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हमें फ्री स्पीच और हेट स्पीच के बीच फर्क करना होगा- तीस्ता सेतलवाड़

प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता, शिक्षाविद और पत्रकार तीस्ता सेतलवाड़ ने कहा कि ‘बनारस शहर में आयोजित इस युवा संवाद में सभी उपस्थित साथियों का स्वागत करती हूँ। भारत का संविधान जिन सिद्धांतों को लेकर बना और जिन संघर्षों से सामने आया यह भी हमें समझना बहुत जरूरी है। जो आज़ादी और जनतंत्र हमें मिला है वह आसानी से नहीं मिला है। संविधान का नीति-निर्देशक हमारे राज्य को राह देता है कि वह इस तरह की नीतियाँ बनाए जिनसे सामाजिक-आर्थिक बराबरी और सामाजिक न्याय लोगों को हासिल हो।’

सेतलवाड़ ने आगे कहा कि बाबा साहब डॉ अंबेडकर ने संविधान का पहला ड्राफ्ट पेश करते हुये जो कहा कि हम एक अनोखी और डरावनी राह पर चलने जा रहे हैं। वह आज भी बहुत प्रासंगिक है। आज हमें नफरत और गलत फहमियों के खिलाफ लड़ना है। हमारे समाज में लगातार नफरत की भावनाएं फैलाई जा रही हैं और आज़ादी की आवाजें दबाई जा रही रही हैं। हमें फ्री स्पीच और हेट स्पीच के बीच फर्क करना होगा। बराबरी और सम्मान पर होने वाले हमलों के खिलाफ खड़ा होना होगा।’

सीजेपी का ग्रासरूट फेलोशिप प्रोग्राम एक अनूठी पहल है जिसका लक्ष्य उन समुदायों के युवाओं कोआवाज और मंच देना है जिनके साथ हम मिलकर काम करते हैं। इनमें वर्तमान में प्रवासी श्रमिक, दलित, आदिवासी और वन कर्मचारी शामिल हैं। सीजेपी फेलो अपने पसंद और अपने आसपास के सबसेकरीबी मुद्दों पर रिपोर्ट करते हैं, और हर दिन प्रभावशाली बदलाव कर रहे हैं। हम उम्मीद करते हैं किइसका विस्तार करने के लिए जातियों, विविध लिंगों, मुस्लिम कारीगरों, सफाई कर्मचारियों और हाथ सेमैला ढोने वालों को शामिल किया जाएगा। हमारा मकसद भारत के विशाल परिदृश्य को प्रतिबद्धमानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ जोड़ना है, जो अपने दिल में संवैधानिक मूल्यों को लेकर चलें जिसभारत का सपना हमारे देश के संस्थापकों ने देखा था। CJP ग्रासरूट फेलो जैसी पहल बढ़ाने के लिएकृपया अभी दान करें
विडीओ के माध्यम से युवा संवाद को सम्बोधित करतीं हुई तीस्ता सेटलवाड

‘आज का समय, कम से कम हमारे देश में, मानवीयता और व्यक्ति के अधिकारों के अस्तित्व-संकट का समय है। व्यक्ति की पहचान मिटा कर उसे धर्म-जाति-नस्ल की सामूहिकता में घोल दिया जा रहा है। यह दस्तक है राजशाही या तानाशाही के आने की। राजशाही और तानाशाही व्यक्ति को खारिज कर के उसे मात्र भीड़ में तब्दील करने में विश्वास करतीं हैं। यह भीड़तंत्र का प्रवेश द्वार है। आज हमारा संघर्ष इसी के विरुद्ध है। इस समय जब बलात्कारी पूजे जा रहे हैं, स्त्रियों की ग़ैरत ज़्यादा बड़े दाँव पर लगी है। इसलिये आज की लड़ाई मनुष्य मात्र की होते हुये भी स्त्रियों द्वारा ज़्यादा लड़ी जायेगी, ऐसी अपेक्षा है।’

ये विचार लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा के हैं। वे मंगलवार को वाराणसी में सीजेपी, गाँव के लोग और पीयूसीएल के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित युवा संवाद कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में बोल रही थीं। उन्हें सुनने के लिए भारी संख्या में लोग जुटे थे। उन्होंने कहा कि ‘स्त्री दृष्टिकोण से मानवाधिकार की परिकल्पना ठीक वही होगी जो पुरुष दृष्टिकोण से होनी चाहिये। स्त्री-अधिकार के आंदोलनों का मूल आधार स्त्रियों के मनुष्यत्व और व्यक्तित्व को ही पूरी तरह पाना है। मनुष्य वाली पहचान और स्व-चालन/ आत्म निर्भरता जिस आसानी से पुरूषों में मान लिया जाता है वैसे स्त्रियों में नहीं। इस मूल आदमीयत की पैरवी ही मुझे स्त्री अधिकार के आंदोलन की जड़ में दिखायी देती है।’

युवाओं से बातचीत करते हुए प्रोफेसर वर्मा ने कहा कि ‘हमको यह जोखिम लेना होगा कि आज के दौर में हम किस तरह प्रतिरोध की आवाज को आगे बढ़ाएँ। अगर आप समाज को बदलने निकल रहे हैं तो उसकी मानसिक तैयारी रहनी चाहिए। समाज लंबे समय तक नकारता है लेकिन लगातार आप लगे रहेंगे तो वह आपके साथ खड़ा होता है। यह आपके और पोंगापंथी लोगों के बीच की लड़ाई है। जो टिका रहेगा वह अंततः विजयी होगा।’

प्रो॰ रूप रेखा वर्मा का सम्बोधन

इसी कार्यक्रम में बोलते हुए प्रोफेसर प्रमोद बागड़े ने कहा कि ‘भारतीय संविधान मानवाधिकार के विचार और व्यवहार को सैद्धांतिक रूप से अभिव्यक्त करता है। मानवाधिकार की अवधारणा मानव गरिमा और समता के विचार विचार आधारित है। इस विचार को भारतीय संविधान भी प्रतिबिंबित करता है। आवश्यकता है इस विचार को हकीकत में बदलने की।’

उन्होंने कहा कि ‘सबाल्टर्न समाज से आने वाले ज्योतिबा फुले, पेरियार और बाबा साहब अंबेडकर ने भारत में मानवाधिकार की अवधारणा को अधिक स्पष्ट किया। इन लोगों ने बताया कि केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता ही काफी नहीं है। हमारे यहाँ जो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता है, हिन्दू पितृसत्ता है उससे मुक्ति के प्रश्न को जब तक राजनीतिक स्वतन्त्रता से जोड़ा नहीं जाता तब तक राजनीतिक स्वतन्त्रता अधूरी स्वतन्त्रता होगी। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे विचारकों को आज़ादी को तोड़नेवाला कहा गया। लेकिन इन विचारकों ने संघर्ष को जारी रखा और राजनीतिक आज़ादी के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक आज़ादी को जरूरी कहा। इसे भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन का केंद्रीय प्रश्न बनाने पर मजबूर किया। उनके इस विचार को मान्यता देनी पड़ी और भारतीय संविधान में सामाजिक आज़ादी का प्रश्न प्रासंगिक बना हुआ है।’

पहले सत्र की अध्यक्षता करते हुये प्रोफेसर सुनील सहस्त्रबुद्धे ने कहा कि ‘वर्तमान परिस्थितियों के लिए यह कहना जरूरी है कि जिसे आप सिविल राइट कहते हैं और जिसे ह्यूमन राइट कहते हैं क्या उसे सोशल राइट के रूप में विकसित किया जा सकता है? अगर इस वक्त व्यक्तिगत आकांक्षाओं और व्यक्तिगत उपलब्धियों की बात हो रही हो तो इस तरह के प्रश्न पीछे रह जाते हैं। आज यह ज़ोर-शोर से कहा जाता है कि एक रिक्शेवाले की बेटी ने टॉप किया। यह जरूरी है कि उसकी बात हो लेकिन इसके साथ ही और भी कई जरूरी बातें हैं जो नहीं की जा रही हैं। पूंजीवाद में पैकेज का हल्ला किया जाता है। वास्तविकता कुछ और होती है। यह सब अखबार में छपता है लेकिन अखबार में यह भी छपना चाहिए कि कितने छात्र हैं जो समाज के बारे में सोचते हैं। अखबार वाले यह बात नहीं करेंगे। हम लोगों को ही यह बात करनी होगी।

दूसरे सत्र में फादर आनंद, कुसुम वर्मा और फजलुर्रहमान अंसारी थे। फादर आनंद ने बढ़ते हुये धार्मिक उन्माद और अल्पसंख्यकों पर तेज होते हुए हमलों के संदर्भ में अपनी बात रखते हुए कहा कि ‘उत्तर प्रदेश में मानवाधिकार उल्लंघन के मामले बढ़ रहे हैं। बरसों से इसाइयों पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि ये लोग धर्मांतरण करवाते हैं लेकिन इसके बारे में जितने भी मुकदमें दर्ज़ किए गए सब के सब बेबुनियाद साबित हुए। आज भी यही हो रहा है। पिछले दो अक्तूबर को जब हमलोगों ने बीएचयू गेट से गाँधी की प्रतिमा तक शांति पदयात्रा निकालना चाहा तो प्रशासन ने हमें रोक दिया, जबकि विद्यार्थी परिषद ने गाजे-बाजे और मोटरगाड़ी काफिले के साथ जुलूस निकाला और उनको नहीं रोका गया।’

फजलुर्रहमान अंसारी ने कुटीर उद्योगों के नष्ट होते जाने पर चिंता जाहिर करते हुये कहा कि ‘शिल्पकारों ने बिना किसी सरकारी सहायता के देश की अर्थव्यवस्था में भारी योगदान किया लेकिन अब सरकारी नीतियों के चलते सब उजड़ गया।’

महिला संगठन ऐपवा की राज्य सचिव कुसुम वर्मा ने कहा कि ‘भारत देश में रोजगार का सवाल आज सीधे तौर पर मानवाधिकार के हनन का सवाल बन चुका है।  जनसंख्या की दृष्टिकोण से घनीभूत भारत देश में महिलाओं की बड़ी आबादी का जीडीपी में अनुपात न के बराबर है अर्थात महिला श्रम आर्थिक विकास से लगभग बाहर है।’ युवा संसद को संबोधित करते हुए कुसुम ने कहा कि ‘नौजवानों के लिए रोज़गार का सवाल आज  प्रमुख सवाल है और  रोजगार को मौलिक अधिकार का दर्जा देने के लिए हमसभी को एकजुट होना होगा।’

कार्यक्रम के दूसरे सत्र की अध्यक्षता करते हुए जाने-माने वैज्ञानिक और विचारक प्रोफेसर राजीव कुमार मण्डल ने कहा कि ‘वोटों के द्वारा अधिनायकवादी और निरंकुश सरकार पहले भी स्थापित हुई हैं और आज भी हो रही है। हिटलरशाही के नए प्रयोगों को आज हम अपने संदर्भों में देख रहे हैं। यह जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास 1984 की काल्पनिक दुनिया से इतर है। यहाँ बिग ब्रदर एक राजनीतिक पार्टी का है जो चुनाव जीतता है पर वह एक गैर राजनीतिक संस्था के संविधान से देश चलता है और धीरे-धीरे देश की संस्थाएं गैर प्रासंगिक होती जा रही हैं। भय इतना कि कोई कुछ बोलना नहीं चाहता। जब देश में संविधान ही खतरे में है तो मानवाधिकार की बात कोई विशेष महत्व नहीं रखती। संविधान की रक्षा एक राजनीतिक संघर्ष की मांग करती है। इस विमर्श के दौरान कुछ स्थापनाएं की जाएंगी जो शाहीन बाग की दादियों के संघर्ष को मुख्यतः स्थापित करेंगी। इसके बाद कुछ विचारकों के द्वारा कहे गए सिद्धांतों की पेशकश होगी। समस्याएँ इतनी गहरी हैं कि वे एक गंभीर विमर्श की मांग करती हैं। व्हाट्सएप के युग में ऐसी गुंजाइश बहुत कम है। इस मायने में मैं आयोजकों को धन्यवाद देता हूँ कि  युवाओं को मोबाइल की दुनिया से बाहर निकालने की कोशिश की है। सैद्धांतिकीकरण होगा कि बुद्धिजीवी बोलता क्यों नहीं है? क्या इसका यही वर्ग चरित्र है? फिर मैं विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की बात करूंगा कि क्यों वे अपनी पांडित्य परंपरा को इतनी जल्दी भूलना चाहते हैं जिससे विमर्श और जनतंत्र का नाश हो?’

धन्यवाद ज्ञापन करते हुये गाँव के लोग की कार्यकारी संपादक अपर्णा ने कहा कि’ युवा संवाद के आज के इस कार्यक्रम में संविधान और मानवाधिकार जैसे जरूरी और महत्त्वपूर्ण विषय पर बातचीत हुई। आज जो स्थितियां देश में बनी हैं, जिसमें संविधान के साथ-साथ इंसान के अस्तित्व पर भी खुलकर हमले हो रहे हैं। खास समुदायों को निशाने पर रख गया है। उन पर सत्ता संरक्षित और पोषित गुंडे हमले कर खुले घूम रहे हैं। इससे लड़ा जा सकता है बशर्ते हर कोई अपनी समझदारी का उपयोग करे न कि फैलाये जा रहे झूठ और भ्रम का शिकार हो। यहाँ अभिव्यक्ति की आज़ादी को खत्म करने साजिशें खुलेआम चल रही हैं।

कल ही शाम झारखण्ड के गिरिडीह से आये तीन मित्रों को काशी विश्वनाथ कॉरीडोर में संदेह के आधार पर पुलिस ने कस्टडी में ले लिया क्योंकि उनमें से एक हिन्दू और दो मुस्लिम थे। इसका मतलब है कि अब  लोगों के मन में जहर भरकर उन्हें अलगाया जा रहा है। सरकार की पूरी मंशा मनुवादी संविधान को लागू कर तालिबानी स्थिति पैदा करना है। मानवाधिकारों को दरकिनार कर लोगों पर हमले हो रहे हैं। यह स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है।’

लोक चेतमा समिति, पीवीसीएचआर, ग्रामीण विकास संस्थान, फादर फिलिप डेनिस और ऐपवा ने इस कार्यक्रम में सहयोग किया। वाराणसी के अलावा इस युवा संवाद में मऊ, गाजीपुर, आजमगढ़, जौनपुर, मीरजापुर और भदोही जिले से अनेक युवा साथियों ने पूरी सक्रियता से भाग लिया। मंच पर उपस्थित वक्ताओं के बोलने  के बाद सवाल जवाब का सेशन भी हुआ। जिसमें युवाओं ने अपने सवालों के जवाब मंच पर उपस्थित वक्ताओं से जानते हुए अपनी जिज्ञासा  को शांत किया। यह कार्यक्रम भेलूपुर स्थित मैत्री भवन में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।

स्वागत वक्तव्य कुसुम वर्मा ने दिया। विषय स्थापना रामजी यादव ने किया। संचालन डॉ मुनीज़ा रफ़ीक़ खान ने किया।

Courtesy- gaonkelog.com