महेश भट्ट

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आवे मारिया, हसन-हुसैन और जय मंगल मूर्ति की आवाजें मेरी अंतश्चेतना का हिस्सा हैं। महेश भट्ट हिन्दू पिता (नाना भट्ट) और मुस्लिम माँ (शिरीन) के बेटे, मुंबई के हिन्दू वर्चस्व वाले क्षेत्र शिवाजी पार्क में बैठे हुए हैं। शिक्षा पाई ईसाई स्कुल डॉन बोस्को में पर वे कहते हैं की उन्होंने मुंबई के महानगरीय चरित्र को आत्मसात किया हैं और किसी भी धर्म की और सुझाव ना होने पर भी उनके मन में कभी कोई दुविधा या उलझन नहीं हुई। गणेश और मैडिना आज भी मेरी यादों की स्थायी छबिया हैं। मेरी माँ मुस्लिमशिया थी पर उसने मुस्लिम को भीतर बंद कर दिया था क्योंकि वह खुद हिन्दू नारी की छबि में डूब जाना चाहती थी। तब हमें यह पता भी न था की वह दोनों क़ानूनी तौर पर शादी शुदा नहीं थे। इसलिए वह अपने मजहब का पालन दरवाजे बंद करके किया करती थी। उसने हम पर किसी मजहब को जबरन लादा भी नहीं। हम अपने दोस्तों के साथ तमाम मजहबी त्यौहार मनाते थे — दिवाली, क्रिसमस वगैरह। ईद के रोज हम अपनी मौसी के घर चले जाया करते थे। सिवइयों का जायका आज भी मेरे मुँह में बसा हुआ हैं। तो मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। दरअसल वे सारी अनेक परते जिन्हे भारत कहा जाता हैं, मेरे अंदर बचपन से मौजूद हैं। मेरी माँ, जो मेरी जिंदगी जो चलाने वाली ताकत थी, जो मेरे अस्तित्व का जीवनदायिनी रक्त थी, उसकी इसी अप्रेल में मृत्यु हो गयी।

मैंने पाया की उसके सर के नीचे कुरान शरीफ रखी हुई थी और उसने अपने दोनों हाथों से छाती पर क्रॉस बना रखा था। मेरे पिता श्लोक पढ़ते हुए उस पर गंगा जल छिड़क रहे थे। धर्म निरपेक्षता हम लोगों की आदत थी, हमें उसका पालन करने के लिए कोई मेहनत नहीं करनी थी या अपना विकास करना था। वह तो सचमुच हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में थी। पर एक तरह से मैं ईसाई ज्यादा था। मेरे सोचने के ढंग में ईसाइयत ज्यादा आकर्षक लगती थी। पर इसके साथ साथ ही मुझे मुहर्रम में छाती पीट कर मातम मनाना भी बहुत प्रभावित करता था। गणेश के लिए मेरे मन में अनोखा आकर्षण हैं, पर आदर्श के रूप में मेरी चेतना को ईसा मसीह ज्यादा प्रभावित करते रहे थे। लेकिन बस, थोड़े समय के लिए। धीरे धीरे में इन सब से मुक्त हो सका और मैंने पाया की ईश्वर अप्रासंगिक है और धर्म के पास मेरी समस्याओं का कोई हल नहीं हैं पर मेरी माँ इबादत को बहुत महत्त्व देती थी। वह तो अपना आक्रोश भी इबादत से भुला देती थी। वह सत्संग में भी जाती थी और मुहर्रम के लिए इमामबाड़े भी। मैंने दिवाली पर उसे साड़ी पहने और माथे पर चमकती लाल बिंदी लगाए भी देखा हैं और मुझे उसकी मजलिस के लिए सादे चेहरे वाली काली चादर ओढ़ी हुई छबि भी याद हैं।

मैंने उसे क्रॉस पर लटके ईसा के सामने हाथ बांधे खड़े भी देखा हैं। यह भी देखा है की वह उनसे टपकते खून को छू रही हैं और फिर उसे हमारे माथे पर लगा रही हैं। इस तरह आवे मारिया, हसन और हुसैन तथा जय मंगल मूर्ति की आवाजें सब मेरे जहन का हिस्सा हैं। यह स्थिति महानगरों में रहने वाले आजादी के बाद के ज्यादातर भारतीयों की हैं। पर मुझे ईसा की गाथा बहुत आकर्षक लगती हैं और मैं उससे अपनी माँ व रिश्ते को जोड पाता हूँ क्योंकि मेरी माँ एक अकेली अभिभावक थी। मैं अपने को गणेश की उस छबि से भी जोड़ता हूँ जब उसने अपनी स्नान करती हुई माँ के लिए शिव को रोकने की खातिर युद्ध किया था और अपना सिर भी कटवा दिया था। कुरान शरीफ की अरबी भाषा की ध्वनि बहुत अपरिचित तो लगती हैं पर कानों को मोहक जान पड़ती हैं। अपनी शाकाहारी प्रवृति मैंने अपने पिता से ली हैं लोग कहते है की मैं अपनी जीवन शैली से हिन्दू ज्यादा लगता हूँ पर मुझ में शिया मुस्लिम जैसी आक्रमक प्रवृति भी हैं। मैं और ज्यादा विभ्रम में पड़ गया जब मैंने ईसाई लड़की से शादी की। मेरे लिए यह एक शारीरिक सच्चाई है की मैं किसी एक विचार धारा को स्वीकार नहीं करता और मैं आधा यह और आधा वह हूँ। पर मैं नास्तिक भी नहीं हूँ क्योंकि मैं मानता हूँ की नास्तिक वह होता हैं जो दुसरो को भी अपनी विचार धारा में ढालना चाहता हैं। मैं हर मजहब का आदर करता हूँ और यह मानता हूँ की प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आस्था से जुड़े रहने का अधिकार हैं। यद्यपि मुझे यह भी लगता है की जो आस्थाएं रखते वे ही हत्याए करते हैं। मैं विलक्षण आदमी तो जरूर हैं पर विषमताएं लिए हुए नहीं।

दीपा गहलौत द्वारा प्रस्तुत
मासिक पत्रिका कम्युनलिज्म
कॉम्बेट के आधार पर

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