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कश्मीर फाइल्स फ़िल्म घटना को बढ़ाचढ़ा कर और तथ्यात्मक रूप से ग़लत पेश करती है : संजय टिक्कू

1989-90 में संजय टिक्कू की उम्र तकरीबन 20 साल थी। वे कश्मीरी पंडितों के पलायन के चश्मदीद गवाह हैं। अपनी इस खास बातचीत में वे घटनाओं को वास्तविक तौर पर याद करते हैं। वे बताते हैं कि कश्मीर फाइल्स फिल्म इसे बेहद नाटकीय तरीके से दर्शाती है। उन्हें डर है कि यह समुदायों के बीच में ध्रुवीकरण पैदा करेगी और नफ़रत फैलाएगी। संभव है कि यह जम्मू और कश्मीर के लोगों के बीच हिंसा को उकसाने का काम करे। वे नहीं चाहते कि पुरानी चीजें फिर से दोहराई जाएँ।  

1989 और 1990 में घटनाओं का क्रम क्या था? क्या आप पूरे माहौल (भय और डराने धमकाने) के बारे बता सकते हैं?

वास्तव में इसकी शुरूआत 1988 में उस समय हुई जब कुछ वाहनों और गाड़ियों में बम धमाके हुए जिन पर ‘भारत सरकार’ लिखा हुआ था। इन वाहनों का इस्तेमाल सरकारी अफसरों द्वारा किया जाता था। उस समय यह अफवाह थी कि ऐसा तत्कालीन मुख्यमंत्री डा० फारूक अब्दुल्लह द्वारा कराया गया क्योंकि उनके और केंद्र सरकार के बीच बहुत अनबन चल रही थी। इसलिए 1989 में ऐसे धमाकों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन (JKLF) फ्रंट द्वारा संपूर्ण हड़ताल का आह्वान किया गया था। पहले इस संगठन को केवल कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (KLF) कहा जाता था।

सीजेपी, कश्मीरी पंडितएसएस के साथ मिलकर जम्मू और कश्मीर में सभी भारतीयों की आतंक से सुरक्षा की मांग का समर्थन करता है। खासकर उन लोगों के लिए जो उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समूहों से हैंचाहे वे कश्मीरी पंडित हों या सिख। 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों के जबरन पलायन की यादें अब भी ताज़ा हैं। सरकार को चाहिए कि इन असुरक्षित लोगों का सुरक्षा कवच तत्काल बहाल करे जो मुख्य रूप से इस क्षेत्र में अस्थिरता पैदा करने के मकसद से काम कर रहे आतंकी समूहों के निशाने पर मालूम पड़ते हैं। घाटी में राजनीतिक और प्रशासनिक पुनर्वास की इन उत्पीड़ित समुदायों की लंबे समय से चली रही मांग भी बहुत अहम है। हम इन अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों के सुरक्षा की भी मांग करते हैं। इस अभियान में सीजेपी के साथ जुड़ें क्योंकि हम जम्मू और कश्मीर में कश्मीरी पंडित और सिख समुदाय के साथ खड़े हैं। उनकी सुरक्षा और अधिकारों की वकालत करने में हमारी सहायता के लिए कृपया डोनेट करें

क्या जेकेएलएफ ने उन धमाकों की ज़िम्मेदारी ली?

हाँ जी, 14 मार्च 1989 को हाई स्ट्रीट, श्रीनगर में एक बम धमाका हुआ था जिसमें पैदल यात्री घायल हुए थे। उन्हें एसएचएमएस अस्पताल भेज दिया गया था। घायलों में छदूरा (बडगाम) की रहने वाली एक महिला प्रभा देवी थी। उसके माथे पर परंपरागत टीका लगा था और उसे (अस्पताल के अंदर) अलग रखा गया था। अधिक खून बह जाने की वजह से उसकी मौत हो गई थी। उनके उपचार पर वहां ध्यान नहीं दिया गया था। अन्य पीड़ितों का संबंध बहुसंख्यक समाज से था। उन्हें हल्की चोटें आई थीं और वे बच गए थे। वह पहली कश्मीरी पंडित पीड़िता थीं।

पहली राजनीतिक मौत 16 अगस्त 1989 को हुई थी। नेशनल कान्फ्रेंस के ब्लॉक अध्यक्ष मोहम्मद यूसुफ हलवाई की, उनकी शहर के व्यापारिक केंद्र में हत्या कर दी गई थी। दूसरी राजनीतिक हत्या 13 सितंबर 1989 में पहले कश्मीरी पंडित टीका लाल टिपलू की हुई थी।

उन दिनों “यूएनओ चलो” (यहां के संयुक्त राष्ट्र कार्यालय) नारों के साथ रैलिया निकाली जाती थी। मैं समझता हूं कि यूएन अधिकारियों को 50,000 से कम ज्ञापन नहीं दिए गए होंगे। तांगा वालों, छात्रों, वकीलों समेत सभी समूहों के जुलूस निकलते थे।

क्या यह शक्ति प्रदर्शन था?

हां, इसमें कुछ सिख भी भाग लेते थे। यह सब चलता रहा लेकिन हमको (कश्मीरी पंडितों) कोई खतरा या डर नहीं था। ‘यह होता रहता है’ जैसी बातें होती थीं। लेकिन जुलाई–अगस्त 1989 को बच्चों को केंद्रीय विद्यालय ले जा रही बस पर (स्थानीय आतंकियों द्वारा) गोली चलाई गई। बच्चे बाल–बाल बच गए। उसके बाद उन बसों का चलना बंद हो गया।

19 जनवरी 1990 को दूरदर्शन मेट्रो चैनल पर रात में करीब 8:30 बजे हमराज़ फिल्म का प्रसारण था। चूंकि ठंड का मौसम था सभी अपने घरों में फिल्म देख रहे थे। फिर हम चिल्लाने और लाउडस्पीकर पर एलान की आवाज सुनने लगे कि ‘बाहर निकलो … सेना और सीआरपीएफ आ रही है’। वे हमारे घरों पर हमला और छेड़खानी करेंगे। दो घंटे के अंतराल में 90 प्रतिशत लोग (बहुसंख्यक समुदाय के लोग – मुस्लिम) रात भर विरोध करने के लिए सड़कों पर थे। पहले “हम क्या चाहते? आज़ादी” जैसे नारे सुने गए। उसके बाद “यहां क्या चलेगा? निज़ाम–ए–मुस्तफा”, “कश्मीर में रहना है, ला इलाहा इल्लल्लाह कहना है”, “रूस ने बाज़ी हारी है, और अब हिंद की बारी है” आदि नारे लगे थे। उन दिनों अफगानिस्तान से रूस वापस चला गया था।

फिर “ऐ कफिरो, ऐ ज़ालिमों हमारा कश्मीर छोड़ दो” का नारा लगा। उसके बाद कश्मीरी पंडितों और हमारी महिलाओं को निशाना बनाते हुए “हमें चाहिए पाकिस्तान, कश्मीरी पंडितों के बगैर लेकिन कश्मीरी पंडितानियों के साथ” जैसे नारे लगने लगे। यह सब 19 जनवरी 1990 को रात भर चलता रहा। यह एक धमकी थी और इसने मन में भय बढ़ा दिया था। 20 जनवरी यही सब फिर दोहराया गया। 2-3 दिनों के अंतराल में दृश्य बदल गया था। उससे पहले अलग-अलग इलाकों में छह कश्मीरी पंडित मारे भी गए थे। 21 जनवरी 1990 को गॉ कदल में नरसंहार हुआ था। (कथित रूप से) भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा मुसलमानों की हत्या की गई थी। शाम तक अफवाह फैल गई कि सीआरपीएफ ने कथित रूप से यहां (श्रीनगर में) मुस्लिम महिलाओं के साथ छेड़खानी की है। उस समय कोई ठीक संचार व्यवस्था नहीं थी।

तो यह अफवाहें इतनी तेज़ कैसे फैलीं?

हां, आप समझ गए। यह अफवाहें फैलीं कैसे? जुलूस रिहाइशी इलाकों से समूहों में आए। उन्होंने लाल चौक आदि पार किया। वे इतनी आसानी से कैसे पहुंचे जबकि उस समय सरकार द्वारा कर्फ्यु का एलान किया गया था? इसलिए मेरी राय में जनवरी की 19 से 21 तारीख उन लोगों द्वारा पहले से तय की गयी थी जो कार्यक्रम को चला रहे थे। जेकेएलएफ से लेकर इस्लामी छात्र संगठन तक और मैं यह भी महसूस करता हूं कि नेशनल कानफ्रेंस की इसमें बड़ी भागीदार (शामिल) थी। यह विरोध प्रदर्शन उस दिन क्यों हुआ? जैसे ही जगमोहन को राज्यपाल नियुक्त किया गया फारूक अब्दुल्लाह और उनके मंत्रीमंडल ने इस्तीफा दे दिया। सड़कों पर सुरक्षा बलों की मौजूदगी कम थी। फिर 20 जनवरी को कश्मीरी पंडित बाहर निकले। यह खुफिया तंत्र की नाकामी थी। किसी ने सोचा नहीं था कि यह (जुलूस, हमले) बड़े पैमाने पर हो सकते हैं। फिर हत्याओं में तेज़ी आई, नफरत फैल गई।

उन दिनों आतंकियों द्वारा कितने कश्मीरी पंडितों की हत्या की गई?

बीस से अधिक नहीं, चूंकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था इसलिए यह बड़ी बात थी।

उस दावे के बारे में क्या जिसमें कहा गया कि सैकड़ों/हज़ारो मारे गए? क्या कम गिना गया था?

20 जनवरी 1990 को शिवरात्री थी। हमें पूजा/प्रार्थना के लिए मिट्टी के बर्तन लेने थे। सब कुछ सामान्य था। मैं अपने पिता के साथ (मुस्लिम) कुम्हारों द्वारा लगाए गए स्टाल पर गया। गांव में वे चिकनी मिट्टी ढूंढने के लिए घरों में जाते थे और बदले में अपने भुगतान के अलावा खाना पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाली चीज़ों का एक हिस्सा भी पाते थे। हालांकि अफवाहें वहां भी पहुंच चुकी थीं लेकिन उस दिन तक भी यह रिश्ते गांवों में कायम थे। उसके बाद कुछ और कश्मीरी पंडितों और (कुछ अन्य) हिंदुओं की हत्याएं हुईं। वे हमें अलग से पहचान सकते थे क्योंकि हमारी महिलाएं साड़ी पहनती थीं। पुरानी पीढ़ी अलग फेरन शैली के कपड़े पहनती थी और टीका लगाती थी। उन दिनों किसी सिख की मौत नहीं हुई थी।

क्या पंडितों की हत्या घाटी छोड़ने से इनकार करने पर की गई थी?

यह लगभग भेड़ के झुंड पर बाघ के हमले की तरह था। झुंड के बिखर जाने के बाद सबसे कमज़ोर पर हमला किया गया।

क्या ऐसी ताकतों या व्यक्तियों की पहचान करने का कोई तरीका है?

90% लोगों की हत्या जेकेएलएफ द्वारा की गई थी। हमने अपनी सूची में 85 लोगों की पहचान की है।

अधिकारियों, पुलिस और राज्यपाल का क्या रवैया था?

कुछ नहीं, सीआरपीएफ बटालियन ने हाल ही में अपना प्रशिक्षण पूरा किया था और यहां चुनाव ड्यूटी पर भेज दिए गए थे। स्थानीय पुलिस पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी थी। राज्यपाल के हाथ में कुछ नहीं था। सब कुछ पटरी पर लाने में उन्हें तीन महीने लग गए। हत्याएं जारी थीं मगर कोई जवाब नहीं था। हमें सुरक्षा कवच नहीं दिया गया, राज्य पूरी तरह असफल हो चुका था। राजभवन की तरफ से खामोशी थी।

पंडित घाटी से बाहर कब निकले? ‘व्यापक पलायन’ के लिए यह सामूहिक निर्णय किसने लिया?

जिसे हम व्यापक पलायन कहते हैं वह तो 15 मार्च 1990 से शुरू हो गया था। आतंकी संगठन मारने के लिए सूची (हिट लिस्ट) बनाकर मस्जिदों के अंदर चिपका रहे थे। इन सूचियों में पंडित, एनसी के कार्यकर्ता और मुसलमान थे। चूंकि व्यक्तिगत तौर पर पंडितों और मुसलमानों के रिश्ते अच्छे थे। इसलिए वह (मुसलमान) अगर नाम देख लेता था तो शाम की नमाज़ के बाद अपने पड़ोसी (पंडित) को बता देता था। वह अपने (कश्मीरी पंडित दोस्त/ पड़ोसी) और उनके परिवारों को बचाना चाहता था। उन दिनों बहुत संदेह का माहौल था। कोई नहीं जानता था कि कौन किसके साथ था। जो लोग बचाने की कोशिश करते मारे जा सकते थे। लेकिन किसी तरह वे हम तक पहुंचते थे और बता देते थे। शहरी क्षेत्र के घर एक दूसरे के करीब थे। कश्मीरी पंडितों द्वारा बड़े पैमाने पर पलायन का कोई सामूहिक निर्णय नहीं लिया गया था। जब उन्हें डर महसूस हुआ वे छोड़कर चले गए।

क्या जम्मू/ अन्य स्थानों पर उनके लिए पहले से कैम्प लगाए गए थे?

वहां कैंप थे इसकी जानकारी हमको नहीं थी। मार्च में कुछ कैंप लगाए गए थे। पीड़ित परिवारों के बचे हुए लोग पहले ही पलायन कर गए थे। अगर किसी को निशाना बनाया गया तो अपने पड़ोसियों की तरह वे भी चले गए। 14 मार्च 1989 से लेकर 31 मई 1990 के बीच हमारे पास 187 हत्याओं का लेखजोखा है।

केंद्र में कौन सी सरकार सत्ता में थी? जो कुछ कश्मीर में हो रहा था उसके प्रति उनकी प्रतिक्रिया क्या थी?

यह भाजपा के समर्थन वाली वीपी सिंह की सरकार थी। अगर उसने प्रतिक्रिया दिखाई होती तो प्रवास/पलायन नहीं हुआ होता। स्थिति खराब नहीं हुई होती। सरकार खामोश थी।

क्या पलायन करते हुए कश्मीरी पंडितों की हत्या की गई थी?

नहीं, जहां तक हमारा सर्वे कहता है और अन्य लोगों की बातों से पता चला है, यात्रा के दौरान कोई हत्या नहीं हुई थी। फिल्म में दिखाया गया है कि सभी कश्मीरी ‘जिहादी’ थे। अगर मामला ऐसा होता तो किसी कश्मीरी पंडित या अल्पसंख्यक समुदाय के किसी भी व्यक्ति के लिए निकल पाना असंभव होता। केवल श्रीनगर से ही नहीं बल्कि सुदूर उत्तरी इलाकों से वाहन पाने के लिए शहर तक पहुंचना और उसके बाद उग्रवाद के खतरनाक क्षेत्र (लाल क्षेत्र) को पार करना असंभव होता। (अगर सभी के जिहादी होने का दावा सच्चा होता) मुझे नहीं लगता कि वे जम्मू तक पहुंच पाए होते। 1 जून 1990 से 31 अक्तूबर 1990 के बीच अधिक हत्याएं हुई, लगभग 387 मौतें। जम्मू बहुत उग्र था। कुछ लोग घाटी में लौट कर आए लेकिन उनकी हत्या कर दी गई। हमारी तरह जिन लोगों ने पलायन नहीं किया वे मारे गए। खासकर अधिकांश मौतें श्रीनगर में हुयीं। श्रीनगर में उग्रवाद चरम पर था। घाटी में एक स्थान पर 144 आतंकवादी संगठन थे। अगर श्रीनगर में कुछ होता है तो यह बड़ी खबर बनती है।

1990 में जम्मू और कश्मीर के मुस्लिम नेताओं ने क्या किया? क्या उन्होंने पंडितों को आश्वासन देने की कोशिश की? कोई सार्वजनिक बयान?

किसी ने कोई बयान जारी नहीं किया। किसी राजनीतिक दल की तरफ से कोई भरोसा नहीं दिलाया गया।

क्या 89-90 में मस्जिदों से मुसलमानों को कोई निर्देश या धमकी दी गई?

अगर किसी कश्मीरी पंडित के बच निकलने में उन्होंने मदद की तो उसे अवश्य धमकी दी गई। अगर खबर लीक हो गई तो उसकी हत्या भी हो सकती थी। उन्हें मस्जिदों से कोई चेतावनी नहीं दी गई थी। हो सकता है उनसे कश्मीरी पंडितों की मदद न करने के लिए कहा गया हो।

कश्मीर फाइल्स दावा करती है कि सरकार ने ‘तथ्यों’ को अब तक छुपाया, वे किन तथ्यों की बात कर रहे हैं?

हमारे साथ क्रूर घटनाएं हुई हैं। जो घटनाएं वे दिखाते हैं वह हुई हैं लेकिन जिस तरह से उन्होंने उसको नाटकीय रूप दे दिया वह गलत है। वे झूट बोल रहे हैं कि तथ्यों को छुपाया गया है। हमने इन तथ्यों का लेखाजोखा रखा है और बार-बार कहा है कि यह हुआ है। मैं ज़ी न्यूज़ के साथ नदी मार्ग (जहां 23 कश्मीरी पंडितों की हत्या की गई थी) गया और उन्हें सब कुछ बताया।

क्या 1990 में अनुच्छेद 370 कश्मीरी पंडितों के पलायन से जुड़ा मुद्दा था?

नहीं, यह हमारा (कश्मीरी पंडित) मुद्दा नहीं था। यह आरएसएस–भाजपा का एजेंडा था। इसका हमारे पलायन से कोई लेनादेना नहीं था।

अब जबकि यह मांग पूरी हो गई है, कितने कश्मीरी पंडित वापस घाटी में अपने घर लौटे हैं?

एक भी नहीं। फिल्म ने असुरक्षा फैला दी है।

अब आगे का रास्ता क्या है?

सही बात यह है कि अभी मैं आशा की कोई किरण नहीं देखता हूं। जब पीएम शामिल हैं, संसद शामिल है। आप फिल्म सेना और पुलिस बल को दिखा रहे हैं। गुजरात में एक हीरा व्यापारी ने 600 शो बुक कर लिया है। जब ऐसा होता है तो 16-25 साल के दर्शक इस पर यकीन कर लेते हैं। “जय श्रीराम” के नारे सिनेमा हालों में क्यों लगाए जा रहे हैं? इसका मतलब क्या है? नुकसान हो चुका है, ध्रुवीकरण किया जा चुका है। इसके खिलाफ प्रतिक्रिया केवल कश्मीर में होगी। 1990 में कश्मीरी पंडितों के लिए हमदर्दी की एक लहर थी। अब मुझे बताया गया कि भगवान न करे अगर कश्मीरी पंडितों को कुछ होता है, “हम आप की सुरक्षा के लिए कुछ करने लायक नहीं होंगे। उन बच्चों पर हमारा काबू नहीं है जो अशान्ति के वर्षों में पले बढ़े हैं।

आपके पिता ने घाटी में रह जाने का क्या कारण बताया?

हमें जुलाई 1990 में वहां से निकल जाने के लिए पत्र भी प्राप्त हुआ था। लेकिन हम रुके रहे और मुश्किल हालात में किसी तरह बचे रहे। हमने इसके बारे में दूसरे कश्मीरी पंडितों से भी पूछा। वे कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि वे क्यों रुके रह गए। इसका कोई जवाब नहीं है। मैंने अपने पिता से कभी नहीं पूछा कि हम पलायन क्यों नहीं कर रहे हैं। मैंने एक बार अपनी मां से पूछा कि क्या वह डरी हुई हैं। उन्होंने कहा नहीं, ‘हम देखेंगे’, हमें सात दिन इंतज़ार करना चाहिए और वह सात दिन सालों में बदल गए। यह भगवान की मर्जी थी कि हम बच गए। बहुसंख्यक समाज का एक वर्ग था जिसने सबसे पहले पर्दे के पीछे से हमारा समर्थन किया। उसके बाद खुले तौर पर हमारा साथ दिया। उग्रवादियों ने उन मुसलमानों पर भी हमला किया और बलात्कार की घटनाएं अंजाम दीं जो उन्हें (आतंकवादी) जानवर समझते थे। फिल्म का पाइरेटेड संस्करण घाटी में पहुंच चुका है। समय बताएगा कि आगे चलकर इसका क्या असर होगा।

कश्मीरी पंडित क्या मांग कर रहे हैं?

वर्षों से हमारी वहीं मांग रही है। सरकार ने कुछ नहीं किया है। उनकी प्राथमिक्ता वह कश्मीरी पंडित नहीं हैं जिन्होंने घाटी नहीं छोड़ी है। यह फिल्म राजनीति से प्रेरित है। अगर कश्मीर में दोबारा मौतें होती हैं तो इससे ध्रुवीकरण होगा। अभी तक खतरा बाहर नहीं दिख रहा है लेकिन कुछ गड़बड़ हो रही है। केवल मैं ही नहीं दूसरे भी इसे महसूस कर सकते हैं। 1990 से भी बुरा हो सकता है। नुकसान हो चुका है। फिल्मों से दृश्य दिमाग़ में रुकते हैं। उस नकारात्मक प्रभाव का 99% असर इस फिल्म से पड़ा है।

यह साक्षात्कार मूल रूप से अंग्रेजी में छपा था और इसे यहां पढ़ा जा सकता है

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