28 अगस्त की सुबह का समय था, रांची शहर के लोग पिछले दिन की भारी बारिश के बाद खुले आसमान के नीचे दिनभर की योजना बनाते सुकून से टहल रहे रहे थे. जनप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता फ़ादर स्टैन स्वामी के घर पर अचानक हुई छापेमारी की ख़बर से लोगों के ये सुकून भरे कदम वहीँ थम गए.
बागीचा परिसर, जो कि फ़ादर स्टैन स्वामी का निवास भी है, पर महाराष्ट्र और झारखंड पुलिस ने सुबह 6 बजे छापेमारी की. छापेमारी कई घंटो तक चलती रही. पुलिस ने फ़ादर स्टैन के मोबाईल, लैपटॉप, कुछ ऑडियो कैसेट, कुछ सीडी और यौन हिंसा व राजकीय दमन के ख़िलाफ़ महिलाएं (डब्ल्यूएसएस) संगठन के द्वारा पत्थलगड़ी आन्दोलन पर जारी की गईं कुछ प्रेस विज्ञप्तियां ज़ब्त कीं. इस पूरी कार्रवाई के दौरान फ़ादर स्टैन को ये तक नहीं बताया गया कि उनके ख़िलाफ़ आरोप क्या हैं. इस पूरी प्रक्रिया की पुलिस ने वीडियो रिकॉर्डिंग भी की.
इस कार्रवाई के कुछ ही हफ़्तों पहले झारखण्ड सरकार द्वारा फ़ादर स्टैन पर, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों समेत 19 लोगों पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था. पुलिस ने खूंटी के पत्थलगड़ी आन्दोलन में इनके शामिल होने के सबूत के तौर पर फ़ेसबुक पोस्ट का हवाला दिया. सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था) की धरा 66A के तहत भी इनपर मामला दर्ज किया गया.
झारखण्ड में तेज़ी से बढ़ता औद्योगिकीकरण
झारखण्ड की राजधानी रांची, विकास की आकांक्षाओं वाला एक शहर है. भारत की कुल खनिज सम्पदा के भण्डार का 40% से अधिक झारखण्ड में है. लेकिन फिर भी यहां व्यापक रूप से ग़रीबी फैली हुई है. झारखण्ड की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा, लगभग 39.1% गरीबी से नीचे अपना जीवन बिताता है. पांच वर्ष से कम उम्र के 19.6% बच्चे यहां कुपोषण का शिकार हैं. ये राज्य ग्रामीण आबादी की बाहुल्यता वाला राज्य है. यहां की शहरी आबादी मात्र 24% है.
यूं तो झारखण्ड में कई सरकारें आती-जाती रहीं हैं, पर आदिवासियों के हितों का कभी ध्यान नहीं रखा गया. लेकिन 2014 में केंद्र में बीजेपी सरकार आने के बाद आदिवासियों का शोषण विशेष रूप से बढ़ गया, और तभी से राज्य सरकारों ने भी औद्योगिकीकरण को मानवीय हितों से ऊपर रखकर ख़ूब बढ़ावा दिया है. पिछले साल 2017 में रांची में आयोजित एक निवेशक शिखर सम्मेलन में राज्य सरकार द्वारा लगभग 209 एमओयू दिए गए जिनकी कुल कीमत 3 लाख करोड़ के लगभग है.
तेज़ी से बढ़ते औद्योगिकीकरण का उद्देश्य है यहां की ज़मीन पर कब्ज़ा करना, और यहां की खनिज सम्पदा को वैध या अवैध किसी भी तरीके से लूटकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों को सौंप देना. एक पूरा तंत्र ही इस षड्यंत्र में लगा हुआ है. इस बेतरतीब औद्योगिकीकरण के चलते हज़ारों लोग विस्थापन की मार झेल रहे हैं. न उन्हें पर्याप्त मुआवज़ा मिला है, न उनके पुनर्वास की बेहतर व्यवस्था की गई है. ये सब झेल रहे आदिवासियों के साथ जहां राज्य सरकार को संवाद की संस्कृति स्थापित करनी चाहिए थी, वहां वो उनके साथ बल का प्रयोग कर रही है.
भूमि का मालिक ही खनिज सम्पदा का भी मालिक है
सर्वोच्च न्यायालय का आदेश है कि ‘भूमि का मालिक ही खनिज का भी मालिक है‘ (सन 2000 की सिविल अपील संख्या 4549) में सर्वोच्च न्यायालय ने ये बात कही थी कि…
“हम मानते हैं कि कानून में कुछ भी ऐसा नहीं है जो घोषित करता हो कि राज्य के पास सभी खनिज संपदाओं का मालिकाना हक़ है, दूसरी तरफ, खनिज संपदा का स्वामित्व सामान्य रूप से तब तक भूस्वामी के पास ही होता है जब तक कि वैधानिक प्रक्रिया के ज़रिए ये अधिकार हस्तांतरित न किया जाए.”
इसके बावजूद, आदिवासियों द्वारा समृद्ध भूमि गंभीर ख़तरे में आ गई है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने देश में चल रही 219 कोयला खदानों में से 214 को अवैध घोषित कर दिया है, उन्हें बंद करने व उनपर जुर्माना लगाने का आदेश भी दिया है, पर सरकारें बाज़ नहीं आईं. केंद्र और राज्य सरकारों ने नीलामी के माध्यम से ग़ैरकानूनी खदानों को दोबारा आवन्टित कर दिया.
फ़ादर स्टैन स्वामी का व्यापक कार्यक्षेत्र
फ़ादर स्टैन स्वामी ने झारखण्ड के आदिवासियों को उनका अधिकार दिलाने के लिए बड़े पैमाने पर कार्य किया है. यूरेनियम कॉर्पोरेशन इंडिया लिमिटेड के ख़िलाफ़ सन 1996 का अभियान ‘झारखण्ड आर्गेनाइज़ेशन अगेंस्ट रेडिएशन’ (जेओएआर) उन बड़े अभियानों में से एक है जिसका फ़ादर स्टैन हिस्सा रहे. इस अभियान ने चाइबासा में एक ऐसे बाँध के निर्माण कार्य को रोका, जो यदि बनता तो जादूगोड़ा के चटिकोचा क्षेत्र के आदिवासियों के लिए विस्थापन का कारण बन बनता. इन मुद्दों को ज़ोरदार ढंग से उठाए जाने के बाद, वे बोकारो, संथाल परगना और कोडरमा के विस्थापित लोगों के साथ काम करने चले गए और अपना काम करना जारी रखा.
झारखण्ड में अंडर-ट्रायल मामले और फ़र्ज़ी गिरफ़्तारियां
सन 2010 में फ़ादर स्टैन ने ‘जेल में बन्द कैदियों का सच’ नाम से एक किताब प्रकाशित की. ये किताब झारखण्ड के जनजातीय युवाओं को मनमाने तरीके से गिरफ़्तार किये जाने, और इन फ़र्ज़ी गिरफ़्तारियों को जबरन नक्सल आन्दोलन से जोड़े जाने का सच बयान करती है. अपनी पुस्तक में, उन्होंने बताया कि 97% मामलों में, गिरफ़्तार किए गए युवाओं की पारिवारिक आय 5000 रुपयों से भी कम है, और वे वकीलों की फ़ीस देने तक के काबिल नहीं हैं. 2014 में जब गिरफ़्तार युवाओं की दुर्दशा पर चर्चा करते हुए एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, तो फ़ादर स्टैन राज्य मशीनरी के राडार में आए. रिपोर्ट के अनुसार 3000 गिरफ़्तारियों में से 98% मामलों ऐसे थे जिनमे लोग ग़लत रूप से फंसाए गए थे और उनका नक्सल आंदोलन से कोई संबंध नहीं था. कुछ लोग सालों-साल सिर्फ़ इसलिए जेल में बंद रहे क्योंकि उनका मामला कोर्ट में ट्रायल के लिए नहीं जा पाया. फ़ादर स्टैन ने ऐसे युवाओं की ज़मानत कराने में सहायता की और वकीलों से संपर्क किया ताकि ये मामले न्यायलय के समक्ष प्रस्तुत किये जा सकें.
फ़ादर स्टैन के सोच में डाल देने वाले प्रश्न
फ़ादर स्टैन स्वामी ‘जनजाति सलाहकार परिषद‘ (टीएसी) का नियमों के तहत गठन न होने व आदिवासियों के हित में कार्य न करने पर सवाल उठा रहे थे. संविधान की पांचवी अनुसूची में ये कहा गया है कि आदिवासी समुदाय के सदस्यों के साथ एक ‘जनजाति सलाहकार परिषद‘ (टीएसी) का गठन किया जाना चाहिए, जो आदिवासी समुदाय के कल्याण और विकास के सम्बन्ध में राज्यपाल को सलाह देगा. फ़ादर स्टैन का मानना है कि सविधान लागू होने के सात दशक बाद भी राज्यपाल (इन परिषदों के विवेकाधीन प्रमुख) ने आदिवासियों की समस्याओं को समझने के लिए आदिवासियों तक पहुंचने की कोई कारगर कोशिश नहीं की है.
फ़ादर स्टैन ने बताया कि अनुसूचित क्षेत्रों में लागू होने वाले पंचायत अधिनियम 1996 (पेसा) को पूरी तरह अनदेखा किया जा रहा है, और सभी 9 राज्यों में जानबूझकर इसका पालन नहीं किया जाता है. इस अधिनियम ने पहली बार इस तथ्य को पहचाना कि भारत में आदिवासी समुदायों के पास ग्रामसभा के माध्यम से आत्म शासन की समृद्ध सामाजिक और सांस्कृतिक परम्परा है. पेसा कानून के तहत प्राप्त अधिकारों को हासिल करने के लिए उन्होंने अथक रूप से आदिवासियों को संगठित करने का कार्य किया है. 2017 में आदिवासियों का पत्थलगड़ी आन्दोलन सामने आया. पत्थलगड़ी आंदोलन ने पेसा को लागू करने के लिए राज्य की विधिवत लापरवाही को उजागर करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस आंदोलन के बारे में फ़ादर स्टैन ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है,
“पत्थलगड़ी के मुद्दे पर मैंने सवाल पूछा है कि आख़िर आदिवासी क्यों ऐसा कर रहे हैं? ‘मेरा मानना है कि सहनशीलता की सारी हदों के पार जाकर उनका शोषण और उत्पीड़न किया गया है, उनकी भूमि में मौजूद खनिज सम्पदा का दोहन कर के बाहरी उद्योगपति समृद्ध किये गए हैं, और आदिवासियों को इस हद तक लूटा गया है कि वो भुखमरी से मर रहे हैं”
फ़ादर स्टैन ने सुप्रीम कोर्ट के समाथा जजमेंट 1997 के सम्बन्ध में सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाया. इस जजमेंट ने आदिवासियों को अपनी भूमि में खनिजों की खुदाई को नियंत्रित करने और खुद को विकसित करने में मदद करने के लिए महत्वपूर्ण सुरक्षा प्रदान की थी. ये निर्णय ऐसे समय में आया था जब
“वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण की नीति के परिणामस्वरुप, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कॉर्पोरेट घरानों ने खनिज सम्पदा का दोहन करने के लिए विशेष रूप से मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों पर हमला करना शुरू किया.”
इतना ही नहीं, फ़ादर स्टैन ने वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 के कार्यान्वयन की घोर कमियों पर भी सवाल उठाया. उनके निष्कर्षों के अनुसार 2006 से 2011 तक, पूरे देश में एफआरए के तहत लगभग 30 लाख आवेदन जमा आए थे, जिनमें से 11 लाख मंज़ूर किए गए लेकिन 14 लाख आवेदनों को ख़ारिज कर दिया गया और पांच लाख लंबित थे. उन्होंने यह भी पाया कि झारखंड सरकार औद्योगिक स्थापना के लिए वन भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में ग्रामसभा को को नज़रअन्दाज़ करने की कोशिश कर रही है.
हाल ही में, वे झारखंड सरकार द्वारा ‘भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013‘ के क्रियान्वयन को लेकर भी सवाल उठा रहे थे. जिसे उन्होंने आदिवासियों के लिए “मौत की घंटी” कहा था. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि इसके क्रियान्वयन में लोगों पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभाव का आंकलन नहीं किया जा रहा है. जबकि इसका उद्देश्य पर्यावरण, सामाजिक संबंधों और प्रभावित लोगों के सांस्कृतिक मूल्यों की सुरक्षा करना है.
उन्होंने ‘लैंड बैंक‘ पर भी सवाल खड़े किए. इसे वे आदिवासी लोगों को ख़त्म करने के लिए सबसे हालिया साजिश के रूप में देखते हैं.
स्टैन स्वामी की कोशिशें रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी कीमती हैं
हाशिए पर जीवन बिताने वाले और कमज़ोर लोगों के लिए फ़ादर स्टैन स्वामी की असाधारण प्रतिबद्धता ही का नतीजा है कि मुख्यधरा की मीडिया में उपेक्षित समझा जाने वाला एक राज्य झारखण्ड, जहां के अत्याचारों और मानवाधिकारों के उल्लंघन की असंख्य घटनाएं गुमनाम रह जाती थीं, अब देखी, सुनी और ग़ौर की जाती हैं. दस्तावेज़ीकरण की उनकी असाधारण क्षमता, और दूसरे मानवाधिकार संगठनों के साथ तालमेल बिठाकर काम करने की उनकी कमाल की योग्यता का ही ये परिणाम है कि झारखण्ड जैसे राज्य में वास्तविक विकास के कार्यों की पहल हो पाई है. उन्होंने ख़ुद को आदिवासियों के जीवन और उनकी गरिमा के संघर्ष के साथ जोड़कर पहचाना. एक लेखक के रूप में उन्होंने सरकार की कई नीतियों पर आलोचनात्मक विचार व्यक्त किए हैं. इतना ही नहीं, बग़ैर किसी दिखावे के, शांति से लगातार काम करते रहने कारण व उनके बेहद विनम्र और शिष्ट व्यवहार ने उन्हें उन अनगिनत लोगों का चहेता बना दिया जिनके साथ उन्होंने काम किया.
“स्टैन, सरकार के मुखर आलोचक रहे हैं, झारखण्ड में भूमि अधिग्रहण कानून, वन अधिकार अधीनियम, पेसा और इससे सम्बंधित मामलों में वे एक मज़बूत वकील की भूमिका में भी रहे हैं. हम स्टैन को असाधारण रूप से सभ्य, ईमानदार और सार्वजनिक उत्साहित व्यक्ति के रूप में पहचानते हैं उनके और उनके कार्य के प्रति हमारे मन में अपार सम्मान है.”
यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और अपमानजनक है कि राज्य एक ऐसे पुजारी को परेशान कर रहा है, जिसने लोगों को ही अपना धर्म बना लिया!
अनुवाद सौजन्य – अनुज श्रीवास्तव
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