27 साल के मुन्ना शेख, बांद्रा में शास्त्री नगर इलाके में 15 लोगों के साथ रहते थे. बांद्रा का यह इलाका कम कमाई वाले लोगों की रिहाइश है. यहां देश के तमाम राज्यों के हजारों प्रवासी कामगार रहते हैं. मुन्ना शेख को रोजगार की तलाश में 15 साल पहले बिहार से मुंबई आना पड़ा था.
19 मई को बिहार के लिए रवाना होने वाली ट्रेन पकड़ने के लिए बांद्रा स्टेशन पर लोगों का भारी हुजूम इकट्ठा था. मुन्ना और उनके दोस्तों को किसी तरह ट्रेन में जगह मिल गई. लेकिन बिहार में कटिहार तक पहुंचने में उन्हें 62 घंटे लग गए. मुन्ना का घर कटिहार जिले के बारसोई ब्लॉक में है. अपने गांव बांसकोटा गोविंदपुर पहुंचने के बाद उन्होंने सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) की टीम से बात की.
लॉकडाउन के बाद, प्रवासी मजदूरों को दो मुश्किल विकल्पों में से एक को चुनना है. या तो वे महंगे शहरों में बने रहें, जहां उनकी कमाई बंद हो गई है और रहने-खाने का खर्चा जुड़ता जा रहा है, या फिर गांव लौट जाएं. लेकिन गांव में उनके लिए कमाई का कोई रास्ता नहीं है. आर्थिक भविष्य डांवाडोल है. सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) ने शहरों में रह गए और यहां से अपने घरों की ओर जा चुके हजारों प्रवासी मजदूरों को राशन और दूसरी चीजें मुहैया कराई हैं. लेकिन हमारे सामने लॉकडाउन के बाद की दुनिया में उनके लिए फौरी और स्थायी समाधान ढूंढने में मदद करने की चुनौती है. हमारी यह सीरीज उन प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक कहानियों को आपको सामने ला रही हैं, जिन्हें अपने घरों तक पहुंचने के लिए एक तकलीफ़देह यात्रा से गुजरना पड़ा. यह सीरीज उन लोगों के दर्द से आपको रूबरू करा रही है, जो लॉकडाउन के दौरान शहरों में कैद हो कर रह गए थे. हम इन प्रवासी भाई-बहनों की मदद कर सकें, इसके लिए हमें आर्थिक सहयोग की जरूरत है. सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस की इस मुहिम में आर्थिक मदद दें. सीजेपी आने वाले कुछ सप्ताह में इन प्रवासी भाई-बहनों के लिए सामुदायिक समाधान और कार्यक्रम ले कर पेश होगा.
गांव के हालात भी मुंबई जैसे
मुन्ना ने कहा, “ फिलहाल मैं होम क्वॉरन्टीन में हूं. यहां के हालात भी मुंबई जैसे ही हैं. मुंबई में तो कम से कम लोग हमें खाना, फल, राशन वगैरह दे देते थे. लेकिन यहां तो हमें खुद ही सब खरीदना है.” अपने गांव के हालात देख कर मुन्ना सोच रहे हैं कि क्या मुंबई छोड़ने का उनका फैसला सही था?
मुन्ना बताते हैं, “ सरपंच ने कहा कि हमें सरकार से कुछ नहीं मिला है. ऐसे में मैं कैसे कोई मदद दे सकता हूं.” यही वजह है कि मुन्ना और उनके दोस्तों को राज्य सरकार की निगरानी वाले क्वॉरन्टीन सेंटर में सिर्फ दो दिन रखा गया. मुन्ना कहते हैं, “ उन दो दिनों के दौरान भी हमें खाना नहीं मिला. हमारे लिए परिवार के लोग खाना लेकर आते थे.”
सरकारी क्वॉरन्टीन सेंटर में दो दिन रहने के बाद मुन्ना शेख और उनके दोस्तों को घर जाने का इजाजत मिल गई. शेख बताते हैं, “ हमने सरपंच से कहा कि हमें घर जाने की इजाजत दे दें. क्योंकि ईद आ रही थी और हम त्योहार अपने घर में परिवार के साथ मनाना चाहते थे. उन्होंने बात समझी और हमें नजदीकी अस्पताल में अपना टेस्ट कराने की इजाजत दे दी ” मुन्ना बताते हैं कि कैसे उन्हें सरपंच को रिपोर्ट करने के लिए कहा जाता था. उन्हें कहा गया था कि वे सरपंच को इसकी पुष्टि कर दें कि उन्हें कोरोना नहीं है. मुन्ना और उनके दोस्तों में कोरोना के लक्षण नहीं थे. इस आधार पर उन्हें घर जाने की इजाजत मिल गई.
रमजान और बकरीद में घर आना मुन्ना शेख के लिए काफी खुशनुमा अहसास हुआ करता था. पिछले साल नवंबर में ही वह घर से मुंबई लौटे थे. प्लान था कि अगले रमजान तक लगातार काम करेंगे. वे कहते हैं, “जिंदगी ठीक चल रही थी. किसी ने नहीं सोचा था कि कुछ ही महीनों में हालात ऐसे हो जाएंगे.”
सीजेपी की राशन किट ने दी राहत
मुन्ना शेख बताते हैं कि देश में लॉकडाउन के पहले चरण में सरपंच ने गांव के सभी प्रवासी कामगारों को 500-500 रुपये भेजे थे. वे बताते हैं, “ लॉकडाउन के पहले दौर में बाबा सिद्दिकी (बांद्रा के राजनीतिक नेता) और कुछ दूसरे लोग प्रवासी कामगारों को खाना बांट रहे थे. लेकिन लॉकडाउन के बढ़ने के बाद हमारी दिक्कतें शुरू हो गईं. हमारे इलाके में इतने ज्यादा प्रवासी कामगार थे कि खाना पूरा नहीं पड़ रहा था. कई बार तो हम भूखे पेट सोए.” मुन्ना कहते हैं, “लेकिन इसके बाद सीजेपी की राशन किट हमें मिलने लगी थी. सीजेपी के वालंटियर हर शख्स को एक-एक किट दे रहे थे. सीजेपी का राशन मिलने के बाद हमें और कहीं नहीं जाना पड़ा. मेरे मुंबई छोड़ने तक यह राशन चलता रहा. मुश्किल की घड़ी में इस मदद के लिए सीजेपी का मैं बहुत शुक्रगुजार हूं.
इन सालों में मुन्ना शेख के लिए मुंबई दूसरा घर बन गया था. वे कहते हैं, “ इतने सालों में मुंबई ने मुझे सब कुछ दिया था. मुझे लगता ही नहीं था कि मैं किसी दूसरे राज्य में हूं.” मुंबई में अपनी जिंदगी के बारे में बताते हुए मुन्ना शेख कहते हैं, “ शुरुआत में तीन साल तक मैंने बांद्रा के यादगार होटल में वेटर का काम किया. इसके बाद चार साल तक एक कंस्ट्रक्शन साइट पर मिस्त्री का काम किया. लेकिन पिछले सात साल से ऑटो रिक्शा चला रहा हूं”. मुंबई में अपना मालिक खुद बन कर मुन्ना बहुत खुश थे. वह कहते हैं, “ पहले मैं किराये पर ऑटोरिक्शा चलाता था. लेकिन पिछले साल किसी तरह लोन पर अपना रिक्शा खरीद लिया. हर महीने 5,023 रुपये इसकी किस्त जाती है.” मुन्ना शेख जब यह बता रहे थे तो उनके दिमाग में खर्चे और आमदनी का गणित चल रहा था.
मुंबई छोड़ते ही कमाई की चिंता ने घेरा
मुन्ना बताते हैं, “ मुंबई में रहते हुए अच्छा कमा रहा था. इससे गांव में रह रहे अपने परिवार की ठीक से देखभाल भी कर पा रहा था. मैंने खुद अपनी आंखों से देखा है कि इस संकट ने गरीबों पर किस कदर असर डाला है. मुझे इसके बारे में पता है, क्योंकि मैं उनके साथ रहता हूं. बहुत सारे लोगों को तो भोजन के लिए संघर्ष करना पड़ा है, जो आदमी की बुनियादी जरूरत है. लॉकडाउन से खुद मुझे अब तक लगभग 70 हजार रुपये का घाटा हो चुका है. मैं नहीं जानता कि इस घाटे की भरपाई कैसे करूंगा.” लॉकडाउन के बाद जिंदगी पटरी पर आने के बावजूद मुन्ना शेख की चिंता बनी रहेगी क्योंकि ऑटो लोन चुकाना होगा. मुन्ना कहते हैं, “इंश्योरेंस कंपनी तो एक पैसा नहीं छोड़ेगी”.
अपने घर में होने के बावजूद मुन्ना शेख का दिमाग अब भी मुंबई में बिताए अपने पुराने अच्छे दिनों में भटक रहा है. हालांकि उन अच्छे दिनों को गुजरे हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं.” मुन्ना कहते हैं, “मैं हर दिन सात-आठ सौ रुपये कमा लेता था. महीने में मैं पांच हजार रुपये अपने घर भेज देता था. 5032 रुपये ऑटो के लिए लोन की किस्त भरता था. बाकी पैसे किराया, खाना और ऑटो रिक्शा के मेंटनेंस में लग जाते थे.”
परिवार की चिंता और मुन्ना शेख की मजबूरी
मुन्ना शेख कहते हैं कि उनके परिवार ने मुंबई में कोविड-19 के बढ़ते मामलों के बारे में सुन रखा था. वे चाहते थे कि मैं घर चला आऊं. वे बताते हैं, “ मेरे परिवार में पत्नी, माता-पिता और दो बेटियां हैं. छोटी बेटी सिर्फ डेढ़ साल की है. बड़ी तीन साल की है. परिवार के सब लोग कोविड-19 से पैदा हालात से चिंतित हैं. उन दिनों वो सिर्फ यही कहते रहते थे कि जैसे भी हो घर चले आओ”. मुन्ना कहते हैं कि परिवार वाले लाचार थे क्योंकि वे उनसे दूर थे. परिवार के लोग मारे चिंता के परेशान हो रहे थे. मुन्ना कहते हैं, “परिवार वाले कहा करते थे कि अगर मुंबई में मुझे कुछ हो गया था तो वो यहां बिहार से कुछ भी नहीं कर पाएंगे. जैसे-जैसे कोविड-19 के केस बढ़ रहे थे उनकी चिंता और बढ़ती जा रही थी. इससे परिवार में और तनाव बढ़ रहा था.”
परिवार को लेकर शेख के सपने बहुत बड़े थे. वह कहते हैं, “ मैं अपनी पत्नी और बेटियों को हमेशा मुंबई ले जाना चाहता था लेकिन वहां कमरों के किराये इतने ज्यादा हैं कि यह कभी संभव नहीं हो पाया.” अपने परिवार को मुंबई ले जाने का ख्वाब देखने वाले मुन्ना शेख को उल्टे मुंबई से अपना घर लौटना पड़ा”.
बिहार के लिए ट्रेन चलने की खबर जंगल में आग की तरह फैल गई थी. इसे याद करते हुए मुन्ना कहते हैं, “ मई में ट्रेन चलने का ऐलान किया गया. सरकार की ओर से ऐलान किया गया कि मेरे जैसे प्रवासी इमरजेंसी ट्रैवल फॉर्म भर कर घर जा सकेंगे. इसलिए हम सबने फॉर्म भर कर थाने में जमा कर दिया. लेकिन वहां से कोई कॉल नहीं आई. फिर 18 मई को हमें पता चला कि एक ट्रेन बांद्रा टर्मिनस से झारखंड जा रही है. हम वहां पहुंचे लेकिन ट्रेन तब तक जा चुकी थी. अगली सुबह कुछ लोगों ने बताया कि एक ट्रेन बांद्रा से बिहार जाने वाली है. इसके बावजूद हमें थाने से कोई कॉल नहीं आई. इसलिए हमने जोखिम लेकर बांद्रा स्टेशन जाने का फैसला किया. ” धीरे धीरे यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई. मुन्ना शेख बताते है, ‘’हर कोई इस खबर को सुन कर बांद्रा टर्मिनस की ओर लपका. कुछ ही देर में वहां भारी भीड़ जमा हो गई. स्थति बेकाबू हो गई. पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा. कई लोग घायल हो गए. लेकिन इससे किसी भी प्रवासी पर कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि सब घर जाना चाहते थे.”
लोग बांद्रा टर्मिनस की ओर दौड़ पड़े और ट्रेन में चढ़ने लगे. मुन्ना बताते हैं, “ पुलिस लोगों को और भड़का रही थी. ट्रेन पूरी तरह भर गई थी. जो लोग अभी भी इसमें चढ़ना चाह रहे थे पुलिस ने उन पर लाठियां बरसानी शुरू कर दी. मेरे साथ के चार लोग ट्रेन में चढ़ने में कामयाब हो गए. बाकी पीछे रह गए. हमें अफसोस हो रहा था लेकिन क्या कर सकते थे. लेकिन आखिरकार हमें पता चल गया कि वो 20 तारीख की ट्रेन में चढ़ने में सफल रहे थे. इससे हमें बड़ी राहत मिली थी.”
62 घंटे की यातना भरी ट्रेन यात्रा
ट्रेन को कटिहार (बिहार) पहुंचने में 62 घंटे लग गए. मुन्ना और उनके दोस्तों को बुरी तरह भीड़ से भरे कंपार्टमेंट में भूखे रहना पड़ा. मुन्ना बताते हैं, “ हमें सिर्फ पानी की एक बोतल मिली थी. संयोग से मैंने कुछ बिस्कुट और रोटियां ले ली थीं. उन्हीं को खाकर मैंने काम चलाया”.
कटिहार पहुंचने के बाद मुन्ना और उनके दोस्तों की स्क्रीनिंग हुई. पहले तापमान लिया गया. इसके बाद दो दिन के क्वॉरन्टीन के लिए गांव के पंचायत स्कूल में भेज दिया गया. मुन्ना बताते हैं, “ मैं अभी होम क्वॉरन्टीन में हूं. लेकिन अपने परिवार के साथ रह कर मैं खुश हूं. मुंबई के कुछ दोस्तों से मैं अभी भी संपर्क में हूं. मुझे मुंबई जाकर परिवार के लिए फिर कमाना होगा, नहीं तो मेरे लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी.”
मुन्ना बताते हैं, “ मैंने अपना ऑटो रिक्शा एक पार्किंग में लगा रखा है. इसका किराया 1500 रुपये महीना है. इसलिए मुझे ईएमआई के साथ इस पैसे की भी चिंता हो रही है.” हालांकि मुन्ना शेख अभी अपने घर में हैं लेकिन वह जितना बता रहे हैं उससे ज्यादा तनाव में हैं. वे कहते हैं, “उम्मीद है कि बिहार सरकार हमें कुछ पैसे या राशन देगी ताकि हम जिंदा बचे रह सकें.”