यह रिपोर्ट CJP के ग्रासरूट फ़ेलोशिप प्रोग्राम का हिस्सा है, और वन गुज्जर समुदाय के युवा नेता अमीर हमज़ा ने इस रिपोर्ट को तैयार किया है। वन गुज्जर एक घुमन्तु समुदाय है, जो पशुपालन कर के अपना जीवन व्यापन करता है। इस लेख में अमीर हमज़ा ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि, किस तरह से वन गुज्जर अपने पशुओं को खिलाने के लिए पराली (कटाई के बाद खेत में बचे हुए सूखे ठूंठ और पुआल ) खरीदकर, पराली को जलने से बचाते हैं, और वायु प्रदूषण रोकने में मदद करते हैं।
हां, वन गुज्जर समुदाय, वनों के संरक्षण व संवर्धन का कार्य तो सदियों से करता आ रहा है। पिछले कुछ वर्षों से किसानों की आय बढ़ाने व वायु प्रदूषण रोकने में वन गुज्जर समुदाय बहुत बड़ी सहजीवी भूमिका निभा रहा है, जहाँ किसान पराली जला कर वायु प्रदूषण फैलाने पर मजबूर था, वहीं वन गुज्जर समुदाय उत्तराखण्ड के कोने-कोने से पराली इकट्ठा कर अपने पशुओं के खिलाने में कारगर सिद्ध हो रहा है। पराली केवल उत्तराखण्ड ही नहीं, पश्चिम यूपी के काफी हिस्से से भी समुदाय द्वारा पशुओं के लिए इस्तेमाल की जा रही है।
CJP के ग्रासरूट फ़ेलोशिप प्रोग्राम का उद्देश्य उन युवा पुरुषों और महिलाओं को सशक्त बनाना है, जिन समुदायों के साथ हम काम करते हैं, इनमें प्रवासी श्रमिक, दलित, आदिवासी, वन श्रमिक तथा अन्य वंचित लोग शामिल हैं। वे उन मुद्दों पर रिपोर्ट करते हैं जो उनके समाज और दिलों के क़रीब हैं। कृपया हमारे ग्रासरूट फ़ेलो सदस्यों को सशक्त बनाने के लिए आपसे जितना बन पड़े उतना डोनेट करें।
किसानों की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा बन चुका है उत्तराखण्ड में पशुपालक वन गुज्जर समुदाय।
राज्य में किसान धान की पराली को किसी भी प्रकार से उपयोग में न आने की वजह से जलाने को मजबूर था, इस प्रक्रिया से वायु प्रदूषण बहुत मात्रा में फैलना शुरू हो गया था, जिस कारण राज्य व केंद्रीय सरकारों ने पराली जलाने पर रोक लगाई दी थी, इस कारण पराली का अत्यधिक फैलाव होने की वजह से पराली एक मुसीबत बन गयी थी। जिस कारण बहुत सारे किसान तो खेती भी करना छोड़ चुके थे। तब वन गुज्जर समुदाय ने अपने पशुओं को पराली खिलाना शुरू कर दिया, पहले फ्री में किसान पराली देते थे, अब एक बड़ी अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं वन गुज्जर समुदाय।
“क्या है पूरा मामला“
उत्तराखण्ड राज्य में पशुपालक वनाश्रित वन गुज्जर समुदाय रहता है, जो पशुपालन कर अपने व परिवार का भरण पोषण करते हैं और मौसम के अनुसार भिन्न जगह पर प्रवास करते हैं। जैसे शीत ऋतु में गढ़वाल मंडल के ऋषिकेश के आस पास के क्षेत्र, गौहरी रेंज, नरेंद्र नगर वन प्रभाग, लच्छवाला प्रयामपुर रेंज, हरिद्वार, चिड़ियाघर कोटद्वार वन प्रभाग आदि क्षेत्रोंं में तथा ग्रीष्म ऋतु में प्रवास कर हिमालय के बुग्यालों में, जैसे उत्तरकाशी टिहरी, रुद्रप्रभाग तथा मैदानी चारा गाहों में, जैसे खादर चारागाह, नानकमल्ला चारागाहों में अपने हजारों की संख्या में पशुओं के साथ प्रवास कर अपनी पारंपरिक जीवन शैली को अंजाम देते आ रहे हैं। निरंतर इनके परंपरागत जीवन शैली पर दखल डाल कर वन विभाग द्वारा बाधा डालने का काम किया जिस कारण समुदाय को प्रवास के मार्ग बदलने पड़े तथा अनेक वन क्षेत्रोंं को छोड़ना तक पड़ गया, पशुपालन में समुदाय की पहचान व आस्था तथा अन्य किसी प्रकार का हुनर न जानने की वजह से चाहे जितनी भी दिक्कतें आईं, परन्तु वन गुज्जर समुदाय ने अपना पारंपरिक पशुपालन का व्यवसाय नहीं छोड़ा। अनेक वन क्षेत्रोंं को राज्य सरकार वन विभाग द्वारा राष्ट्रीय उद्यान बना कर समुदाय को उनके पारंपरिक क्षेत्रोंं से बेदखल कर दिया गया। अनेक क्षेत्र में समुदाय के प्रवास पर रोक लगा दी गयी, इन्ही कारणों से पर्याप्त प्राकृतिक चारा उपलब्ध न होने की वजह से वन गुज्जर समुदाय का संपर्क मैदानी क्षेत्रों के किसानों से हुआ। जहाँ प्राय: देखा जाता था कि किसान पराली को लेकर बहुत परेशान था।
वर्ष 2006-2007 से पराली का उपयोग अपने पशुओं के लिए करना शुरू किया वन गुज्जर समुदाय ने।
वर्ष 2007 से वन गुज्जर समुदाय के प्राकृतिक संसाधनों पर प्रतिबंध होने के कारण, वन गुज्जरों ने अपने पशुओं के लिए अपने-अपने क्षेत्रों के आस-पास जैसे ऋषिकेश, डोईवाला, लालढांग आदि क्षेत्रों से पराली लाना प्रारंभ किया, उस दौरान लघु किसानों से ही पराली लाते थे क्योंकि कम मात्रा में ही पराली पशु खाते थे, बदले में किसान समुदाय के डेरोंं से गोबर की खाद ले जाते थे और पराली फ्री में समुदाय को उपलब्ध हो जाती थी।
धीरे-धीरे वन विभाग द्वारा समुदाय के डेरों से गोबर की खाद बाहर बेचने (देने) पर भी रोक लगा दी, क्योंकि समुदाय के डेरे वनों में स्थित हैं, मजबूरन समुदाय को पैसों से पराली खरीदना शुरू करना पड़ा। धीरे-धीरे पशुओं द्वारा हरे पत्तियों व सूखे पराली के चारे की हैबिट (आदत) बनने से पराली की खपत में इजाफा होने लगा और पराली की आवश्यकता बढ़ने लगी। समुदाय के लोगों द्वारा सम्पन्न किसानों से पराली लेने के लिए संपर्क किया गया, शुरुआती वर्ष 2010 के समय पर तो किसान बहुत ख़ुशी से फ्री में पराली देने के लिए राजी हो गये। हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र जैसे खानपुर, लकसर, भगवानपुर, दनारपुर तथा उधम सिंह नगर के ग्रामीण क्षेत्रों व पश्चिमी उत्तर प्रदेश बिजनोर व सहरानपुर जनपद के वो क्षेत्र जो उत्तरखण्ड राज्य के साथ लगे हुए है। इन क्षेत्रों की पराली वन समुदाय के लोगो द्वारा 100 से 150 k.m. तक ले जानी पड़ती है। धीरे धीरे समुदाय की पराली के प्रति अधिक से अधिक खपत होने के तहत किसानों ने पराली देने में शुल्क लगाना शुरू कर दिया गया। वर्तमान समय में 1000 से 1500 रुपये प्रति बिघा दर पर संपूर्ण उत्तराखण्ड व पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों से पराली खरीदते हैं वन गुज्जर।
एक किसान से हुई बात कुछ इस तरह
नाम : भुता सिंह
स्थान मेदू वाला फार्म, बड़ापुर जनपद, बिजनोर, उत्तर-प्रदेश
साक्षात्कार : क्या आप बताएंगे आप की पराली पिछले कुछ पहले waste जाती थी, पराली जलाना के बारे में कुछ बताओगे.
किसान भुता सिंह : हां हम लोगों को पहले पराली जलाना पड़ता था, जिसमें सरकार प्रतिबंध भी लगा चुकी थी। मजबूरी में हमें फसल बदलनी पड़ती थी। हमने उड़द लगाना शुरू कर दिया था, उड़द में काफी खर्चा होता था। हमें कुछ नहींं बचता था। गुज्जरों द्वारा पराली खरीदने पर हमें धान की फसल में फायदा होने लगा जहाँ, समय-समय पर धान की कीमत का उतार-चढ़ाव होता है, वहां पराली हमारी मेहनत को बराबर कर देती है। हमारे व्यवसाय के साथ पराली भी एक विशेष वस्तु उत्पाद के रूप में जुड़ गयी है, जो वायु प्रदूषण से मुक्ति तथा आय का संसाधन हो गया है।
एक गुज्जर से पराली के पशुओं को इस्तेमाल पर चर्चा के दौरान
नाम : शराफ़त कसाना
निवासी : गौहरी रेंज, कुमाऊ चौड़
पौड़ी गढ़वाल
साक्षात्कार कर्ता : आप लोग पहले पत्तों से अपने पशुओं का चारा प्रयोग में लाते थे अब आप पराली अपने पशुओं के लिए लाते है।
इसके बारे में कुछ बताएँगे
शराफत कसाना वन गुज्जर : जंगलों से वन विभाग द्वारा लूपिंग (वृक्षों के पत्ते छांटना) बन्द कर दी गयी, हमारे पशु अब जंगलो में सिर्फ ग्रेज़िंग (घास चराना) ही करते है, इसलिए हम पराली खिलाने लग गये, दूसरा हम हमेशा पर्यावरण के रक्षक बन कर जंगलों में रहते हैं और जंगलों की सुरक्षा करते हैं। किसानों द्वारा पराली जलाने से प्रदेश में वायु प्रदूषण बढ़ रहा था, हमने जलाने से रोक लगाकर पशुओं के प्रयोग में लाने का काम किया है।
साक्षत्कार कर्ता : आप लोगों द्वारा पराली लाने में, खरीदने आदि में क्या क्या दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है।
शराफत कसाना गुज्जर : हां बड़ी लम्बी कहानी है, मेरे पास समय कम है, मुझे भैसों को लेकर पानी पिलाने जाना है, थोड़ा बता सकता हूँ। हमें यहाँ 100 k.m. दूर से पराली लाने जाना पड़ता है। सहारनपुर के पास, वहां भी इस तहत महंगी पराली मिल रही है 1500 रुपये बिघा, उसके एक ट्रेक्टर को वालों को घूस का देना पड़ जाता है। किसान दिन प्रति दिन पराली का रेट मूल्य बढ़ाते जा रहे हैं, क्या करें पशुपालन के अलावा अन्य कोई हुनर आता ही नहींं, और अपना कोई ठिकाना भी नहींं। हर वर्ष शीत ऋतु में मुझे एक डेढ़ लाख (150000) रुपये तक की मुझे पांच माह के लिए पराली इकट्ठी करनी पड़ती है। लालाओं (दूध खरीदने वाले लोग) के हमेशा कर्ज में डूबे रहना पड़ता है।
अंतिम रिपोर्ट
अनेक चुनौतियों व जीवन के संघर्ष में प्रदेश को वायु प्रदूषण से बचा रहा है वन गुज्जर समुदाय। साथ में किसानों की आय का हिस्सा भी है यह समुदाय। सरकार को चाहिए वन गुज्जर समुदाय के पराली खरीद पर कुछ प्रोत्साहन दे, पुलिस व वन विभाग की भ्रष्ट नीति से छुटकारा दिया जाए पराली लाने में।
जल्द ही विस्तृत रिपोर्ट जारी करूंगा पराली की खरीद के साथ समुदाय की विशेषताओं को लेकर।
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