कोरोना महामारी से पहले भी आम आदमी के स्वास्थ्य के मुद्दे पर सरकारें सो रही थीं और अब भी सरकार सो रही है। जिस समय अस्पताल बनाने चाहिए थे, दवाईयां खरीदनी चाहिए थी, उस समय मंदिर बना रहे थे, राफेल खरीद रहे थे, चुनाव लड़ रहे थे और कुंभ नहाया जा रहा था। और तो और, कोरोना की पहली लहर के बाद भी सरकार की जानलेवा लापरवाही जारी रही। नतीजा केंद्र और कुछ हद तक राज्य सरकारों की आपराधिक लापरवाही की कीमत देश को लाखों मौतों से चुकानी पड़ी। बिना आक्सीजन के लोग तड़प-तड़प कर मरते रहे। जब वेंटिलेटर, आक्सीजन लोगों को सुरक्षित करने के लिए खरीदा जाना था तब सरकार चुनाव और नेता खरीद रही थी, परिणाम की भयावहता को हम सबने देखा और भोगा। ऐसे में अगर देश में स्वास्थ्य सेवाएं सुदृढ़ होती और ‘राइट टू हेल्थ’ (सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार) कानून होता, तो कोरोना ने जितनी तबाही मचाई और जितनी जानें गईं उसे रोका या कम किया जा सकता था, लेकिन इसे दुर्भाग्य कहेंगे कि देश में स्वास्थ्य कोई मुद्दा है ही नहीं।
इसीलिए जरूरत है नागरिकों के जागने और स्वास्थ्य के अधिकार (राइट टू हेल्थ) के लिए सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन विकसित करने की, ताकि सरकारें जगें और कोरोना जैसी बड़ी महामारियों से लड़ाई का स्वास्थ्य ढांचे के विस्तार और मजबूती पर फोकस हो सके। यह कहना है छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र में जन स्वास्थ्य अधिकार अभियान चलाने वाले एम्स से कम्युनिटी हेल्थ में स्नातक डॉ अभय शुक्ला का। डॉ शुक्ला, अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन व सिटिजंस फ़ॉर जस्टिस एंड पीस की साझा ऑनलाइन जूम मीटिंग में बोल रहे थे। उन्होंने केरल और महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए कहा कि महाराष्ट्र में केरल के मुकाबले कोरोना मृत्यु दर 4 गुणा ज्यादा रही हैं। कारण केरल में न सिर्फ स्वास्थ्य ढांचा मजबूत है, बल्कि अस्पताल और स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार व गुणवत्ता को लेकर भी लोग जागरूक हैं। लोगों का हैल्थ सेंटरों से संपर्क व संवाद (इंटरेक्शन) निरंतर बना है। यानि स्वास्थ्य सेवाओं का सामाजिकीकरण बेहतर तरीके से हुआ है, जो महाराष्ट्र व यूपी-बिहार आदि राज्यों में कभी का ध्वस्त हो चुका है। डॉ शुक्ला के अनुसार, केरल में कोरोना मृत्यु दर 0.4% रही हैं जबकि महाराष्ट्र में मृत्यु दर 1.7% हैं। यानी केरल के मुकाबले, महाराष्ट्र में 4 गुणा ज्यादा मृत्यु दर रही हैं।
डॉ अभय शुक्ला देश में स्वास्थ्य ढांचे व सेवाओं के 11 गुणे तक विस्तार की जरूरत बताते हैं। शुक्ला के अनुसार, अगर स्वास्थ्य तंत्र मजबूत नहीं हुआ तो कोरोना ही नहीं, बल्कि आने वाले समय में कोई भी दूसरी-तीसरी बीमारी इससे बड़ी तबाही ला सकती है। वे कहते हैं कि अगर अभी भी केन्द्र और राज्य सरकारें अपने बजट का 10 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं और उसके आधुनिकीकरण पर खर्च नहीं करते हैं, तो आने वाले समय में भी लोगों की जानें जाती रहेंगी। शुक्ला कहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक हजार आबादी पर 3 बेड का मानक है, जबकि हमारे यहां एक हजार पर मात्र आधा ही बेड है। यानी 6 गुणे से भी कम। यही नहीं, लॉकडाउन हो या डॉक्टर, अस्पताल, ऑक्सीजन और वैक्सीनेशन आदि के किसी भी सवाल को नजरंदाज नहीं किया जा सकता हैं। मौतों पर भी शोध की जरूरत है।
बिग फेलियोर के पीछे केंद्र सरकार की जानलेवा लापरवाही को जिम्मेदार ठहराने वाले डॉ शुक्ला कहते हैं कि दवाई और अस्पताल के साथ हेल्थ राजनीति का भी मुद्दा हैं। इसके बावजूद केंद्र सरकार कोरोना महामारी के फैलाव के लिए उल्टे लोगों पर ही दोष मढ़ दे रही है। राज्य सरकारें भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं, लेकिन असल लापरवाही केंद्र सरकार की ही रही हैं, इसमें शायद ही किसी को कोई संदेह हो। मसलन सरकार को जो करना चाहिए था, वो नहीं किया गया और जो नहीं करना चाहिए था, वो किया गया। डॉ शुक्ला, एक कार्टून का हवाला देते हुए कटाक्ष भी कसते हैं। यह कार्टून बंगाल चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली को लेकर है। कार्टून में रैली की ठसाठस भीड़ को देखकर मोदीजी कह रहे हैं, कि वाह-वाह क्या भीड़ है। लेकिन कार्टून में यही बात कोरोना वायरस को कहते हुए दिखाया गया है, कि वाह-वाह क्या भीड़ है। दोनों ही भीड़ देखकर खुश हो रहे हैं। पीएम मोदी के लिए भीड़ भले वोट से जुड़ा मामला हो, लेकिन कोरोना वायरस के लिए भीड़, उसके फैलाव में मददगार भोजन हैं। शुक्ला सीधे-सीधे कहते हैं कि कोरोना देश मे बेकाबू हुआ तो उसके पीछे केंद्र सरकार का गैर ज़िम्मेदाराना रवैया है, जो सीधे सीधे आपराधिक लापरवाही की श्रेणी में आता है।
इसी सब से डॉ शुक्ला आगाह करते हैं कि आने वाले समय में कोरोना जैसी महामारी, इससे भी ज्यादा खतरनाक और नुकसान पहुंचाने वाली साबित हो सकती है, इसलिए कोरोना पर जीत के दावे करने वाले महारथियों को समय रहते बेहतर चिकित्सा व्यवस्था की तैयारी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, ताकि आने वाले समय में लोगों को बचाया जा सके। डॉ शुक्ला इसके लिए सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार और सामाजिकीकरण करने की जरूरत बताते हैं। वे कहते हैं कि प्राइवेट अस्पतालों का अधिग्रहण किया जाए और लोगों को मुफ्त इलाज व मुफ्त टीकाकरण आदि की सुविधा दी जाए। सामाजिक स्तर पर भी इसके लिए गांव, ब्लॉक, क्षेत्र व शहर (ज़िला) स्तर पर स्वास्थ्य अधिकार समितियों का गठन करने और आंदोलन विकसित करने की जरूरत है, तभी सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार (राइट टू हेल्थ) पुख्ता हो सकेगा। शुक्ला इसके लिए अति धनाढ्य लोगों (बड़े कॉरपोरेट्स) पर टैक्स लगाने की भी वकालत करते हैं।
मुख्य वक्ता व वरिष्ठ पत्रकार भास्कर चटर्जी कहते हैं, कि वेलफेयर स्टेट होने के चलते, भारत में शिक्षा व स्वास्थ्य का अधिकार बुनियादी मुद्दा है। लेकिन 1991 के बाद से निजीकरण के दौर में यह सब खोता जा रहा है। बढ़ते प्राइवेटाइजेशन में लोग एक तरफ हैं और सरकार एक तरफ। लोगों को अधिकार देना तो दूर, सरकार को उनके हितों के बारे में सोचने तक की फुरसत नहीं है। आदत ही नहीं रही है सोचने की। उल्टे वह, यदा-कदा निजी हाथों को ही मजबूत करने में लगी दिखती है। निजी व्यवस्था में पूंजीपति कमा रहे हैं, और लोग खोते जा रहे हैं। यानी चंद मुट्ठीभर पूंजीपतियों को मजबूत करने के लिए बाकी लोगों को सताया जा रहा है। भास्कर कहते हैं कि इसके पीछे के सरकार के फासिस्ट संबंधों वाले सच को समझना होगा। भास्कर कहते हैं कि अति धनाढ्यों पर टैक्स बढ़ाने मात्र से इस सबसे निजात नहीं मिलने वाली है। उचित प्रबंधन से लोगों को खड़े होकर, संसाधनों की हो रही इस लूट को रोकना होगा। इसके लिए लोगों को जागरूक होना होगा और समुदाय स्तर पर (कॉपरेटिव तर्ज पर) मिलकर जनांदोलन खड़ा करना होगा। याद रहे, स्वास्थ्य का अधिकार पाना है तो स्वास्थ्य ढांचे और सेवाओं के निजीकरण को हर हाल में रोकना ही होगा।
भास्कर जोड़ते हैं कि कितनी शर्मिंदगी की बात है कि आज सरकार के पास महामारी (कोरोना) के विश्वसनीय आंकड़े तक नहीं हैं, और न ही वह इस (मिस-मैनेजमेंट) के लिए अकाउंटेबल दिखती है। यही कारण है कि उसके नोटबंदी और लॉकडाउन जैसे बेतुके तुगलकी फैसलों से करोड़ों लोग बर्बाद हो गए। भारतीय लोकतंत्र में वेलफेयर इकोनॉमी की बातें खूब होती हैं, पर धरातल पर शिक्षा, स्वास्थ्य, रहने-खाने और सुरक्षा की बजाय सरकार की प्राथमिकता, सेंट्रल विस्टा है, चुनावी रैलियां हैं। किसान मजदूर नहीं हैं, कुंभ है। उसे तो बस किसी भी तरह से राजनीतिक लाभ होना चाहिए। इसीलिए कुंभ मेला एक साल पहले करा लिया गया। इकोनॉमी की ग्राउंड पर देंखे तो बीजेपी शासित डबल इंजन की गुजरात, बिहार-यूपी की सरकार भी बुरी तरह फेल हुईं हैं। स्वास्थ्य हो या लोगों का आर्थिक हित हो, सरकार की अपनी कोई अकाउंटेबिलिटी कही नहीं दिखती है।
भास्कर कहते हैं कि सरकारों, खासकर केंद्र सरकार ने उल्टे, तरह तरह की बंदिशों से, फासिस्ट मॉडल की तरह लोगों को इतना कमजोर बना दिया गया है, कि कुछ बचा ही नहीं है। दूसरी ओर, कुछ कारपोरेट जबरदस्त कमाई कर रहे हैं। कारण, हम सब कम्प्लीटली दिशाहीन हो चले हैं। केवल एक ही रास्ता बचा है, सिस्टम बदलना होगा, जिसके लिए आंखे खुली रखनी होगी और किसान-मजदूर सभी को मिलकर लड़ना होगा। सामाजिक, राजनीतिक वैचारिक जनांदोलन खड़ा करना होगा, तभी सही मायनों में वेलफेयर स्टेट की स्थापना हो सकेगी।
खैर, दूसरा पहलू देंखे तो कोरोना संकट ने जहां स्वास्थ्य सेवाओं और सरकारों के सच (लोगों के प्रति जवाबदेह होने) की बखिया उधेड़ कर रख दी है, वहीँ स्वास्थ्य के अधिकार की जरूरत को लेकर एक बड़ी सीख भी दी है। हालांकि, संविधान में स्वास्थ्य के अधिकार की बात है। लेकिन जरूरत इन बातों को मिलकर सही मायनों में धरातल पर उतारने की है। अब देंखे तो कोरोना संकट में ऐसे अनेकों मामले सामने आएं हैं, जिनमें अस्पतालों द्वारा मरीजों को इलाज के लिए मना कर दिया गया। इस कारण कुछ मरीजों की जान भी चली गई है। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि कोई भी अस्पताल आपका इलाज करने से मना नहीं कर सकता है। अगर कोई ऐसा करता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। ऐसा करने के लिए आपको स्वास्थ्य अधिकारों का पता होना जरूरी है। संविधान में मरीज़ों को न्याय का अधिकार दिया गया है।
नेशनल हेल्थ बिल 2009 के तीसरे अध्याय में मरीज़ों के लिए न्याय का अधिकार सुरक्षित किया है। इसके मुताबिक अगर किसी भी व्यक्ति का स्वास्थ्य का अधिकार किसी भी तरह से छीना या हनन किया जाता है तो वह कानूनी अधिकारों के मुताबिक लड़ाई लड़ सकता है, हर्जाना पा सकता है और अपने अधिकारों का दावा कर सकता है। जरूरत जागरूक होने और स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी व विस्तार के लिए जनांदोलन की है।
खास है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के मानवाधिकार पर 1948 में जारी सार्वभौम (यूनिवर्सल) घोषणा पत्र में लोगों की स्वतंत्रता और समानता जैसे मुद्दों के साथ चिकित्सीय देखभाल को प्रमुखता से रखा गया था। इसके बाद भारतीय संविधान में अनुच्छेद-21 के तहत जीने के अधिकार में ‘स्वास्थ्य के अधिकार’ को वर्णित किया है। इसमें हर व्यक्ति की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करना सरकार की जिम्मेदारी है। कुछ राज्यों में लोक स्वास्थ्य की दिशा में कुछ कानूनी प्रावधान किए गए हैं। जैसे तमिलनाडु पब्लिक हेल्थ एक्ट और कोचीन पब्लिक हेल्थ एक्ट आदि जिससे नागरिकों के स्वास्थ्य संबंधी अधिकार सुरक्षित हैं। यही नहीं, किसी डॉक्टर या अस्पताल या स्वास्थ्य केंद्र के खिलाफ क्षतिपूर्ति कानून, कांट्रेक्ट संबंधी कानून, क्रिमिनल कानून, कंज़्यूमर सुरक्षा कानून या संविधान संबंधी कानूनों के हिसाब से लड़ाई लड़ सकते हैं। यह लड़ाई दो तरीकों से लड़ी जा सकती है। एक, आप सिविल कोर्ट या कंज़्यूमर कोर्ट में वाद दाखिल कर हर्जाने संबंधी कार्यवाही कर सकते हैं और दूसरे, पुलिस थाने में एफआईआर या शिकायत के बाद आप कोर्ट में क्रिमिनल केस दायर कर सकते हैं। इसके तहत 17 अधिकार चिन्हित किए गए हैं। जिनमें से कुछ निम्न हैं:
आप अपने स्वास्थ्य और इलाज संबंधी रिकॉर्ड्स व सूचना अस्पताल से ले सकते हैं। आपातकालीन स्थिति में बिना किसी भुगतान के इलाज आप का अधिकार है। अस्पताल को आपकी सेहत के बारे में गोपनीयता रखने के साथ अच्छा व्यवहार करना होगा। किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। मानकों के लिहाज से हर किसी को इलाज में गुणवत्ता और सुरक्षा का अधिकार है।
आप अपने मुताबिक इलाज के उपलब्ध विकल्प चुन सकते हैं। अस्पतालों को इलाज की दरों और सुविधाओं को लेकर पारदर्शिता बरतनी चाहिए। आप दवाएं या टेस्ट के लिए अपने हिसाब से जगह का चुन सकते हैं। गंभीर रोगों के इलाज से पहले मरीज को उसके खतरे, प्रक्रियाओं और निष्कर्ष बताने जरूरी है। व्यावसायिक हितों से परे ठीक से रेफर या ट्रांसफर किया जाना चाहिए। बायोमेडिकल या स्वास्थ्य शोधों में शामिल लोगों व क्लीनिकल ट्रायल में शामिल मरीजों से आपको सुरक्षित रखा जाना चाहिए। अस्पताल बिलिंग आदि प्रक्रियाओं के कारण आपको डिस्चार्ज या शव सौंपने को टाल नहीं सकता। डॉक्टरों को हर मरीज को आसान भाषा में इलाज के बारे में शिक्षित करना चाहिए और आपकी शिकायतें सुनकर उनका निवारण करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
लेकिन हर किसी को स्वास्थ्य के ये अधिकार सुलभ तौर से प्राप्त हो सके, इसके लिए सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार और बेहतरी के साथ-साथ, उनका सामाजिकीकरण होना भी पहली व अनिवार्य शर्त है। जिसके लिए लोकतंत्र में केवल और केवल जनांदोलन ही एकमात्र रास्ता है। ‘सब के लिए स्वास्थ्य के अधिकार’ को समाज को जागरूक होना होगा। गांव, कस्बे और क्षेत्रीय स्तर पर स्वास्थ्य अधिकार समितियों का गठन करके, केरल व तमिलनाडु की तरह स्वास्थ्य सेवाओं के साथ निरंतर इंटरेक्शन (संपर्क व संवाद) बढ़ाना होगा, ताकि सरकारों पर सोसायटी का दबाव रहे। सरकारें जवाबदेह बन सकें। यही नहीं, याद रहे इसके लिए, सभी बीमारियों की जड़, ‘निजीकरण’ को हर हाल में रोकना होगा।
कार्यक्रम आयोजक अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी और सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस की राष्ट्रीय सचिव तीस्ता सेतलवाड़ के द्वारा ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति की बाबत जानकारी जुटाने की जरूरत बताई। ताकि उसके आधार पर स्वास्थ्य अधिकार समितियों के गठन की रूपरेखा और सामाजिक जागरूकता यानि जनांदोलन की रणनीति तैयार की जा सके।
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