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सोनभद्र की बेटी सुकालो

यह कहानी है सुकालो गोंड की. एक ऐसी आदिवासी महिला, जिसने झुकने से इनकार किया और अपने आदिवासी भाई-बहनों के वन अधिकार के लिए संघर्ष करते हुए, आज भी डटी हुई हैं. सुकालो उस संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं जिसने देश के वन अधिकार अधिनियम, 2006 को उत्तर प्रदेश के सोनभद्र क्षेत्र में स्थापित किया.

सोनभद्र उत्तर प्रदेश का सबसे ज्यादा वनों से घिरा जिला है जिनमें लगभग 70% आबादी आदिवासियों की है. उनमें से कई आदिवासियों पर अंग्रेज़ों द्वारा बनाए काले कानून, भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 4 और धारा 20 थोप कर उन्हें उनकी भूमि और भूमि के अधिकारों से वंचित कर दिया है. यह दमनकारी औपनिवेशिक अधिनियम वन उपज के आन्दोलन और पारगमन को नियंत्रण में करने के लिए लाया गया था. कई आदिवासियों पर, यहाँ तक कि महिलाओं पर इस अधिनियम के तहत झूठे मुक़दमे दर्ज किये गए. हालांकि, आदिवासियों के संगठित और सामूहिक रूप से संघर्ष करने के बाद वन अधिकार अधिनियम, 2006 को लागू किया गया, जिसके तहत उन्हें वनों और भूमि पर सही स्वामित्व की स्वीकृति प्राप्त हुई. इस अधिनियम को अभी तक सही मायने में पूरी तरह लागू नहीं किया गया है और इसी कानून को वास्तविक रूप देने के लिए कई सामाजिक कार्यकर्ता जुटे हुए हैं.

सुकालो अपने मवेशियों को शाम होते ही बाँधने लगी और बोली “हम अपनी ज़मीन को वापस पाने के लिए किसी से भीख नहीं मांगेंगे और इस बात का हमें अच्छे से पता है कि सरकार इस में हमारा साथ बिलकुल नहीं देने वाली. हमें पूरा विश्वास है कि हमारा आन्दोलन ही हमें हमारे अधिकार वापस दिलाएगा!” सुकालो अब 50 की उम्र के करीब है और उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले से आदिवासी नेता है. सुकालो को अपने 2006 में वन अधिकारों की रैलियाँ करते समय ही एहसास हो गया था कि संभावनाएं कई हैं और ऐसी कई चीज़ें है जिसने उन्हें और उनके जैसे कई लोगों को बदलने के लिए बाध्य किया है. उन्हें तब इस बात का बिलकुल अंदाजा नहीं था कि आगे चलकर वे सोनभद्र में वन अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली महिला कार्यकर्ताओं की नेता बनकर उभरेंगी जो अन्य महिलाओं को भी अपने अनुभवों और संघर्षों के माध्यम से सशक्त करेंगी.

सोनभद्र में आदिवासी

सोनभद्र में लगभग 70% आबादी आदिवासियों की है जिसमें कुछ प्रमुख जातीय हैं- गोंड, करवर, पन्निका, भुइयां, बैगा, चेरों, घसिया, धरकार और धौनर. कई जंगल में रहने वाले आदिवासी अपनी जीविका के लिए वनों में आश्रित हैं. तेंदू के पत्ते, सूखी शाखाएं और जड़ी बूटियाँ वनों से एकत्रित करके वे बाज़ार में बेचते हैं. कुछ के छोटे छोटे खेत हैं जिनमें वे चावल या कई प्रकार की सब्जियां उगाते हैं. बहुत से आदिवासियों को भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 4 और 20 के तहत उनकी भूमि और भूमि में रहे अधिकारों से वंचित कर दिया गया है. यह औपनिवेशिक अधिनियम वन उपज के आन्दोलन और पारगमन को नियंत्रण में करने के लिए लाया गया था. कई आदिवासियों पर इस अधिनियम के तहत झूठे मुक़दमे दर्ज कर दिए गए.

बाँध एक ‘विकास’? या ‘विनाश’!

आज के भारतीय विकास मॉडल में आदिवासियों को हमेशा किनारे रखा गया है, ऐसे में सोनभद्र और कन्हार बांध जैसे कुछ विशिष्ट क्षेत्र हैं जहां से जुड़े अनेक प्रभावित लोगों ने हस्तक्षेप कर के विकास के नाम पर हो रहे विनाश को चुनौती दी. सोनभद्र स्वतंत्रता के बाद अपनाए हुए असमान विकास का शिकार है. पूरा क्षेत्र औद्योगिक प्रदूषण और स्थानीय लोगों के विस्थापन से काफ़ी प्रभावित होता रहा है, जो अब एक आम बात हो चुकी है. कई शोधकर्ताओं ने सोनभद्र के पानी और हवा के जहरीले होने की बात उठाई है और कन्हार बाँध भी उनमें से एक कारण है. 1976 में इस बांध की आधारशिला रखी गई थी और ऐसा कहा गया था कि यह परियोजना उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, छत्तीसगढ़ के सरगुजा और झारखण्ड के गढ़वा जिले को प्रभावित करेगी. एक अनुमान के अनुसार, इस बाँध की जल पट्टी में 2000 वर्ग किलोमीटर और 3 अलग-अलग राज्यों के 80 गाँव प्रभावित होंगे, और इस कारण करीब एक लाख आदिवासी अपने पुरखों की भूमि खो देंगे. प्रारंभिक अध्ययन से यह मालूम हुआ है कि आने वाले समय में 1 लाख पेड़, 2500 कच्चे मकान, 200 पक्के मकान, 500 कुएं, 30 स्कूल डूब जायेंगे और आज ये आंकड़े और भी अधिक हो चुके हैं.

समय के साथ कन्हार बाँध के निर्माण कार्य को लेकर कई उथल-पुथल होती रही हैं. यह निर्माण कार्य अक्सर आरम्भ होकर रुकता रहा है. सिंचाई विभाग और लोक निर्माण विभाग के दस्तावेजों को ध्यान से देखा जाए तो यह पता चलता है कि इस परियोजना को कभी भी निरंतर रूप से निष्पादित नहीं किया गया है मगर बिना काम के भी परियोजना में होने वाले खर्च को लगातार दिखाया गया है. कार्य को 1984 में रोका गया था और बाँध के लिए आवंटित धनराशि को एशियाई खेलों में लगा दिया गया था. 1989 में फिर से कार्य शुरू किया गया और 16 परिवारों को विस्थापित कर दिया गया, उसके बाद लगभग 2 दशकों के बाद कार्य को फिर से रोका गया. 2011 में मायावती और 2012 में शिवपाल सिंह यादव जैसे लोगों द्वारा उसके स्थापना शिला का पुनः उद्घाटन किया गया, मगर काम फिर भी जल्दी से शुरू नहीं किया गया. इन्हीं सब चीज़ों के दौरान आदिवासियों को लगातार भूमि से हटा देने की धमकियां मिल रही थी.

इसी दुष्चक्र से तंग आकर वर्ष 2000 में सोनभद्र के आदिवासियों ने ग्राम स्वराज समिति की पहल के रूप में कन्हार बचाओ आन्दोलन की शुरुआत की. इस आन्दोलन का यही उदेश्य था कि वह कन्हार बाँध से होने वाले प्रकृति और स्थानीय लोगों के जीवन को अस्त-व्यस्त कर देने वाली बातों को सबके सामने लाएं और उसका विरोध करें. उस क्षेत्र के आदिवासी और दलित ग्रामीण लोगों ने बाँध को पूरे तरीके से ठुकरा दिया था. इसके बाद पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज (PUCL) भी बांध को न सिर्फ गैर-कानूनी बल्कि असम्वैधानिक बताते हुए इस आन्दोलन से जुड़े.

अभियान में सुकालो द्वारा की गयी पहल

सुकालो इस बात की जीती जागती गवाह हैं जिन्होंने कई दशकों से हो रहे भ्रष्टाचार और आदिवासियों के दमन को अपनी आँखों से देखा है, जब वनों में काम करने वाले अपने वन भूमि के अधिकारों और दावों से बिलकुल भी अवगत नहीं थे. उन के साथ बहुत ही व्यापक रूप से अत्याचार और हिंसा हो रही थी. कई बार तो पुलिस घरों में जाकर छापा मारती है या उनकी झोपड़ियों को नष्ट कर देती है, कभी शारीरिक रूप से सज़ा देने के दौरान दुर्व्यवहार करती है.

2006 में वन अधिकारों को लागू करने की मांग की शुरुआत करने पर तथा कई संघर्षों से खुद को जोड़कर सुकालो को इस बात पर पक्का यकीन हो गया कि आदिवासी लड़कर ही अपना अधिकार पा सकते हैं, उन्हें किसी के आगे भीख मांगने की कोई आवश्यकता नहीं है. सुकालो न सिर्फ एक नेता हैं, बल्कि ऑल इंडिया यूनियन फॉर फारेस्ट वर्किंग पीपुल (AIUFWP) की कोषाध्यक्ष भी हैं, जो अपने परिवार और मवेशियों की भी बखूबी देखभाल करतीं हैं.

दिसम्बर 2014 में जब कन्हार बाँध के कार्य के फिर से शुरू हुआ तब ग्रामीणों ने जमकर इसका विरोध प्रदर्शन किया और धरने पर बैठ गए. वहां लगातार डर का माहौल बना हुआ था. जब शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन बाँध की ओर बढ़ रहा था तो 14 अप्रैल 2015 को निहत्ते प्रदर्शनकारियों पर प्रांतीय सशस्त्र कॉन्स्टबुलरी (PAC) ने गोलियाँ चला डाली, जिसमें एक प्रदर्शनकारी अक्क्लू चालो की मौत हो गई और कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए.

सुकालो ने उस पुलिस द्वारा की गयी फायरिंग को एक दर्दनाक घटना के रूप में याद करते हुए बताया कि, “हमारी आँखों के सामने 18 बार फायरिंग की गयी. बहुत ही भयावह था सब कुछ . इसके बाद राजकुमारी सहित अन्य महिला नेताओं को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया.” फिर उन्होंने यह भी बताया कि,”मेरे पास वहाँ से भागने के सिवाए कोई और विकल्प नहीं था क्योंकि वे हर किसी को गिरफ्तार कर रहे थे.” लगातार 15 दिनों तक छत्तीसगढ़ और बिहार से होते हुए अकेले सफ़र करते हुए वे दिल्ली पहुँचीं. एक महीने वे दिल्ली में रहीं और उसके बाद सोनभद्र वापस लौटीं.

जैसे ही 30 जून, 2015 में भूमि अधिकारों और श्रमिक अधिकारों के लिए  किया गया 100 दिनों के राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू होने वाला था, उसके कुछ घंटों के अंदर ही रोमा और सुकालो के साथ अन्य कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर के मिर्ज़ापुर जेल भेज दिया गया.

कैद और धमकी

सुकालो ने अपने मिर्ज़ापुर जेल में बिताए गए एक महीने के अनुभव को कुछ ऐसा बयान किया:

“यह ज़िन्दगी को बदल देने वाला अनुभव था. कई महिलाओं और बच्चों पर झूठे मामले दर्ज करके उन्हें जेल में डाला गया था. कुछ महिलाओं ने तो बच्चों को जन्मा ही था कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.” हालांकि, सुकालो ने जेल की चारदीवारी में रहते हुए भी अपना संघर्ष जारी रखा. उन्होनें अपनी साथियों के साथ मिलकर उच्च पद में बैठे लोगों को कई पत्र लिखे. कई बार वे जेल के अन्दर ही भूख हड़ताल पर बैठीं, कभी कैदियों की मूलभूत सुविधाओं को लेकर तो कभी वन और संसाधनों को लेकर. कई अन्य कार्यकर्ताओं से मुलाक़ात के समय वे उन्हें पत्र सौंप देतीं थीं. उनके साथ उनके कई कामरेडों को जेल में एकता के साथ किये गए संघर्ष के बाद कहीं जाकर उन्हें जेल में किये गए कामों के लिए मिलने वाले न्यूनतम मजदूरी मिली. हालांकि उन्हें बाद में रिहा कर दिया गया, मगर फिर भी उनपर सभी गढ़े हुए मामले आज भी थोपे हुए हैं.

अपने चारदीवारी में किये गए संघर्षों और संगठित रूप से मज़बूत हुए संघर्षों को याद करते हुए कई बार वे बीते समय को याद करने लगीं. उन्होंने उस समय को याद किया जब उन्हें रोज़ की मजदूरी के रूप में 1 रु या 2 रु जितनी मजदूरी मिला करती थी. अधिकतर तो न्यूनतम मजदूरी से भी बहुत कम होती थी. वे सिर्फ वन अधिकारों के लिए ही नहीं बल्कि उनके क्षेत्र में रह रहे आदिवासियों को मिलने वाली मजदूरी के अधिकारों के लिए भी संघर्ष करती आई हैं. जब वे इन संघर्षों से जुड़ी, उस वक्त कई आदिवासी महिलाओं का दमन हो रहा था, कहीं परिवार के अंदर तो कहीं समाज में, और वे अपने अधिकारों को लेकर ज़रा भी जागरूक नहीं थीं. मगर अब वे सामने आकर अपनी बातें रख पाती हैं., “हम इस पृथ्वी पर जन्में हैं, तो हम सब को जीने का अधिकार है. एक वक्त था जब मैं किसी पुरुष को आँख उठाकर देख नहीं पाती थी, मगर आज मैं खुल कर अपने अधिकार की मांग या बात चीत कर पाती हूँ, चाहे वे कोई मंत्री हों या पुलिस अधिकारी.”

सुकालो ने अपने आगे आने वाली सभी चुनौतियों के बावजूद अपनी लड़ाई जो जारी रखने का संकल्प लिया है. हालांकि वे अपने परिवार की अकेली सदस्य हैं जो आन्दोलन से जुड़ी हैं, मगर यह बात कभी भी उन्हें संघर्ष करने से नहीं रोक सकी. आखिर में सुकालो ने कहा कि “सभी महिलाओं की एकजुट ताकत – उनके सुख और कठिनाई – से ही हमें शक्ति मिली है. यह संघर्ष सिर्फ ज़मीन का नहीं है, बल्कि आदिवासी महिलाओं के अस्तित्व और गरिमा का भी है.”

जून 2018 में हुई हिरासत

सुकालो और रोमा जैसे मज़बूत नेताओं के नेतृत्व और अविश्वसनीय प्रतिबद्धता से प्रेरित होकर आदिवासियों ने अपने अपने क्षेत्रों में अपनी भूमि पर अधिकार होने का दावा करना शुरू किया. वन अधिकार अधिनियम, 2006 के प्रावधानों के तहत उन्होंने अपने सामुदायिक संसाधनों पर भी दावा किया और इन्हीं दावों को देखकर संस्थान इतने सकपका गए कि उन्होंने वन अधिकारों के आन्दोलन से जुड़े सुकालो जैसे मजबूत नेताओं के खिलाफ विद्रोह अभियान चलाना शुरू कर दिया. सुकालो और उनके साथ एक और नेता, किसमतिया गोंड जब लखनऊ में राज्य वन मंत्री दारा सिंह चौहान और वन सचिव के साथ बैठक में गईं तो लौटते समय उन्हें पुलिस ने गुप्त रूप से गिरफ्तार कर लिया. इसी बात के कारण CJP और AIUFWP ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अभियुक्त का उपस्थिति-पत्र (हैबियस कॉरपस) दायर किया, जिसके बाद न्यायालय ने न केवल हिरासत के लिए स्पष्टीकरण की मांग की, बल्कि यह भी आदेश दिया कि उन महिलाओं को न्यायालय में पेश किया जाए. उन्हें न्यायालय में पेश नहीं किया गया और पुलिस ने इस बात का दावा किया कि महिलाओं को उन्होनें रिहा कर चुकी है, मगर कई महीनों तक उनका कोई अता पता नहीं था.

अंत में हमारे सत्याग्रह की जीत हुई और अदालत के कई चक्कर काटने के बाद सुकालो, किस्मतिया उर सुखदेव गोंड को अदालत के सामने पेश किया गया. आदिवासी भाई बहनों के संगठन और हमारी कड़ी मेहनत रंग तब लाई जब अक्टूबर-नवम्बर २०१८ में पहले किस्मतिया और सुखदेव और फिर सुकालो गोंड को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया.

 

अनुवाद सौजन्य मनुकृति तिवारी

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