इमरजेंसी से बनी तीस्ता, कस्तूरबा से जेल में रहना सीखा:कहा-कैदी की जिंदगी मैं भूलूंगी नहीं, 3 हजार खतों से मिला हौसला Dainik Bhaskar
15, Sep 2022 | मीना
सवाल-वो क्या चीजें हैं जो आपको तीस्ता सीतलवाड़ बनाती हैं?
जवाब-मैं बचपन से मनमौजी, मन की करने वाली, सवाल करने वाली लड़की रही। परिवार में बचपन से पढ़ने-लिखने का माहौल रहा। इसी माहौल ने मेरे अंदर मानवाधिकारों के लिए काम करने का जज्बा पैदा किया। भारत की सामाजिक विविधता ही मेरी ताकत बनी। मैंने सोशल वर्क करने और जर्नलिस्ट बनने का फैसला लिया। यही बातें मुझे तीस्ता बनाती हैं।
सवाल-बचपन का कोई किस्सा जब आपने अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई हो?
जवाब-मैं जब 10वीं क्लास में थी, तब 1977 के इलेक्शन डिक्लेयर हुए थे। इमरजेंसी हटी थी। उससे पहले मैंने 1975 में इमरजेंसी के खिलाफ अखबारों और पत्रिकाओं में पत्र लिखे। 1977 में मेरे बोर्ड एग्जाम थे। मैंने पेरेंट्स से कहा कि मैं एग्जाम देने के बजाय इमरजेंसी लागू करने वाली ताकतों के खिलाफ लड़ूंगी और घरवालों ने भी मेरा साथ दिया।
उस दौर में स्टूडेंट्स बेहद एक्टिव थे। मैं भी उनके साथ जुड़ गई। हम सभी स्टूडेंट्स पूरी मुंबई में जनता पार्टी के पोस्टर लगाते थे। उस चुनाव में मुंबई की छह में से छह सीटें जनता पार्टी के खाते में गई थीं। मेरे दिमाग में आज भी उन दिनों की यादें ताजा हैं।
सवाल-पेरेंट्स की कौन सी बात अन्याय के खिलाफ लड़ने की हिम्मत देती है?
जवाब-बचपन से हमारे माता-पिता ने हम दोनों बहनों को इस तरह बड़ा किया कि हम अपनी सोच के इंसान बनें। आजाद इंसान बनें। मेरे पिताजी कहते थे कि इतिहास टेक्सटबुक से नहीं मेरी लाइब्रेरी से पढ़ो। हमारे घर में बड़ी लाइब्रेरी थी, जहां विश्व से लेकर भारत के इतिहास की किताबें थीं। उन्हीं किताबों को पढ़ते हुए हम दोनों बहनें बड़ी हुईं।
सवाल-क्या पढ़ाई के दौरान ही एक्टिविस्ट बनने का सोच लिया था?
जवाब-मैं 12 साल की थी तब ‘ऑल द प्रेसिडेंट्स मेन’ किताब पढ़ी। तभी जर्नलिस्ट बनने का फैसला लिया था। 1983 में बीए पास करने के बाद मैं जर्नलिस्ट बनी। महिला मुद्दों, सांप्रदायिक हिंसा, समाज के प्रति जवाबदेही, जातिवाद जैसे मसलों पर अखबारों और पत्रिकाओं में लिखती रही। जब भी देश में सांप्रदायिक हिंसा देखी, उसके खिलाफ लिखा।
सवाल-मुंबई को आप अपना शहर मानती हैं, उससे जुड़े अनुभव बताएं?
जवाब-मेरा शहर मुंबई 1992-1993 में सांप्रदायिक हिंसा में बुरी तरह जला। बाबरी विवाद के बाद मुंबई की हिंसा देखी। इससे पहले 1984 में सिख भाई-बहनों के साथ दिल्ली में हुई हिंसा भी नहीं भूल सकी हूं। ऐसे हिंसक हालात कश्मीर वैली में कश्मीरी पंडिताें के साथ भी दिखे। धर्म और सत्ता जब जुड़ जाते हैं, तो वो बाकी आवाजों को दबाने की कोशिश करती हैं। ये कोशिश सिर्फ हमारे देश में ही नहीं बाकी देशों में भी देखने को मिलती है।
इसी सोच के खिलाफ मैंने और मेरे जर्नलिस्ट हसबैंड ने 1993 में ‘कम्युनलिज्म कॉम्बैट’ नाम से पत्रिका निकाली। ये मैगजीन अगस्त, 2012 तक चली। 2002 के गुजरात दंगों के बाद हमने अपने काम का तरीका बदला। हम सभी सांप्रदायिक दंगा पीड़ितों को कानूनी मदद देने लगे। जो लोग दंगे में सताए गए थे, जिनके पास आवाज उठाने की ताकत नहीं थी, हमने संविधान के दायरे में रहते हुए उनकी आवाज बनने की कोशिश की।
सवाल-आप किस शख्सियत या किताब से बहुत प्रभावित हुईं?
जवाब-जब मैं बड़ी हो रही थी तो बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर, ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के विचारों का मेरे दिमाग पर असर पड़ा। मेरे परदादा चिमनलाल हरिलाल सीतलवाड़, बाबा साहेब के बहुत करीबी रहे। इस इतिहास के बीच में मैं पली-बढ़ी हूं।
सवाल-अब आगे की रणनीति क्या होगी?
जवाब-हमारी संस्था सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) का काम चाहे स्कूलों में हो, संवैधानिक शिक्षण को लेकर हो, असम में नागरिकता को लेकर हो या नफरत के खिलाफ मुहिम हो…सभी मुद्दों पर काम जारी है। जब मैं दो महीने जेल में थी, तब भी ये काम जारी रहे और आगे भी रहेंगे। कोई भी संस्था या मुहिम एक इंसान से मजबूत नहीं होती। हमने पिछले 15 सालों में जमीनी स्तर पर टीम बनाकर काम किया और ये काम आज भी जारी है।
सवाल- क्या आपको लगता है, किसी की मदद करना ही आपके जेल जाने की वजह बनी?
जवाब-नो कमेंट्स। मैं अभी इस केस के बारे में नहीं बोलूंगी। मामला अभी कोर्ट में है। पर इतना जरूर कहूंगी कि हमने कुछ गैर कानूनी काम नहीं किया। हमने पीड़ितों को सिर्फ कानूनी सहायता दी है। मैं 63 दिन जेल में और 7 दिन रिमांड में थी। कुलमिलाकर 70 दिन कैद में रही।
सवाल-जेल में महिलाओं की स्थिति कैसी है? आपने जेल में अपना वक्त कैसे गुजारा?
जवाब-जेल की जिंदगी किसी के लिए अच्छी नहीं हो सकती है। सुबह 6 बजे से लेकर दोपहर 12 बजे तक और दोपहर 3 बजे से लेकर शाम 6 बजे तक आपको आजादी नहीं मिलती। पढ़ने-लिखने के लिए जगह ढूंढ़नी पड़ती है। आपको अपना रूटीन, डिसिप्लिन और हिम्मत बनाकर मजबूती से खड़ा रहना होता है।
मैंने जेल में भी बाकी बहनों से बातचीत जारी रखी और दोस्त भी बनाए। मैंने देखा कि जैसे जेल के बाहर रिश्ते बनते हैं वैसे ही जेल के अंदर भी रिश्ते बनाए जा सकते हैं।
अफसोस की बात ये है कि हम डिजिटल इंडिया की बात करते हैं, लेकिन अंडरट्रायल कैदी या अन्य कैदियों को इसका फायदा नहीं मिल पाता है। जब उनके केसेज कोर्ट में चलते हैं तो उनको चांस नहीं दिया जाता कि वे ऑनलाइन जाकर अपने वकील की दलील सुनें। ये तरीका संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ है।
जेल की लाइब्रेरी में पढ़ने के लिए भी संघर्ष करना पड़ा। ऐसे वक्त में मेरे पास अलग-अलग आदिवासी इलाकों, जनवादी महिला संगठनों और विदेशों से भी खत और पोस्टकार्ड्स आए। 3 हजार से ज्यादा कार्ड्स और खत मेरे पास जेल में पहुंचे। यह सब मेरे लिए बहुत बड़ा इमोशनल सपोर्ट बना।
सवाल-महिला अधिकारों की ऐसी कोई बात जिस पर आप चाहती हैं कि काम किया जाए?
जवाब-मुझे लगता है कि जेल, प्रशासन या पुलिस में महिलाओं की भर्ती तो होती है। लेकिन महिलाओं को दर्जा पुरुषों के बराबर नहीं होता। मैं जेल की जिंदगी भूलूंगी नहीं। ये जरूर कहूंगी कि आप किसी को कैद करके अंदर रख सकते हैं, मगर उसकी आवाज नहीं दबा सकते। तुषार गांधी ने मुझे कस्तूरबा गांधी के साबरमती जेल के दिनों की छपी किताब भी भेजी वो भी मैंने पढ़ी। जेल में बहुत सारी किताबें मैंने पढ़ीं, जिससे मुझे शक्ति मिली।
The original piece may be read here