राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा प्रकाशित “भारत में अपराध 2023” रिपोर्ट में, साइबर अपराध से संबंधित हिस्से ने सबसे ज्यादा चौंका दिया और चिंता पैदा की। साइबर अपराध से संबंधित अपराध के आंकड़े साल-दर-साल चौंकाने वाले रहे, जिनमें पंजीकृत अपराधों में 31.2% की उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई। कुल साइबर अपराधों की संख्या 65,893 (2022) से बढ़कर 86,128 (2023) हो गई, जिनमें सबसे ज्यादा अपराध ऑनलाइन पैसे की धोखाधड़ी, यौन शोषण और पहचान की चोरी के थे (एनसीआरबी, पृष्ठ 392)। इन चौंका देने वाले आंकड़ों ने नागरिकों के उस संदेह की पुष्टि की, जो पहले से ही संदेहास्पद था कि भारत में रहने का डिजिटल अर्थशास्त्र रोजमर्रा की जिदगी के लिए तेजी से बढ़ता, असुरक्षित माहौल है। रिपोर्ट में बताए गए अन्य आंकड़ों के पीछे एक और कहानी भी थी, संस्थागत रिपोर्टिंग की कमी, नौकरशाही की खामोशी और एक ऐसा खालीपन जहां ऑनलाइन दुष्प्रभाव कानूनी मदद का रास्ता नहीं ढूंढ पाता।
परदे के पीछे के आंकड़े
ये आंकड़े वृद्धि और ठहराव, दोनों को दर्शाते हैं। एक ओर, रिपोर्ट किए गए साइबर अपराधों की कुल संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन वे अभी भी कुल (अन्य) अपराधों का एक छोटा सा हिस्सा ही हैं। इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन द्वारा 2023 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि डिजिटल धोखाधड़ी या उत्पीड़न का सामना करने वाले लगभग 68% रेस्पोंडेंट्स ने पुलिस को रिपोर्ट नहीं की या मदद नहीं ली क्योंकि उन्हें विश्वास नहीं था कि पुलिस कार्रवाई करेगी या ऑनलाइन शर्मिंदा होने के डर से मदद नहीं ली। यहां तक कि जिन व्यक्तियों ने शिकायत दर्ज कराई, उन्हें भी अक्सर यह कहकर टाल दिया गया कि घटना “काफी गंभीर नहीं” थी या उनके स्थानीय पुलिस विभाग के “अधिकार क्षेत्र से बाहर” थी।
साइबर अपराधों पर एनसीआरबी के आंकड़े वित्तीय अपराधों के दस्तावेज तैयार करने की ओर बेहद पक्षपाती हैं: 2023 में दर्ज कुल अपराधों में से 65% बैंकिंग या निवेश धोखाधड़ी से संबंधित थे, जबकि गैर–वित्तीय साइबर अपराधों – जैसे पीछा करना, साइबर धमकी, मॉर्फिंग, आदि – का कुल का 5% से कम रिप्रेजेंट किया। फिर भी, साइबरपीस फाउंडेशन और इंटरनेट डेमोक्रेसी प्रोजेक्ट जैसे टीएन/एनजीओ की फर्स्ट–पर्सन रिपोर्टों से पता चलता है कि ये व्यक्तिगत और लैंगिक उल्लंघन और भी व्यापक हो सकते हैं, खासकर महिलाओं, समलैंगिक लोगों और छात्रों के लिए। सांख्यिकीय रूप से, ये उल्लंघन अदृश्य हैं क्योंकि राज्य इन प्रकार के दुर्व्यवहारों को हिंसा के रूप में नहीं समझ सकता है।
एनसीआरबी का भारत में अपराध मॉडल प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) पंजीकरण पर आधारित है। अगर कोई शिकायत एफआईआर के रूप में दर्ज ही नहीं होती, तो वह ब्यूरो की रिपोर्ट में कभी दर्ज नहीं होती। नतीजतन, राष्ट्रीय स्तर पर अपराध में कमी नहीं, बल्कि अपराधों की गणना में नौकरशाही बाधाओं में वृद्धि हुई है।
गिरावट का भ्रम : दिल्ली, मुंबई और सांख्यिकीय सेंसरशिप की कला
दिल्ली, मुंबई और कई अन्य बड़े महानगरों में चिंताजनक आंकड़ों के बावजूद, आंकड़ों में अचानक गिरावट देखी गई। मुंबई में, रिपोर्ट कुल साइबर अपराध के मामलों में पिछले वर्ष की तुलना में 11.7% की गिरावट दर्शाती है, जबकि आरटीआई के आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय साइबर अपराध पोर्टल पर की गई सभी शिकायतों में से केवल दो प्रतिशत ही एफआईआर में तब्दील की गईं। इसी तरह, दिल्ली में भी, सभी श्रेणियों में गिरावट देखी गई है, जो मीडिया में प्रस्तुत आंकड़ों के कई न्यूज आर्टिकल के स्पष्ट विरोधाभास को दर्शाता है, जिनमें स्पष्ट रूप से साइबर धोखाधड़ी, फ़िशिंग घोटालों और लिंग–आधारित ऑनलाइन उत्पीड़न में वृद्धि का संकेत दिया गया था। आधिकारिक रिपोर्टों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों और जीवित मानवीय अनुभव के बीच का अंतर अपने आप में एक नए प्रकार की सेंसरशिप – डिजिटल सेंसरशिप – का प्रतिनिधित्व करता है।
दिल्ली और मुंबई जैसे क्षेत्रों में साइबर अपराधों में उल्लेखनीय कमी दर्शाती है कि कैसे रिपोर्टिंग की कमी डिजिटल शासन के एक प्रणाली के रूप में काम कर रही है। उदाहरण के लिए, मुंबई के पुलिस अधिकारियों ने टाइम्स ऑफ इंडिया (2023) को निजी तौर पर पुष्टि की कि साइबर धोखाधड़ी की बढ़ती रिपोर्टें शहर में कानून–व्यवस्था के बारे में जनता की धारणा को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही हैं और कई पुलिस स्टेशनों ने फ़िशिंग और फर्जी प्रोफाइल की घटनाओं को साइबर अपराध के रूप में दर्ज करना बंद कर दिया है, बल्कि उन्हें मामूली संपत्ति अपराधों के रूप में दर्ज किया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।
दिल्ली में भी स्थिति विरोधाभासी रूप से ऐसी ही है। एनसीआरबी के अनुसार, 2023 में साइबर अपराध की घटनाओं की संख्या में मामूली कमी आई है, फिर भी, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अनुसार, शहर की साइबर अपराध रिपोर्टिंग हेल्पलाइन पर 80,000 से ज्यादा कॉल आए। यह असमानता उस बात का प्रमाण है जिसे एक अधिकारी ने “दक्षता के आधार पर पुनर्वर्गीकरण” कहा, यानी पुलिस ने पीड़ितों को एफआईआर या पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराने के बजाय बैंक, निजी वेबसाइट या किसी मध्यस्थ से संपर्क करने की सलाह दी।
यह फॉर्म दर्ज की गई एफ़आईआर की संख्या कम करता है लेकिन सांख्यिकीय रिपोर्टिंग में सुधार करता है; आंकड़ों को एक उपाय के रूप में इस्तेमाल करने से अब सुरक्षा का पता नहीं चलता; यह नौकरशाही अनुशासन का एक उपाय है। सकारात्मक या बाहरी सुधार का भ्रम अपराध को दर्ज करने से प्रणालीगत अस्वीकृति को छुपाता है। इसलिए, साइबरस्पेस की सेंसरशिप दावे से नहीं, बल्कि आंकड़ों से आती है।
लिंग, वर्ग और डिजिटल विभाजन
ब्यूरो द्वारा दिए गए आंकड़े डिजिटल उत्पीड़न के सामाजिक पदानुक्रम को भी मिटा देते हैं। फिशिंग घोटाले और नौकरी धोखाधड़ी की योजना के सामान्य शिकार शहरी मध्यम वर्ग नहीं होते, बल्कि निम्न–आय वाले श्रमिक, प्रवासी परिवार या बुजुर्ग आबादी होते हैं – ये सभी डिजिटल नौकरशाही को समझने में सबसे कम साक्षर होते हैं। 2023 में, भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम ने पाया कि UPI से जुड़ी धोखाधड़ी में 71% की वृद्धि हुई है, फिर भी कई पीड़ित औपचारिक शिकायत दर्ज कराने के लिए आश्वस्त या सक्षम महसूस नहीं करते। NCRB इस अपराध को “बैंकिंग अपराध” के रूप में चिन्हित करता है और प्रणालीगत उत्पीड़न या शोषण की मानवीय घटना को मिटा देता है।
महिलाओं, समलैंगिकों और नाबालिगों के लिए, जोखिम अलग–अलग हैं, लेकिन समान रूप से गंभीर भी। हालांकि छवि–आधारित दुर्व्यवहार, पीछा करना और साइबर ब्लैकमेल बढ़ रहे हैं, रिपोर्ट में 2023 में “साइबरस्टॉकिंग” या “साइबरबुलिंग” के केवल 10,730 मामले सूचीबद्ध हैं। 1.4 अरब की आबादी में, सांख्यिकीय रूप से यह बेहद असंभव है। विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि सोशल मीडिया और इसी तरह के अन्य माध्यमों की आधुनिक पहुंच को देखते हुए यह “बेहद कम” है। सबरंग इंडिया और द हिंदू द्वारा किए गए जमीनी स्तर के अध्ययनों से पता चला है कि पुलिस अक्सर, स्थिति के अनुसार, महिलाओं को साइबरस्टॉकिंग के लिए कानूनी कार्रवाई करने से बेहतर है कि अकाउंट डिलीट कर दिए जाएं।
यह लैंगिक डिजिटल अंतर, ऑफलाइन समाज में मौजूद असमानताओं को फिर से दोहराता है। महिलाएं और हाशिए पर मौजूद समुदाय ऑनलाइन हिंसा का सामना करते हैं, जबकि राज्य की प्रतिक्रिया केवल प्रक्रियात्मक और उदासीन रहती है। जब इन अनुभवों को कार्यवाही के कोड में बदल दिया जाता है – जैसा कि विभाग करता है – तब असल हिंसा अदृश्य हो जाती है; वह अनुभव अपनी गरिमा और पीड़ा, दोनों खो देता है।
न दिखने वाली पीड़ा, न मिलने वाला न्याय
कन्वेंशनल क्राइम के उलट, साइबर क्राइम अपने पीछे कुछ निशान छोड़ जाता है – जैसे स्क्रीनशॉट, आईपी लॉग्स और चैट हिस्ट्री – फिर भी भारतीय न्याय प्रणाली अब तक इन साक्ष्यों का इस्तेमाल कानूनी जवाबदेही तय करने में प्रभावी ढंग से नहीं कर पाई है। 2023 के ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 22% साइबर अपराधों में आरोप पत्र दाखिल किए गए, जबकि 3% से भी कम मामलों में दोषसिद्धि हुई। इस कमजोर रिकॉर्ड को और गंभीर बनाता है यह तथ्य कि ऑनलाइन उत्पीड़न के पीड़ितों की सुरक्षा या मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने के लिए कोई संगठित व्यवस्था मौजूद नहीं है।
एनसीआरबी का ढांचा आर्थिक धोखाधड़ी के आधार पर किए जाने वाले साइबर अपराधों और लैंगिक हिंसा या राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित साइबर अपराधों के बीच भी अंतर नहीं करता। पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ नफरत भरे अभियान, जैसे कि डॉक्सिंग या कोर्डिनेटेड ट्रोलिंग का शायद ही कभी पंजीकरण हुआ है। द इंडियन फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेसशन इंडेक्स (आईएफईआई) की रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में 226 पत्रकारों को ऑनलाइन दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा और यह रिपोर्ट में ऑब्जर्वेशन कैटेगरी में शायद ही कभी दिखता है। 2023 का डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट गोपनीयता पर केंद्रित था, फिर भी प्लेटफॉर्मों या मध्यस्थों की जवाबदेही पर चर्चा करने में विफल रहा।
तो, मुद्दा यह नहीं है कि हमारे पास आंकड़ों की कमी है; बल्कि, आंकड़े अमूर्त हैं। साइबर अपराध का दस्तावेजीकरण तो होता है, लेकिन उसकी व्याख्या या संदर्भ नहीं दिया जाता। पीड़ित केवल आंकड़े और रिकॉर्ड बन जाते हैं, उनके पास कोई कहानी या उपाय नहीं होता।
गोपनीयता से जवाबदेही तक: डिजिटल गवर्नेंस पर पुनर्विचार
साइबर गवर्नेंस के लिए अधिकार–आधारित ढांचे को एनसीआरबी की संख्यात्मक औपचारिकता से आगे बढ़ना होगा। इस मान्यता से शुरुआत करें कि डिजिटल हिंसा कोई विशिष्ट तकनीकी समस्या नहीं है, बल्कि एक नागरिक संकट है जो सत्ता के सामाजिक पदानुक्रम को सामने लाता है। सुधारों में रिपोर्टिंग तंत्र को मजबूत किया जाना चाहिए, जिसमें जांच होने पर एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य हो और पुलिस को लैंगिक और जाति–आधारित साइबर अपराधों से संवेदनशीलता से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
पारदर्शिता भी उतनी ही जरूरी है। ब्यूरो को यह रिपोर्ट देनी चाहिए कि उनके पोर्टल पर कितनी शिकायतें एफआईआर में बदलीं और उन्हें उन शिकायतों के आंकड़ों को लिंग, जाति और उम्र के आधार पर अलग–अलग करके रिपोर्ट करना चाहिए। इससे ऑनलाइन नुकसान के सामाजिक स्वरूप का पता चलेगा और न्याय तक पहुंच में प्रशासनिक अड़चनों का भी पता चलेगा।
साइबर क्राइम के प्रति भारत का दृष्टिकोण मुख्यतः सुरक्षा से ज्यादा निगरानी पर केंद्रित रहा है, जहां बड़े पैमाने पर इंटरनेट शटडाउन – एक्सेस नाउ और SFLC.in के अनुसार 2023 में 80 से ज्यादा दर्ज किए गए – को अफवाहों को रोकने के नाम पर लागू किया जाता है, यहां तक कि विरोध प्रदर्शनों और सांप्रदायिक तनावों के संदर्भ में भी। बड़े पैमाने पर शटडाउन, जिन्हें अक्सर सुरक्षा उपायों के रूप में समझाया जाता है, आवाजों को दबा देते हैं और सबूतों को कमजोर कर देते हैं। अपराधियों के प्रति जवाबदेही बनाए रखने के बजाय, ये दखल पूरी आबादी को सजा देते हैं, जिससे डिजिटल न्याय और भी जटिल हो जाता है।
जैसे–जैसे डिजिटल दुनिया का विस्तार हो रहा है, वैसे–वैसे सामाजिक शासन की नैतिक कल्पना का भी विस्तार होना चाहिए। नागरिकों की ऑनलाइन सुरक्षा को दुरुस्त करने के लिए साइबर सुरक्षा के बुनियादी ढांचे से कहीं ज्यादा, बल्कि जवाबदेही, सहानुभूति और सभी छिपे पीड़ितों की गिनती की भी जरूरत है।
गिने न जा सकने वालों की गिनती
एनसीआरबी के साइबर अपराध पर 2023 के आंकड़े भारत के डिजिटल परिवर्तन में एक विरोधाभास को दर्शाते हैं। दर्ज अपराधों में 31.2% की वृद्धि ऑनलाइन अपराध के बढ़ते खतरे और अपराध की घटनाओं की रिपोर्टिंग में सीमाओं की स्वीकृति, दोनों को दर्शाती है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में नागरिकों को कम ख़तरा है; कम अपराधों को ही पहली बार में दर्ज करने की अनुमति है। राज्य का डिजिटल तंत्र अपनी उपलब्धियों को इनकार और चुप्पी के जरिए दर्ज कर रहा है।
लैंगिक हिंसा, वर्ग–आधारित धोखाधड़ी और वैचारिक उत्पीड़न, रिपोर्ट न करने की खामोशी में पनपते हैं। जब एनसीआरबी अपराधों की कम घटनाओं को दर्ज करता है, तो इसे न्याय नहीं, बल्कि एक भूल के रूप में स्वीकार किया जाता है। एक ऐसे लोकतंत्र में, जो सांख्यिकीय ज्ञान पर गर्व करता है, आंकड़ों की कमी नियंत्रण का सबसे मजबूत पैमाना बन जाता है।
इसलिए, साइबर अपराध केवल एक तकनीकी चुनौती नहीं है; यह नागरिकता के लिए एक चुनौती है। जब तक डिजिटल दुनिया में अनुभव किए जाने वाले हर प्रकार के नुकसान का भौतिक दुनिया में निपटारा नहीं हो जाता, तब तक भारत का डिजिटल लोकतंत्र छिपे पीड़ितों और गैर मौजूद संख्याओं का संकट बना रहेगा।
(सीजेपी की कानूनी शोध टीम में वकील और प्रशिक्षु शामिल हैं; इस लेख को तैयार करने में प्रेक्षा बोथारा ने मदद की)
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