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चरवाहों का पोस्टकार्ड अभियान: ब्रिटिश राज के काले कानून, वन अधिनियम 1927 को वापस लिया जाए

‘1927 का वन अधिनियम वापस लो!’ यह एक लाइन की मांग है महाराष्ट्र के चरवाहों की जिन्होंने एक नायाब अभियान के तहत महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री व उप-मुख्यमंत्री के कार्यालयों में अंग्रेजों के समय के कानून भारतीय वन अधिनियम {Indian Forest Act अथवा IFA} को वापस लेने हेतु 10,000 पोस्टकार्ड भिजवाए हैं। इंडियन एक्स्प्रेस द्वारा 22 अकतूबर 2022 को सर्वप्रथम रिपोर्ट किए गए इस मामले के अंतर्गत चरवाहे पोस्टकार्ड अभियान के जरिए वन अधिनियम की उस “उपनिवेशी मानसिकता” का विरोध कर रहे हैं जिसके अनुसार उन्हें वन भूमि पर अपने जानवर चराने की मनाही है।

 महाराष्ट्र राज्य में घुमंतू चरवाहों के सबसे पहले संगठन ‘मेंढ़पाल पुत्र सेना’ के अध्यक्ष सौरभ हाटकर के अनुसार मुख्यमंत्री व उप-मुख्यमंत्री के कार्यालयों में पोस्टकार्ड की बाढ़ सी आ गयी है। रिपोर्ट के अनुसार 2 अकतूबर को शुरू हुए इस अभियान में अब तक 10,000 पोस्टकार्ड व पत्र भेजे जा चुके हैं।

कौन हैं ये चरवाहे

अपने जानवरों हेतु चारा प्राप्त करने के लिए धनगर समुदाय से ताल्लुक रखने वाले ये चरवाहे पूरे राज्य में घूमते हैं। ये घुमंतू लोग अपने वार्षिक प्रवास के दौरान 200 किमी से अधिक का सफर तय कर लेते हैं और राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में जाते हैं। हाटकर बताते हैं कि जम्मू कश्मीर से पूरा हिमालय पार कर उत्तराखंड तक आने वाले वन गुर्जरों की तरह ही महाराष्ट्र के मैदानी इलाकों में भी सदियों तक इनके यात्रा मार्ग बिना किसी बदलाव के तय रहे होते थे। लेकिन भौगोलिक बदलावों एवं व्यापक शहरीकरण ने चरवाहों की घुमंतू जीवन शैली के लिए कई चुनौतियां पेश की हैं।

इस समुदाय की सबसे बड़ी दिक्कत वन विभाग द्वारा कथित रूप से उनके जानवरों के “संरक्षित वन भूमि में घुस आने” के लिए उनपर जुर्माना लगाने की है। दोषी पाए जाने पर चरवाहों को बहुत कठोर आर्थिक दंड देना पड़ता है। हाटकर कहते हैं कि अंग्रेजों के बनाए कानून के अंतर्गत वसूले गए ये जुर्माने समुदाय के सीमित आर्थिक संसाधनों का ह्रास करते हैं।

वन अधिनियम का इस्तेमाल ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत के आदिवासियों व जंगल में रहने वाले लोगों के अधिकार छीनने के लिए किया जाता था। यह एक क्रूर विडंबना है कि देश की आजादी के 75 साल बाद भी यह कानून देश के नागरिकों को सजा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

चरवाहे व अन्य घुमंतू समुदाय जो हमेशा से संरक्षण के नाम पर वन विभागों द्वारा जमीन और संसाधनों की लूट के खिलाफ लड़ते रहे हैं, हालिया दशकों में स्वयं के भीतर से उठ रहीं युवा आवाजों के चलते और ज्यादा मुखर हुए हैं। टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) के छात्र रहे हाटकर, जो खुद एक चरवाहों के परिवार से आते हैं, लगातार इस दावे को खारिज करते हैं कि पशु चराने से जंगलों को कोई नुकसान हो सकता है। इंडियन एक्स्प्रेस के अनुसार वे कहते हैं कि सदियों से “मनुष्य व जंगल आपस में हिलमिल कर रहे हैं।” हाटकर ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि उनके समुदाय पर लगाए जा रहे आर्थिक दंड पर तत्काल रोक लगे। इसके साथ ही इनके संगठन ने चरवाहों के संदर्भ में नीति, उनके लिए राष्ट्रीय बीमा योजना एवं अहिल्यादेवी भेड़-बकरी संस्थान में प्रतिनिधित्व देने की मांग की है।

चरवाहों व घुमंतू समुदायों के अधिकारों की रक्षा का मुद्दा संकुचित शहरी मानसिकता द्वारा प्रायोजित “पर्यावरण बनाम मनुष्य” की बहस में उलझ कर रह जाता है। यहाँ तक कि देश की अदालतें भी चरवाहों व जंगल में निवास करने वाले समुदायों के अधिकारों को लेकर पूरी तरह संवेदनशील नही हुई हैं।

तमिल नाडु के चरवाहे

मार्च 2022 में मद्रास हाई कोर्ट ने जी. तिरुमुरूगन बनाम भारत सरकार एवं अन्य के मामले में फैसला सुनते हुए राज्य के संरक्षित वन क्षेत्र में जानवर चराने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया।

यह आदेश तमिल नाडु के रामनाथपुरम जिले के तिरुवंदनै कस्बे से ताल्लुक रखने वाले एक वकील जी. तिरुमुरुरगन द्वारा जुलाई 2020 में लगाई गई ‘जनहित’ याचिका के कारण आया। याचिकाकर्ता ने जानवर चराने पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगाने की अपील की थी कि इससे थेनी जिले में स्थित मेघमलाई पर्वतीय वन क्षेत्र एवं अन्य वन्यजीव क्षेत्रों में न सिर्फ चरागाहें प्रदूषित हो रहीं थीं बल्कि पशुओं में बीमारी फैलने का खतरा था।

अदालत ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत वन्यजीव क्षेत्रों में प्रवेश को लेकर सख्ती एवं तमिल नाडु वन अधिनियम, 1882 के तहत पशुओं के प्रवेश निषेध के प्रावधानों का हवाला देकर याचिका को विस्तृत रूप देते हुए 4 मार्च को राज्य के समूचे 22,877 वर्ग किलोमिटर के दर्ज वन क्षेत्र में पशु चराने पर पाबंदी लगा दी।

इस फैसले से राज्य के चरवाहे व पशुपालक भड़क उठे और 15 मार्च 2022 को उन्होंने अपना विरोध जताया। तमिल नाडु वन अधिनियम, 1882 की धारा 16 कहती है कि “प्रशासन के पास पशु चराने की अनुमति देने का अधिकार है”। इस आलोक में अदालत ने दो दिन के भीतर अपने फैसले में परिवर्तन करते हुए इस प्रतिबंध को 8,102 वर्ग किमी के संरक्षित वन क्षेत्र तक सीमित कर दिया।

चरवाहों व पशुपालकों के विरोध का कारण: सदियों से थेनी जिले के जंगलों के भीतर व आस-पास बसे हुए लोगों की जीविका मुख्यतः इन शाकाहारी पशुओं, विशेषकर उनकी स्थानीय मलाईमाडु नस्ल, के व्यापार पर निर्भर रही है। अतः प्रदर्शनकारियों का तर्क था कि हाई कोर्ट के आदेश से न सिर्फ जंगल की सेहत पर असर पड़ेगी बल्कि लोगों की कमाई के सहारे को छीनते हुए इन लोगों के अधिकारों के लिए बनाए गए नियमों की भी धज्जियां उड़ा दी जाएंगी।

अनुसूचित जनजाति एवं परंपरागत रूप से वन क्षेत्र में निवास करने वाले समुदायों से संबंधित वन अधिकार अधिनियम, 2006 ऐसे लोगों के पशु चराने के अधिकार को मूलभूत मानते हुए उनकी रक्षा करता है। अदालत ने दशकों से आदिवासी व वन समुदायों के संघर्षों द्वारा हासिल किए गए इस कानून की ओर ध्यान देने की वजाय ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के तमिल नाडु वन अधिनियम, 1882 जैसे कानूनों का संज्ञान ले लिया। ऐसे में वन समुदायों को शोषण और उनके अधिकारों का हनन ही नसीब होना है।

इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि 2020 के फैसले में चराने के लिए अनुमति पत्र (permit) की वर्तमान व्यवस्था जारी रखने को कहा गया है। 1882 के वन अधिनियम के तहत वन विभाग ऐसे पर्मिट जारी करता है। हालांकि ऐसे पर्मिट चरवाहों के पास मौजूद पशुओं की संख्या या ऐसे अन्य किसी आँकड़े का संज्ञान नहीं लेते जिससे चरवाहों के बीच अनिश्चितता रहती है। [1]

जिस राज्य में 2006 के वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत व्यक्तियों व समुदायों के लिए सुनिश्चित किए गए अधिकारों को प्राप्त करने में कई समस्याएँ हैं, वहाँ अदालत का ऐसा फैसला इन समुदायों के जंगल व उसके अंदर मौजूद लकड़ी जैसे आवश्यक संसाधनों तक पहुँच को अवरुद्ध कर देता है। 2001 की जनगणना कहती है कि राज्य में ऐसे समुदाय तहसीलों की सीमा में मौजूद 15,826.93 वर्ग किमी की वन भूमि पर मालिकाना दावा करने के योग्य हैं। यह आंकड़ा कोयम्बटूर जिले में स्वतंत्र रूप से वन संसाधन व सरकारी नीतियों और उनसे उपजी समस्याओं का स्वतंत्र अध्ययन कर रहे सी.आर. विजय द्वारा दिया गया है (यहाँ 2011 की जनगणना का प्रयोग नहीं किया गया है चूंकि वह वन क्षेत्र को तहसील की सीमा की वजाय परंपरागत सीमाओं के हिसाब से नापती है)। [2]

वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत सामुदायिक अधिकारों के लिए किए गए दावों के सबसे हालिया आँकड़े कहते हैं कि तमिल नाडु में अकतूबर 2021 तक 1,082 दावे दायर किए गए। इनमें से सिर्फ 450 दावों को स्वीकार किया गया है जबकि 86 अस्वीकृत हुए। भूमि पर दावों के संदर्भ में 33,755 दावों में से 8,144 को ही 96.26 वर्ग किमी क्षेत्रफल भूमि के तहत पट्टा दिया गया।

संरक्षित वन क्षेत्र में पशु चराने के प्रतिबंधित होने के बाद एक बहुत बड़ा क्षेत्र इन समुदायों की पहुँच से बाहर कर दिया गया है। श्री विजय के अनुसार यदि अन्य राज्य भी इन आदेशों का पालन करते हैं तो कई और चरवाहे व जंगल के निवासी इससे प्रभावित होंगे।

यह आवश्यक है कि इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जाए चूंकि इससे शासन-प्रशासन के लिए जंगलों को मनमाने ढंग से नियंत्रित करने की नजीर कायम होती है और आदिवासियों व जंगल के अन्य निवासियों के समक्ष आजीविका के लिए वहाँ के संसाधनों को प्राप्त करने में अड़चनें उत्पन्न होती हैं। यह एक ऐसा दुष्चक्र है जिसमें देश के मूल निवासी आज भी फंसे हुए हैं।

साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एक फैसले की मानवाधिकार एवं आदिवासी अधिकार के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं द्वारा तीव्र आलोचना की गई चूंकि इसके तहत दस लाख बाशिंदों को उनके जल, जंगल और जमीन से इसलिए बेदखल करने का आदेश दिया गया चूंकि वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत उनकी अर्ज़ियाँ खारिज कर दी गईं। यह फैसला वन अधिकार अधिनियम, 2006 को साल 2008 में दी गई चुनौती की याचिका के तहत आया। देश के सर्वोच्च न्यायालय का यह औचक आदेश लाखों लोगों की बेदखली को जायज ठहराने के साथ ही वन अधिकार अधिनियम एवं उससे जुड़े कानून के अन्य संशोधनों के प्रति अनभिज्ञता का भाव दर्शाने वाला था। देशभर में कई संगठनों द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शनों के फलस्वरूप अदालत ने अपने फैसले पर रोक लगा दी। तत्पश्चात, सोकालो गोंड, निवादा राणा, ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपुल या AIUFWP, सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एण्ड पीस तथा कई अन्य गैर-सरकारी संगठनों व नागरिकों ने इस मामले में हस्तक्षेप किया। हालांकि यह पहली बार नही हुआ है कि आदिवासियों व वन निवासियों को संरक्षण के नाम पर अपनी जमीन छोड़ने को कहा गया हो।

परिपेक्ष्य

अधिकारों व ज़िंदगियों पर प्रहार: भारतीय वन अधिनियम बनाम वन अधिकार अधिनियम

आजादी से पूर्व

1927 में लागू हुआ भारतीय वन अधिनियम एक पुरातनपंथी कानून है, जो देश के आदिवासियों एवं जंगलों में रहने वाले समुदायों को उनके अधिकारों से वंचित करने के उद्देश्य से बनाया गया। जबकि उसके बरक्स वन अधिकार अधिनियम, 2006 “अधिकारों की स्वीकृति” का कानून है जिसके अंतर्गत यह बात मानी गई है कि आदिवासी एवं जंगल में रहने वाले समुदाय (जिसमें घुमंतू जातियाँ भी शामिल हैं), इन ज़मीनों के असली मालिक हैं और इस कानून की वजह से उनकी जीविका के परंपरागत स्त्रोत प्रभावित हुए हैं। भारत के आजाद हो जाने और जनवरी 1950 में गणराज्य घोषित हो जाने के बाद भी संविधान की अनुसूची V एवं IX के उद्देश्य 56 साल बाद वन अधिकार ऐक्ट के पारित हो जाने के बाद ही पूर्ण होने की तरफ बढ़ पाए हैं।

ब्रिटिश सरकार ने सर्वप्रथम वर्ष 1865 में “इंडियन फॉरेस्ट ऐक्ट” पारित किया जिसमें 1878 व 1927 में संशोधन किए गए। इस कानून ने देश के मूल निवासियों के प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग के अधिकारों पर कई प्रतिबंध लगा दिए। इससे पूर्व के सौ सालों में अंग्रेजों की जंगलों व उनके संसाधनों की खुली लूट व दोहन के खिलाफ वन समुदायों, आदिवासियों व किसानों के कई व्यापक आंदोलन देश के अलग-अलग हिस्सों में देखने को मिले थे।

अंग्रेजों के आने से पहले सदियों तक इन समुदायों के अधिकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे थे। वन अधिनियम जैसे काले कानून ने इन अधिकारों को सीमित कर दिया। संसाधनों की लूट और लोगों को निर्धन बनाने की इस अंग्रेजी मुहिम के खिलाफ उपजे तीखे आदिवासी व किसान असंतोष को देखते हुए उपनिवेशी सरकार ने जमीन और संसाधनों पर कब्जे को कानूनी जामा पहनाने के लिए यह कानून, और तमिल नाडु जैसे राज्यों के स्तर पर मिलते-जुलते कानून पास किए जिससे वन विभाग को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सके और इन समुदायों के अधिकार सीमित हो जाएँ।

1865 का भारतीय वन अधिनियम देश के स्तर पर जंगलों को सम्पूर्ण रूप से नियंत्रित करने हेतु पहला कानून था। इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारत के जंगलों पर ब्रिटिश साम्राज्य का एकाधिकार कायम करना था, और इसके अंतर्गत सरकार को जंगलों व चारागाहों को प्रशासित करने की बेइंतेहां आजादी थी। कालांतर में इस कानून में “भारतीय जंगलों के निर्बाध संचालन एवं वैज्ञानिक प्रबंधन” के नाम पर कई सुधार, संशोधन व नए-नए नियमों को जोड़ने की प्रक्रिया चली। अतः सरकार को 1865 व 1878 के कानूनों में जो भी “गलतियाँ” व “खामियाँ” नजर आईं, उन्हें सुधारा गया ताकि सरकार की कानूनी पकड़ और मजबूत हो सके। इस अधिनियम का कानूनी ढांचा ब्रिटिश सरकार के वनों के वर्गीकरण को लेकर बनाई गई नीतियों व दिशानिर्देशों पर आधारित था। आरक्षित वन भूमि (Reserve Forest), संरक्षित वन भूमि (Protected Forest) एवं ग्रामीण वन भूमि (Village Forest), सभी इसके अंदर शामिल थे।

पहली बार सभी जंगल व चरागाहें सरकार के नियंत्रण में लाई गईं। 1927 में अंग्रेजों द्वारा किए गए अंतिम संशोधन ने यह सुनिश्चित किया कि देश की तमाम वन भूमि एवं चरागाहें वन एवं राजस्व विभाग के प्रशासन व अधिकार क्षेत्र में शामिल हो गईं। इस कानूनी संशोधन के तहत शासन को बंजर भूमि को प्रभावी रूप से नियंत्रित करने की छूट दी गई। इस संशोधन में जंगल के समुदायों, खासकर जनजातियों को कुछ “हक-हुकूक” भी दिए गए लेकिन यह नाममात्र के थे और अंग्रेजी राज्य से पहले वाली परिस्थितितियों को उलट दिया गया था जिससे इन समुदायों के अपने परंपरागत रूप से जीविका अर्जित करने के सभी रास्ते बंद हो चुके थे। 1927 का भारतीय वन अधिनियम, जिसे वन अधिनियम की धारा सोलह भी कहा जाता है, को 1878 का कानून परिवर्तित करके लाया गया और यह अभी भी देश में लागू है।

 आजादी के बाद

संविधान सभा में चली अट्ठारह महीने की चर्चा व बहस मुबाहीसों ने यह तय किया कि भारतीय संविधान की पाँचवी व नवी अनुसूचियों में देश के आदिवासी व जंगल में निवास करने वाले बाशिंदों के अधिकारों को विशेष दर्जा दिया गया। लेकिन विडंबना यह रही कि आजादी की बाद की सरकारों ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानूनों को बदलना जरूरी नहीं समझा। और तो और, अंग्रेजों के यही कानून केंद्र व देश के हर क्षेत्र में लागू किए गए। उपनिवेशी वन नीतियों को उलटना तो दूर की बात थी, राष्ट्र निर्माण के क्रम में देश के शासन ने संसाधनों पर एकाधिकार व मनमाने तरीके से दोहन की नीति को और ज्यादा सुदृढ़ ही किया। उदाहरण के लिए, 1952 की राष्ट्रीय वन नीति के तहत जंगल के निवासियों के अधिकार सुनिश्चित करने की जगह वन उत्पादों की खपत बढ़ाने पर जोर दिया गया। सारा ध्यान इस बात पर केंद्रित था कि उद्योग, संचार व रक्षा क्षेत्रों के लिए जंगल से लकड़ी व अन्य उत्पादों की सप्लाइ जारी रहे। [3]

अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी अधिनियम, 2006 को पारित किए हुए 15 साल बीत चुके हैं। यह कानून भारत के आदिवासियों के संघर्षों का परिणाम है। इस ऐक्ट का उद्देश्य वन संपदा और संसाधनों के प्रबंधन का लोकतान्त्रिक बनाना था। इसके अंतर्गत तीन स्तरों की न्यायिक अपील व्यवस्था के अंतर्गत ग्राम सभा को भी एक अर्ध-न्यायिक संस्था के नाते वन संसाधनों के इस्तेमाल पर व्यक्तिगत दावों (Individual Forest Rights), सामुदायिक दावों (Community Rights) एवं समुदाय द्वारा वन संसाधन के उपियोग के लिए दावों (Community Forest Resource Rights) पर फैसला करने का अधिकार है।

2006 का वन अधिकार अधिनियम किसी परंपरागत गाँव में निवास करने वाले लोगों के उनके निवास स्थान से बाहर की भूमि पर सामुदायिक स्वामित्व को मान्यता देता है ताकि इनकी जीविका चल सके, परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर बची रहें तथा व्यक्तियों को उनके निवास स्थान पर रहने का हक मिल सके। पिछली एक सदी या उससे ज्यादा से आदिवासियों व वनवासियों के वन विभाग के रहमोकरम पर मजबूर रहने और हमेशा बेदखली से चिंतित रहने की स्थिति के निवारण के लिए इस ऐक्ट में ग्राम सभा को विस्तृत संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं। अतः ग्राम सभा की अनुमति के बगैर जंगल को किसी अन्य उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी एक सत्य है कि इस कानून के बनने से लेकर अब तक की इसकी यात्रा में कई कठिनाइयाँ आई हैं।

वन अधिकार अधिनियम, 2006 एवं भारतीय वन अधिनियम, 1927, दोनों कानून परस्पर विरोधी मंतव्यों के साथ पारित किए गए थे। वन अधिकार अधिनियम उन समुदायों व जनांदोलनों की सक्रियता का नतीजा है जिन्होंने निजी ठेकेदारों व वन विभागों के शोषण के खिला आवाज उठाई और वन संपदा पर जनता के अधिकार की वकालत की। इस कानून का सबसे मुक्तिकमी स्वरूप इन समुदायों के बीच महिलाओं के सामूहिक नेतृत्व विकास पर जोर देने के रूप में सामने आया। जबकि 1927 का वन अधिनियम ‘प्रशासनिक नियंत्रण’ के नाम पर सिर्फ जंगल से होने वाले आर्थिक उत्पादन क महत्व देता रहा और इसने वन विभाग को मनचाही छूट देते हुए जंगल के संसाधनों की लूट और दोहन का रास्ता साफ किया। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 जैसे ऐतिहासिक कानून के पारित होने के बावजूद जंगल के ऊपर वहाँ रहने वालों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की जगह वन विभाग द्वारा मनमानी और 1927 के कानून को तरजीह दी जा रही है।

सच यह है कि जंगल में निवास करने वाले समुदाय वहाँ के जटिल पर्यावरण और संरक्षण की जरूरत को बेहतर समझते हैं चूंकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन्होंने परंपरागत तरीकों और समझ द्वारा इन प्राकृतिक संसाधनों का सुचारु प्रबंधन किया है। नब्बे के दशक के उत्तरार्ध और इस सदी के पहले दशक के दौरान जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन समुदायों की जंगल और पर्यावरण बचाने में भूमिका को पहचान मिली, वहीं संरक्षण के नाम पर सतही समझ रखने वाले शहरी और अभिजात्य मानसिकता के समूहों द्वारा इस समझ पर सवाल उठाया गया, और यहाँ तक कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 की संवैधानिकता को भी अदालत में चुनौती दी गई।

इस कानून के पारित होने के महज दो साल के भीतर 2008 में Wildlife First, Tiger Research and Conservation Trust (TRCT) और Nature Conservation Society (NCS) जैसी संस्थाओं ने इस कानून को पूरी तरह लागू भी होने का मौका दिए बिना इसके खिलाफ अदालत में याचिका दायर कर दी। राज्य और केंद्र की सरकारें वैसे ही इस कानून को दरकिनार करने में लगी रही हैं। ऐसे प्रयास कई तरह से किए गए हैं जिनमें सबसे प्रमुख है जंगल के लघु एवं कुटीर उत्पाद (Minor Forest Produce) के व्यापार पर कब्जा। वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत जंगल के लघु उत्पाद, मसलन बीड़ी बनाने में इस्तेमाल होने वाले तेंदू के पत्ते और बांस जैसे आर्थिक रूप से लाभकारी उत्पाद बेचने का अधिकार शामिल है। लेकिन इस व्यापार को वन विभाग के नियंत्रण में कर दिया गया है।

संसाधनों को लेकर चल रहे इस संघर्ष की छाप उच्च अदालतों के मुकदमों और यहाँ तक कि उनके फैसलों में भी देखने को मिलती है। इसके साथ ही केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालय इसको लेकर आपस में ही उलझ जाते हैं। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से 1999 में अलग कर बनाए गए जनजातीय मामलों के मंत्रालय का अक्सर खान मंत्रालय (Ministry of Mining) एवं पर्यावरण मंत्रालय से विवाद रहता है। 2014 के बाद से केंद्र सरकार ने नए कानूनों और संशोधनों की ऐसी शृंखला कायम की है जिसके चलते वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत “जमीन और जीविका को पहचान” देने वाले मूलभूत अधिकार प्रभावित हो रहे हैं।

अगस्त 2010 में वन अधिकार अधिनियम, 2006 को लागू करने वाले नोडल मंत्रालय, केन्द्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने एक यथास्थिति रपट (status report) जारी की जिसके अनुसार इस कानून के अंतर्गत किए गए उनतीस लाख दावों में से मात्र 46,156 को सामुदायिक अधिकार दिए गए थे जबकि इनमें से भी ज्यादातर के पास लघु वन उत्पाद के ऊपर कोई अधिकार नहीं था। अधिकतर दावों का निस्तारण खेती की जमीन और वन क्षेत्र में मौजूद घरों से संबंधित था। जहां जमीन के पट्टे आवंटित करने पर अधिक ध्यान दिया गया था, लघु वन उत्पादों पर अधिकार की सूध कम ही ली गई। छतीसगढ़ का उदाहरण इसे समझने के लिए पर्याप्त है; 214,919 दावों में से सिर्फ 250 राज्य में सामुदायिक दावों से संबंधित थे और उनमें से किसी में भी लघु वन उत्पाद पर अधिकार नहीं दिए गए। वन विभाग के निछले स्तर के अधिकारी जिन्हें वन अधिकारों से संबंधित दावों के निस्तारण के लिए अधिकृत किया जाता है, कानून के सभी प्रावधानों से पूरी तरह परिचित भी नहीं हैं। [4]

कार्यान्वयन में समस्याएं: इस ऐक्ट को सही ढंग से लागू करने में सबसे बड़ी समस्या उस संरचना की है जिसके अंतर्गत जहां शासन प्रशासन के पास असीम शक्तियां हैं लेकिन ‘अनुसूचित जनजातियों’ व अन्य समुदायों का सशक्तिकरण नहीं हुआ है। इसके साथ ही 1990 के बाद बनी आर्थिक नीतियों ने लगातार गैर-बराबरी को बढ़ावा दिया है, जिसकी परिणति जल, जंगल जमीन और खनिज जैसी प्राकृतिक संपदा के जरिए अपना हित साधने की प्रतिस्पर्धा के रूप में देखी जा सकती है। ऐसी परिस्थितियों के बदलने की संभावना तभी बन सकती है जब यह सभी वन समुदाय अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े हों और संगठित होकर पैरवी करें।

जबकि यह तय बात है कि आर्थिक हितों को सर्वोपरि रखने की सोच जंगल में रहने वाले समुदायों के संसाधनों पर अधिकार के बिल्कुल उलट है, फिर भी वन अधिकार अधिनियम को ठीक से लागू करने की राजनैतिक इच्छाशक्ति किसी भी पार्टी में दिखाई नहीं देती। वन अधिकार अधिनियम के प्रावधान वन विभाग को मिली असीम शक्ति व अधिकार क्षेत्र, और ब्रिटिश राज के समय से ही उसके जंगलों का आर्थिक मुनाफे के लिए ‘प्रबंधन’ करने के चलन पर सवाल खड़ा करता है। इसी कारण हाल के दिनों में इस कानून को कमजोर करने के लिए नए विरोधाभासी कानून, नियम, सरकारी आदेश आदि लाए जा रहे हैं जिसमें प्रतिपूरक वनीकरण अधिनियम (Compensatory Afforestation Act), प्रारूपी वन नीति (Draft Forest Policy) एवं स्थानीय स्तर के वन संबंधी दिशानिर्देश शामिल हैं।

इस ऐक्ट को लागू करने के लिए टैक्स, वन एवं जनजातीय विभाग एक साथ मिलकर काम नहीं कर रहे हैं। कई ऐसे नियम-कानून हैं जो वन अधिकार अधिनियम को अवरुद्ध कर रहे हैं और इस अधिनियम को प्रभावी तरीके से लागू करने हेतु ऐसे कानूनों, मसलन लघु एवं कुटीर वन उत्पाद पर मालिकाना हक, को संशोधित करने की आवश्यकता है। राज्यों के भी पंचायत और आबकारी संबंधी कई कानून हैं जिनमें परिवर्तन करना होगा। वन अधिकार अधिनियम में भी एक कमजोरी यह है कि यह वन ससधानों पर सामुदायिक अधिकारों को मान्यता नहीं देता। वन विभाग द्वारा सामुदायिक वन अधिकारों को मान्यता देने व ग्राम सभा के साथ जंगल के प्रबंधन व संरक्षण के लिए प्रशासनिक शक्ति का बंटवारा करने में हीला-हवाली की जाती है। हाल ही में बनी प्रारूपी वन नीति, जिसके अंतर्गत जंगलों के व्यवसायीकरण, पीपीपी मॉडेल, फैसले लेने में अधिकारियों एवं कॉर्पोरेट विचार की प्रधानता, एवं वन निवासी समुदायों की निर्णय-प्रक्रिया में अनदेखी, जंगलों के संदर्भ में सरकार की मंशा को दर्शाती है।

जैसा कि हमने कहा है, वन अधिकार अधिनियम को ठीक से लागू करने में कई कठिनाइयाँ हैं। कई दावे या तो खारिज कर दिए जाते हैं या उन्हें सीमित करने, या टालने की कोशिश होती है। जिन अधिकारों को मान्यता मिली भी है वहाँ भी फर्जी दावों के नाम पर अधिकार क्षेत्र का परिमाण घटा दिया जाता है। इसी कारण जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने राज्य सरकारों को पत्र लिखकर दावे खारिज होने के कारण बताने व प्रार्थियों को अपील करने का अधिकार देने का आग्रह किया है।

सार रूप में हम कह सकते हैं कि देश के आदिवासियों और अन्य समुदायों के अधिकार और आजादी छीनने के सतत प्रयास होते रहे हैं। अतः यह आवश्यक है कि जमीन और जीविका के उनके अधिकारों को मान्यता मिले और उनके जीवन व आय के स्त्रोतों पर असर न पड़े। जबकि न्यायिक प्रक्रिया में बेदखली का प्रश्न मौजूद ही नहीं है, बेदखली किए जाने के बाद इन समुदायों को निम्नतम सुविधाएँ और अधिकार भी नहीं दिए गए हैं। इन समुदायों को अतिक्रमणकारी मानने की पुरानी सड़ी-गली सोच से कोई हल नहीं निकल सकता। सरकारों का मुख्य उद्देश्य देश में वन अधिकार अधिनियम को समान और प्रभावी रूप से लागू करने और इसमें सहायता हेतु असरदार कानूनी मदद मुहैया कराने का होना चाहिए।

 

[1] One step too far: Madras High Court ban on forest grazing may hurt on forest dwellers, biodiversity (downtoearth.org.in)

[2] supra

[3] National Forest Policy, 1952 (latestlaws.com)

[4] How government is subverting forest right act (cseindia.org)

 

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