. उसने कहा- ठीक है. लेकिन अब मुझे उसे कमरे के किराये देना का जुगाड़ करना होगा. इसमें तो अब आने वाले महीनों को भी किराया जुड़ता जाएगा.” यह सब सोचते हुए गणेश का दिमाग श्रमिक स्पेशल ट्रेन से तेज दौड़ रहा था. जबकि श्रमिक ट्रेन की उनकी यात्रा बेहद धीमी थी. ट्रेन में न पानी की पर्याप्त सुविधा थी. न खाना मिल पा रहा था और न भीड़ भरी इस ट्रेन के पंखे ठीक से चल रहे थे. भरी गर्मी में इस ट्रेन में बैठ कर देश के सूखे इलाकों से गुजरना कम यंत्रणा वाली यात्रा नहीं थी.

लॉकडाउन के बाद, प्रवासी मजदूरों को दो मुश्किल विकल्पों में से एक को चुनना है. या तो वे महंगे शहरों में बने रहें, जहां उनकी कमाई बंद हो गई है और रहने-खाने का खर्चा जुड़ता जा रहा है, या फिर गांव लौट जाएं. लेकिन गांव में उनके लिए कमाई का कोई रास्ता नहीं है. आर्थिक भविष्य डांवाडोल है. सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) ने शहरों में रह गए और यहां से अपने घरों की ओर जा चुके हजारों प्रवासी मजदूरों को राशन और दूसरी चीजें मुहैया कराई हैं. लेकिन हमारे सामने लॉकडाउन के बाद की दुनिया में उनके लिए फौरी और स्थायी समाधान ढूंढने में मदद करने की चुनौती है. हमारी यह सीरीज उन प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक कहानियों को आपको सामने ला रही हैं, जिन्हें अपने घरों तक पहुंचने के लिए एक तकलीफ़देह यात्रा से गुजरना पड़ा. यह सीरीज उन लोगों के दर्द से आपको रूबरू करा रही है, जो लॉकडाउन के दौरान शहरों में कैद हो कर रह गए थे. हम इन प्रवासी भाई-बहनों की मदद कर सकें, इसके लिए हमें आर्थिक सहयोग की जरूरत है. सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस की इस मुहिम में आर्थिक मदद दें. सीजेपी आने वाले कुछ सप्ताह में इन प्रवासी भाई-बहनों के लिए सामुदायिक समाधान और कार्यक्रम ले कर पेश होगा.

गणेश इस बात का अभी भी शुक्र मनाते हैं कि वे किसी तरह ट्रेन में सफर करने में कामयाब रहे. वे 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के ऐलान से पहले ही अपने परिवार को घर भेज देना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने 26 मार्च की टिकट भी बुक करा ली थी. पत्नी और बच्चों को पहले ही घर पहुंचाने की योजना बना चुके गणेश यादव कहते हैं, “ मैंने सुना था कि मुंबई में कोई कोरोना वायरस तेजी से फैल रहा है. मैं चाहता था कि मेरी पत्नी और बच्चे सुरक्षित बिहार में अपने घर पहुंच जाएं. मैं उन्हें फिर जून या जुलाई में मुंबई ले आता”. लेकिन अचानक लागू हुए लॉकडाउन ने भारी झटका दिया. सभी ट्रेनों का संचालन रोक दिया गया. मिठीबाई कॉलेज के नजदीक नेहरूनगर इलाके के चित्रा चॉल में रहने वाले गणेश यादव के परिवार के पांचों सदस्य एक कमरे में बंद हो कर रह गए. पुलिस सड़कों पर गश्त लगाने लगी ताकि इस स्लम बस्ती में लोग घरों से बाहर न निकलें.

बंद कमरे में घुटती जिंदगी

गणेश कहते हैं, “ मैं पुलिस की मार नहीं खाना चाहता था इसलिए इस दौरान परिवार के साथ घर के अंदर ही रहा. मैं सिर्फ दिन में एक या दो बार पेड टॉयलेट जाने के लिए घर से बाहर निकलता था. छोटी बच्चियों को इस गर्मी और घुटन भरे में माहौल छोटे से कमरे के अंदर रखना भारी मुश्किल काम था. पहले वो घर के बाहर खेलने निकल जाती थीं, या फिर हम उन्हें लेकर पास ही समुद्र किनारे चले जाते थे,” गणेश की बातों से ऐसा लग रहा था कि वह समुद्र किनारे की हवाखोरी को हर दिन याद कर रहे हैं. गांव में उनके घर पर बिजली आती-जाती रहती है. लेकिन बच्चों के खेलने के लिए काफी खुली जगह है.

लॉकडाउन की वजह से कॉलेज के नजदीक रहने वाले छात्रों के यहां गणेश का खाना बनाने का काम रुक गया था. स्टूडेंट्स अपने घर चले गए थे. किसी ने उन्हें पूरे महीने का पैसे नहीं दिए थे. जितने दिन काम किया था उतने का ही पैसा मिला. गणेश चार घरों में काम करके 25 हजार रुपये महीना कमा लेते थे. मार्च में यह कमाई बिल्कुल बंद हो गई. लेकिन खर्चे तो बंद नहीं हुए थे. कमरे का किराया, बिजली बिल और टॉयलेट इस्तेमाल करने के लिए लगने वाला पैसा, सब खर्च हो रहा था. बैठे-बैठे खर्च बढ़ता ही जा रहा था.

गणेश के पास जो पैसा बचा था, वह तेजी से खत्म हो रहा था. यहां तक कि घर का राशन भी लगभग खत्म हो गया था. गणेश उस दौर में सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस की मदद को याद करते हुए कहते हैं, “ मैंन सीजेपी के वालंटियरों से मुलाकात की. सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस के वालंटियर ने जो राशन दिया था उससे उनका और पड़ोसियों का कई दिनों तक काम चला”.

गणेश बताते हैं, “ हमें थैलियों में दाल, चावल, तेल, चीनी यहां तक कि चायपत्ती तक मिली. एक बार तो हमें सब्जियां भी मिलीं.” गणेश बताते हैं कि यह राशन एक या दो सप्ताह तक आसानी से चल जाता था. जरूरत पड़ने पर हमें और राशन मिलता था. इस बीच वे लगातार इस बात की जानकारी जुटाते रहे कि बिहार में अपने घर तक कैसे पहुंचा जा सकता है.”

सीजेपी के वालंटियर ने जब गणेश को श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाए जाने की सूचना दी तो उन्होंने अगले ही दिन अपना रजिस्ट्रेशन करा लिया. गणेश कहते हैं, “ मुंबई में जिंदगी चलाना दिन ब दिन मुश्किल होता जा रहा था. दो महीने से मेरे पास कोई काम नहीं था. पैसे नहीं मिल रहे थे. पैसे के लिए मैं हाथ फैला नहीं सकता था. मैंने सोचा अच्छा होगा मैं अपने परिवार को लेकर मुंबई छोड़ दूं. सीजेपी से जो राशन हमें मिल रहा था वह किसी और के काम आ जाएगा. वैसे लोगों के लिए जिनका कहीं और कोई घर नहीं है. मुंबई छोड़ कर जो और कहीं नहीं जा सकते हैं ”, ऐसे बुरे वक्त में किसी दूसरे जरूरतमंद को मदद मिल जाने की ख्वाहिश रखने वाली उनकी यह सोच चौंकाती है और प्रेरणा भी देती है.

हौसला तोड़ने वाला ट्रेन का सफर

लेकिन ट्रेन से घर लौटने की गणेश की यात्रा आसान नहीं थी. यह कठिन यात्रा किसी की भी हिम्मत तोड़ दे. हालांकि उन्हें फ्री टिकट दिए गए थे और हर किसी के लिए एक-एक सीट मुहैया कराई गई थी, लेकिन न तो खाना मिला और न ही पानी. ट्रेन भरी हुई थी. हां, जितनी सीटें थीं उससे ज्यादा लोग नहीं चढ़ाए गए थे. बहुत छोटे बच्चों को अलग सीट नहीं दी गई थी.

गणेश बताते हैं, “हमारे पास साबुन और पानी की बोतलें थीं लेकिन हमने बिस्कुट के अलावा खाने की और कोई चीज नहीं ली थी.” गणेश बताते हैं कि कैसे वे इन बिस्कुटों को बचा-बचा कर बच्चों को देते रहे. बच्चों ने पानी और बिस्कुट से ही पेट भरा. गणेश को रास्ते में स्टेशनों पर उतर-उतर कर पानी भरना पड़ा. जिनके हाथ में बोतल नहीं होती थी उन्हें ट्रेन से बिल्कुल उतरने नहीं दिया जाता था. भूखे पेट लंबा सफर तय करने के बाद आखिरकार उन्हें अगले दिन इटारसी में खाने को कुछ मिला. गणेश बताते हैं, “ हमें दाल, भात और सब्जी के पैकेट खिड़कियों के पार से पकड़ाए गए”. सब लोग भूखे थे इसलिए किसी को स्वाद या क्वालिटी की कोई शिकायत नहीं थी. सब चुपचाप खाते गए. कुछ वक्त के बाद ट्रेन के डिब्बों की लाइट और पंखे बंद हो गए. शिकायत करने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं हुई.

गणेश यादव की पत्नी और बच्चे

मुंबई से दानापुर (पटना) पहुंचने में 18 घंटे लगते हैं. लेकिन इस ट्रेन से उन्हें यहां तक पहुंचने में 72 घंटे लग गए. गणेश कहते हैं, “रूट पुराना ही था लेकिन ट्रेन कई जगह रुकी. कई जगह लेट हुई. इस यात्रा में हम सब निचुड़ चुके थे. थकान से निढाल थे. लेकिन पटना पहुंच कर भी गणेश की यात्रा खत्म नही हुई थी. ट्रेन से उतरने के बाद सबकी हेल्थ स्क्रीनिंग हुई. उन्हें पानी दिया गया और स्टेशन के नजदीक मैदान में इंतेजार करने को कहा गया.

गणेश बताते हैं, “हमें कोई खाना नहीं मिला. मैंने देखा कि कुछ दूरी पर खाने के पैकेट बंट रहे थे, लेकिन लोगों की भारी भीड़ इकट्ठा थी. लोग इन पैकेटों के लिए झपट रहे थे. इस भीड़ में जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी. मैंने इंतजार करना ही बेहतर समझा. बच्चे इतने भूखे थे कि उनके मुंह से आवाज भी नहीं निकल रही थी.”

इस बीच, आंधी-पानी से वह इलाका पूरी तरह घिर गया था.  गणेश और उनका परिवार एक शेल्टर के नीचे खड़ा हो गया. गणेश को किसी ने बताया कि पास में ही एक और जगह पर खाना बंट रहा है. खाना लाने के लिए वे उस ओर निकल गए. कुछ घंटों के बाद परिवार की फिर से हेल्थ जांच हुई. गणेश को पत्नी और बच्चों के साथ मधुबनी जाने वाली बस में बिठा दिया गया. एसी बस थी. लेकिन एसी नहीं चल रहा था. गणेश कहते हैं, “हमारे पास कोई चारा नहीं था. पटना से मधुबनी पहुंचने में आठ घंटे लग गए. बस एक जगह रुकी. वहां पहुंचते ही उन्हें एक क्वॉरन्टीन सेंटर में भेज दिया गया. एक स्कूल को ही क्वॉरन्टीन सेंटर बना दिया गया था. वहीं से गणेश यादव ने गांव में अपने परिवार वालों को फोन कर मिलने के लिए बुलाया और कहा कि खाना लेकर आएं. स्कूल में रहने के दौरान गांव के रिश्तेदारों ने उन्हें दो दिन तक खाना भेजा. इसके बाद गणेश को परिवार सहित घर भेज दिया गया. होम क्वॉरन्टीन में किस तरह रहना है, इसके लिए उन्हें कड़े निर्देश दिए गए.

परिवार का पेट पालने की चिंता

आइसोलेशन का पीरियड अब खत्म हो चुका है. लेकिन गणेश के दरवाजे पर एक दूसरी हकीकत दस्तक देने लगी है. वे पूछते हैं, “आखिर रिश्तेदार कब तक हमें खिलाएंगे? मेरे पास तो खेती की जमीन भी नहीं है. मुझे तो मुंबई लौटना ही होगा. जैसे ही वह थोड़ी सेफ होगी, कमाई के लिए मुझे वहां लौटना ही होगा. नहीं तो मेरे परिवार का गुजारा कैसे होगा. अपनी बेटियों की पढ़ाई के लिए मुझे पैसे चाहिए. अगर मुझे पटना में कहीं कुक का काम मिल गया तो बहुत अच्छा रहेगा. अगर लोन मिल जाए तो अपने शहर में ढाबा खोल सकता हूं. क्या आपको लगता है यह सब संभव है”. गणेश का दिमाग एक बार फिर दौड़ रहा है, किसी सुपर फास्ट ट्रेन की तरह.

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