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मायग्रंट डायरीज: लक्ष्मण प्रसाद

43 साल के लक्ष्मण प्रसाद मुंबई में रहते हुए 27 साल हो चुके हैं. इतने वर्षों से वे यहीं रोजी-रोटी कमा रहे हैं. वैसे तो वे इस महानगर में कई जगहों पर रह चुके हैं, लेकिन पिछले 15 साल से अपने परिवार के साथ सांताक्रुज के कलीना इलाके में रह रहे हैं. प्रसाद पहले किराए पर ऑटोरिक्शा चलाया करते थे, लेकिन दो साल पहले, पांच साल के लोन पर अपनी गाड़ी ले ली थी.

लॉकडाउन के दौरान लक्ष्मण 10 मई को पत्नी और बच्चों को लेकर अपने ऑटो रिक्शा से ही झारखंड अपने घर के लिए निकल पड़े थे. लंबी दूरी तय करके वह 15 मई को अपने राज्य पहुंचे. झारखंड पहुंचने पर उन्होंने सीजेपी की टीम को फोन कर के बताया कि वे सकुशल घर पहुंच गए हैं. अब वहां सब ठीक है.

लॉकडाउन के बाद, प्रवासी मजदूरों को दो मुश्किल विकल्पों में से एक को चुनना है. या तो वे महंगे शहरों में बने रहें, जहां उनकी कमाई बंद हो गई है और रहने-खाने का खर्चा जुड़ता जा रहा है, या फिर गांव लौट जाएं. लेकिन गांव में उनके लिए कमाई का कोई रास्ता नहीं है. आर्थिक भविष्य डांवाडोल है. सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) ने शहरों में रह गए और यहां से अपने घरों की ओर जा चुके हजारों प्रवासी मजदूरों को राशन और दूसरी चीजें मुहैया कराई हैं. लेकिन हमारे सामने लॉकडाउन के बाद की दुनिया में उनके लिए फौरी और स्थायी समाधान ढूंढने में मदद करने की चुनौती है. हमारी यह सीरीज उन प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक कहानियों को आपको सामने ला रही हैं, जिन्हें अपने घरों तक पहुंचने के लिए एक तकलीफ़देह यात्रा से गुजरना पड़ा. यह सीरीज उन लोगों के दर्द से आपको रूबरू करा रही है, जो लॉकडाउन के दौरान शहरों में कैद हो कर रह गए थे. हम इन प्रवासी भाई-बहनों की मदद कर सकें, इसके लिए हमें आर्थिक सहयोग की जरूरत है. सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस की इस मुहिम में आर्थिक मदद दें. सीजेपी आने वाले कुछ सप्ताह में इन प्रवासी भाई-बहनों के लिए सामुदायिक समाधान और कार्यक्रम ले कर पेश होगा.

कमाई बंद लेकिन खर्चे चालू

लक्ष्मण को मुंबई की बहुत याद आती है. वे यहां झारखंड से प्रवासी कामगार के तौर पर आए थे. इस शहर में बिताए उन्होंने अपने शुरुआती दिन के बारे में बताया, “ऑटो रिक्शा चलाने से पहले मैं एक होटल में वेटर के तौर पर काम करता था. पहले मैं झारखंड के दूसरे प्रवासी कामगारों के साथ रहता था. लेकिन पांच साल पहले मैं पत्नी और बच्चों को यहां ले आया. अब हम कलीना में रहते हैं.”प्रसाद को अपने बच्चों पर बड़ा नाज है. इनसे उन्हें बेहद खुशी मिलती है. वे कहते हैं, “मेरा बड़ा बेटा आठवीं में पढ़ता है. बेटी पांचवीं क्लास में है. छोटा बेटा दूसरी क्लास में है.”बच्चे बृहणमुंबई महानगर पालिका के स्कूल में जाते हैं.

प्रसाद के माता-पिता और तीन छोटे भाई गांव में रहते हैं. प्रसाद कहते हैं, “हम सात भाई हैं. दो ऑटो रिक्शा चलाते हैं और दो वेटर का काम करते हैं.”प्रसाद हर महीने 25 हजार रुपये तक कमा लेते हैं लेकिन खर्चे तुरंत उनकी जेब खाली कर देते हैं. वह कहते हैं, “हर महीने किराये में 6000 रुपये चले जाते हैं. 6000 रुपये ऑटोरिक्शा के किस्त के देने पड़ते हैं. तीन हजार घर भेजता हूं. जो बचता है उससे राशन और रोज का खर्च चलता है.”लक्ष्मण प्रसाद हर महीने थोड़ा पैसा बचाने की कोशिश करते हैं. लेकिन महानगर में अचानक लागू हुए लॉकडाउन ने सबकुछ बदल दिया. कमाई तो बंद हो गई लेकिन खर्चे तो जारी रहे.

प्रसाद कहते हैं, “इस लॉकडाउन से अब तक मुझे 60 से 80 हजार रुपये तक का घाटा हो चुका है. लेकिन इसके लिए हम किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते. हर किसी को मुश्किल हालात का सामना करना पड़ रहा है”. प्रसाद कहते हैं कि सरकार को गरीब लोगों के लिए पहले से ही इंतेजाम करना चाहिए था. उनका मानना है कि अधिकारियों की लापरवाही की वजह से गरीब नागरिकों के ऐसे दिन देखने पड़े. प्रसाद को लगता है कि अधिकारियों पर अब भरोसा नहीं किया जा सकता है. अपने पसंदीदा ऑटो रिक्शा पर अब तक की अपनी सबसे लंबी यात्रा को याद करते हुए वे कहते हैं, “सरकार ने हम गरीबों के लिए कोई योजना नहीं बनाई थी. इसलिए मैंने सरकार पर भरोसा करना ठीक नहीं समझा और परिवार को लेकर अपने ऑटोरिक्शा से ही अपने राज्य झारखंड रवाना होने का फैसला कर लिया.”

संकट में काम आई सीजेपी की राशन किट

दूसरे कई और लोगों की तरह ही प्रसाद ने भी सोचा था कि लॉकडाउन कुछ ही वक्त के लिए ही रहेगा. वे कहते हैं, “उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह इतने लंबे समय तक चलेगा”पहले लॉकडाउन के दौरान प्रसाद ने कई लोगों को इमरजेंसी में उनकी मंजिल तक पहुंचाया था. लेकिन पुलिस ने जब ऐसे लोगों को पीटना और उन पर जुर्माना लगाना शुरू किया तो प्रसाद ने ज्यादा जोखिम लेना सही नहीं समझा.

प्रसाद कहते हैं, “हमारा गुजारा मुश्किल से होता है. लॉकडाउन में जब सब कुछ बंद हो गया तो हमारे लिए मुश्किल और भी बढ़ने लगी. शुरुआत में हमने अपनी बचत से राशन और जरूरी सामान खरीदा. लेकिन पैसे जल्दी खत्म हो गए और दिक्कत शुरू हो गई.”इसी संकट के दौरान सीजेपी की टीम प्रसाद के पड़ोस के इलाके में राशन किट बांटने पहुंची थी. प्रसाद उन दिनों को मुंबई में बिताए गए खराब दौर के तौर पर याद करते हुए कहते हैं, “मैं सीजेपी का शुक्रगुजार हूं कि, जिसने हम लोगों को राशन दिया. यह राशन 15-20 दिनों तक चला. कलीना में कुछ और लोग भी थे, जिन्हें भोजन के लिए लाइन में लगना पड़ रहा था. इसे याद करते हुए वह कहते हैं, “खाने के लिए लाइन में खड़ा होना हमें ठीक नहीं लग रहा था. लेकिन क्या करते? हमारे पास कोई चारा भी नहीं था.”

मुंबई में अपना वजूद बचाए रखना मुश्किल था लेकिन प्रसाद गांव नहीं लौटना चाहते थे. वे कहते हैं, “मुंबई में मुझे लगता था कि मैं इस मुसीबत में खुद को और अपने परिवार को बचा लूंगा.”लेकिन गांव में उनका परिवार परेशान हो रहा था. वे मुझसे लगातार कोई उपाय ढूंढ कर गांव लौटने को कह रहे थे.”

…जब ऑटोरिक्शा से ही चल दिए अपने गांव

लेकिन मुंबई में जैसे-जैसे कोविड-19 के मामले बढ़ते जा रहे थे, वैसे-वैसे प्रसाद का तनाव भी बढ़ता जा रहा था. प्रसाद इसे याद करते हुए कहते हैं, “हम स्लम में रहते हैं, और मुझे अपने परिवार की चिंता थी. खास कर बच्चों की. सीजेपी के वालंटियर ने मुझे फोन कर इमरजेंसी ट्रैवल फॉर्म की जानकारी दी थे. मैंने, मेरे दोस्तों ने और उनके परिवार वालों ने ये फॉर्म भरे थे. मैंने थाने में भी पता किया. उन्होंने कहा कि एक बार ट्रेन शेड्यूल कन्फर्म हो जाने दो फिर बताएंगे.”

लेकिन थाने से कोई कॉल नहीं आई. प्रसाद बताते हैं, “पांच दिनों तक इंतजार करने के बाद मैंने और कुछ ऑटो ड्राइवरों ने फैसला किया कि हम अपनी गाड़ी से ही घर जाएंगे. हम 10 मई को मुंबई से निकले और महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा होते हुए 15 मई को झारखंड पहुंचे.”

मध्य प्रदेश में प्रसाद की थर्मल स्क्रीनिंग हुई और उन्हें वहां 25 रुपये टोल टैक्स भी देने पड़े. वह कहते हैं, “हम सुबह से दोपहर तक गाड़ी चलाते थे. इसके बाद खाना खाने के लिए रुकते थे. खाना खाने के बाद रात तक गाड़ी चलाते थे. लगातार पांच दिन तक हम इस तरह यात्रा करते रहे.”

लक्ष्मण बताते हैं कि सिर्फ वही गाड़ी चला रहे थे, और शुक्र है कि रास्ते में लोग घर लौट रहे मजदूरों को खाना, स्नैक्स और पानी बांट रहे थे. “हमने कुछ हद तक इससे काम चलाया. कहीं-कहीं हमने ढाबे में अपना पैसा देकर खाना खाया. मैंने पेट्रोल पर 12 हजार रुपये और खाने पर दो हजार रुपये खर्च किए. मेरे पास घर लौटने के अलावा और कोई चारा नहीं था. इसलिए मैंने अपने भाई से 15 हजार रुपये भेजने को कहा था. इस पैसे से हम सुरक्षित अपने घर पहुंच सके.”

प्रसाद कहते हैं, “ओडिशा-झारखंड सीमा पर स्थित राउरकेला पहुंचने के बाद हमारा एक बार फिर तापमान लिया गया. यहां से हम सीधे झारखंड में अपने गांव कोहलू पहुंचे. यहां हमें एक पंचायत स्कूल में 14 दिनों तक क्वॉरन्टीन किया गया. हमें सुबह में नाश्ते में चाय, बिस्कुट और केले दिए जाते थे. दिन के खाने में सब्जी, दाल और चावल मिलता था. रात को दाल और रोटी मिलती थी. प्रसाद को खाने के स्वाद से कोई मतलब नहीं था, वे इसका ही आभार मान रहे थे कि उन्हें खाना दिया जा रहा है. हालांकि उन्हें यह भी याद है कि कैसे क्वॉरन्टीन में रह रहे कुछ लोगों ने अपने परिवार के लोगों से खाना मंगवाना शुरू कर दिया था. पंचायत स्कूल में उन्हें जो खाना दिया जा रहा था उसकी क्वालिटी अच्छी नहीं थी.

प्रसाद ने कहा, “हमने खाने के लिए अपने परिवार वालों को परेशान नहीं किया क्योंकि मेरी मां काफी बुजुर्ग हैं. उनके लिए हम पांच लोगों का खाना बनाना मुश्किल होता. हमें जो खाना मिला उसी से काम चलाया. पंचायत स्कूल में 14 दिन बिताने के बाद हमारी एक बार फिर स्क्रीनिंग हुई. इसके बाद हमें घर जाने की इजाजत मिल गई.”

अब खाने के लाइन में नहीं लगना पड़ेगा

प्रसाद कहते हैं कि क्वॉरन्टीन में रहने में भी काफी दिक्कत आई लेकिन परिवार के पास इसके अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था. बच्चे इस अनुभव को कभी नहीं भूल पाएंगे. प्रसाद इसे याद करते हुए कहते हैं, “लेकिन मैं खुश हूं कि अपने गांव पहुंच गया. यहां मैं अपने पूरे परिवार के साथ हूं. यहां हालात काफी अच्छे हैं. यहां आकर मुझे भोजन के लिए लाइन में नहीं खड़ा होना पड़ रहा है.”

प्रसाद आशावादी व्यक्ति हैं. वे हालात ठीक होने का इंतजार कर रहे हैं. वह कहते हैं, “हालात ठीक होने पर मैं मुंबई लौट जाऊंगा क्योंकि मुझे अब वहीं काम करने की आदत पड़ चुकी है. वहां मैं महीने के 25 हजार रुपये कमा लूंगा लेकिन झारखंड में इतना कमाना मुश्किल होगा.”

लक्ष्मण प्रसाद कोरोनावायरस संक्रमण से पैदा संकट के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराते हैं. वे कहते हैं, “मुझे इसके लिए किसी चीज से शिकायत नहीं है. क्योंकि हालात ही इतने कठिन हैं कि सरकार को भी जूझना पड़ रहा है. जिंदा रहने के लिए लोग जो हो सकता है कर रहे हैं. कुछ लोग ट्रक से, कुछ बसों से और कुछ तो पैदल ही अपने घरों की ओर चल पड़े हैं. मैं खुशकिस्मत हूं कि मेरे पास अपनी गाड़ी है. अब मैं घर पहुंच कर खुश हूं. मुझे अब कोई तनाव नहीं है. हम सब साथ हैं. अगर यहां कुछ होता है तो सब लोग मदद करने और आपकी देखभाल के लिए तैयार हैं. ”

मानवता में प्रसाद का विश्वास बढ़ा हुआ है. लेकिन उनकी पत्नी परेशान हैं. उन्हें आने वाले दिनों में आर्थिक दिक्कत की चिंता सता रही है. वे कहती हैं, “मुझे यह सोच कर बहुत बुरा लग रहा है कि हमारी सारी बचत इस लॉकडाउन में निकल गई. जो थोड़ा-बहुत बचा था वह घर आने की इस यात्रा में खर्च हो गया. हाईवे पर सफर करते हुए मुझे बड़ा डर लग रहा था क्योंकि ऐसी सड़क पर ऑटोरिक्शा चलाना आसान नहीं होता. हमारे बगल से होकर बड़े ट्रक भी गुज़र रहे थे”. प्रसाद की पत्नी इस बात की बड़ी आभारी हैं कि लोग रास्ते में खाना बांट रहे थे. लोग मिल-बांट कर भी खाना खा रहे थे. वे कहती हैं, “हमारे पास पर्याप्त खाना था क्योंकि लोग जगह-जगह भोजन बांट रहे थे. मैंने रास्ते के लिए कुछ बिस्कुट और फल ले लिए थे. लेकिन अब सब ठीक है. हम सुरक्षित अपने घर पहुंच गए. यही हमारे लिए सबसे राहत की बात है.”

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