असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) प्रक्रिया का अंतिम मसौदा 30 जुलाई 2018 को जारी कर दिया गया था, जिसके चलते लिस्ट में जिन लोगों का नाम नहीं आया, वे लोग अब NRC में अपना नाम शामिल करने का आवेदन कर सकते हैं. परन्तु वे लोग इस सुविधा से अब भी वंचित हैं, जिनसे सम्बंधित मामले, फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल या गुआहाटी उच्च न्यायालय में अब तक लंबित हैं. जब तक फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल उन्हें क्लीन चिट नहीं देता है, वे NRC प्रक्रिया में अपना दावा पेश नहीं कर पाएंगे. लेकिन फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा क्लीन चिट मिलना भी इस बात की गारन्टी बिलकुल नहीं है, कि मुश्किलें ख़त्म हो गई हैं. ज़िला नागांव के रहने वाले शमसुल हक़ के मामले में हमने यही पाया है.
65 वर्षीय शमसुल हक़, अब इस भागदौड़ से थक चुके हैं. असम के नागांव ज़िले के गांव में रहने वाले दिहाड़ी मजदूर शमसुल हक़ थके लहजे में कहते हैं, “मैं बस इन सब से निकलना चाहता हूं”. असम में इस तबके के लिए फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में ख़ुद को भारतीय नागरिक साबित करना एक थका देने वाला काम है. मजदूर शमसुल हक़ ने फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (एफटी) में चार बार परीक्षण का सामना किया है! दिलचस्प बात यह है कि उनके मामले में कोई गड़बड़ी नहीं पाई गई है, और चार बार में से तीन बार उन्हें भारतीय नागरिक घोषित किया गया है, अब ये चौथी दफ़ा है कि उनपर फिर वही मुकदमा चलाया जा रहा है!
उनकी आवाज़ में निराशा के साथ गुस्सा भी घुलने लगता है, कहते कहते उनकी आवाज़ तीखी हो जाती है और वो गुस्से से कहते हैं, “मैं इसी धरती में पैदा हुआ हूं, मेरे पिता भी इसी धरती में जन्मे थे. मेरी माँ एक हिन्दू है, तो मैं विदेशी कैसे हो सकता हूं?”
असम में ४०,०७,७०७ लोगों का नाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के अंतिम ड्राफ्ट में नहीं अंकित हुआ है. इससे पहले की यह मानवीय संकट और भी तीव्र और दर्दनाक हो जाए, हम अपनी एक १५ लोगों की टीम भेज रहे हैं जो की क्लेम्स एंड ऑब्जेक्शन प्रक्रिया के अंतर्गत इन लोगों को अपना नाम दर्ज करवाने का एक आखरी मौका दे सके. वकीलों का, दस्तावेजों का, आना जाने का, रहने का खर्चा काफ़ी है. लेकिन आपके योगदान से हम लाखों लोगों को मुफ्त कानूनी सेवा प्रदान कर सकेंगे. कृपया यहाँ डोनेट करके अपना योगदान दें.
शमसुल हक़ को पहली बार 2002 में सीमा पुलिस के अधीक्षक द्वारा फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल भेजा गया था. मामला चला और सुनवाई के बाद (केस संख्या 50/2002) उनके नाम को 2009 में मंजूरी दे दी गई थी. इस मामले में अजीब बात ये है कि 2002 से 2009, जब ये मामला कोर्ट में था उसी बीच साल 2004 में अधीक्षक सीमा पुलिस द्वारा उनका नाम फिर से फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में डाल दिया गया. हालांकि, इस 2004 के मामले (केस नंबर 1/2004) में भी शमसुल हक़ ने 2009 में क्लीन चिट प्राप्त कर ली थी.
जब ऐसा लगा कि कोर्ट कचहरी के ये झमेले ख़त्म हो गए हैं तभी एक नई परेशानी आ खाड़ी हुई, शमसुल हक़ ने पाया कि 2002 ही में अधीक्षक सीमा पुलिस द्वारा उनका नाम फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल को एक और अलग मामले (केस संख्या 539/2002) में भेजा गया था! इस मामले में भी उनके नाम पर 2011 में क्लीन चिट दे दी गई. लगातार 3 बार फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल की जाँच में वे भारतीय नागरिक साबित हुए. पर मुश्किल ख़त्म नहीं हुई. अधीक्षक सीमा पुलिस ने एक बार फिर उनका नाम 2015 में फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (केस संख्या 16 9/2015) में निर्दिष्ट किया और यह मामला अभी भी जारी है.
शमसुल हक़ के वकील हुमायूं कबीर का दावा है, “मेरे मुवक्किल के ख़िलाफ़ किसी भी मामले के संदर्भ में कोई स्पष्ट आधार तय नहीं किए गए हैं.”
शमसुल हक़ ने मतदाता सूची की प्रतियां जमा की हैं जिनमे उनका नाम एक भारतीय मतदाता के तौर पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है.
इस बीच शमसुल हक़ ने ये आरोप लगाया है कि ग्राम पंचायत का सचिव उनके साथ शत्रुता रखता है और उन्हें लगातार परेशान करता है. वकील कबीर कहते हैं, “विदेशी अधिनियम 1946 की धरा 9 के तहत आरोपी पर ही ख़ुद को साबित करने का बोझ होता है, ये प्रावधान सीमा पुलिस द्वारा मनमाने ढंग से किसी को भी नामांकित करना आसान बनाता है.”
शमसुल हक़ का ये मामला एक बहुत ही गंभीर मामला है. ये दिखाता है कि असम के लोगों के लिए ख़ुद को नागरिक साबित करना कितना ज़्यादा कठिन काम है. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी के नाम को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) में तब तक शामिल नहीं किया जा सकता है जब तक कि इसे फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा मंजूरी नहीं दी जाती. शमसुल हक़ के मामले से ये भी साफ़ ज़ाहिर होता है कि फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के बावजूद, इस बात की कतई गारन्टी नहीं है कि दोबारा इस थका देने वाली प्रक्रिया से नहीं गुज़रना पड़ेगा.
हालांकि असम की राज्य सरकार ने लोगों को आश्वासन दिया है कि ‘ NRC मसौदे में नाम न होने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें विदेशी घोषित कर हिरासत केंद्र में ले जाया जाएगा या देश से बाहर निकाल दिया जाएगा. और नागरिकों को दावों और आपत्तियों को दर्ज करने के लिए पर्याप्त अवसर दिया जाएगा.’ लेकिन एक डर ये भी है कि, जैसी प्रताड़ना शमसुल हक़ को झेलनी पड़ रही है, वो दूसरों के साथ भी हो सकता है. क्या किसी भी अधिकारी द्वारा स्थाई समाधान की कोई प्रक्रिया कभी भी लाइ जाएगी? कहीं असम के इन लाखों लोगों का जीवन अपनी नागरिकता साबित करने के इस कपटपूर्ण चक्कर में ही तो नहीं गुज़र जाएगा?
* अनुवाद सौजन्य – अनुज श्रीवास्तव
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