असम में कोकराझार डिटेन्शन कैम्प में बंद सोफ़िया ख़ातून के लिए एक बड़ी राहत की ख़बर है. सुप्रीम कोर्ट ने अब उन्हें व्यक्तिगत रिलीज बॉन्ड (PR बॉन्ड) पर रिहा करने का आदेश दिया है. सन 2016 में बारपेटा फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित कर दिए जाने के बाद से ही इन्हें डिटेन्शन कैम्प में डाल दिया गया था.
न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ़ और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की डिविज़न बेंच ने 12 सितंबर 2018 को एक विशेष लीव अपील (सी)(एस) 8252 की सुनवाई करते हुए असम सरकार को आदेशित किया है कि सोफ़िया ख़ातून को व्यक्तिगत रिलीज बॉन्ड (पीआर बॉन्ड) पर डिटेन्शन कैम्प से रिहा कर दिया जाए.
NRC अंतिम मसौदे से 40 लाख से ज़्यादा लोगों को बाहर कर दिया गया है. उनमें से ज़्यादातर सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों से संबंधित हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं. उनमें कई महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं. अब CJP के स्वेछासेवकों की टीम राज्य के 15 सबसे ज़्यादा प्रभावित ज़िलों में गाँव – गाँव जा कर इन लोगों को दावा दायर करने में सहायता कर रहे हैं. हमनें एक टोल फ़्री (निशुल्क) नंबर 1800 1020 138 भी शुरू किया है, जिसके उपयोग से वे सभी लोग जिन्हें हमारी मदद की आवश्यकता है, हम से संपर्क कर सकते हैं. आपका योगदान यात्रा, दस्तावेज़ीकरण और तकनीकी ख़र्चों की लागत को आसान करने में मदद कर सकता है. सहायतार्थ दान कीजिए!
आप सुप्रीम कोर्ट का पूरा निर्देश यहाँ पढ़ सकते हैं.
हालांकि सोफ़िया खातून को अभी पूरी तरह से राहत नहीं मिली है लेकिन ये फ़ैसला असम में फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल के कामकाज के बारे में तो सवाल उठाता ही है. सोफ़िया ख़ातून ने डब्ल्यूपीसी 6574/2017 दायर किया. गुवाहाटी उच्च न्यायालय के आदेश ने अक्टूबर 2016 में फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल के आदेश का पालन किया और कहा:
लिखित बयान से, यह स्पष्ट है कि याचिकाकर्ता ने अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान का विवरण प्रस्तुत नहीं किया है. दादी, नानी व नाना के नामों का उल्लेख नहीं किया गया है. उन्होंने अपने भाइयों और बहनों के नामों के साथ-साथ अपनी शादी की तारीख या वर्ष के बारे में भी विवरण नहीं दिया है. इसके अलावा, फूलबार हुसैन से शादी के बाद उनके बच्चों के बारे में भी जानकारी नहीं है. उपरोक्त विषयों की जानकारी उपलब्ध कराने में कमियां पाई गई हैं. जब किसी की राष्ट्रीयता पर सवाल उठाया गया हो, तो ऐसे भौतिक तथ्यों को पहले उदाहरण में प्रश्नित व्यक्ति द्वारा लिखित बयान में रिकॉर्ड किया जाना आवश्यक है. ऐसा करने में हुई चूक कार्यवाही को संदिग्ध बना सकती है ये एक बड़ी चूक है. उन्होंने अपने हलफनामें में एक ही बात बार बार दोहराई है, हालांकि 25.07.2016 को दर्ज अपने हलफ़नामे में उन्होंने अपनी उम्र 47 वर्ष बताई है इस आधार पर याचिकाकर्ता का जन्मवर्ष 1996 होता है.”
इस प्रकार सोफ़िया ख़ातून को हाईकोर्ट में तो अपने मामले में सफलता नहीं मिली पर फिर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई.
सोफ़िया खातून की तरफ़ से ये मामला वरिष्ठ वकील संजय आर हेगड़े ने दायर किया, जिसमें अनस तनवीर, प्रांजली किशोर और वकील कामाक्षी एस मेहलवाल उन्हें असिस्ट कर रहे थे. लंबे समय से न्यायिक लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 12 सितंबर 2018 को एक आदेश पारित किया. इस आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा,
20.08.2018 को इस अदालत ने निम्नलिखित आदेश पारित किया:
प्रतिवादी संख्या 2 / राज्य में निम्नलिखित पहलुओं पर एक विशिष्ट निर्देश प्राप्त करने के लिए निर्देशित किया गया है जो वरिष्ठ वकील को सौंपे गए अतिरिक्त दस्तावेजों में परिलक्षित होते हैं:
- क्या यह सच है कि याचिकाकर्ता के पांच भाई भारत के नागरिक हैं?
- क्या यह सच है कि याचिकाकर्ता का पति भारत का नागरिक है?
- क्या यह सच है कि याचिकाकर्ता के पिता और माँ भारत के नागरिक हैं?
याचिकाकर्ता को इस न्यायालय की रजिस्ट्री में अतिरिक्त दस्तावेजों की प्रतियां दर्ज करने का निर्देश दिया गया है”
न्यायालय के प्रश्नों के जवाब में, पुलिस अधीक्षक, बारपेटा, असम द्वारा आयोजित पूछताछ की एक रिपोर्ट को जोड़कर, असम सरकार के उप प्रशासन विभाग द्वारा एक हलफ़नामा दायर किया गया है. हलफ़नामे के अनुच्छेद 4 और 5 निम्नानुसार हैं:
4. रिपोर्ट से 6 व्यक्तियों अर्थात्, नूरुल हक, मती रहमान, सिराजुल हक, मोनिरुद्दीन और उस्मान गोनी कथित विदेशी / याचिकाकर्ता के जैविक भाइयों के रूप में पेश किया गया है और फूलबार हुसैन, जिसे यहां कथित विदेशी / याचिकाकर्ता के पति के रूप में पेश किया गया है, के बारे में पुष्टि की गई थी. इन लोगों ने वर्तमान कार्यवाही में हलफनामे दायर किए हैं.
इसके अतिरिक्त, कथित विदेशी / याचिकाकर्ता के अनुमानित माता-पिता के बारे में, अर्थात् स्वर्गीय हसन अली मुंशी और सबुरान बीबी, पर भी दस्तावेजों के आधार पर जांच भी की गई थी.
5. जांच में पाया गया है कि ज़िक्र किए गए इन सभी लोगों के नाम साल 2017/2018 की मतदाता सूची में शामिल हैं. 1997 की मतदाता सूची, फोटो पहचान पत्र, 1965 की मतदाता सूची में नाम, 1970 की मतदाता सूची में हसन मुंशी और सबुरान बीबी के नाम शामिल हैं, इनके नाम मौजूद होने के आधार पर ये भारतीय नागरिक हैं. इसके अलावा,रिपोर्ट में स्थानीय ग्रामीणों के बयान के बारे में बताया गया है और निष्कर्ष निकाला गया है कि ग्रामीणों द्वारा दस्तावेजों पुष्टि की गई है.”
सुप्रीम कोर्ट के डिवीजन बेंच ने असम सरकार के वकील की तरफ़ से प्रस्तुत नोट का अवलोकन किया व उसे कुछ इस इंगित किया,
राज्य के लिए उपस्थित सलाहकार वकील प्रस्तुत करता है कि यह पूरी तरह से हुई अंतिम पूछताछ नहीं है और राज्य को पूर्ण जांच करने की अनुमति दी जा सकती है.
हम यह स्पष्ट करते हैं कि पूर्ण गहन छानबीन के लिए ये मामला राज्य के समक्ष खुला रहेगा.”
उपर्युक्त अवलोकन के संदर्भ में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार गुवाहाटी उच्च न्यायालय के आदेश को अलग कर दिया और असम सरकार को सोफ़िया ख़ातून को हिरासत शिविर से रिहा करने के लिए उचित कदम उठाने का आदेश दिया. आदेश में कहा गया है कि,
“हालांकि, अपीलकर्ता को पर्सनल बॉन्ड पर तत्काल ज़मानत पर रिहा करने का निर्देश दिया जाता है, परन्तु अपीलकर्ता को आवश्यकता के अनुसार हर महीने के अंतिम कार्य दिवस पर आवश्यक रूप से पुलिस स्टेशन में पुलिस अधीक्षक, बारपेटा के समक्ष प्रस्तुत होना होगा.”
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, मीडिया से बात करते हुए सोफ़िया खातून की तरफ़ से वकील अनस तनवीर ने कहा, “यह आदेश उन लोगों की रिहाई को सुरक्षित रखने में एक लंबा रास्ता तय करेगा जिन्हें हिरासत केंद्रों में रखा गया है. यह आदेश और अन्य पूर्ववर्ती आदेश इस तथ्य को स्पष्ट दर्शाते हैं कि फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल और एनआरसी प्रक्रिया के तहत विदेशियों की पहचान करने की पूरी प्रणाली में कई गंभीर ख़ामियां हैं.”
आदेश पर प्रभाव
असम में विदेशियों और डी-वोटरों के मामलों के लिए सुप्रीम कोर्ट का ये आदेश बड़ी सफलता की तरह है. ख़ासतौर से उन मामलों के लिए जिन्हें असम के फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल ने पुलिस की ग़ैरमुकम्मल रिपोर्ट्स के आधार पर डीज़ोन में डाल दिया है.
“विदेशियों और संदेहजनक मतदाताओं के मामलों में अपनी सुनवाई के दौरान फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल हमेशा सीमा पुलिस विभाग द्वारा प्रस्तुत संदिग्ध दस्तावेज़ों को पीड़ितों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य के बनिस्बत ज़्यादा महत्व देता है. गुवाहाटी उच्च न्यायालय के वकील शाईजुद्दीन अहमद कहते हैं, “सोफ़िया खातून बनाम असम के इस मामले ने पुलिस विभाग द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली संदेहास्पद रिपोर्ट को उजागर किया है.” बारपेटा सीमा पुलिस द्वारा प्रस्तुत एक ‘रिपोर्ट’ के आधार पर फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल में सोफ़िया खातून के ख़िलाफ़ शुरू किया गया था. उन्होंने कहा कि “फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल द्वारा सोफ़िया खातून को विदेशी घोषित कर दिया गया था और गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने भी इस फैसले को बरकरार रखा था. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट में, अंतिम सुनवाई के दिन असम सरकार को यह स्वीकार करना पड़ा कि राज्य पुलिस को मामले की जांच करनी चाहिए.”
“प्रोजेक्टेड/अनुमानित” शब्द का दुरुपयोग
अब तक, फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल और गुवाहाटी उच्च न्यायालय बड़े पैमाने पर “प्रोजेक्टेड/अनुमानित” शब्द का दुरुपयोग कर रहे हैं. जब एक व्यक्ति को विदेशी के रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता है, तो उसे एक ही बिंदु पर यानि स्पेलिंग की साधारण गलतियों को आधार बनाकर तथाकथित बांग्लादेशी के रूप में स्थापित करने की भरकस कोशिश की जाती है. वो व्यक्ति जिसने न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार सभी दस्तावेज जमा किए हैं उसे ये कह दिया जाता है कि उसके दस्तावेज़ उसके पूर्वजों से सम्बंधित नहीं हैं क्योंकि उनमे स्पेलिंग या टाइपिंग की साधारण ग़लतियाँ हैं जैसे नाम या शीर्षक या आयु में गलती, जो अक्सर कई आधिकारिक दस्तावेजों में होती हैं. इन गलतियों के आधार पर अधिकारी यह निष्कर्ष निकालने का प्रयास करते हैं कि दस्तावेज़ प्रभावित पार्टी से संबंधित नहीं हैं.
ऐसे मामलों में, फ़ॉरेनार्स ट्रिब्यूनल या उच्च न्यायालय में स्वीकार किया एक बेहद अधिक सरलीकृत संस्करण यह है कि पीड़ित ने किसी (और/अन्य) को पिता, मां,भाई, बहन के रूप में पेश किया है-जिन सभी के भारतीय के रूप में वैध दस्तावेज हैं. ऐसी स्थितियों में, किसी वैज्ञानिक पद्धति या डीएनए परीक्षण का उपयोग किए बिना, संपूर्ण परिवार के सदस्य, या परिवार का एक अनुभाग ‘ वास्तविक भारतीय नागरिक’ पाया जाता है. इसमें न किसी गवाह की आवश्यकता होती है और न ही कोई अन्य कार्यप्रणाली लागू होती है.
हमारी कानून व्यवस्था में जहां मात्र एक व्यक्ति की गवाही भर से, हत्या जैसे गंभीर अपराध में भी किसी को दोषी साबित होने से बचा लिया जाता है, वहां सैकड़ों वास्तविक और प्रत्यक्ष गवाहों द्वारा किसी व्यक्ति की पहचान कर लेने के बावजूद, उसके घर, उसके गांव आदि के बारे में लिखित पुष्टि कर देने के बावजूद भी सोफ़िया जैसे कई लोगों को विदेशी घोषित किया जा रहा है.
भारतीय न्यायपालिका के लिए ये एक अहम चुनौती है. सोफ़िया खातून के मामले में असम सरकार द्वारा प्रस्तुत हलफ़नामे ने एक बार फिर, ‘प्रोजेक्टेड ‘ शब्द के उपयोग को लेकर छिड़े विवाद को बढ़ा दिया है. शपथ पत्र में कई जगहों पर इस शब्द का प्रयोग किया गया है जैसे. “सोफ़िया खातून के प्रोजेक्टेड पिता”, ” सोफ़िया खातून की प्रोजेक्टेड माँ”, “सोफ़िया खातून के प्रोजेक्टेड भाई”. व्यक्ति के वैध रिश्तों पर सवाल उठाते हुए इस तरह के वाक्यों का प्रयोग हलफ़नामे में कई जगह किया गया है. सौभाग्य से डिवीजन बेंच ने सोफ़िया खातून के लिए न्याय के रास्ते खोल दिए हैं, हालांकि असम में रहने वाले कई अन्य भारतीय नागरिकों के लिए ये शब्द “प्रोजेक्टेड” एक बड़ी परेशानी बनकर खड़ा हुआ है.
अनुवाद सौजन्य – अनुज श्रीवास्तव
और पढ़िए –
चौथी बार अपनी नागरिकता साबित करने को मजबूर हैं असम के शमसुल हक़
मैं रोती और गिड़गिड़ाती रही, मगर पुलिस वाले मुझे घसीट ले गये
NRC दावा-आपत्ति प्रक्रिया में मौजूद हैं कई ख़ामियां
क्या NRC के अंतिम मसौदे से बाहर हुए 40 लाख लोगों के लिए अब भी कोई उम्मीद बची है?