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कठुआ के बकरवाल समुदाय के उत्थान हेतु वन अधिकार कानून आवश्यक : तालिब हुसैन

क्या जम्मू के जंगलों से बकरवाल समुदाय को जानबूझकर अलग रखना अंतर्निहित कारकों में से एक हो सकता है, जो कठुआ में एक नन्ही बच्ची के क्रूर बलात्कार और हत्या का कारण बन गया? तेजतर्रार वकील और कार्यकर्ता तालिब हुसैन, जो बच्ची के लिए न्याय के संघर्ष में सबसे आगे हैं, वन्य अधिकार अधिनियम, 2006 को नामांकित और जनजातीय समुदायों के लिए लागू करने की प्रासंगिकता के बारे में और कैसे यह मूल रूप से इन समुदायों की भेद्यता के प्रश्नों से जुड़े हैं, इसपर हमसे बात की.

“यदि आदिवासियों और खानाबदोश समुदायों के पास जंगल के मूल अधिकार होते,तो वह नन्ही बच्ची इतनी आसानी से शिकार न बनती.” चौधरी तालिब हुसैन ने कहा.कठुआ बलात्कार मामले से देश भर में उमड़े गुस्से को ध्यान में रखते हुए, हुसैन अभियान के प्रति अपनी जिम्मेदारियों में और मिडिया से बातचीत में नम्रता और अनुग्रह बनाये रखते हैं. ठीक वैसे ही जैसे वे जम्मू और कश्मीर में आदिवासियों और खानाबदोश समुदायों के लिए वन अधिकार कानून की मांग कर रहे हैं.

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खुद एक आदिवासी और बकरवाल होने के नाते, हुसैन जम्मू और आसपास के इलाकों में वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन के लिए अपने अभियान के रूप में पिछले साढ़े चार महीनों से नंगे पैर चल रहे हैं.” यदि अधिनियम का कार्यान्वयन अपने वर्तमान रूप में संभव नहीं है तो हम एक समान अधिनियम की मांग करते हैं.” यहां राज्य विधानसभा नए कानून बनाने के लिए जिम्मेदार है.

वे कहते हैं कि, “जिस तरह एफआरए 2006 आदिवासियों और खानाबदोश समुदायों को उनके जीवित रहने के लिए कुछ आवश्यक, बहुत ही बुनियादी अधिकार प्रदान करता है, हमारे पास जम्मू में ऐसा कुछ नहीं है.हम खानाबदोश समुदायों के लिए सबसे महत्वपूर्ण, हमारे पशुओं को चराने का अधिकार है. लोग हमारी मांग को गलत समझते हैं और हम पर शक करते हैं कि हम ज़मीनों पर कब्ज़ा करना चाहते हैं. लेकिन यह सच नहीं है. हम अपने मवेशियों पर निर्भर हैं और हम वन भूमि पर कुछ अधिकार चाहते हैं ताकि उन्हें चराया जा सके.”

पारंपरिक रूप से, गुज्जर दूध के व्यवसाय के लिए ज़िम्मेदार थे, जबकि बकरवाल ने मवेशियों का ख्याल रखते थे. “मार्च के महीना आते ही, हमारी जनजाति के कई लोग कश्मीर की तरफ बढ़ने लगते हैं और कश्मीरियों के बागों में रहते हैं और जीवित रहने के लिए वहां भीख  मांगते हैं. इसे बदलने की जरूरत है,” वे समुदाय की दुर्दशा को उजागर करते हुए कहते हैं. मुसलमान गुज्जर-बकरवाल, जो कि 11 प्रतिशत आबादी का हिस्सा हैं, इन क्षेत्रों में बहुत दुर्बल हैं. हाल ही में, उन्हें हिंदू वर्चस्व वाले क्षेत्रों जैसे जम्मू, कथुआ और अन्य से दूर रखने के उद्देश्य से समुदाय पर व्यवस्थित हमलों की संख्या में वृद्धि हुई है.

विस्थापन के खिलाफ सरकारी आदेश

कठुआ की घटना के तुरंत बाद, फरवरी 2018 में, मेहबूबा मुफ्ती ने आदेश दिया कि गुजर-बकरवाल समुदाय के किसी भी सदस्य को तब तक विस्थापित नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि राज्य एक जनजातीय नीति सुनिश्चित न कर ले. आदेश ने बेदखल करने की शर्तों को निर्धारित करते हुए कहा, “यदि वन से इस समुदाय के सदस्यों को बेदखल करना ‘बेहद जरूरी’ होगा, तो इसे राज्य के जनजातीय मामलों के विभाग से परामर्श करने के बाद ही किया जाना चाहिए.”

इस आदेश पर “राज्य की स्वीकृति” से “इस्लाम को बढ़ावा” देने का इलज़ाम लगा और इसके विषय में या तो भारत की सरकार को कोई खबर नहीं थी या वो भी इनके साथ शामिल थे. इस अद्देश की घोषणा करने वाले वकील अंकुर शर्मा के तर्क की यह एक विचित्र सीमा थी.

हालांकि, आदेश में केवल अस्थायी अव्यवस्था को रोकने की शक्ति थी, जब तक कि सरकार इस बारे में नहीं सोच न ले कि उन्हें कहां स्थानांतरित करना है  और उन्होंने आदिवासियों को अपनी मर्ज़ी से रहने की इजाजत नहीं दी.

जनजातियों के अधिकारों के संघर्ष में सक्रिय कार्यकर्ताओं का मानना ​​है कि “राज्य के भूमिहीन जनजातीय समुदाय के अधिकारों को सुरक्षित करने का एकमात्र तरीका जम्मू-कश्मीर में वन अधिकार अधिनियम, 2006 को लागू करना है.

विस्थापन की राजनीति

जानबूझकर एयर योजनाबद्ध प्रयासों द्वारा खानाबदोश समुदाय से जम्मू को छुडवाने की कोशिश मार्च 2015 में भाजपा और पीडीपी के बीच गठबंधन के बाद जल्द ही शुरू हो गयी थी. जम्मू शहर के मुस्लिम-वर्चस्व वाले इलाकों में कई लोग निकाले गए थे. 2016 में एक युवा गुज्जर आदमी को गोली मार दी गई थी जब सांबा जिले के सरोर में गुज्जर आबादी के निवासियों को हिंदू लोगों को उनके ही घरों से बाहर निकालने का प्रयास किया था.

दिलचस्प बात यह है कि, अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए, भाजपा भी इस मामले में अनुच्छेद 370 का चयन करती है, अन्यथा, यह निरस्त करने पर उत्सुक है. अनुच्छेद 370 के कारण, भारत में लागू कानून केवल जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू किए जा सकते हैं यदि उन्हें राज्य विधानसभा द्वारा अनुमोदित किया जाता है. इसलिए बीजेपी इस पहलू का उपयोग करने की कोशिश कर रही थी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि एफआरए 2006 को लागू करने के प्रयास सफल नहीं हों.

हाल ही में, कथुआ मामले में अभियुक्तों के समर्थन में आयोजित रैली में शामिल हुए दो भाजपा मंत्रियों में से एक लालसिंह ने पहले 1947 में एक गुर्जर प्रतिनिधिमंडल को धमकी दी थी, जिसमें जम्मू में मुस्लिमों के नरसंहार का उल्लेख किया था.

इन सभी तथ्यों के बारे में एक ठोस आधार है कि भाजपा इस समुदाय को जम्मू से बाहर कैसे निकालना चाहती है और यह मकसद पूरा करने के लिए किस हद तक जाने के लिए तैयार है.

तालिब और जावेद राही समेत राज्य के आदिवासी कार्यकर्ताओं का मानना ​​है कि अनुच्छेद 370 और राज्य की विशेष स्थिति के प्रतिबंध जम्मू, कथुआ, सांबा और उधमपुर जैसे हिंदू वर्चस्व वाले जिलों से मुख्य रूप से खानाबदोश जनजातीय समुदायों को बेदखल करने के अपने “सांप्रदायिक एजेंडे” के लिए एक ढाल मात्र है.

तालिब हुसैन की यात्रा

“मैं पहले एक कार्यकर्ता था और फिर वकील बन गया,” वे अपनी जीवनयात्रा के बारे में बताते हैं. हुसैन जम्मू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान एक छात्र कार्यकर्ता थे. उन्होंने 2012 में गुज्जर बकरवाल छात्र कल्याण संघ की स्थापना की.

2013 में, विश्वविद्यालय में कानून की पढाई के दौरान हुसैन भूख हड़ताल पर बैठे. “हालांकि गोधरी और पहदी अनुसंधान केंद्रों को 2002 में विश्वविद्यालय परिषद द्वारा अनुमोदित किया गया था, फिर भी 2013 तक इन्हें सुविधा नहीं मिली थी.” दक्सिंपंथी झुकाव वाले समूहों द्वारा हमला किया गया था और जनजातीय छात्रों के अधिकारों के लिए प्रचार करने के लिए पांच अन्य लड़कियों के साथ रणबीर दंड संहिता (आरपीसी)  के तहत 307 (हत्या का प्रयास) सहित कई और धाराओं के तहत फंसाया गया था.

“मुझे महसूस हुआ की छात्रों की एक स्वतंत्र इकाई होनी चाहिए जो किसी भी राजनैतिक पार्टी का विस्तार न हो. इस तरह के विस्तार के साथ दिक्कत यह है कि उसे पार्टी के दिशानिर्देश और विचारधारा से जुड़कर ही रहना पड़ता है. उस समय कांग्रेस के प्रति झुकाव वाला एक छात्रों का दल था, और हम स्वायत्तता चाहते थे.” मगर स्वतंत्र छात्रों की इकाई की अवाश्यक्ता ही क्या है? उनका कहना हैं, ”हम दबाव बनाने के लिए दल बनाना चाहते थे. आप किसी राजनैतिक दल से जुडकर ऐसा नहीं कर सकते हैं.

हुसैन को 2013-2014 में कॉलेज से निकाल दिया गया और वे वापस जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायलय के आदेश के बाद ही आ सके. कानून की पढाई किहतं करने के बाद, हुसैन ने जीवन के सबसे मुश्किल दिनों का सामना किया. उनके माता पिता का देहांत दूरू में सितम्बर 2014 में आई बाढ़ में डूबकर हो गया. माता-पिता द्वारा तय की गयी शादी भी छह महीने के भीतर टूट गयी और वे अब अपनी पत्नी से अलग रहते हैं.

उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय में पांच महीने तक काम किया और वहां बार में शामिल हो गए. परंतुजब उन्होंने राज्य में आदिवासी और खानाबदोश महिलाओं के वृद्ध होने वाले दमन और उत्पीड़न के बारे में सुना तो वे वापस आने का मन बना लिया. वे कहते हैं, “मैं अपने लोगों के पास वापस आने पर मजबूर हप गया.” 2017 में जम्मू वापस आने के बाद, उन्होंने अखिल जनजातीय समन्वय समिति की स्थापना की और लोकतांत्रिक रूप से समिति के अध्यक्ष के रूप में चुने गए.

हर रोज अपने अस्तित्व के लिए जूझते बकरवाल बच्चे

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने 1975 में बकरवाल खानाबदोशों को वन में रहने और वन्य-सामाग्री का उपयोग करने के लिए अधिकार दिया था. बकरवाल ने अपने पड़ोसियों, जो ज़्यादातर राजपूत हैं, के साथ लगभग एक सहजीवी संबंध साझा करते हैं. राजपूत अक्सर बकरवाल उनके पलायन के दौरान गैरमौजूदगी में उनके पशुओं और सामानों का ख्याल रखते है.

इस तरह के रिश्ते के साथ, अर्थव्यवस्था में उनकी अभिन्न भूमिका और जम्मू और कश्मीर क्षेत्र की सामाजिक संरचना को ध्यान में रखते हुए, मोबाइल स्कूल जैसे कई प्रावधान बनाये गए. हालांकि, आज इनमें से कई स्कूल एक ही स्थान पर हैं. तालिब का मानना ​​है कि यह महत्वपूर्ण है कि वनों पर नामांकन और जनजातियों के अधिकारों के वैधीकरण के माध्यम से, इन बुनियादी अधिकारों जैसे शिक्षा के अधिकार और इसके कार्यान्वयन को भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए.

हालांकि, बीजेपी-पीडीपी का वर्तमान अवसरवादी गठबंधन उनके कल्याण में बहुत उत्सुक नहीं लगता है. वास्तव में, उसके विपरीत, लाल सिंह जैसे सरकार के वरिष्ठ और जिम्मेदार पदों पर आसीन मंत्रियों ने जम्मू और अन्य आसपास के क्षेत्रों के सामाजिक तानेबाने की परिधि में पहले से ही हाशिये पर पड़े समुदाय को पीछे धकेलने और नष्ट करने के लिए कदम उठाए हैं.

यही कारण है कि, जब कथुआ में घटना घटी, तो माता-पिता के अलावा कोई और सामने नहीं आया और उन्हें खुद उस छोटी बच्ची की तस्वीरों को विरोध के प्रतीक के रूप में प्रसारित करना पड़ा. ताकि, “हर किसी को इस निर्दयी कार्य के बारे में पता चल सके”, उसके पिता ने कहा.

अब यह देखना है कि, इस समुदाय की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार, यदि कोई कदम उठाती भी है तो, वे क्या होंगे.

 

अनुवाद सौजन्य सदफ़ जाफ़र

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