शुक्रवार 9 दिसम्बर को जस्टिस चंद्रचूड़ एवं जस्टिस नरसिंहम की पीठ द्वारा इस विषय में CJP की याचिका को खारिज कर दिया गया। याचिका खारिज होने की खबर मीडिया ने विस्तृत रूप से कवर की है। सभी प्रकार के नागरिकों की जान व माल की सुरक्षा को लेकर सरकारी तंत्र की जिम्मेदारी के प्रति तत्पर हमारी संस्था ‘सिटिज़न्स फॉर पीस एण्ड जस्टिस’ (CJP) अपने पाठकों को इस याचिका का विस्तृत ब्योरा दे रही है, जिसमें इस वर्ष राम नवमी पर कई राज्यों में हिंसा की खबरें आने के आलोक में कानून के प्रावधानों, न्यायिक जांच आयोगों की रिपोर्ट एवं कई अदालती फैसलों का जिक्र किया गया है।
मई 2022 में CJP द्वारा दायर जनहित याचिका कई जगहों पर शोभा यात्राओं के दौरान हिंसा के पश्चात, 2019 में गृह मंत्रालय द्वारा जारी परामर्श (advisory), उसी साल पंजाब पुलिस द्वारा दिए गए निर्देश, देश के कानून एवं राज्यों में पुलिस ऐक्ट के प्रावधान, सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों के नेतृत्व वाले जांच आयोगों की विस्तृत सिफारिशें एवं सुप्रीम कोर्ट के कई आदेशों को तत्पर व समान रूप से लागू करने के लिए डाली गईं थी। उच्चतम न्यायालय ने 9 दिसम्बर को हुई याचिका की पहली सुनवाई में यह स्पष्ट कर दिया कि कानून-व्यवस्था राज्यों का विषय होने के कारण इस मसले पर कोर्ट के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा कोर्ट ने याचिककर्ताओं को महाराष्ट्र में गणपति विसर्जन जैसे उन ज्यादातर धार्मिक जुलूसों की ओर भी ध्यान देने को कहा जहां हजारों लोगों की मौजूदगी में भी यह शांतिपूर्ण ढंग से हर साल सम्पन्न होते हैं। हालांकि इस बात को ध्यान में रखते हुए ही याचिका में उन जुलूसों की बात की गई थी जो नियमों की खिल्ली उड़ाते हुए तय रूट से अलग निकाल जाते हैं और उनमें हथियार तक लहरा दिए जाते हैं।
जनहित याचिका संबंधी कुछ तथ्य:
इस वर्ष अप्रैल में रामनवमी पर्व के दौरान कई जगहों पर हिंसा देखने को मिली जिसमें मासूम नागरिकों को निशाना बनाया गया, जान-माल की क्षति हुई और सांप्रदायिक सद्भाव को धक्का लगा। इस तरह की घटनाओं को होने से रोकने के लिए शासनिक-प्रशासनिक तंत्र को पहले से मौजूद कानूनों का सख्ती से पालन कराना होगा।
शांति व्यवस्था बनाए रखने और साथ ही संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को सुरक्षित रखने, जिसके अनुसार हर प्रकार का व्यक्ति कानून की नज़रों में समान है और हिंसा से सुरक्षा उसका अधिकार है, सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एण्ड पीस अर्थात CJP ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा इस अपील के साथ खटखटाया कि जुलूसों में लोगों की भागीदारी, जुलूस के रूट व हथियारों के प्रदर्शन पर प्रतिबंध के संदर्भ में कुछ विस्तृत दिशानिर्देश एवं मानक संचालन प्रक्रियाएँ (Standard Operating Procedure या SOP) निर्धारित की जाएँ।
संक्षेप में कहें तो इस याचिका के जरिए केंद्र व सभी राज्य सरकारों को विशाल जुलूसों के संदर्भ में कानून के प्रावधान व जांच आयोगों की सिफारिशें लागू करने हेतु उचित निर्देश देने का आग्रह किया गया था। इस याचिका में विशेष तौर पर 1970 में भिवंडी दंगों के बाद बने जस्टिस डी.पी. मदान आयोग का जिक्र किया गया है, जहां अराजकता या गड़बड़ी फैलने की आशंका वाले किसी जुलूस से निबटने के लिए विस्तृत दिशानिर्देश दिए गए हैं। साथ ही इस याचिका में केंद्र सरकार द्वारा भी एक SOP बनाने की मांग की गई है ताकि सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखते हुए उनके धार्मिक जुलूस नियमों के तहत करवाएँ जाएँ जिससे आम जनता को कोई परेशानी न हो।
गृह मंत्रालय और पंजाब पुलिस के दिशानिर्देश
2019 के जनवरी में गृह मंत्रालय ने एक विस्तृत ऐड्वाइज़री जारी की जिसमें भारतीय शस्त्र अधिनियम (1959, संशोधन 2016) के उल्लंघन के संदर्भ में “अस्त्र-शस्त्रों के अवैध इस्तेमाल पर रोक” की बात कही गई। वह ऐड्वाइज़री स्पष्ट रूप से कहती है:
“यह सुनिश्चित करने का पुनः अनुरोध है कि शादियों, सार्वजनिक सभाओं, धार्मिक स्थलों या जुलूसों, पार्टियों या राजनैतिक जलसों में जश्न के नाम पर फायरिंग जैसा गैर कानूनी कृत्य करने वाले व्यक्ति/व्यक्तियों पर शस्त्र अधिनियम 1959, शस्त्र नियम 2016 एवं IPC व CrPc के उचित प्रावधानों के तहत कड़ी कानूनी कार्यवाही की जाए। साथ ही जो लोग शस्त्र अधिनियम 1959 एवं शस्त्र नियम 2016 का उल्लंघन करते पाए जाते हैं, उनके हथियार के लाइसेन्स रद्द कर दिए जाएँ।“
2018 में पंजाब पुलिस के दिशानिर्देश
2018 में पंजाब पुलिस ने “जुलूसों/ सभाओं/ धरनों/ प्रदर्शनों इत्यादि के आयोजन और प्रबंधन” हेतु कुछ दिशानिर्देश निर्धारित किए। इनमें संबंधित अधिकार क्षेत्र के पुलिस अधिकारियों को हर प्रकार के जुलूसों को नियंत्रित रखने व अराजक या हिंसक होने से रोकने हेतु 19 स्पष्ट निर्देश शामिल हैं। लाठी समेत किसी भी तरह का हथियार रखने पर प्रतिबंध के अलावा इन दिशानिर्देशों में इस बात को भी पुनः-रेखांकित किया गया है कि हर जुलूस की पूरे रास्ते वीडियोग्राफी की जाय और आयोजकों से इसके शांतिपूर्ण और कानून के दायरे में रहने का आश्वासन लिया जाए। महत्वपूर्ण बात यह है कि आयोजकों को सुनिश्चित करना होगा कि “जुलूस या सभा के स्थान पर किसी भी तरह का भड़काऊ भाषण या ऐसी अन्य गैर-कानूनी गतिविधि जिससे उस इलाके में तनाव फैले और विभिन्न समूहों, संप्रदायों, धर्मों या जातियों के बीच आपसी वैमनस्य बढ़े, नहीं की जाएगी।“
अप्रैल 2022 में हुई कई घटनाओं से यह स्पष्ट है कि इन प्रावधानों या शर्तों का सख्ती से पालन नहीं हुआ एवं दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश एवं बंगाल आदि राज्यों से अप्रिय घटनाओं की खबर आई।
राम नवमी के दौरान हिंसा
ऊक याचिका में अप्रैल 2022 में हुई घटनाओं पर ध्यान दिलाते हुए इस बात को रेखांकित किया कि चैत्र नवरात्रि, राम नवमी एवं हनुमान जयंती में निकाले गए जुलूसों के दौरान हिंसा, पत्थरबाजी और त्रिशूल लहराने की घटना हुई जिसकी वजह से गुजरात, दिल्ली, मध्य प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल में तनाव फैला।
राजस्थान के करौली में राम नवमी के एक जुलूस पर एक मस्जिद के बगल से गुजरने के दौरान कथित रूप से पत्थर फेंके गए जिसके कारण हिंसक झड़प हुई जिसमें 15-20 लोग घायल हुए व कई दुकानों व वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया।
जयपुर में राम नवमी का जुलूस पुराने शहर के कुछ इलाकों से वहाँ धारा 144 लगी होने के बावजूद गुजरा। मध्य प्रदेश के खरगोन में राम नवमी के जुलूस का समय शाम की नमाज़ के साथ ही था। यह महत्वपूर्ण है कि तालाब चौक इलाके में स्थित जामा मस्जिद के सचिव हाफ़िज़ मोहसिन को इस क्षेत्र के संवेदनशील होने की जानकारी हुई लेकिन फिर भी जुलूस वहाँ से ले जाने की अनुमति दी गई। जिस जुलूस के दौरान हिंसा हुई उसमें विवादित फिल्म “कश्मीर फाइल्स” के पोस्टर “जागो हिन्दू जागो” के नारों के साथ लहराए जा रहे थे। समाचार संस्थाओं की रिपोर्टों के अनुसार इस घटना के दो दिन के भीतर मुस्लिम समुदाय की 32 दुकानें और 16 घर बुलडोजेर से ढहा दिए गए।
इसी तरह की हिंसा की खबरें गुजरात, झारखंड, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और बिहार से आईं।
याचिका में इस बात को रेखांकित किया गया है कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा सकारात्मक है जिसके अनुसार राज्य द्वारा हर धर्म को सम्मान की दृष्टि से देखा जाना चाहिए और किसी भी धार्मिक समुदाय के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए। याचिका में आगे यह भी कहा गया कि कानून के समक्ष समानता (संविधान की धारा 14), भेदभाव से मुक्ति (धारा 15, 16 एवं 17) अभिव्यक्ति, मत, विश्वास और पूजा पद्धति की स्वतंत्रता (धारा 19, 25-30) संवैधानिक लोकतंत्र के अटल सिद्धांत हैं और धर्म व संस्कृति की सार्वजनिक अभिव्यक्ति के दौरान इन्हें बराबर रूप से लागू होना चाहिए।
इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर संवैधानिक शासन, दंड कानून, पुलिस अधिनियम, न्यायशास्त्र व जांच आयोगों के कार्यप्रणाली स्थापित हुई है। हमारी याचिका का मुख्य बिन्दु यह है कि जुलूसों को अनुमति देने व निगरानी करने के समय इन जांच आयोगों के निष्कर्ष व सिफारिशें नजरंदाज कर दी जाती हैं।
कानून क्या कहता है:
पुलिस द्वारा किसी भी अप्रिय घटना को रोकने हेतु लिए जा सक्ने वाले कदमों का विवरण आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPc) के अध्याय ग्यारह में दिया गया है। इसमें धारा 144 शामिल है जिसके तहत एक जिला मैजिस्ट्रेट, उप-जिला मैजिस्ट्रेट व राज्य सरकार द्वारा अधिकृत अन्य कोई भी अधिकारी अशान्ति फैलने या किसी अप्रिय घटना के होने की आशंका के समय अपने अधिकार इस्तेमाल कर उसे रोक सकता है। धारा 149 व उससे आगे की धाराएँ उन कार्यवाहियों से संबंधित हैं जो एक पुलिस अफसर द्वारा अपराध रोकने के लिए की जा सकती हैं। इस याचिका में पुलिस प्रशासन द्वारा लिए जा सक्ने वाले ऐसे ही कुछ कानूनी कदमों का जिक्र किया गया है।
अदालती पक्ष
प्रवीण तोगड़िया बनाम कर्नाटक राज्य वाले मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने उन प्रशासनिक कदमों को सही ठहराया है जिसके तहत हिंसा होने की संभावना वाले लोगों के जुटान को रोका जा सके। इसी वर्ष तेलंगाना हाई कोर्ट ने राम नवमी के जुलूसों की अनुमति के संदर्भ में पुलिस द्वारा अनुमति के साथ लगाई गई शर्तों के अनुपालन पर जोर दिया और स्वतंत्र जुलूसों पर रोक लगा दी।
जांच आयोगों की रिपोर्ट और दिशानिर्देश
महाराष्ट्र में हुई सांप्रदायिक हिंसा के पश्चात जस्टिस डी.पी. मदान आयोग की स्थापना की गई जिसने निम्नलिखित सिफारिशें कीं:
106.7: उन जुलूसों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए जिनमें बवाल होने का खतरा हो। किसी संगठन को जुलूस निकालने की अनुमति देने व बंबई पुलिस अधिनियम की धारा 38 के तहत जुलूस का रास्ता तय करने से पहले संबंधित पुलिस अधिकारी उस प्रस्तावित रास्ते की पूरी तरह पैमाईश करे, रास्ते में पड़ने वाले अवरोधों का संज्ञान ले, ऐसे इलाकों को चिन्हित करे जहां जुलूस के ऊपर किसी विरोधी गुट के हमले का डर हो या जुलूस के प्रतिभागियों द्वारा स्थानीय लोगों, उनकी दुकानों या इलाकों पर हमले का डर हो, तथा ऐसे स्थानों को भी चिन्हित करे जहां से सुरक्षित निकल जाने के जरिए हों या जुलूस के अराजक हो जाने पर उसे तितर-बितर किया जा सके।
इन सिफारिशों में यह भी कहा गया है कि हर जुलूस को भागों में बांटा जाए और हर भाग की जिम्मेदारी के लिए एक पुलिस अधिकारी नियुक्त किया जाए। यह भी कहा गया है कि चाहे शांतिपूर्ण हो या न हो, किसी भी जुलूस को सड़क के बीच से चलने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए तथा विवादित मुद्दे से जुड़े जुलूस के सबसे आगे और सबसे पीछे पुलिस पार्टी मौजूद रहनी चाहियें।
कानून व्यवस्था पर असर के साथ ही, जस्टिस मदान ने ऐसे जुलूसों में धर्म के सांप्रदायिकता में बदल जाने और इतिहास की गलत व्याख्याओं के भी खतरे गिनाए।
1992-93 के भयावह बंबई दंगों के पश्चात गठित जस्टिस बी.एन. श्रीकृष्णा आयोग ने फरवरी 1998 की अपनी रिपोर्ट में राज्य सरकार द्वारा जस्टिस मदान आयोग की सिफारिशें लागू करने में नाकामी का जिक्र किया है। इस याचिका में भी मदान आयोग के साथ साथ कमसकम दो दर्जन ऐसी अन्य रिपोर्ट हैं जिसका इस्तेमाल अपना पक्ष रखने के लिए किया गया है। इन जांच आयोगों की रिपोर्टों में कुछ संगठनों की गतिविधियों को नियंत्रित न कर पाने को ही हिंसा का कारण बताया गया है।
सरकारी दिशानिर्देश
इस याचिका में गृह मंत्रालय द्वारा साल 1997 के “सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने हेतु दिशानिर्देश” नामक आदेशों का भी जिक्र है जिनमें सांप्रदायिक तनाव से निबटने हेतु प्रशासन तंत्र द्वारा भड़काऊ भाषणों पर लगाम लगाने संबंधी जिम्मेदारियों का वर्णन किया गया।
कुछ प्रश्न जिनका जवाब जरूरी है
याचिका में अदालत से अपील की गई है कि वह इन हिंसक घटनाओं को ध्यान में रखते हुए निम्न प्रश्नों पर गौर करे:
- इन जुलूसों को अनुमति किसने दी?
- क्या अनुमति दी भी गई थी?
- इन जुलूसों में हथियार लहराने की अनुमति कहाँ से मिल गई?
- हिंसा होने के बाद क्या दंडात्मक कार्यवाही की गई है?
- ऐसी ‘त्रिशूल दीक्षाओं’ की अनुमति कहाँ ली गई जहां एक एक संप्रदाय के सभी भारतीय नागरिकों को समूल खत्म करने की बातें कही गईं?
- क्या धार्मिक अनुष्ठान के नाम पर हथियार बांटने की ऐसी गतिविधियों को रोकने या उसके बाद कानूनी कार्यवाही करने की कोशिश की गई?
- क्या अपने कानूनी व संवैधानिक फर्ज को निभाने में चूक करने वाले पुलिस अफसरों व प्रशानिक अधिकारियों पर कार्यवाही की गई?
याचिका पक्ष का स्पष्ट मानना है कि यदि मदान आयोग व श्रीकृष्णा आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाता तो यह दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ रोकी जा सकती थीं।
याचिका कहती है:
“इस मामले में भारतीय लोकतंत्र की कार्यप्रणाली के साथ ही कानून के राज को भी चोट पहुंची है। और यह सब तब हुआ है जब न्यायिक जांच आयोगों ने इस सब को सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिए जिम्मेदार माना है जिससे ऐसी हिंसक घटनाएँ होती हैं। किसी विशेष समुदाय के खिलाफ शत्रुता और हिंसा की कामना से उपजे भाषणों पर लगाम लगाने में टालमटोल करना यह दिखाता है कि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता सिर्फ पुलिस ही नहीं बल्कि सरकारी अभियोग पक्ष एवं कानून व्यवस्था तंत्र के अन्य हिस्सों में भी स्वीकार्य है।“
नफरत से उपजे अपराधों (hate crimes) की रोकधाम के संदर्भ में ब्रिटेन के एक मैनुअल का हवाला देते हुए याचिका कहती है “कानून एवं प्रशासन तंत्र की संस्थाओं में इसी प्रकार के आंतरिक आत्मसुधार (self correction) करके संविधान में निहित बराबरी व भेदभाव से मुक्ति के सिद्धांतों को उनकी कार्यप्रणाली में लाया जा सकता है।“
याचिका में इस बात को रेखांकित किया गया है कि सांप्रदायिक उन्माद से निबटने के लिए “सांप्रदायिकता की सच्चाई को स्वीकार करने, इतिहास की भूमिका व उसको तोड़ मरोड़ कर पेश करने की मंशा को समझने व राजनैतिक ढांचे के हावी हो जाने को चिन्हित करने की आवश्यकता है।“
अपील के मुख्य बिन्दु
इस याचिका में सुप्रीम कोर्ट से निम्नलिखित आदेश देने की प्रार्थना की गई थी:
- कि सभी प्रकार के जुलूसों को उनके रूट व जरूरी सावधानियों के संदर्भ में नियंत्रित किया जाए, और खासकर अन्य धार्मिक समुदायों के इलाकों से ऐसे संवेदनशील समय में गुजरने की अनुमति न दी जाए जब अलग-अलग धर्मों के पर्व-त्योहार या प्रार्थनाएँ एक ही समय पर हो रही हों।
- सभी धार्मिक जुलूसों को अनुमति की शर्तों के अनुसार ही संचालित होने दिया जाए।
- प्रशासन के सभी लोग अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वहन करें व जुलूसों व उनके रूट की निगरानी तथा वहाँ किसी भी हथियार की मौजूदगी न होने को सुनिश्चित करें।
- ऐसे जुलूसों को अनुमति देते समय जनता की सुरक्षा, कानून व्यवस्था, स्वच्छता व पर्यावरण संरक्षण, सुरक्षा इंतेज़ामों के पर्याप्त होने आदि को सर्वोपरि रखा जाए।
- सरकार धार्मिक जुलूस निकालने की अनुमति को लेकर एक SOP जारी करे जिसकी निगरानी सुप्रीम कोर्ट द्वारा की जाए।