जल, जंगल और ज़मीन के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष सोनभद्र के आदिवासी और उनकी न्याय व अस्मिता की लड़ाई

28, Nov 2017 | सुष्मिता

2017 के सितम्बर महीने में, सम्मानित मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार और शिक्षाविद् तीस्ता सेतलवाड़, न्यायमूर्ति पी.बी. सावंत और न्यायमूर्ति कोल्से पाटिल ने, उत्तर प्रदेश (यूपी) जिला सोनभद्र जिले के लोदी गांव के जिलाधिकारी श्री प्रमोद कुमार उपाध्याय को एक पत्र लिखा था जिसमें आग्रह किया गया था कि पुलिस और प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों को प्रशासन द्वारा सोनभद्र की आदिवासी और दलित महिला लीडरों और उनकी यूनियन लीडर श्रीमती रोमा पर लगाये गए कथित झूठे और फ़र्ज़ी मामलों और गंभीर अभियोगों को संज्ञान में लेना चहिये और कार्रवाई करनी चाहिए। यह लेख वन अधिकार कानून (एफआरए) 2006 के क्रियान्वयन में हो रही असफलता के सन्दर्भ को समझने और थोपे जा रहे ऐसे मामलों की पृष्ठभूमि परदान करता है। यह लेख आदिवासी और दलित महिला लीडरों के प्रति उत्तर प्रदेश सरकार की उदासीनता और पुलिसिया दमन पर भी प्रकाश डालता है।

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के ग्राम सुगवान के निकट कनहर में पागन नदी के संगम पर आदिवासी और दलित महिलायें अपनी पैतृक ज़मीन के अधिकार के लिए एक विशुद्ध संघर्ष का नेतृत्व कर रही हैं। यह संगम कनहर सिंचाई परियोजना का स्थल भी है, जो नीचे की ओर स्थित है। सोनभद्र जिला बॉक्साइट, चूना पत्थर, कोयला, सोना जैसे खनिजों से समृद्ध है और सांस रोक देने वाला सुन्दर परिदृश्य प्रदान करता है और इसीलिए उत्तर प्रदेश सरकार व वन विभाग की नौकरशाही द्वारा समर्थित हिंडाल्को जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों और अपनी अस्मिता और अस्तिव को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे आदिवासियों के बीच जारी टकराव का स्थल भी बना हुआ है।

पुनर्स्थापन के बिना विस्थापन

कैमूर किसान आन्दोलन की निडर कार्यकर्त्ता राजकुमारी कहती हैं कि “हमारा संघर्ष न तो गाम के खिलाफ है और न ही दलालों के खिलाफ है; हम अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं, हम अपनी जमीन की मांग कर रहे हैं।“ कुछ समय पहले ही बारिश होनी बंद हुई है और हवा में मिट्टी घुली ताजा बारिश की गंध अभी भी मौजूद है। राजकुमारी एक लाल कुर्सी पर बैठी हैं जो कि कीचड़ में धंसी हुई है। वह कनहर बांध परियोजना पर बहुत स्पष्टता के साथ बोलती हैं। वह कहती हैं कि निजी कंपनियां और ठेकेदार इस क्षेत्र के लोगों को बिना विस्थापित किये बाँध नहीं  बना सकते।“ और इसलिए,अगर बांध के निर्माण के कारण आदिवासियों की ज़मीन डूब रही है तो क्या उन्हें उससे अलग ज़मीन नहीं उपलब्ध करायी जानी चाहिए? बुनियादी सेवाओं की उपलब्धता और बहाली नहीं होनी चाहिए? ”

कनहर परियोजना को मूलतः सितंबर 1 9 76 में मंजूरी दी गई थी। इसकी प्रस्तावना के अनुसार 3.003 किमी लम्बा, 39.90 मीटर उच्चतम ऊंचाई के साथ गहनतम स्तर पर किया गया है जो कि रिहाण्ड जलाशय से जोड़े जाने पर 52.90 मीटर तक बढ़ सकता है। इस परियोजना की परिकल्पना के अंतर्गत 111 गांवों के 4131.5 हेक्टेयर भूमि जलप्लावित हो रही है जिसमें उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड के कुछ हिस्से शामिल हैं। परियोजना को

1 9 8 9 में रोक दिया गया था, लेकिन 5 दिसंबर 2014 को निर्माण कार्य शुरू हुआ। सूचना अधिकार अधिनियम (आरटीआई) के तहत प्राप्त की गई जानकारी से बताती है कि इस परियोजना को वैध ‘पर्यावरण और वन मंजूरी’ हासिल नहीं है।

बांध जल को रिहांड जलाशय में मिलाने के लिए प्रस्तावित हुआ है। जलाशय के जल का उपयोग सिंगारौली में करीब 25-30000 मेगावाट बिजली उत्पादित करने के लिए किया जा रहा है, जो  आदिवासियों पर हुए कई हिंसक दमन का कारण बना है। तत्कालीन मुख्यमंत्री एन डी तिवारी ने हर एक परिवार को शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी जैसी बुनियादी सेवाओं के अतिरिक्त 5 एकड़ भूमि, एक नौकरी और 40’ x 60′ माप वाले घर का वायदा यूपी के 11  प्रभावित गांवों को किया गया था जिनमें सुंदरी , कोरची, नचांतड़, भिसुर, सुगवामन, कासिवाखर, खुदरी, बैरखड़, लाम्बी, कोहड़ा और अमवार शामिल हैं। यह भी एक तथ्य है कि 1983 में मुआवजे का भुगतान 1800 रुपए प्रति बीघा (लगभग 2700 रुपये प्रति एकड़) की दर से घर के मुखिया को किया गया था। इसके बाद ग्रामीणों को कोई सूचना नहीं मिली।

2012 में जब बाँध की आधारशिला रखी गयी थी, 1983 में पहचान किये गए परिवारों के मुखिया को तब 711000 रुपये की मुआवजे की राशि देने और   45’x10’ की माप के घर उनके लिए बनाए जाने का दावा किया गया था। इसलिए, इन वर्षों में किसानों ने जमीन पर कब्ज़ा किया हुआ था। इसके अलावा, पहले के परिवारों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई और इसलिए एक नई गणना की आवश्यकता थी जो उन परिवारों का ध्यान रखकर की जाती जिनकी आजीविका और ज़मीन जाने वाली थी। यहाँ यह भी उल्लेखनीय करना ज़रूरी है कि इस बीच वन अधिकार कानून ,2006 अस्तित्व में  आया, उसके अंतर्गत कई किसानों को पट्टा(ज़मीन) प्रदान किया गया; और सरकार ने इन भूमियों के नुकसान के लिए उन्हें मुआवजा देने से इंकार कर दिया। यह कानून की भावना के खिलाफ चला गया।

पुलिस गोलीबारी की घटना

बांध का काम दिसंबर 2014 में शुरू हुआ। ग्रामीणों ने इसका विरोध किया और धरने पर बैठे। इस दौरान उन्हें लगातार धमकाया गया। इस दौरान एसडीएम और जिला मजिस्ट्रेट ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया,बांध पर तैनात प्रांतीय सशस्त्र सेना (पीएसी) ने, जिसमें लगभग 150 जवान शामिल थे, हस्तक्षेप किया। तहसीलदार द्वारा अतीक अहमद नामक नौजवान को प्रताड़ित किये जाने पर लोग साप्ताहिक बाजार से निकल आये और उपद्रव की स्थिति पैदा हो गयी। उसी दिन के बाद से, 16 नामज़द लोगों और 500 अज्ञात व्यक्तियों पर मामले थोपे गए।

इसके बावजूद, ग्रामीणों ने शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन जारी रखा। हालांकि,  उस वक़्त बांध का काम जारी रहा और लेकिन सरकार ने ग्रामीणों के साथ बातचीत का कोई सिलसिला या वार्ता नहीं शुरू की। इसलिए, 14 अप्रैल को ग्रामीणों ने धरने को परियोजना स्थल के करीब स्थानांतरित करने का फैसला किया। पीएसी ने गोलीबारी शुरू कर दी और अक्कलू चेरो (चेरवा) को गोली मार दी, जो सुंदरी गांव का एक आदिवासी था। इस गोलीबारी में 39 लोग घायल हुए, उनमें से 12 की हालत गंभीर थी। पीएसी की संख्या को 500-1000 तक बढ़ा दिया गया था।

चार दिन बाद, 18 अप्रैल को पुलिस गोलीबारी का एक दूसरा दौर चला जिसमें एक बार फिर कई लोग गंभीर रूप से घायल हुए और आंदोलन के कुछ प्रमुख कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

रोमा और अन्य कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी

30 जून की अलसुबह, उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में भूमि अधिकारों और श्रम अधिकारों के लिए बड़े धरने और 100 दिन के राष्ट्रव्यापी कैम्पेन के समर्थन में रैली होने के कुछ ही घंटे पहले, रोमा और सोकालो गोंड (आल इण्डिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल के दोनों पदाधिकारी), अन्य कार्यकर्ताओं के साथ गिरफ्तार कर लिये गये और मिर्जापुर जेल भेज दिये गए। हालांकि कई कार्यकर्ता मंगलवार की सुबह शुरुआती घंटों में उठाए गए थे, लेकिन इन दोनों को छोड़कर, बाकी सभी को बाद में उसी दिन रिहा कर दिया गया था।

यद्यपि रोमा को जमानत पर रिहा कर दिया गया, फिर भी कई तुच्छ मामलों को उन पर थोपा गया है। सीजेपी(CJP) को दिए गए एक साक्षात्कार में, रोमा ने आरोप लगाया, “उन्होंने हमें झूठे मामलों पर फंसाया है ताकि वे हमारे आन्दोलन को कमजोर कर सकें और हमें आतंकित कर सकें। हमारे कार्य की प्रकृति देखते हुए भी हम पर बेहद तुच्छ अभियोग डाले गये है।“ वह आगे कहती हैं,” वन अधिकार कानून आजादी के ठीक बाद ही लागू कर दिया जाना चाहिए था, लेकिन सरकार की नीयत नहीं थी कि वह जंगल में रहने वाले समुदायों के लिए न्यायसंगत भूमि वितरण करें।“ उन्होंने विस्तार से बताया कि सरकारी हित क्यों हमेशा निजी-कॉर्पोरेट शक्तियों के साझे हितों के साथ जुड़े रहते हैं।

वन अधिकार कानून लागू करने में असफलता और शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शनों का दमन

एक तरफ सरकार और वन नौकरशाही ने सुनिश्चित किया कि एफआरए(वन अधिकार कानून) क्षेत्र में सही और सम्पूर्ण तरीके से लागू न किया जा सके तथा हिंडाल्को जैसों को खुली छुट दी गयी, दूसरी तरफ़ इस गठजोड़ ने शोषण के भयावह तरीके अपनाकर दमन जारी रखा है, अवैध गिरफ्तारियां की जा रही हैं, झूठे आरोप लगाये जा रहे हैं। इन कार्यकर्ताओं के खिलाफ आरोप मनमाने ढंग से लगाये गए हैं और राजनीतिक रूप से प्रेरित हैं जो कि कनहर बांध परियोजना के लिए अधिग्रहित भूमि के अवैध अधिग्रहण के खिलाफ शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक संघर्ष को कुचलने के उद्देश्य से की गयी हैं। उत्तर प्रदेश सरकार पुलिस का इस्तेमाल करके अनुसूचित क्षेत्रों में गैरकानूनी तरीके से हो रहे भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ जारी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति को रोकने का काम किया है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल सहित अदालत तक के आदेश होने के बावजूद राज्य सरकार उन कार्यकर्ताओं के पीछे पड़ी हुई है और निशाना बनाया है और जो कनहर में उसके अवैध गतिविधियों का विरोध कर रहे हैं। नियमित रूप से पुलिस उन्हें परेशान करने उनके घरों पर जाती है या फिर उन्हें बड़ी व्यक्तिगत लागत लगाकर हर सप्ताह पुलिस स्टेशनों पर जाना पड़ता है। इतना ही नहीं, भूमि अधिकारी आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि कुछ अवसरों पर  पुलिस जबरन उन कमरों में प्रवेश करती है जहाँ औरतें सो रही होती हैं, उस दौरान महिला पुलिस को दरवाजे से बाहर खड़ा रखा जाता है और महिलाओं कार्यकर्ताओं को परेशान किया जाता है, तब भी जब वे लगातार अपने ऊपर लगाये जा रहे बल प्रयोग का विरोध कर रही होती हैं।

 

रोमा के साक्षात्कार की झलकियाँ

हम बिरसा मुंडा और अन्य लीडरों की जल, जंगल और ज़मीन के लिए लड़ी गयी लड़ाई को आगे ले जा रहे हैं। जब देश को आज़ादी हासिल हुई थी तभी वन अधिकार कानून पारित हो जाना चाहिए था, लेकिन जानबूझकर, उन्होंने ऐसा नहीं होने दिया ताकि हमारी जमीन टाटा और बिड़ला को दी जा सके। हमने देखा कि 2006 में एफआरए के अधिनियम के लागू होने के बाद, हम पर थोपे गए मामलों की बाढ़ आ गई थी। एक तरफ सरकार एफआरए को लागू नहीं करती है, दूसरी तरफ़ वन विभाग, कंपनियों, ब्रोकर / ठेकेदारों के साथ मिलकर हमारी गर्दन को तोड़ने का काम करती है। पिछले 15-16 वर्षों से हम इस लड़ाई को लड़ रहे हैं। और हमने हमारे अधिकारों को नहीं छोड़ा है, चाहे जिस तरह के मामले हमारे ख़िलाफ़ थोपे जा रहे हों। हमने अपना यूनियन बना लिया और मामले पर काम करने लगे। लेकिन अब, हम ऐसा कर पाने में कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं।

अधिकार-क्षेत्र का बड़ा सवाल अभी बना हुआ है। वन निर्वासित समुदायों द्वारा एक निर्णायक लड़ाई लड़ी जा रही है। भारत की स्थिति यह है कि लगभग 7000 गांव भारतीय मानचित्र पर अस्तित्व नहीं रखते। यद्यपि वे ग्राम पंचायतों से जुड़े हुए हैं, लेकिन विकास परियोजनाओं की बात की जाए तो इन्होने अब तक सुबह की किरण तक नहीं देखी है। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई सबसे निर्णायक लड़ाई है जो संसाधनों के निजीकरण के खिलाफ लड़ी जा रही है। यह वर्ग संघर्ष का सवाल है। यह आदिवासियों, महिलाओं, दलितों, कारीगरों तथा अन्य सहित सभी वंचितों की एकता का प्रश्न है।

 

वन अधिकार कानून के लिए चुनौतियाँ

2006 में एफआरए के अधिनियम के लागू होने के बावजूद, अधिकांश राज्य एफआरए की वास्तविक भावना को लागू करने में असफल रहे हैं। महाराष्ट्र जैसा राज्य भी, जो समुदाय वन अधिकारों (सीएफआर) की मान्यता देता दिखाई देता है, एफआरए के क्रियान्वयन के मामले में पूरी क्षमता का केवल 18% ही लागू कर पाता है। इस कानून ने लागू होने के 10 सालों के भीतर ही कई मलिन करने वाली, विरोधाभासी नीतियाँ देखी हैं, संवैधानिक वैधता को चुनौती देते मुक़दमे का सामना किया है। एक ओर वन अधिकारियों ने और दूसरी ओर गैर-राज्यीय ताकतों ने राज्य की सहभागिता के साथ इस अधिनियम के क्रियान्वयन के सामने न केवल एक चुनौती पेश की है, बल्कि इस गठजोड़ ने स्थानीय लोगों पर भारी मात्रा में हिंसा भी की है। ज़मीन के अन्दर भरे खनिज संसाधनों पर लालची आँखें गड़ाए और अपने निहित स्वार्थों के साथ, सोनभद्र में हिंडाल्को जैसी निजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश स्थिति को और अधिक जटिल बना देता है। सरकार के सभी उद्देश्य इन पूंजीपतियों के सर्वोत्तम हितों के अनुसार संचालित हो रहे हैं। अत: एफआरए(वन अधिकार कानून) के क्रियान्वयन में कमी बताती है कि आदिवासियों और जंगल में रहने वाले समुदायों की अस्मिता और अस्तित्व को मान्यता देने में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी किस हद तक व्याप्त है।

इस स्थिति में कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोगों के जारी उत्पीड़न/शोषण पर तत्काल रोक लगाने की मांग करना महत्वपूर्ण हो जाता है। सिविल सोसाइटी समूहों के लिए यह भी ज़रूरी हो जाता है कि वे उत्तर प्रदेश सरकार पर दबाव बनायें कि सरकार कनहर बांध क्षेत्र में चल रही भारी अनियमितताओं, पुलिस की भारी तैनाती और दखलअंदाजी को संज्ञान में ले और गैरकानूनी भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को तुरंत रोके। सरकार गलत तरीके से की गयी गिरफ्तारियों, झूठे और मनमाने ढंग से गढ़े मामलों और बर्बर व गैरकानूनी पुलिसिया कार्रवाई पर जाँच बिठाए।

 

अनुवाद सौजन्य – देवेश त्रिपाठी

 

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