क्या आप बहुसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और आपको अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफ़रती भाषा और हिंसा की बढ़ती घटनाओं से तकलीफ होती है? क्या आपको लगता है कि धर्म का लिहाज़ किए बिना अपने साथी भारतीयों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करना आपका कर्तव्य है? क्या आपको नफ़रत भरी इन चीज़ों पर गुस्सा आता है फिर भी आप मजबूर हैं? क्या आप कुछ ऐसा करने को सोचते हैं जो वाकई समाज में प्रेम और सद्भाव लाए। ऐसी सामुदायिक संस्कृति बने जहाँ सब मिलजुल कर रहें। हम आपके लिए यहाँ कुछ सुझाव पेश कर रहे हैं जो अल्पसंख्यकों के सच्चे सहयोगी बनने में आपकी समझ बढ़ाएंगे और आपकी मदद करेंगे।
सहयोगी बनने के मायने क्या हैं?
सहयोगी, वह व्यक्ति होता है जो ज़रूरत पड़ने पर दूसरे व्यक्ति की सहायता और मदद करे और इस तरह से एक सहयोगी किसी पीड़ित व्यक्ति को सुकून पहुंचाने और सहारा बनने का काम करता है। मुमकिन है कि यह सब जानने के बावजूद भी पीड़ित इंसान आपसे अपने जीवन की पीड़ा और दुख के अनुभव साझा न करें। सहयोगी, सच्चा मित्र होता है जो सबको मिलाजुला कर साथ लेके चलता है। वह किसी भी तरह के बहिष्कार, भेदभाव या उत्पीड़न झेलने वालों के साथ खड़ा होता है। सहयोगी, दूसरों के संघर्षों के बारे में जानने के लिए भरपूर कोशिश करता है और सुरक्षित जगह बनाने और उसे कायम रखने में मदद भी करता है। सबसे अहम बात यह कि एक सहयोगी समझता है कि सहयोग का मतलब नेतृत्व करना नहीं होता। इसलिए वह लोकप्रियता बटोरने के बजाए सहयोग करने पर ही ध्यान केंद्रित करता है।
अल्पसंख्यकों के अच्छे सहयोगी बनने के लिए यहाँ पर क्रमवार ढंग से कुछ तरीके बताए गए हैं।
पहला चरण : खुद को शिक्षित करें
हम यह समझ सकते हैं कि नफ़रती हिंसा के शिकार या बचे हुए उत्पीड़ित लोगों और आपके अपने जीवन के अनुभव और तजुर्बे में बहुत फर्क होता है। शायद आप यह नहीं समझ सकते हैं कि चुन–च़ुन कर निशाना बनाया जाना कैसा होता है। हिंसा के बढ़ती हुई आशंका के बीच जीवन बिताने पर क्या महसूस होता है। इस सबको समझने के लिए सिर्फ समाचार रिपोर्टें देखना या कुछ पढ़ लेना ही काफी नहीं होता। हमें ऐसा करना चाहिए कि ऐसे पीड़ित लोगों या पीड़ित समुदायों की आपबीती रिपोर्टें देखें और पढ़ें क्योंकि किसी के द्वारा खुद उसके अपने शब्दों में कही गई बात सबसे विश्वसनीय स्रोत होती है जिससे हमें बहुत कुछ जानने-समझने को मिलता है। लेकिन यह सब सुनने के लिए अपने आपको मज़बूत और तैयार करना होता है क्योंकि इन कहानियों को सुनना इतना आसान नहीं होता।
कई बार पीड़ित अपनी कहानी और अपने विचार खुद अपने ब्लाग के माध्यम से बताते हैं मिसाल के तौर पर :
“सुल्ली डील्स” दलाली या नीलामी स्कैंडल के रूप में ऑनलाइन उत्पीड़न का शिकार बनाई गई युवती की आपबीती रिपोर्ट (नूर महाविश द्वारा लिखा और सीजेपी पर प्रकाशित किया गया ब्लॉग)
यहाँ तक कि परंपरागत सवाल–जवाब के रूप में भी छोटे सवाल और उनके विस्तृत जवाब की शकल में अच्छी आपबीती रिपोर्ट मौजूद है। मिसाल के तौर पर :
रवांडा के जनसंहार के उत्पीड़कों के कटु अनुभव बयान करती हुई रिपोर्ट है (संयुक्त राष्ट्र द्वारा अफ्रीका रिनिवल में प्रकाशित)
कभी-कभी मीडिया या प्रकाशकों द्वारा उनके साक्षात्कार को अलग तरीके से पेश किया जाता है जहाँ उत्पीड़ितों और उत्तरजीवियों के उद्धरणों को प्राथमिकता दी जाती है। उन उद्धरणों को एक साथ लाने के लिए कम वाक्यों का प्रयोग किया जाता है। इस तरह से अपनी कहानी कहने के बजाय पीड़ितों के कहे हुए को ज़्यादा तरजीह दी जाती है।
आज़ाद मैदान हिंसा के तीन प्रत्यक्ष दर्शियों के बयान (मूल रूप से मिड डे में प्रकाशित, एनडीटीवी द्वारा पुनरप्रकाशित)
मुज़फ्फरनगर में जीवित बची बलात्कार पीड़िता जिसने अपनी कहानी को बयान किया है (द क्विंट में प्रकाशित)
रूपा बहन, मोदी साशन में हुए गुजरात 2002 के दंगों के दौरान लापता हो गए अपने बेटे अज़हर की तलाश पर बातचीत (सीजेपी पर प्रकाशित)
दूसरा चरण : अपने विशेषाधिकार या प्रिविलेज होने की पड़ताल करें
प्रिविलेज होने का मतलब समझने का आसान तरीका यह है कि आप इस बात पर विचार करें कि आपको किस तरह के अनुभवों ने नहीं गुज़रना पड़ा है बजाए इसके कि आपका अपना अनुभव क्या है। क्या आपको अपने धर्म के कारण या किसी ख़ास मज़हब का होने के कारण कभी कोई नौकरी, कर्ज़-उधारी या किराए पर मकान देने से मना किया गया है। अगर नहीं, तो उन लोगों की तुलना में आप विशेषाधिकार या प्रिविलेज प्राप्त व्यक्ति हैं, जिनको इस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ा है या करना पड़ता है। विशेषाधिकार या प्रिविलेज होना हमेशा सापेक्ष होता है। किसी के रास्ते की रुकावट बनने में अक्सर नस्ल, लिंग, जातीयता, धर्म, विलांगता, सेक्सुअल ओरिएंटेशन आदि चीजें बड़ा किरदार अदा करती हैं। ये ऐसी चीजें हैं जो हमारे भीतर विभाजन या अलगाव पैदा करती हैं।
वास्तव में नेतृत्व देने वाली या रिप्रजेंट करने वाली आवाज़ें और राय-मशविरे अहम होते हैं। मिसाल के तौर पर, कोई मशहूर टीवी चैनल किसी अल्पसंख्यक चेहरे या आवाज़ को हमारे अपने समाज या अपने राज्य से असहज सवाल करने की अनुमति देने से रोक सकता है और यह एक तरह की पितृसत्तात्मक सोच है। इनमें से कुछ को वह “अपनी ओर से” बोलने के लिए या आवाज़ उठाने के लिए भले ही “तरजीह” दे सकता है।
नागरिक अधिकार समूह या सिविल राइट ग्रुप महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक मुद्दों पर न्यायालयों में हस्तक्षेप कर सकते हैं। लेकिन कितने लोग इस बात को यकीनी बनाते हैं कि पहला स्थान, नाम और आवेदन उसी उत्पीड़न की उत्तरजीवी के नाम से हो जिसके दुखों और मुश्किलों के हल करने की मांग मुकदमे में की गई है।
दलित नारीवादियों को अक्सर इस बात का अनुभव होता है कि दलित पुरूष भी उच्च जाति और वर्ग के नारीवादियों के साथ मामलात हल करना पसंद करते हैं। इसके बजाए वे अपने आसपास या अपने समुदाय की महिलाओं से अंदुरूनी सच्चाई सुनना पसंद नहीं करते जो जाति बहिष्कार और उससे भी बढ़कर समुदाय के पुरूषों के अस्वीकार किए जाने, (पितृसत्ता के अस्तित्व) दोनों पर बात करती हैं।
दलित नारीवादी आंदोलन की दिल दहला देने वाली यह पंक्तियां हैं, “दिन में अछूत, रात में छूत” यानि दिन में नहीं छूने योग्य और रात में छूने योग्य। भारत के अमीर और उच्च वर्गीय और प्रिविलेज वाले समाज के लोगों को दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक महिलाओं के बलात्कार जैसे मामलों का सामना नहीं करना पड़ता है।
देखा जाए तो पैसा हमेशा प्रिविलेज होने या विशेषाधिकार पाने का ज़रिया नहीं होता। उत्पीड़न का सामना करने वाले हर व्यक्ति को आर्थिक चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता है और कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि का हर व्यक्ति “गरीब” लोगों के साथ जुड़ी घिसी पिटी रवायतों में फिट नहीं बैठता है। इसकी एक आम मिसाल सीरियाई शरणार्थियों की है। उनके संघर्ष को कोई सिर्फ इसलिए कैसे खारिज कर सकता है कि उनमें से कुछ के पास सेल फोन देखे गए। कुछ जरूरी भौतिक सामग्री का होना उनके संघर्ष के पीछे के तर्क की गंभीरता को कम नहीं कर देते। सीरिया के नागरिकों को युद्ध के कारण अपने घर छोड़ कर भागना पड़ा था।
तीसरा चरण : संवाद करें, सुनें और भरोसा करें
क्या एक बच्चे के रूप में या स्कूल कॉलेज के दौरान आपको कभी किसी सहपाठी या दोस्त के साथ अपनी टिफिन न साझा करने या आपके खाने से हिस्सा बटाने का अनुभव रहा है? हमारे शहरों में, पड़ोस में, स्कूल और ऑफिसों में ऐसा रोज़ होता रहता है।
अक्सर लोग अपने दायरे में ही रहते हैं। उनके दोस्तों का दायरा भी उनके आर्थिक–सामाजिक स्थिति से बहुत अलग नहीं होता। इस तरह, बहुसंख्यक समाज के बहुत से लोगों के दोस्त या सहकर्मी दोस्त किसी दूसरे धर्म के नहीं होते। लेकिन अगर आपको कोई ऐसा मिल जाए जो अपना अनुभव साझा करना चाहता है तो उनसे बात करें … इससे भी अहम यह है कि उनकी बात सुनें। संभव है कि वे जो कुछ भी कहें उनमें से बहुत सारी चीज़ों से आप को सदमा और हैरत हो लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह सब सच नहीं है।
जब वे भेदभाव या हिंसा से जुड़ी कोई हैरत अंगेज़ घटना का अनुभव या उसकी कोई कहानी सुनाते हैं तो आपको उनकी बात पर भरोसा करना चाहिए। यह आप पर लगाया जाने वाला कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं है। आप सिर्फ इसलिए बचाव की मुद्रा में मत आ जाइये कि जिसने उस व्यक्ति के साथ बुरा बर्ताव किया है या जो किसी तरह का अपराधी रहा है, वह और आप एक ही धर्म से ताल्लुक रखते हैं। वैसे ध्यान से देखें जो हिंसक अपराधी होते हैं वे धर्म की शिक्षाओं से हमेशा भटके हुए लोग होते हैं। क्योंकि सभी धर्म शांति और सद्भावपूर्ण के साथ मिलजुलकर रहने की बात करते हैं। इसलिए, उत्पीड़ितों और उत्तरजीवियों पर विश्वास करके आप अपने धर्म या समुदाय को कोई धोखा नहीं दे रहे हैं।
हमने दुनिया में ऐसे कई उदाहरण देखे हैं जब संवाद और बातचीत से लोगों और समुदायों के बीच पैदा हुए फासले को मिटाया जा सकता है। भारत में भी ऐसे प्रयास किए जा चुके हैं – कश्मीरी पंडितों और घाटी के मुसलमानों के बीच। जहाँ भीड़ और आतंकवादी हिंसा के पीड़ित उत्तरजीवियों के लिए संवाद की एक जगह बने इसके लिए कुछ छोटे-छोटे कदम उठाए गए हैं। हमारे द्वारा ऐसे प्रयास आवासीय सोसाइटियों, बस्तियों और ऑफिस की जगहों पर किए जा सकते हैं। इस दिशा में बढ़ने वाला हर एक कदम इस बात को अहमियत देता है कि किसी को सुनना बेहद ज़रूरी है और यह एक तरह की कुंजी है। संवाद से समाधान संभव है।
चौथा चरण : इनकार मत करो, आरोप मत लगाओ
आज भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो अल्पसंख्यकों पर होने वाले ऐतिहासिक उत्पीड़न के उदाहरणों को नकारने के लिए षडयंत्र या साजिश का सिद्धान्त (conspiracy theories) गढ़ते हैं। नाज़ियों द्वारा छः मिलियन यहूदियों के उत्पीड़न और हत्या के भयावह सबूतों के बावजूद आज भी होलोकॉस्ट का इनकार करने वाले लोग मौजूद हैंǃ यह नकार ही उस यकीन और विश्वास के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट है और अगर आप किसी पर भरोसा नहीं करते तो आप उसके दोस्त या सहयोगी कैसे बन सकते हैं? इसके अलावा हम यह भी देखते हैं कि लोग पीड़ितों की कहानियों को झुठलाने के लिए अलग-अलग तरह के दावपेच अपनाते हैं। उत्पीड़ित होना या उत्पीड़न की सच्चाई और पूर्वाग्रह के बारे में एक अजीब बात यह भी है कि उत्पीड़ित व्यक्ति को ही अपराधी बनाया जा सकता है। हम यह भी देख सकते हैं कि एक समुदाय जिसने बेहद बुरे तरह का विध्वंस झेला है कुछ दशक बाद वह ताकतवर बन सकता और प्रिविलेज पा सकता है। ऐसे में वह वह भेदभाव और बहिष्कार का प्रचार भी कर सकता है।
झुकाव (Deflection) : मनोविज्ञान में यह झुकाव एक तरह के बचाव को कहते हैं। इसमें आप अपने बचाव के लिए किसी और पर आरोप लगाने का प्रयास करते हैं। यह आत्ममोही व्यवहार की रणनीति होती है और सोच-समझ के साथ किया जाने वाला आचरण होता है। इसका सामान्य तरीका यह कहना है कि “तो क्या नया हो गया”, यह एक ऐसी आदत है जहाँ कोई अपनी बात को पूरा करते-करते अंततः अप्रत्यक्ष रूप से यह समझाने की कोशिश करता है कि पीड़ित पक्ष इसी का हकदार था। क्योंकि सदियों पहले उनके समुदाय के किसी और व्यक्ति ने ऐसा ही कुछ किया था। इस बात के क्या मायने हो सकते हैं कि 300 साल पहले मर चुके औरंगज़ेब के कथित गुनाहों के लिए आज के भारतीय मुसलमानों को सज़ा दी जाए।
भ्रमित करना और प्रतीकात्मक ढोंग करना : कुछ लोग यह कह कर एक भ्रम पैदा करते हैं कि बुरे अनुभवों के बजाए अच्छी चीजों पर ध्यान देना चाहिए। लेकिन यह किसी उत्पीड़ित को असहज करने वाली सच्चाई और कष्टकारी अनुभवों को छिपाने-दबाने या नज़रअंदाज़ करने की दूसरी तरकीब भर है। कुछ अन्य लोग साफ-सुथरे बनने और दिखावा करने के लिए कहते हैं कि कैसे उन्होंने अल्पसंख्यकों के खिलाफ कभी भेदभाव नहीं किया। ऐसे लोग अक्सर किसी दोस्त या सहकर्मी के बारे में लम्बी-लम्बी कहानियां सुनाते हैं कि उसके साथ ईद पर बिरयानी खाई या क्रिस्मस पर सैंटा पार्टियों का आयोजन किया। ऐसा करने से अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव या हिंसा से सम्बंधित दुनिया की वास्तविक समस्याओं के समाधान में कोई ख़ास मदद नहीं मिलती है।
इसके अलावा, अलग-थलग करना या भेदभाव करना और नकारना अक्सर पूर्वाग्रह के आधार पर होता है। हकीकत यह है कि बाल संरक्षण केंद्र (child care centre) या आस-पड़ोस के लोग और स्कूलों में त्योहार तो मनाते हैं लेकिन ईद या बुद्धपूर्णिमा की बात नहीं करते। ऐसे त्योहारों में आपको समुदायों की या समूहों की विविधता भी नहीं दिखाई पड़ती। यहाँ अलग-अलग समुदायों की गैर मौजूदगी दिखाई पड़ती है।
कभी-कभी हमारे चारो तरफ फैले नफ़रत की टकराहट से बचने के लिए अल्पसंख्यकों की जगहों पर या अल्पसंख्यक आबादियों में शांति बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। विविधता और धर्मनिर्पेक्षता का उपदेश देने का कार्यक्रम चलाया जाता है। यह मात्र एक तरह का टोकेनिज़्म है। जो प्रतीकात्मक तरह का उपाय है। क्योंकि यह सब सिखाने-पढ़ाने की ज़रूरत अल्पसंख्यक समुदाय को नहीं बल्कि बहुसंख्यक समुदाय के उन लोगों को है जो या तो खामोश रहते हैं या नफ़रत फैलाने में सहभागी होते हैं।
गैसलाइटिंग (सच्चाई पर सवाल खड़ा करना) : यह (गैसलाइटिंग) शब्द 1944 में अमरीका के इंग्रिड बर्गमैन की इसी नाम की मनोवैज्ञानिक सनसनीखेज़ फिल्म से आता है। इस फिल्म में एक युवती को उसका पति धीरे-धीरे छलपूर्वक यह विश्वास दिलाता है कि उसका दिमाग काम नहीं कर रहा है। जब अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की कहानियों की बात आती है तो बहुसंख्यक समाज के लोगों के लिए यह स्वीकार कर पाना मुश्किल होता है कि ऐसी चीज़ें अब भी होती हैं। अक्सर खुद को बेहतर महसूस करने के प्रयास में उत्पीड़ितों को यह बताने का प्रयास करते हैं कि वे अपने सदमें को ठीक से नहीं याद कर पा रहे हैं। ऐसा भी हो सकता है कि यह केवल उनकी कपोल कल्पना हो। वे कोई और ही कहानी या बात पेश करके ऐसे लोगों की सच्चाई पर सवाल खड़ा करते हैं। कुछ अन्य लोग अपनी विश्वसनीयता का लोहा मनवाने के प्रयास में अन्य लोगों की सच्चाई पर सवाल उठाते हैं जो खुद अपने आप में एक बुरे तरीके का बर्ताव है।
लेकिन (गैसलाइटिंग) की यह इच्छा अक्सर ज्ञानात्मक मतभेद की वजह से दोबारा पैदा होती है। यह एक तरह का मानसिक द्वंद है जो तब पैदा होता है जब आपका अनुभव आपके विश्वासों से मेल नहीं खाता। इसलिए अगर आपको यह विश्वास करने के लिए उकसाया गया है कि आपका समुदाय आक्रामकता के काम में कभी शामिल नहीं हुआ, लेकिन आपने अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति से बात की है जिसने हिंसा झेली है तब आपके मन में गैसलाइटिंग के इस तरह के आर्गुमेंट को गलत साबित करने की इच्छा का आभास हो सकता है। लेकिन ऐसा न करेंǃ
व्यावस्था का प्रश्न : हर सम्पन्न समाज की कुछ काल्पनिक कहानियां होती हैं। साहित्य के नोबुल पुरस्कार विजेता और मिग्र के मशहूर लेखक नग़ीब महफूज का मशहूर लेख है। भारत की काल्पनिक कहानियों या मिथकों पर तथाकथित “उच्च” जाति के प्रिविलेज लोगों दबदबा रहा है। यह काल्पनिक कहानियां इसे अहिंसक सभ्यता बताती हैं। अगर इतिहास का तर्कसंगत ढंग से अध्ययन किया जाए तो यह हमें इसके विपरीत बात बताता है। महावीर से लेकर बुद्ध तक और बसावन्नह से लेकर कबीर तक को चुनौती देने वालों ने तार्किकता, समावेश और हिंसा को प्रोत्साहित किया है। इससे हिंसा और अलग-थलग करने दोनों के निषेध के महत्व का पता चलता है।
उपहास और महत्त्वहीनता : हम इसी तरह के चुटकुले कहते–सुनते बड़े हुए हैं जिनके बारे में हमें यकीन दिलाया जाता था कि यह हानि पहुंचाने वाले नहीं है। लेकिन वास्तव में यह सब अल्पसंख्यकों के प्रति घिसी पिटी धारणा बनाते हैं। इस प्रकार उनके मान सम्मान पर हमले को सामान्य घटना के तौर पर और उनकी तकलीफों को कम करके दर्शाया जाता है। यह उनका अमानवीकरण भी करते हैं जो उनको टार्गेट करना आसान बना देता है। हम सब साम्प्रदायिक गालियों और दुर्व्यवहारों से परिचित हैं। हमें अब महसूस करना चाहिए कि उन गालियों का “अनौपचारिक” इस्तेमाल भी ठीक नहीं है। हमें समझना चाहिए कि अलग-अलग लोगों के रीति रिवाज और धर्म आधारित प्रथाएं एक दूसरे से भिन्न हैं। जब तक कोई देश का कानून नहीं तोड़ता है या दूसरे व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचाता है तब तक हमें चाहिए कि एक दूसरे के साथ अधिक से अधिक घुलमिल कर रहें और एक-दूसरे का सम्मान करें व इसके प्रति सहज बने रहें। इससे सकारात्मक आलोचना में कोई रुकावट नहीं पैदा होती। मिसाल के तौर पर, महिला जननांगों की विकृति (female genital mutilation) या बाल विवाह के खिलाफ बोलना ज़रूरी है लेकिन उसका उद्देश्य सुधार लाना होना चाहिए, नरसंहार को सही ठहराने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
हालांकि, ऐसे मज़ाक और परिहास जो प्रिविलेज और सुविधा पर चोट करते हों वे केवल महत्वपूर्ण ही नहीं होते बल्कि प्रतिक्रिया से रहस्य खोलने वाले भी होते हैं क्योंकि ‘हम बहुसंख्यकों’ से प्रतिक्रियाएं निकाल कर सच की घंटी बजाते हैं।
पाँचवाँ चरण : कोई गुस्सा नहीं, कोई बार्गेनिंग नहीं, बस स्वीकार्यता
मनोविज्ञान में गुस्सा और बार्गेनिंग दुख के साथ समझौता करने से पहले के दो चरण होते हैं। जब अपने समुदाय या अपने पूर्वजों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के मामले सामने आते हैं तो बहुत से लोग नाराज़ हो जाते हैं। ऐसा शायद ज्ञानात्मक मतभेद के बोझ के कारण होता है। यह अच्छी बात है कि आप अपने पूर्वजों के भेदभाव या विरासत को जारी नहीं रखे हुए हैं। लेकिन अगर आप अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न में उनकी भूमिका को स्वीकार नहीं करते हैं तो आप किसी और को नहीं बल्कि अपने आपको मूर्ख बना रहे होते हैं। हो सकता है कि आप भी अंत में पतित होकर व्यवहार का वही तरीका अपना लें। याद रखें, गुस्सा आपके अंदर घर कर चुका एक तरह का भय होता है। हालात को बदलने की बेबसी के कारण यह पैदा होता है। लेकिन जैसे ही ऐतिहासिक अन्याय को आप स्वीकार कर लेते हैं उसी दिन शांति, न्यायसंगत और एक स्थायी तरीका अपना सकते हैं और चीजों को ठीक कर सकते हैं ताकि पुराना घाव भरना शुरू हो सके।
जब बात सहयोगी बनने की आती है तो चाहे आप कितने भी जागरूक हों इस बात की संभावना होती है कि अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न में अपने समुदाय या पूर्वजों की भूमिका को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाएं। इसके बारे में बुरा महसूस करने से भी बचते हैं। इसलिए आपके इरादे नेक होने के बावजूद अपने बारे में बुरा महसूस करने से बचने के प्रयास में अंततः एक तरह की बार्गेनिंग या सौदेबाज़ी में लिप्त हो जाते हैं। लेकिन आपको चाहिए कि अपने आपको याद दिलाएं कि यह सब आपके बारे में नहीं है। समुदाय में किसी को भी अलग तरह के बर्ताव की इच्छा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि आप यह महसूस करते हैं कि आप अपने समुदाय में दूसरों से “बेहतर” हैं। अपनी कहानियों में हम सब नायक हैं। यहाँ तक कि घृणा और नफ़रत में लिप्त अपराधियों को भी लगता है कि वे सही कर रहे हैं और न्याय और नतीजों के जरिए उनकी हिफाज़त की जानी चाहिए।
हाल के दिनों में दिखावटी और बनावटी सहयोगियों के संदर्भ में बार्गेनिंग या सौदेबाज़ी के दो उदाहरण सामने आए हैं। पहला #MeToo के जवाब में #NotAllMen आया और दूसरा #BlackLivesMatter आंदोलन के जवाब में #AllLivesMatter आया। यह लैंगिक और नस्लीय आधार पर दुर्व्यवहार के पीड़ितों से ध्यान हटाने के लिए था और इसके बजाए इस बात पर ध्यान केंद्रित करने का मज़बूत प्रयास था कि कैसे दुर्व्यवहार के समुदाय के लिंग और नस्ल से जुड़े लोग सम्मान के योग्य हैं। दरअसल बारीक तौर पर देखा जाए तो ऐसा करना एक तरह से उल्टा हमला करने जैसा है और इसलिए यह उसी तरह के दुर्व्यवहार के दायरे में आता है।
छठा चरण : उनसे पूछें कि उनको किस चीज़ की ज़रूरत है
सहयोगी बनने में यह एक महत्वपूर्ण कदम है और इसीलिए यह समाधान का हिस्सा भी है। लेकिन इसी जगह पर ज्यादातर लोग सब कुछ अपने लिए करने के चक्कर में कमज़ोर पड़ जाते हैं। अल्पसंख्यकों की सहायता करना कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसके जरिए आपको अपनी छवि चमकाने का मकसद हल करना चाहिए। आपको ऐसा इसलिए करना चाहिए कि यह बुनियादी इंसानी शराफत हैǃ इसलिए आप जब भी मदद की पेशकश करें, हमेशा पूछें कि उनको किस चीज़ की ज़रूरत है बजाए इसके कि आप क्या कर सकते हैं। ध्यान उस व्यक्ति पर होना चाहिए जिसे सहायता की ज़रूरत है उस व्यक्ति पर नहीं जो उस सहायता को कर रहा है या मददगार की भूमिका निभा रहा है।
सातवाँ चरण : संकट की स्थितियों में मौजूद रहें
एक सच्चा सहयोगी संवाद की अहमियत को समझता है। इसलिए आप अल्पसंख्यकों को जब भी संकट में पाएं उनका सहयोग करें। भेदभाव और हिंसा के खिलाफ खड़े हों और बोलें। उनके लिए इंसाफ की मांग करें। जहाँ उनके जीवन और सुरक्षा को खतरा हो उन्हें पनाह दें। बहुसंख्यक समाज के सदस्य की हैसियत से अपने विशेषाधिकार या प्रिविलेज होने का प्रयोग करें। समुदाय के अंदर दूसरे लोगों से बात करें कि वे तर्क पर ध्यान दें और हिंसा से परहेज़ करें।
पास पड़ोस में पहरेदारी की व्यवस्था करें (मोहल्ला कमेटी)
यह आसपास के विविध लोगों का समूह होता है जो पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों से सम्पर्क बनाए रखता है। जब मोहल्ला कमेटियों में अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व होता है तो साम्प्रदायिक आग भड़कने की सूरत में हिंसा से उनकी रक्षा करने में यह मददगार होता है।
यह अनुभव उन्मादी सामाजिक टकराव और साम्प्रदायिक हिंसा से ही विकसित हुए हैं। हालांकि, इसके लिए रचनात्मकता और एक स्थायित्व की भी ज़रूरत होती है। किसी अन्य बात से अधिक इसका सहभागी होने की ज़रूरत है। इसके पीछे का विचार यह है कि आस-पड़ोस या बीट समूह को साथ लाया जाए और स्थानीय पुलिस स्टेशन के साथ उनका ऐसा जुड़ाव बनाया जाए जिस पर सब यकीन कर सकें। इसके पीछे धारणा यह है कि हम सभी की तरह पुलिस वाले भी इंसान हैं और नागरिक–पुलिस के एक साथ जुड़ाव से उनको भी फायदा होगा। नियमित सम्पर्क, संवाद, पुलिस पर प्रहरी जैसा काम करता है। हर वर्ग और प्रकार के लोगों की भागीदारी का मतलब होता है समुदायिक मामलों में सभी की साझादारी।
अगर नफ़रत को बढ़ावा देने वाली अफवाह घिनौनी कानाफूसी या नफ़रती भाषण या लेख के माध्यम से फैलाई जा रही है तो ज़मीन पर मौजूद आस-पड़ोस के (मोहल्ला/एकता समितियों) यह समुदायिक सदस्य अक्सर चेतावनी देने या चेतावनी संकेतक का काम करते हैं। स्थानीय पुलिस के साथ निरंतर जुड़ाव हम सबको किसी उन्माद और तनाव को बढ़ावा देने की संभावना से सचेत कर देता है। नागरिकों की तरफ से शांति बनाए रखने की मांग एक सकारात्मक प्रोत्साहन का काम करती है। महिला-पुरुष और पुलिस सबके एक साथ आसपास की नियमित गतिविधियों को करने, जैसे- खेलकूद का आयोजन, फिल्म दिखाना, यहाँ तक कि किताबें पढ़ना आदि से दीर्घकालिक और स्थायी संबंध विकसित होता है। दरअसल यह विचार सक्रिय और सचेत समुदायिक जुड़ाव के माध्यम सेकिसी भी तरह की हिंसा को रोकने का है।
अलग से बस्ती बसाने के खिलाफ आवाज़ उठाएं
संकट के समय अक्सर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को सहायता नहीं मिल पाती क्योंकि उन्हें अलग बस्तियों में रहने के लिए मजबूर कर दिया गया है। आमतौर से इन बस्तियों की मंसूबाबंदी बहुत खराब होती है और बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव होता है। अधिकांश पृथक बस्तियां तब वजूद में आती हैं जब अल्पसंख्यकों को उनके मूल घरों से विस्थापित कर दिया जाता है और वे खुद अपनों के या अपने समुदाय के बीच में ही रहने को मजबूर कर दिए जाते हैं। ऐसा मुम्बई जैसे महानगर में भी हो चुका है जो अधिक सचेत और खुला समाज माना जाता है। मिसाल के तौर पर, गुजरात के शहरों में दशकों से अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति रवैया सख्त हो चुका है। कुछ लोगों को इसमें सुरक्षा का अक्स दिखाई दे सकता है लेकिन यह परखने की ज़रूरत है कि पहली जगह पर वे असुरक्षित क्यों महसूस करते थे। अलग बस्तियां बसाने से अलगाव बढ़ता है और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना आसान हो जाता है।
ज़्यादा मिलाजुला पड़ोस जहाँ रहवासियों का समबंध अलग-अलग धर्मों और जातियों से हो वहां सबकी पहुँच, सभी सुविधाओं तक सुनिश्चित होगी और किसी आपात हालत में किसी को भी सहायता से वंचित नहीं होना पड़ेगा। वास्तव में हम गौर से देखें तो सभी वर्गों और समुदायों में दक्षिणपंथी लोग ही धर्म और जाति और समुदाय के आधार पर अलग बस्तियों को बसाने की वकालत करते हैं। क्योंकि वे इसको विविधता के बजाय एकरूपता को बनाने और असहमति की आवाज़ पर काबू करने के तरीके के रूप में देखते हैं। बहुसंख्यकवादी दक्षिणपंथी इस एकरूपी सांस्कृतिक आधार का इस्तेमाल ‘अल्पसंख्यको’ की रूढ़िवादी धारणा के स्थाई रूप देने के उदाहरण के तौर पर पेश करता है। हो सकता है कि यह सच्चाई की एक तस्वीर पेश करता हो लेकिन यह पूरा का पूरा सच नहीं है।
सहयोगी के रूप में हमारे स्थायी और लंबे जुड़ाव के लिए हमेशा यह सुनिश्चित करना चाहिए कि साझा और मिलेजुले विविधता भरे आस-पड़ोस को बढ़ावा मिले और हमें इसे प्रोत्साहित करना चाहिए। खाने-पीने की आदतों और संस्कृतियों का फिर से प्रचार किया जाए ताकि ऐसा लगे कि हम अलग-अलग समुदायों की अलग-अलग बस्ती बसाए जाने के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं। अलग-थलग करने या भेदभाव से परे भोजन साझा करना, यहाँ किसी को भोजन देने और साझा करने की सांस्कृति प्रथाओं को समझना, यह सब बेहद ज़रूरी है। जो एक बेहतर सुकून भरी समझ और सीख दोनों विकसित कर सकता है। इससे न तो दिमाग़ में अलग बस्ती बनती है और न ही आस-पड़ोस में अलग बस्ती बनती है। यह दोनों तरह की अलग बस्तियों को खतम करने में हमारी मदद कर सकता है।
आठवाँ चरण : माइक आगे बढ़ाएं
जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि सहयोगी होने का मतलब नेतृत्व करना नहीं है बल्कि सहयोग करना है। इसलिए अगर आपके पास कोई मंच है जो लोगों तक पहुंचने में मदद कर सकता है और शायद उनकी सोच-समझ को बदल सकता है तो उस मंच का उपयोग करने के लिए अल्पसंख्यकों को आमंत्रित कीजिए। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण यह है कि जब आर०जे० साइमा ने आकाश बनर्जी का यू ट्यूब शो देशभक्त को गिटहब नीलामी ऐप के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए लिया था। तब इस ऐप पर उन मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरें छेड़छाड़ करके उन्मादी तत्वों द्वारा अपलोड की जाती थी। ये उन्मादी लोग इन महिलाओं को अपनी स्वतंत्र राय और अपने विचार रखने के लिए शर्मसार और बदनाम करना चाहते थे। बनर्जी ने दिखाया कि किस तरह से सिस-जेंडर (cis-gender), हेट्रोसेक्सुअल (heterosexual), “उच्च जाति” के हिंदू पुरूष बेहद साधारण काम करके मुस्लिम महिलाओं का सहयोग कर सकते हैं। उन्होंने अपना माइक साइमा की तरफ बढ़ा दिया और उसने खुद अपनी और अपने जैसी अन्य महिलाओं की कहानी सुनाई जिन्हें इस एप्प के जरिए निशाना बनाया गया था।
नौवाँ चरण : शांतिपूर्ण ढंग से रचनात्मक विरोध करें
अगर आपको अन्याय का सामना नहीं करना पड़ रहा है तब भी इसका विरोध करना महत्वपूर्ण है। हालांकि, आपको अपने और उन लोगों के बीच फर्क बनाए रखना बेहद अहम है जो ज़ुल्म करते हैं और अल्पसंख्यकों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। ऐसा करने का सबसे आसान तरीका हिंसा से परहेज़ करना है। शांतिपूर्ण और रचनात्मक विरोध समाज पर एक ज़रूरी और दूरगामी प्रभाव डालता है। विरोध में कविता पाठ का सत्र या कला और फोटोग्राफी की प्रदर्शनी आयोजित कीजिए। यह चीज़ें उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों द्वारा चुनौतियों का समाना करने वालों और पीड़ा से जीत हासिल करने को दर्शाती हैं। इस बात पर यकीन बनाएं कि आपके नारों और कलाकृतियों की भाषा में कहीं भी किसी तरह की आक्रामकता न हो। ऐसा असामान्य रूप से लीक से हट कर पार्क, कैफे, चाय की दुकान, नुक्कड़, रेलवे स्टेशन, रेलवे प्लेट फार्म, शहर के चौराहे पर करें जहाँ पर लोग खुद-ब-खुद इकट्ठा होते हैं।
दसवाँ चरण : खुद को और ज़्यादा शिक्षित करें, दोस्तों और परिवारों तक पहुंच बनाएं
अक्सर खाने की मेज़ पर और बातचीत में इस तरह के नफ़रत का मवाद भरता है और बाद में इसका सामान्यीकरण हो जाता है क्योंकि परिवार ही हमारी सोच-समझ और मानसिकता को बनाता है। उसके बाद यह नफ़रत स्कूल की कक्षाओं, बेडरूम और समाचार कक्षों में फैल जाती है … लेकिन यह सब खाने के मेज़ की उन्हीं घरेलू चर्चाओं से शुरू होती हैं, बड़ों की बातें बच्चों के दिमाग़ को ढालने का काम करती हैं। उसके बाद वे अजीवन उन पूर्वाग्रहों को ढोते हैं।
खामोशी विकल्प नहीं है। जैसा कि रोमानियाई मूल के अमरीकी लेखिका, प्रोफेसर, राजनीतिक कार्यकर्ता, नोबल पुरस्कार विजेता और होलोकास्ट के पीड़ित एली वीज़ेल ने कहा है, “निष्पक्षता हमेशा अत्याचारी की सहायता करती है, पीड़ित की कभी नहीं। खामोशी हमेशा उत्पीड़क की हिम्मत बढ़ाती है, उत्पीड़ित की कभी नहीं। कभी-कभी हमें हस्तक्षेप जरूर करना चाहिए। जब मानव जीवन खतरे में हो, जब मानवीय गरिमा पर संकट हो तो राष्ट्रीय सीमाएं और संवेदनाएं अप्रासंगिक हो जाती हैं”। यह अक्सर ही दुखदायी होता है लेकिन जब कोई अपना प्यारा या परिवार से संबंधित होता है तो चोट भी पहुंचती है। हमें समझना चाहिए कि ऐसे हालात में खामोशी के पीछे एक अस्वभाविक सान्त्वना छिपी होती है। निजी या सार्वजनिक हर जगह पर सह-अपराध के बुलबुले को फोड़ना चाहिए। अगर ऐसी जगहों पर आपको अकेलेपन या अकेले पड़ने का एहसास होता है तब भी यह करना चाहिए। क्योंकि अपने छोटे परिवार में आप भले अकेले पड़ें लेकिन मानवता के परिवार में आपका परिवार और भी बढ़ जाएगा।
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