8 जून 2017 को हिमाचल प्रदेश से गिरफ़्तार भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ और उनके दो साथियों को तय तिथि से पहले ही बीती रात तकरीबन पौने तीन बजे जेल से रिहा कर दिया गया है. हालाकि नवम्बर २०१७ में उन्हें २० से भी ज्यादा मामलों में अलाहाबाद उच्च न्यायलय ने बेल दे दी थी, उत्तर प्रदेश सरकार ने उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (रासुका) लगा कर उन्हें बेबुनियाद इल्जामों पर जेल की सलाखों के पीछे रखा.
रिहाई के बाद चंद्रशेखर आज़ाद ने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा कि 50 साल तक सत्ता में बने रहने का दावा करने वाली बीजेपी सरकार असल में डरी हुई है. ये 2019 में ही साफ़ हो जाएगी. सत्ता में आना तो दूर, हो सकता है विपक्ष में भी न ठहर पाए. उन्होंने कहा कि कोर्ट की फटकार से बचने के लिए उन्हें जल्दी रिहा तो कर दिया गया है पर जल्दी ही उनपर फी से कारवाई की जा सकती है.
सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में 5 मई 2017 के दिन एक धार्मिक जुलूस को लेकर ठाकुरों और दलितों में झड़प हुई. इस हिंसा में दलितों के 50 से अधिक घर जला दिए गए थे और एक युवक की मृत्यु हो गई थी. इस घटना के विरोध में भीम आर्मी ने 9 मई को सहारनपुर के गांधी पार्क में एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया. प्रशासन की ओर से इस विरोध प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गई और पुलिस द्वारा लाठीचार्ज कर दिया गया.
इस पूरे मामले में जातीय हिंसा भड़काने का आरोप लगाकर भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर पर कई धाराओं के तहत मुकद्दमा दर्ज किया गया. चंद्रशेखर सहित संगठन के कई पदाधिकारियों के ख़िलाफ़ थाना देहात कोतवाली में मुकदमे दर्ज किये गए थे.
दर्ज सभी 27 मामलों में अलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2 नवम्बर 2017 के दिन चंद्रशेखर को ज़मानत दे दी, लेकिन उसके तुरन्त बाद राज्य सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) लगाकर उन्हें फिर गिरफ़्तार कर लिया. कुल मिलकर उन्हें लगभग 16 महीनों से जेल में बंद रखा गया था. बीते कल, यानि 13 सितम्बर की आधी रात उन्हें सहारनपुर जेल से रिहा किया गया.
अपनी गिरफ़्तारी से पहले मीडिया से बात करते हुए चंद्रशेखर ने कहा था “कि जातीय हिंसा भड़काने के आरोप में प्रशासन भीम आर्मी पर तो सख्ती से कार्रवाई कर रहा है परन्तु सम्बंधित घटना में दलितों के जो 50 घर आगज़नी का शिकार हुए, उस पर न कोई चर्चा हो रही है, न दोषियों के ख़िलाफ़ कोई कारवाई अब तक हुई है.”
भीम आर्मी की तरह दलित हितों की आवाज़ उठाने वाले देश भर में कई और भी संगठन हैं. इस दिशा में भी सोचने की ज़रुरत है कि भारतीय राजनीति में तमाम दलित नेताओं और दलित हितों का दावा करने वाली पार्टियों के होते हुए भी ऐसी कौन सी कमी रह गई है जिसके चलते लोगों को अपने हितों की रक्षा के लिए भीम आर्मी या ऐसे ही दुसरे संगठन बनाने पर मजबूर होना पड़ रहा है.
क्या दलित हितैशी कहाने वाली बड़ी पार्टियां अपनी प्रासंगिगता खो चुकी हैं? क्या वो हित से भटक कर सत्ता की राजनीति में उलझ कर रह गई हैं?
ज़्यादातर दलित आज भी उसी हालत में हैं जैसे एक सदी पहले थे. ऐसी भावना बन रही है कि मौजूदा सरकार ख़ास लोगों के बारे में ज़्यादा सोचती है. जिससे दलित उग्र प्रदर्शन को मजबूर हो रहा है.
इस ख़ास समुदाय यानि ऊँची जाति के हिन्दुओं के man में ये बात डाली जा रही है कि दलित की मज़बूती उसके लिए ख़तरा है. उन्हें भड़काया जा रहा है ताकि वो दलितों को निशाना बनाएं और पूरे दलित समुदाय को सबक सिखा दें और तथाकथित श्रेष्ठता की ऊँचाई पर बने रहें.
सहारनपुर हिंसा के बाद एक समुदाय हथियारों के साथ प्रदर्शन करता दिखाई देता है, और वहीँ दूसरे समुदाय को शांतिपूर्ण प्रदर्शन की भी इजाज़त नहीं दी जाती है. क्या प्रशासन इस दोहरे बर्ताव का प्रदर्शन खुलेआम और जानबूझकर कर रहा है?
ये साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि चाहे गाय के नाम पर हो, धर्म के नाम पर हो या कोई चोरी का मामला हो, लोग कानून अपने हाथों में लेकर किसी को भी जान से मारे दे रहे हैं, वो भी ऐसी निडरता और विशवास के साथ के कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा. और 2014 के बाद से ये घटनाएं बेतहाशा बढ़ी हैं.
लगता है कि सत्ता कुछ ऐसे काम कर रही है जिनपर वो चाहती है के पर्दा ही रहे, कहीं चर्चा न हो.
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