यूपी का ग़ैरक़ानूनी धर्मांतरण प्रतिबंध अध्यादेश, 2020 को नवंबर के आखिर में गवर्नर ने मंजूरी दे दी है. कानून बनने के बाद इसके तहत अब तक दो लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो चुके हैं
यूपी के बाद उसी तर्ज़ पर अब मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और असम भी ऐसे ही ‘लव जिहाद विरोधी’ कानून की तैयारी कर रहे हैं. इस कानून के तहत शादी के जरिये धर्म परिवर्तन को आपराधिक कृत्य करार दिया जाएगा. इस अध्यादेश का एक दिलचस्प पहलू यह है कि इसमें ‘लव जिहाद’ को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन इसे अपराध बनाने की कोशिश की गई है.
‘डेक्कन हेराल्ड’ की रिपोर्ट के मुताबिक यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा चुनावों से पहले एक रैली में कहा था कि असली नाम और पहचान छिपा कर मां-बहनों की इज़्ज़त और गरिमा से खिलवाड़ करने वाले नहीं सुधरे, तो उनके ‘राम नाम सत्य है’ की शुरुआत हो जाएगी. हालांकि अध्यादेश जारी करने के बाद जो कानून लाया गया उसका असली मकसद शादी के जरिये हिंदू महिलाओं को मुसलमान बनाने की कथित कोशिश को रोकना है. वैसे अध्यादेश में किसी खास धर्म का जिक्र नहीं है. यह कानून गैर हिंदू और मुस्लिम संबंधों को भी अपने दायरे में लाता है. कानून में इस पहलू पर बहुत कम रोशनी डाली गई है.
इस अध्यादेश का जो रुख है वह हर धर्म परिवर्तन को ग़ैरक़ानूनी करार देता है, जब तक कि उसे राज्य का संरक्षण न प्राप्त हो. अध्यादेश का सेक्शन 3 कहता है कि शादी के जरिये किसी भी धर्म को मानने वाले के धर्म परिवर्तन को ग़ैरक़ानूनी माना जाएगा. इस प्रावधान के उल्लंघन करने वालों को पांच साल की कैद होगी और कम से कम 15 हजार रुपये का जुर्माना.
अध्यादेश का सेक्शन 4 कहता है कि शादी के जरिये धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति का कोई रक्त संबंधी इसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करा सकता है. सेक्शन 6 अदालत को यह अधिकार देता है कि वह ग़ैरक़ानूनी रूप से शादी के लिए धर्म परिवर्तन या धर्म परिवर्तन के लिए शादी को रद्द करार दे.
आज़ादी और स्वायत्तता
ये सारे प्रावधान राज्य को निजी रिश्तों को नियंत्रित करने, और नागरिकों को प्राप्त चुनने के अधिकार की स्वतंत्रता को कुचलने का अधिकार देते हैं. शफीन जहां बनाम अशोकन के एम (2018) 16 SSC 368 केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्य की ओर से इस तरह का हस्तक्षेप लोगों की आज़ादी के उपभोग पर भयावह असर डालेगा.
ऐसी स्थिति में लोग अपनी आज़ादी को जी नहीं पाते हैं. उन्हें राज्य की ओर से दमन का डर होता है और इससे चुनने की स्वतंत्रता बाधित होती है. शादी की अंतरंगता, और कोई व्यक्ति किससे शादी करे, या किससे नहीं, जैसे विषय राज्य के नियंत्रण से बाहर हैं. इसलिए अदालतों को चाहिए कि वे संवैधानिक आज़ादी के पक्षधर के तौर पर इन्हें सुरक्षा दे. संरक्षित करे.
अध्यादेश का सेक्शन 8 और 9 धर्मांतरण के पहले और बाद की प्रक्रियाओं का जिक्र करता है. यह कहता है मर्ज़ी से किए जाने वाले किसी भी धर्मांतरण से 60 दिन पहले जिलाधिकारी को सूचना देना जरूरी है. इसके बाद पुलिस जांच करेगी कि आखिर किन परिस्थितियों में धर्मांतरण किया जा रहा है. जो व्यक्ति या धार्मिक पुरोहित धर्मांतरण करा रहा है उसे भी जिलाधिकारी को इसके पहले इसकी सूचना देनी होगी. धर्म बदलने वाले व्यक्ति को इसकी पुष्टि के लिए जिलाधिकारी के सामने अपनी मौजूदगी दर्ज करानी होगी.
प्रशासन इस धर्मांतरण को अधिसूचित करेगा ताकि अगर लोगों को इस पर एतराज़ हो तो अपनी आपत्ति दर्ज करा सकें.
बिना दबाव के होने वाले विवाह को निरर्थक इस तरह के कानूनी पचड़े में डालने से व्यक्ति की आज़ादी को नुकसान पहुँचता है और इससे राज्य को अंतर-धार्मिक जोड़ों को चेतावनी देने की शक्ति देता है. साथ ही ऐसे जोड़ों पर समाज का दबाव बढ़ता है. ज़्यादातर जोड़े इस तरह का दबाव झेलते हैं. अदालतों ने माना है कि इस तरह के जोड़ों को लोगों के विरोध का सामना करना पड़ता है. ऐसी शादी अंतरंग चुनाव के बजाय एक साज़िश के नज़रिये से देखी जाती हैं.
लता सिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश (2007) 1 GLH 41 केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “इस तरह के अंतर जातीय और अंतर धार्मिक विवाह करने लड़के या लड़की के मां-बाप न तो ख़ुदकुशी करने की धमकी दे सकते हैं, और न हिंसा के लिए किसी को भड़का सकते हैं. और न ही लड़के या लड़की को प्रताड़ित कर सकते हैं.” लेकिन अदालती फ़ैसलों के ऐसे उदाहरणों के बावजूद अंतर जातीय और अंतर धार्मिक विवाह करने वाले लड़के या लड़की की लिंचिंग या उन्हें प्रताड़ित करने की ख़बरें आ रही हैं. इस डर से ऐसे जोड़े अपने घर या मूल निवास से भाग कर दूर कहीं डर के साए में रहने को मजबूर हैं.
अध्यादेश के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन करते हैं, जिनमें समानता के सिद्धांत को शामिल किया गया है. दूसरे राज्यों में अंतर धार्मिक विवाह में राज्य दखल नहीं देता, लेकिन यूपी में ऐसे जोड़ों को अपनी शादी के रजिस्ट्रेशन के लिए जटिल प्रक्रिया से गुजरना होगा. यह खुले तौर पर भेदभाव का अहसास कराता है और इससे एक मनमानापन उभरता हुआ दिख रहा है.
आपसी सहमति वाले वयस्क
यह अध्यादेश दो लोगों की आपसी सहमति के जरिये लिए जाने वाले फ़ैसलों की भी अवमानना करता है. अदालतों ने बार-बार इस तथ्य पर जोर दिया है कि अगर दो लोग वयस्क हैं तो शादी कर सकते हैं. वयस्क जिसके साथ पसंद करें उनके साथ रह सकते हैं .
सोनी गेरी और बनाम डगलस गेरी (2018) KLT 783 केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “इस बात को जोर देकर कहने की कोई जरूरत नहीं है कि किसी व्यक्ति की जिंदगी में वयस्कता की उम्र हासिल का अपना महत्व होता है. इसका मतलब वयस्क लड़का या लड़की को चयन करने का अधिकार है. जहां तक पसंद का सवाल है, कोर्ट मां-बाप की मर्ज़ी, लड़की या लड़के पर थोपने की इजाज़त नहीं दे सकता. बेटी को अपनी आज़ादी के उपभोग का अधिकार है. कानून इसकी इजाज़त देता है. कोर्ट को लड़की की मां की भावनाओं और पिता के अहम से प्रभावित होकर सुपर गार्जियन की भूमिका नहीं निभानी चाहिए. ”
शक्ति वाहिनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2018 केस में पूर्व चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा था. “जब दो वयस्क अपनी मर्ज़ी से शादी करते हैं तो वह अपना रास्ता चुन रहे होते हैं. वह इसे अपना लक्ष्य समझते हैं और उन्हें ऐसा करने का अधिकार है. यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार है. अगर उनके इस अधिकार का हनन होता तो माना जाएगा का यह संविधान का उल्लंघन है.”
निजता का अधिकार
नए अध्यादेश लाकर यूपी सरकार ने यह जताया है कि उसे निजता के अधिकार जैसे लोगों के मौलिक अधिकारों की कोई परवाह ही नहीं है. ऐतिहासिक के एस पुट्टास्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2019 10 SCC 1) केस में अदालत ने निजता के अधिकार का समर्थन करते हुए इसे मौलिक अधिकार माना था. अदालत ने साफ कहा था कि प्राइवेसी मानव गरिमा का एक अहम पहलू है. जीवन-साथी का चुनाव प्राइवेसी यानी निजता का मामला है.
कोर्ट ने कहा “प्राइवेसी के मूल में निजी अंतरंगता का बचाव है. इस अंतरंगता का हनन नहीं हो सकता. पारिवारिक जीवन, विवाह, संतानोत्पत्ति, घर और यौन प्रवृत्ति की शुचिता इसके दायरे में आती है. किसी को अकेले में रहने देना भी उसकी प्राइवेसी का सम्मान है. प्राइवेसी या निजता व्यक्ति की स्वायत्तता का बचाव करती है और किसी महिला या पुरुष की इसे नियंत्रित करने की क्षमता को चिन्हित भी करती है. किसी की जिंदगी में उसका निजी चुनाव निजता का मूल तत्व है. प्राइवेसी विविधता का संरक्षण करती है, और बहुलता को मान्यता देती है. यह हमारी संस्कृति में विविधता संरक्षण करती है. संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत हमें धार्मिक आज़ादी मिली हुई है. हमें अपनी मर्ज़ी और सामर्थ्य के मुताबिक किसी भी धर्म को चुनने का अधिकार है. इसे हम व्यक्त कर सकते हैं और नहीं भी. हमारे लिए इसे दुनिया को बताने की जरूरत नहीं है.”
राज्य की ओर से शादी-शुदा जोड़े को अपमानित करने के लिए राज्य की बेवजह की घुसपैठ लोगों की निजता में दखल है. यह उनके अधिकार छीनती है. अगर राज्य लोगों की चुनने के अधिकार पर निगरानी रखता है तो इससे नागरिकों की निजता का अधिकार कमजोर पड़ता है. पुट्टास्वामी केस में कोर्ट ने यही कहा था.
कोर्ट ने कहा था, “अनुच्छेद 19 के तहत हमें जो स्वतंत्रता हासिल है, उसके मुताबिक किसी महिला या पुरुष को अपनी प्राथमिकताओं के मुताबिक चयन का अधिकार है. इसे अनुच्छेद 21 से जोड़ कर पढ़ा जानना चाहिए. इस अनुच्छेद के तहत मिली आज़ादी किसी को उसकी पसंद चुनने का अधिकार देता है. साथ ही जीवन के अन्य पहलू के बारे में भी उसे स्वतंत्र रूप से चुनने का अधिकार देता है. मसलन वह क्या खाए और न खाए, यह फैसला करने का अधिकार उसके पास है. वह क्या पहने, कौन सा धर्म माने और तमाम वे मसले जिसमें स्वायत्तता और आत्म निर्धारण का सवाल सामने आता है, उनमें व्यक्ति को अपनी मस्तिष्क की निजता में फैसले करने होते हैं. यानी इन फ़ैसलों में बाहरी दखल नहीं हो सकता. ”
बराबरी का तर्क
कुछ लोग कह सकते हैं कि सिर्फ शादी के लिए धर्म परिवर्तन या फिर धर्म परिवर्तन के लिए शादी नैतिकता के लिहाज से ठीक नहीं है. लेकिन क्या इसका अपराधीकरण करने को भी इसे नज़रिये से नहीं देखा जाना चाहिए?
जोसेफ साइन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018 SCC OnLine SC 1676) केस में जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा, “मुजरिम के खिलाफ सार्वजनिक प्रतिबंध, उस पर दंडात्मक कार्रवाई और उसके व्यक्तिगत अधिकार छीनने को तभी उचित ठहराया जा सकता है, जब उसके आचरण का समाज पर सीधा असर पड़ रहा हो. दरअसल, अगर अपराध के लिए कैद की सजा दी जा रही तो इसके लिए ज्यादा मजबूत तर्क देने होंगे. राज्य को जुर्म के अपराधीकरण के मामले में न्यूनतम दखल देना चाहिए. उसे महिला या पुरुष की व्यक्तिगत पसंद के मामले में उसकी स्वायत्तता का प्रति आदर दिखाना होगा,”
यूपी सरकार का यह अध्यादेश अंतर धार्मिक शादियों को रद्द करने और ऐसे जोड़ों को सश्रम कारावास में डालने की जरूरत को सही ठहराने में नाकाम है. शादी जैसे व्यक्तिगत मामलों में राज्य का इस तरह दखल देने को यह अध्यादेश सही नहीं ठहरा सकता. अध्यादेश में खुद को निरपराध साबित करने (सेक्शन 12) का जिम्मा भी अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले ‘आरोपी’ पर डाल दिया गया है. अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले जोड़ों पर इस बात को साबित करने की ज़िम्मेदारी होगी कि यह शादी किसी एक पर दबाव डाल कर नहीं हो रही है. जबकि आपराधिक कानून के सामान्य नियम के मुताबिक अपराधी का अपराध साबित करना अभियोजन पक्ष की ज़िम्मेदारी है और जब तक उसका अपराध साबित नहीं हो जाता तब तक उसे दोषी नहीं माना जा सकता. उसे तब तक बेकसूर ही माना जाता रहेगा.
अध्यादेश में इस तरह के प्रावधान से विवाह को अनुमति न देने वाले माता-पिताओं को उन पर बेबुनियाद आरोप लगाने का मौका मिल जाता है. इस तरह के कानून असंगत कार्रवाइयों का बढ़ावा देंगे. इससे अंतर धार्मिक जोड़ों के विवाह में निश्चित तौर पर रुकावट आएगी.
अध्यादेश का सेक्शन 7 ग़ैरक़ानूनी/ ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन को एक संज्ञेय और गैर ज़मानती अपराध करार देता है. इसका मतलब पुलिस अधिकारी को कथित आरोपी को बगैर किसी वारंट के गिरफ्तार करने और कोर्ट की मर्ज़ी पर कई दिनों तक हिरासत में रखने का अधिकार है.
चेतना का अधिकार
संविधान के अनुच्छेद 25 में चेतना की आज़ादी, किसी पेशे को स्वतंत्र तौर पर अपनाने और किसी भी धर्म को मानने और इसके प्रचार का अधिकार दिया गया है. चेतना के अधिकार को धर्म मानने के अधिकार से अलग रखा गया है. यानी कोई गैर धार्मिक होकर भी चेतना के अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है. शब्दकोष को मुताबिक चेतना का मतलब ऐसे ज्ञान और विवेक से है जो सही या गलत में फर्क कर सके. उस नैतिक फैसले को स्वीकार कर सके जो पहले से रेखांकित नैतिकताओं के उल्लंघन की स्थिति में दिया जाता है. चेतना के अधिकार को कमतर नहीं किया जा सकता.
इसलिए, यह सवाल पूछना अहम हो जाता है, कि क्या कोई राज्य किसी व्यक्ति के चेतना के अधिकार पर प्रतिबंध लगा सकता है, उस चेतना पर भी जिसमें धर्म परिवर्तन जुड़ा हो?
रेव स्टेनिसलॉस बनाम मध्य प्रदेश (1977 SCR (2) 611) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ओडिशा और मध्य प्रदेश में लाए गए दो धर्मांतरण क़ानूनों की संवैधानिक मान्यता पर विचार किया था. 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की धर्मांतरण विरोधी कानून की व्याख्या का समर्थन किया था.
मध्यप्रदेश कोर्ट ने इस दलील को मंजूरी दी थी कि धर्मांतरण विरोधी क़ानूनन अनिवार्य रूप से एक लोक व्यवस्था का बचाव करने वाला का कानून है. इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 25(1) में आएगा. जिसमें यह कहा गया है कि धर्म मानने और चेतना के अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं. इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के धर्म परिवर्तन से जुड़े कानून का समर्थन किया था. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे लोक व्यवस्था यानी पब्लिक ऑर्डर के नज़रिये से देखा.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “कानून में लोक व्यवस्था बरकरार रखने के प्रावधान हैं. अगर जोर-ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कराया जाता है, और उसे रोका नहीं जाता तो इससे लोक व्यवस्था में समस्याएं खड़ी हो सकती हैं. लोक व्यवस्था का व्यापक अर्थ है. यह राजनीतिक समाज में सदस्यों के बीच शांति की स्थिति को बताता है. यह शांति सरकार की ओर से लाए गए नियमों की बदौलत है. ये कानून सरकार की ओर से लागू किए गए हैं. लिहाजा व्यक्तिगत स्वायत्तता को लोक व्यवस्था के दायरे में लाना आज़ादी और निजता के अधिकार को खोखला करना होगा. अगर दो लोग शादी करते हैं और इस वजह से सांप्रदायिक तत्व लोक व्यवस्था के लिए कोई समस्या पैदा करते हैं, तो यह राज्य का कर्तव्य है कि वह ऐसी कार्रवाइयों और लोगों के अधिकारों के कुचलने के ऐसे कदमों को रोक दे. उसे उस वक्त किसी के धार्मिक विश्वास की मान्यता की पहचान के लिए पड़ताल में नहीं लगना चाहिए.
हालांकि 1975 के इस फैसले में अदालत धर्मांतरण विरोधी कानून की वैधता को सही ठहराया था, लेकिन उसने यह नहीं कहा कि किसी व्यक्ति को सिर्फ शादी के लिए धर्म परिवर्तन नहीं करना चाहिए.
शादी के लिए धर्म परिवर्तन
श्रीमती नूरजहां उर्फ अंजलि मिश्रा बनाम और अन्य और यूपी सरकार और अन्य (W.P [C] No. 57068 of 2014), केस में नूरजहां और उसके कथित पति ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर संरक्षण मांगा था.अभियोजन पक्ष की ओर से कहा गया कि उसने अपने मुस्लिम पति के साथ निकाहनामे के लिए अपनी हिंदू पहचान छोड़ कर इस्लाम कुबूल कर लिया था. इन परिस्थितियों में अदालत ने कहा कि उनका गठबंधन ग़ैरक़ानूनी है क्योंकि विवाह धर्म परिवर्तन के बाद किया गया. इसे कानून के मुताबिक वैध नहीं ठहराया जा सकता.
बेंच ने कहा, “अगर धर्म परिवर्तन धार्मिक परिवर्तन से प्रेरित नहीं है और सिर्फ एक मकसद के लिया किया गया है या फिर यह किसी दावे या अधिकार को हासिल करने के लिए इसे आधार बनाया गया है या फिर यह इसलिए किया गया है कि किसी शादी से बचा जा सके या फिर बगैर भगवान (अल्लाह) में विश्वास के किया गया है तो इसे मान्यता नहीं दी जा सकती. धर्म परिवर्तन के मामले में हृदय परिवर्तन होना चाहिए और धर्म परिवर्तन करने वाले के दिल में अपने मूल धर्म के बजाय नए धर्म की मान्यताओं में ईमानदार प्रतिबद्धता होनी चाहिए.”
इस केस का संदर्भ 2000 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य ((2000) 6 SCC 224.) में सुनाए गए केस में दिया गया. इसमें एक हिंदू व्यक्ति सिर्फ दूसरी शादी के लिए इस्लाम को अपना रहा था. कोर्ट ने कहा कि इस तरह का चलन घृणित है. फैसले में कानूनी हल भी बताया गया. इस फैसले में साफ तौर पर कहा गया कि अगर व्यक्ति ने धर्म परिवर्तन कर लिया है और पहली पत्नी से उसका विवाह हिंदू विवाह कानून के मुताबिक कानूनी रूप से अस्तित्व में है तो भी उस शख्स पर दो शादी के जुर्म में मुकदमा चलेगा. धर्म परिवर्तन या धर्म त्याग से सिर्फ तलाक की बुनियाद तैयार होती है लेकिन पहली शादी कि स्थिति में अपने आप कोई बदलाव नहीं आ जाता.
प्रियांशी कुमारी उर्फ शमरीन और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (Writ C No. 14288 of 2020) केस में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने नूरजहां केस में अदालत की ओर से दिए दृष्टांत को ही माना और कहा कि लड़की जन्म से मुस्लिम है और उसका हिंदू धर्म में परिवर्तन किया गया है. यह धर्म परिवर्तन शादी से सिर्फ एक महीने पहले कराया गया है. इस आधार पर कोर्ट ने उस जोड़े को पुलिस सुरक्षा मुहैया कराने के मामले में दखल देने से इनकार कर दिया था.
लेकिन नूरजहां बेगम और प्रियांशी के मामले में 2000 में दिए गए अपने ही फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2014 में पलट दिया. सलामत अली और अन्य बनाम यूपी राज्य और अन्य (Cri. Misc. W.P No. 11367 of 2020) केस में 11 नवंबर को इलाहाबाद हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने कहा, “जीवन साथी चुनने या किसी के साथ रहने की आज़ादी के चयन के अधिकार को लेकर दिया गया हाई कोर्ट का कोई भी फैसला दो वयस्कों की जिंदगी और आज़ादी को लेकर नहीं दिया जा सकता. हम इन दोनों फैसले को रोकते हैं क्योंकि ये अच्छे फैसले के उदाहरण नहीं है,”.
यह साफ है कि ‘लव जिहाद’ रोकने के लिए कानून लाने का प्रस्ताव महिलाओं के लिए सहानुभूति से प्रेरित नहीं है. इसका मकसद सिर्फ धर्म परिवर्तन को रोकने और अंतर धार्मिक विवाहों को रोकना है. यह राज्य के दखल बढ़ाने का बहाना है. इसके जरिये मौजूदा शासन अपनी विचारधारा के तहत नागरिकों की निजी जिंदगी में निगरानी रखना चाहता है.
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जिस महीने कानूनी रूप से ठोस और अहम फैसला सुनाया उसी महीने यूपी कैबिनेट का यह अध्यादेश लाना साफ तौर पर उसकी घोर संवेदनहीनता को दर्शाता है.
सलामत अंसारी और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (Cri. Misc. W.P No. 11367 of 2020) केस में डिवीजन बेंच ने कहा, “किसी भी धर्म को मानने वाले पुरुष या महिला का अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ रहने का अधिकार उसकी जीवन के अधिकार और निजी आज़ादी के अधिकार में निहित है. निजी संबंध में हस्तक्षेप दो व्यक्ति की पसंद के अधिकार का घोर अतिक्रमण माना जाएगा. हम प्रियंका खरवार और सलामत अली को हिंदू और मुस्लिम के रूप में नहीं देखते. हम उन्हें दो वयस्क व्यक्ति के रूप में देखते हैं जो अपनी इच्छा और पसंद से एक के दूसरे के साथ पिछले एक साल से खुशी और शांति से रह रहे हैं. ’’ बेंच ने आगे कहा, “अदालतें और खास कर संवैधानिक अदालतें लोगों के जीवन और आज़ादी को बरकरार रखने के लिए हैं. संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उन्हें यह गारंटी दी गई है.”
अब कर्नाटक सरकार भी यूपी सरकार की तर्ज पर ऐसा ही कानून लाने पर विचार कर रही है. कर्नाटक हाई कोर्ट की जस्टिस सुजाता और जस्टिस सचिन शंकर मगदामुथे ने अभी हाल में कहा, “यह साफ है कि किसी वयस्क का अपनी पसंद से शादी करने का अधिकार उसका मौलिक अधिकार है. यह अधिकार भारत के संविधान में निहित है. दो लोगों की निजी जिंदगी की आज़ादी का हनन नहीं हो सकता चाहे वह किसी भी जाति और धर्म के क्यों न हों.”
अगर यूपी सरकार की ओर से लाए गए कानून की संवैधानिक ताकत को चुनौती दी जाए तो यह बुरी तरह फेल होगा. यह बिल्कुल माकूल वक्त है, जब लोग देश महिलाओं को एक वस्तु की तरह देखना बंद करे. इन महिलाओं को ‘शूरवीर’ पुरुषों की ओर से बचाए जाने की जरूरत नहीं है. और न महिलाओं की निजी पसंद पर धार्मिक रुढ़िवादियों का हावी होना जरूरी है.
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